कबीरदास का 'व्यक्तित्व स्वभाव व चारित्रिक विशेषताएँ |कबीर की भाषा | Kabir Das Ka Vyaktitatv Bahsha

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कबीरदास का 'व्यक्तित्व स्वभाव व चारित्रिक विशेषताएँ कबीर की भाषा

कबीरदास का 'व्यक्तित्व स्वभाव व चारित्रिक विशेषताएँ

कबीरदास का 'व्यक्तित्व स्वभाव व चारित्रिक विशेषताएँ

'व्यक्तित्व' शब्द से तात्पर्य व्यक्ति के आतंरिक व बाह्य स्वरूप की परिगणना से है। जिस प्रकार व्यक्ति का स्वरूप होगा उसी प्रकार वह अपने कार्यों या अपने स्वभाव को ढालता है। यह बात कबीरदास जी के लिए भी उचित है जिस प्रकार का चित्र या वर्णन मिलता है, वह कुछ ऐसा है-

 

"कबीर साहब एक मंझले कद के व्यक्ति जान पड़ते हैं। इनकी मुखाकृति बहुत लम्बी नहीं है और इनके पायजामें आदि की बनावट से सूचित होता है कि ये कदाचित पछहिं के रहने वाले हैं, किन्तु प्रायः इस प्रकार के एक अन्य चित्र से जिसमें ... प्रतीत होता है कि इनका शरीर लम्बा था, इनका चेहरा काफी लम्बा था और इनके पहनावे में धोती आदि को देखने से समझ पड़ता है कि ये किसी पूर्वी प्रांत के निवासी रहे होंगे।" -कबीर चौड़ा के चित्र

 

कबीरदास के कई अन्य चित्र भी मिलते हैं, जैसे कई चित्रों में तो उन्हें सूफियों की तरह रंग-बिरंगे कपड़ों से सिया हुआ चोगा पहना हुआ दिखाया गया है। जिसमें उन्होंने तिलक व तुलसी माला नहीं पहनी अपितु सिर पर उन्हीं की तरह नुकीली टोपी पहनी हुई दर्शायी गई है। कई चित्रों में उन्हें करघे पर काम करता हुआ दिखाया है। एक चित्र में उन्होंने सिर्फ धोती व सिर पर मोटे कपड़े की टोपी धारण की है। वैसे कबीर साहब क्या पहनते ओढ़ते थे, इसका विवरण नहीं मिलता। डॉ. सरनाम सिंह शर्मा के अनुसार उनके रहन-सहन के बारे में प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। हाँ, कुछ चित्र जिनके प्रामाणिक होने में संदेह हैं, ही मिलते हैं। कबीर के अन्तः साक्ष्य के रूप में हम कुछ उक्तियाँ देख सकते हैं। उनमें से यह पद है जो कबीरवाणी से उद्धृत है

 

"कारनि कौन संवारे देहा, यह तन जारि वरिहुवे हैं बेहा 

चोवा चन्दन चनचत अंगा, सो तन जरत काठ के संगा। 

बहुत जतन करि देह मुच्याई, अगिनि देहे के जबुक खाई। 

जा सिरि रचि रचि बांधन पाया, ता सिरि चंच संवारत कागा । 

कहि कबीर तन झूठा भाई, केवल राम रह्यों ल्यौ लाई । "

 

यह पद वैराग्य भावना के बारे में बताता है। इससे कबीर के मूलभूत स्वभाव पर प्रकाश पड़ रहा है। एक और पद में उन्होंने अपने केशों के बारे में बात की है

 

"हमारे कौन सहे सिरि भारा 

सिर की शोभा सिरजन हारा 

टेढ़ी पाग बड़ जूरा, जारि भए भस्म की कूरा, 

कहे कबीर राम राया, हरि के रंग मूंड मुड़ाया।

 

  इससे ऐसा लगता है कि कबीर सिर पर कोई भार पसंद नहीं करते थे। सिर की शोभा वे ईश्वर को मानते थे; टेढ़ी पगड़ी या केश रखना भी उन्हें पसन्द नहीं था। इस पद से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वे सिर मुंड़ाये रहते थे।

 

इन सभी अनुमानों में कबीर का जुलाहा रूप अधिक वास्तविक लगता है।

 

कबीरदास स्वभाव व चारित्रिक विशेषताएँ 

  कबीरदास की वाणी तो योग और भक्ति का मेल है। योगी टूट जाता था किन्तु झुकता नहीं था, दूसरा यानी भक्त झुक जाता था परन्तु टूटता नहीं था। भक्त सामाजिक जाति-भेद ऊँच-नीच की भावना इत्यादि को स्वीकार लेता था व स्वयं को संसार में एक भटका हुआ प्राणी समझकर पश्चाताप का उपाय खोजता था किन्तु ठीक विपरीत हठयोगी सामाजिक कुरीतियों को अपनी वाणी द्वारा फटकारता था व स्वयं को अन्य मनुष्यों में सबसे उच्च श्रेणी का समझता था। योगी प्रेम को दुर्बल मानता था व भक्त ज्ञानमार्ग को भक्ति मार्ग से भिन्न समझता था । साधारण गृहस्थ के मन में शंका बैठ गई कि योग बिना मुक्ति असंभव है और माया एक पिशाचिनी है जिससे छुटकारा पाना असम्भव है। भक्तिमार्ग की बात सुनकर साधारण जन निश्चिन्त हो गया कि यदि एक बार भी ईश्वर का नाम जिह्वा से ले लें तो यह भवसागर पार हो जाएगा। अर्थात् एक (योग) ने उसे उतना ही सरल कह दिया।

