कृष्ण काव्यधारा और विशेषताएं
कृष्ण काव्यधारा और विशेषताएं
कृष्ण काव्य के प्रतिनिधि कवि सूरदास हैं। इनके अतिरिक्त नन्ददास, परमानन्ददास आदि अष्टछाप के कवियों, हितहरिवंश, मीरा तथा रसखान का नाम इस साहित्य में आदरपूर्वक लिया जाता है। कृष्णभक्त कवियों ने गीतिकाव्य की रचना की है। कृष्ण के लोकरंजन रूप को लेकर सख्य सख्य एवं माधुर्यभाव से भक्ति की है। सूर का सूरसागर गीतिकाव्य का श्रेष्ठ उदाहरण है। इनके वात्यल्य भाव और श्रंगार रस का चित्रण अपूर्व भक्ति-भावना, समन्वयवाद, लोक-मंगल की भावना, भाव, भाषा और शैली सभी दृष्टियों से उत्कृष्ट है। सूरसागर सूर की सर्वसम्मत प्रामाणिक रचना है। हरि लीला इसका वर्ण्य विषय है। दैन्य, वात्यल्य संख्य, श्रंगार तथा शांत भाव व्यंजक इन पदों से सूर की मौलिकता दिखायी देती हैं सूर के सागर में प्रेम की उत्ताल तरंगे, सदैव तंरगायित होती रहती है। ऐसे युग जीवन में स्नेह स्रोत सूख गया था। सूर ने उसके कण-कण में प्रेम को प्रतिष्ठित कर दिया। प्रेम की यह विजय सूर की अपनी विजय है। योग सर्वसुलभ नहीं है, ज्ञान का पार नहीं है, वेद सुनना सबके लिए वैध नहीं है। ऐसे में प्रेम या भक्ति ही सर्वसुलभ है। प्रेमियों की भक्तों की कोई जाति नहीं है। प्रेम में कही गोपनीयता भी नहीं है। यह परमार्थ का मार्ग प्रशस्त करता है
"प्रेम प्रेम ते होइ, प्रेम ते पारहिं जइये ।
प्रेम बध्यों संसार, प्रेम परमारथ पइये |
साँचों निचे प्रेम को, जीवन मुक्ति रसाल।।
एकै निहचै प्रेम कौ, जाते मिलै गोपाल ।।"
कृष्ण काव्य धारा की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार प्रकट की जा सकती हैं
1. भक्ति के बहुआयामी स्वरूप का चित्रणः
कृष्ण काव्यधारा के रचनाकारों की भक्ति रागानुगा कोटि की है। भक्ति इन रचनाकारों के लिए साध्य है, साधन नहीं इस भक्ति में सख्य एवं कान्ताभाव की प्रधानता है। दास्य और वात्सल्य भक्ति के साथ नवधाभक्ति को भी इसमें महत्त्व मिला है। निम्बार्क सम्प्रदाय में स्वकीया भाव पर और चैतन्य तथा बल्लभ सम्प्रदाय में परकीया भाव की भक्ति का विशेष महत्त्व रहा है। प्रेमाभक्ति का समाहार भी आगे चलकर माधुर्य भक्ति में हो जाता है।
"हमारे हरि हारिल की लकरी ।
मनक्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दढ़ करि पकरी ।। "
2. गुरु महिमा और नाम स्मरण की महत्ता पर बलः
कृष्ण काव्यधारा के रचनाकारों ने संत, सूफी और रामकाव्य के सजनकर्त्ताओं के समान ही गुरू की महिमा का गान किया है। वे भव सागर में डूबते हुए शिष्यों को ज्ञान से आलोकित कर बचाने का उपक्रम करते हैं। गुरू ही उपास्य के प्रति शिष्यों में प्रेम उपजाता है। ज्ञान का आलोक फैलाता है, भक्ति के मार्ग पर चलने का आहवान करता है और प्रभु दर्शन कराने में अहम भूमिका निभाता है यह सभी गुरू कृपा पर ही निर्भर होता है सूरदास ने लिखा है।
"गुरू बिनु ऐसी कौन करे?
माता-तिलक मनोहर बाना, लै सिर छत्र धरै ।
भवसागर तै बूड़त राखे, दीपक हाथ धरै ।
सूर स्याम गुरू ऐसो समरथ छिन मैं ले उधरै । "
3 समकालीन सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन की अभिव्यक्तिः
भक्तिकालीन युग के कृष्ण काव्यों में समकालीन सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को यथार्थ रूप में सम्प्रेषित किया गया है। आज का समाज जितना विकसित और समद्ध है उतना उस समय का समाज विकसित नहीं था । उस काल के सामाजिक और सांस्कृतिक कर्मों से पता चलता है कि उस काल में चारगाही संस्कृति का ही बोलबाला था। गोचारण कर्म ही उस समय का प्रधान पेशा था। पर्व और उत्सव में सामूहिक सहभागिता की अपनी अलग पहचान थी बच्चों का जन्म हो या कर्म, उसमें सभी भागीदारी निभाते थे श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव का एक उदाहरण दष्टव्य है-
"हौं इक नई बात सुनि आई ।
महरि जसोदा ढोटा जायौ, घर-घर होति बधाई
द्वारैं भीर गोप-गोपिनी की महिमा बरनि न जाई।
अति आनन्द होत गोकुल में रतन भूमि सब छाई ।
नाचत वद्ध, तरून अरू बाल, गोरस-कीच मचाई।
सूरदास स्वामी सुख सागर, सुंदर स्याम कन्हाई ।। "
4 विरहानुभूति की धार्मिक अभिव्यंजना
कृष्ण काव्य धारा के रचनाकारों ने वियोग भंगार के अन्तर्गत विरह की विभिन्न भूमियों को राजीव रूप से चित्रित किया है। विरह की जितनी भी अन्तर्दशाएँ सम्भव है, वे सभी इस काव्य में मिल जाती है। इन कवियों का विरह वर्णन संवेदनाजन्य है। परिस्थितियाँ इसमें आड़े हाथ नहीं आती। विरह का एक-एक पल विरहिणी के लिए कल्प के समान अहसास होता है। सूरदास ने इस विरहानुभूति को विभिन्न अन्तर्दशाओं के रूप में प्रस्तुत किया है, जो बड़ा ही हृदय विदारक है
"निरखति अंक स्याम सुंदर के बार-बार लावन्ति छाती ।
लोचन जल कागद मसि मिलिकै, है गई स्याम स्याम की ।। "
5. राधाकृष्ण और गोपियों के मिलन का सजीव चित्रणः
कृष्ण काव्यधारा के कवियों ने राधाकृष्ण और गोपियों के मिलन को एक विस्तत फलक पर आयोजित किया है। यह विस्तत फलक ब्रज और वन्दावन का वह क्षेत्र है जिसमें इन सभी की प्रेमक्रीड़ाएँ संचालित होती है। खेलते हुए कृष्ण कभी ब्रज की संकरी गली में और कभी यमुना के तट पर निकलते हैं जहाँ पर उनकी भेंट राधा और उसकी सखियों से हो जाती है। राधा गौरवर्णी थी और कृष्ण श्यामवर्ण राधा की सुंदरता को देखते ही वे मुग्ध हो गये । यथाः
"खेलन हरि निकसे ब्रज खोरी।
कटि कछनी पीतांबर बाँधे हाथ लिये भौंरा, चक डोरी।।