 

कबीर के स्वभाव में स्पष्टतः योगियों-सी सुदृढ़ता व भक्तों सी करुणा देखी जा सकती है।

 "कबीरदास ने यह अक्खड़ता योगियों से विरासत में पायी थी। संसार में भटकते हुए जीवों को देखकर करुणा के अश्रु से वे कातर नहीं हो जाते थे बल्कि और भी कठोर होकर फटकार लगाते थे। वे प्रह्लाद की भाँति सर्व जगत के पाप को अपने ऊपर ले लेने की वांछा से विचलित नहीं हो पड़ते थे बल्कि और भी कठोर और भी शुष्क होकर सुरत और निरत का उपदेश देते थे। "

 कबीरआचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी

'ज्ञान का गेंद कर सुर्त का डंड कर 

खेल चौगान मैदान मांही। 

जगत का भरमना छोड़ दे बाल के 

आय जा भेष-भगवत पाहीं ।" 

-शब्द, पृ. 50

 

  अक्खड़ता के गुण का प्रयोग वे तब करते हैं जब उन्हें किसी आडम्बरी मनुष्य सामाजिक कुरीतियों या योगियों पर चोट करनी होती है, जैसे यदि वे योगी को फटकारना चाह रहे हैं तो उसी की भाषा में उससे बात कहेंगे 

"इंगला बिनसे पिंगला बिनसै बिनसै सुषमनि नाड़ी। 

जब उनमनि तारी टूटे, तब कह रही तुम्हारी ॥"

 

  कबीरदास तो स्वभाव के फक्कड़ भी हैं-मोह-ममता से कहीं ऊँचे । कोई सिद्धान्त यदि उनकी कसौटी पर खरा उतरता है तो वह है-सत्य का, जिसे वे बिना संकोच या दुराव-छिपाव के अपनाए रहे। अन्याय का विरोध स्वर के बिना संकोच या दुराव-छिपाव के अपनाए रहे। अन्याय का विरोध स्वर वह बिना किसी लाग-लपेट के उठाते थे, उन्हें किसी का भय नहीं था। हिन्दू हो या मुसलमान, राजा हो या कोई बड़ा अधिकारी, योगी हो या अवधूत, द्वैत या अद्वैत के अनुयायी, यदि किन्हीं में भी कुछ गलत देखते तो बोल देते थे। कबीर का साथी भी वही हो सकता था जो ऐसा हो। वे तो कहते थे कि मेरे साथ वही चल सकता है जो अपनी मोहमाया-ममता को त्याग कर चले। उनकी स्वयं की उक्ति है

 

'हम घर जारा आपना लिया मुराड़ा हाथ। 

अब घर जारों तासुका, जो चले हमारे साथ।' 

-स. क. सा. 518

 

सबके लिए उनके मन में प्रेम भावना थी बिना किसी बैर या स्वार्थ भावना के। उन्होंने कहा है-

 

'कबिरा खड़ा बजार में, सबकी माँगे खैर। 

ना काऊ से दोस्ती, ना काऊ से बैर ।'

 

  मोहमाया न रखने व स्वार्थ भावना न होने के कारण संत कबीर सिर से पैर तक मस्तमौला थे। उन्हें अपने लिए इस दुनिया से कुछ लाभ न लेना था, जो करना था बेधड़क कर गुजरते थे। उन्हें अपने पुराने कृत्यों का कोई दुख नहीं था, न ही वर्तमान में अपने द्वारा किए गए काम को वे पूर्ण समझते थे वे सचमुच मस्त व्यक्ति थे। कबीर तो क्रान्तिदृष्टा थे जिन्हें जीवन में किए कराए कर्मों का लेखा-जोखा नहीं रखना था। वे तो प्रेम दिवाने थे जिन्हें अपने प्रिय का पलभर भी वियोग नहीं सहन करना पड़ता था, जिनका प्रिय सदा उनके साथ था-

 

हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या । 

रहे आजाद या जग से हमन दुनिया से यारी क्या ।। 

जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-बदर फिरते ।

हमारा यार है हम में हमन को इन्तजारी क्या । 

- शब्द, पृ. 16-17

 

'... इसीलिए ये फक्कड़ राम किसी के धोखे में आने वाले न थे। दिल जम गया तो ठीक है और न जमा तो राम-राम करके आगे चल दिये।" 

-कबीर द्विवेदी, पृ. 158

 

कबीर का प्रेममार्ग में अखण्ड विश्वास था जो अंत तक न टूटा। वे तो इस मार्ग के वीर साधक थे।

 कबीर निज घर प्रेम का, मारग अगम अगाध । 

सीस उतारि पगतलि धेरै, तब निकट प्रेम का स्वाद ॥ 


इसके लिए उनके मन में कोई संशय या दुविधा नहीं थी उनका प्रेम सिर्फ बातों का ही नहीं था अपितु वे तो इस पर चले थे।

 

भगति दुहेली राम की, नहिं कायर का काम

सीस, उतारै हाथि, करि, सो लेसी हरि नाम ।। 

-क. ग्रं., पृ. 77

 

उनके प्रेम में मादकता नहीं है पर मस्ती है, कर्कशता नहीं है पर कठोरता है। असंयम नहीं है पर मौज है, उच्छृंखलता नहीं है पर स्वाधीनता है, अंधानुकरण नहीं है पर विश्वास है। कबीर के प्रेम में घोर आत्मसमर्पण है।

 

.. कबीर की घर फूंक मस्ती, फक्कड़ाना लापरवाही और निर्मम अखण्डता उनके अखण्ड - आत्मविश्वास का परिणाम थी। उन्होंने कभी अपने ज्ञान को गुरु को और अपनी साधना को सन्देह की नजरों से नहीं देखा । " 

-कबीर द्विवेदी, : पू. 160

 

कबीर की भाषा - 

जिसमें कबीर स्वयं को व्यक्त करते हैं वह भी उनके स्वभावानुसार है अर्थात् झंकृत कर देने वाली जितनी सीधी-सादी उतनी ही तेज भी है। द्विवेदी जी कहते हैं कि इनकी भाषा साफ चोट करने वाली है इतना सहज होकर दूसरे पर चोट कर देते हैं जिससे इन्हें हम 'व्यंग्यों की जान' कह सकते हैं।

 

"... भक्त के सामने निरीह, भेषधारी के आगे प्रचण्ड; दिल के साफ, दिमाग के दुरुस्त भीतर से कोमलबाहर से कठोर, जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वन्दनीय।" ऐसा था कबीरदास का व्यक्तित्व । 

कबीर हजारीप्रसाद द्विवेदी पू. 167 :

 

कबीरदास की रचनाएँ  कृतित्व - 

कबीरदास के नाम से वैसे तो कई रचनाएँ मिलती हैं। किन्तु ये प्रामाणिक सिद्ध नहीं हुई। कबीरपंथियों ने तो उनकी वाणी का कोई अन्त नहीं माना, सम्भवतः श्रद्धा की प्रमुखता के कारण उनके हाथ की लिखी कोई पुस्तक नहीं है, क्यों? ऐसा माना जाता है कि वे निरक्षर थे। उनकी रचनाएँ जो मानी जाती हैं उनमें भाषा-शैली में एकरूपता नहीं है। कबीर के नाम से उपलब्ध रचनाओं को कबीरदास की मानना एक प्रचलन-सा हो गया है। शायद इसीलिए विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई पुस्तक सूचियाँ काफी लम्बी हैं। 

जैसा कि कबीर ने स्वयं एक साखी में कहा है-

 

'मसि कागद छुयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ

चारिउ जुगको महातम, मुखहिं जनाई बात ।।'

 

इससे ज्ञात होता है कि कबीर मौखिक प्रवचनों में अधिक विश्वास रखते थे। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के अनुमानानुसार - " वे अपनी रचनाएँ सत्संगों अथवा प्रवचनों के अवसरों पर आवश्यकतानुसार करते जाते होंगे और उन्हें श्रोताओं में से कई लोग लिख भी लेते होंगे ऐसी रचनाओं का कभी अस्पष्ट सुन पड़ने के कारण, कभी लेखक के अल्प ज्ञान के कारण अथवा अन्य भी कारणों से विकृत हो जाना भी असम्भव नहीं है। "

 

कबीर वाणी लोकप्रिय हो गई थी शायद इसीलिए भी श्रोताओं ने अपने कथन भी उसमें जोड़ दिये हैं। कई रचनाएँ जो कबीर की कही जाती हैं जैसे, अनुराग सागर, अलिफनामा, कबीर अष्टक, कबीर गोरख गोष्ठी, कबीर की साखी, कबीर की बानी, साधो का अंग इत्यादि ।

 

किन्तु इनमें से बहुत अप्रामाणिक इतिहाससम्मत भी नहीं हैं। कुछ विद्वानों ने उनके ग्रंथों के बारे में चर्चा की है जैसे- डॉ. रामकुमार वर्मा, रामदास गौड़, डॉ. बड़थ्वाल, आचार्य परशुराम चतुर्वेदी, हरिऔध इत्यादि । यदि प्रामाणिक रचनाएँ देखें तो तीन ही है कबीर ग्रंथावली बीजक आदि ग्रंथ कबीरदास की वाणी तो योग और भक्ति का मेल है।

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