पालि भाषा और साहित्य , पालि शब्द की व्युत्पति
पालि शब्द की व्युत्पति-
➽ पालि शब्द की व्युत्पति के संबंध में निश्चयात्मक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। यूरोपीय विद्वानों ने इनकी व्युत्पत्ति- 'प्रली' शब्द से मानी है। उनके अनुसार प्रली का शाब्दिक अर्थ है- " पुस्तक के पृष्ठों की पंक्ति।" कालान्तर में इसका अर्थ बदला और इससे पुस्तक की शिक्षाओं का बोध होने लगा। तत्पश्चात् पालि शब्द एक भाषा के रूप में प्रयुक्त होने लगा। इस धारणा का प्रमाण भी समुपलब्ध है क्योंकि बौद्ध विद्वान् बुद्ध घोष ने पालि शब्द से बार-बार त्रिपिटक तथा उसकी शिक्षाओं की ओर संकेत किया है। उन्होंने त्रिपिटक बुद्ध वचन के सामान्य अर्थ में (पालि-परिया मूलपाठ - बुद्ध वचन) शब्द का प्रयोग किया है। अशोक के शिलालेखों में यही परियाय पालियाय पालिषाय और उसेक बाद उसका संबंध लघु रूप पालि प्रचलित हो गया । एक अन्य बौद्ध विद्वान कौसाम्बी महोदय ने इसका संबंध संस्कृत के 'पाल' शब्द से जोड़ा है। उनके अनुसार पहले इसका अर्थ इस रूप में लिया गया- " वह पुस्तक या साहित्य जिसमें बुद्ध की शिक्षायें सुरक्षित रखी गयीं।" कई विद्वान पालि शब्द का संबंध 'प्रकट' शब्द से जोड़ते हैं जो पलअ- अयाल-पाल बनता हुआ अंतिम रूप में पालि बना। प्रकट शब्द का अर्थ है - जनसामान्य की स्पष्ट भाषा । उपर्युक्त विचारों से स्पष्ट है कि पालि शब्द का प्रयोग मूलतः किसी भाषा के लिए न होकर बुद्ध वचन या त्रिपिटक के मूल पाठ के लिए हुआ तथा कालान्तर में यह शब्द एक भाषा विशेष के अर्थ में रूढ़ हो गया। महात्मा बुद्ध ने जन-कल्याण के लिए अपने उपदेशों और शिक्षाओं के लिए जनसामान्य की जिस भाषा को प्रयोग में लिया वह बाद में पालि कहलाई ।।
पालिक का काल और उसका प्रसार क्षेत्र -
वैदिक भाषा के साथ-साथ एक ऐसी विभाषा थी जो कि पालि भाषा का मूलाधार है। पालि को वैदिक भाषा का सीधा विकास नहीं माना जा सकता है क्योंकि वैदिक भाषा और पालि भाषा की ध्वनियों और रूप विधान में महान अंतर है। अनुमानत: पालि भाषा बोलचाल की उस भाषा से विकसित हुई जो वैदिक काल की विभाषाओं के साथ-साथ किसी प्रदेश में प्रचलित थी। पालि का मूल क्षेत्र कहाँ था और इसकी मूलभाषा कौन-सी थी, विषय में भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों में मतैक्य नहीं है। बौद्ध धर्माश्रयी भारतीय विद्वानों के अनुसार मागधी भाषा ही पालि का मूलाधार है किंतु यह मत समीचीन प्रतीत नहीं होता । इन दोनों के तुलनात्मक वैयाकरणिक अध्ययन इस से यह स्पष्ट है कि इनमें साम्य की अपेक्षा वैषम्य अधिक है। विडिश, गाइगर और रिस्डेविड्स आदि पाश्चात्य विद्वानों ने भी इसे मागधी का एक रूप माना है। वेस्टगार्ड, ई. कुह और आर. ओ. फ्रैंक ने अशोक के गिरिनार (गुजरात) के शिलालेख के सादृश्य के आधार पर पालि को उज्जयिनी की विभाषा कहा है। ओल्डेन वर्ग ने खंडगिरि के शिलालेख के भाषागत साम्य के आधार पर पालि को कलिंग देश को भाषा कहा है। ल्युडर्स ने इसका मूलाधार अर्द्ध-मागधी प्राकृत को माना है। उनका कहना है कि बुद्ध के उपदेश अनेक वर्षों के उपरान्त 485 ई. पूर्व राजगृह में प्रथम बुद्ध महासम्मेलन के अवसर पर एकत्रित किये गए थे।
➽ डॉ. एस. के. चार्टुज्या के अनुसार, “पालि का मूलाधार मागधी न होकर मध्यदेशीय प्राकृत है, उसका शौरसेनी से प्रचार साम्य है तथा वह शौरसेनी का वह रूप है जिसमें पश्चिमोत्तर प्राकृत तथा अन्य आर्यविभाषाओं के कई विचित्र प्रयोग घुलमिल गए हैं। " पालि का समूचा साहित्य एक सी भाषा-शैली में प्रणीत नहीं हुआ। उसमें क्रमश: विकास की चार अवस्थाओं का पता चलता है- (क) पालि के गाथा साहित्य में उसका प्राचीनतम रूप है। गाथाओं के साथ संलग्न गद्य बाद का है। (ख) पालि के सैद्धान्तिक गद्य भाग की भाषा गाथा भाग की भाषा से किंचित भिन्न और परवर्ती है। (ग) पालि साहित्य की टीकाओं में भाषा का रूप एक अन्य प्रकार से विकास का द्योतक है। (घ) अट्ठ कथाओं (टीकाओं) के परवर्ती पालि काव्यों में कृत्रिम साहित्यिक शैली के दर्शन होते हैं, जिस पर संस्कृत के अलंकृति मार्ग और कृत्रिम साहित्यिक शैली का स्पष्ट प्रभाव है। अस्तु, पालि भाषा मध्यकालीन आर्य भाषाओं- प्राकृतों ( 600 ई. पू. से 600 ई. तक) के सम्मिश्रण का परिणाम है। जिस प्रकार जैन आगमों की भाषा अर्द्धमागधी को 'आर्यभाषा' के नाम से अभिहित कर दिया गया, उसी प्रकार बौद्ध त्रिपिटक की भाषा को पालि नाम दिया गया।
पालि साहित्य
➽ मोटे तौर पर पालि साहित्य को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- (क) त्रिपिटक ( तिपिटक), (ख) अनुपिटक त्रिपिटक बौद्ध धर्म का सिद्धांतपरक साहित्य है जबकि अनुपिटक सिद्धांतेतर साहित्य है। इसे अनुपालि साहित्य भी कहा जाता है। त्रिपिटक के अंतर्गत मुख्य रूप से सुतपिटक, विनयपिटक और अभिधम्मपिटक आते हैं। सुत्तपिटक और विनयपिटक में बुद्ध के उपदेशों और शिक्षाओं का संग्रह राजगृह में बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् 485 ई. पू. में आयोजित प्रथम संगीति सामन्ति के अवसर पर किया गया। दूसरी संगीति इसके लगभग एक सौ साल के बाद वैशाली में हुई। तीसरी संगीति देवानांप्रिय अशोक के काल में पाटलिपुत्र में हुई। इसमें बौद्ध भि तिस्मग्गलिपुत्र की मंत्रणा से बौद्ध वचनों की आवृत्ति दी गई और तीनों पिटकों का संग्रह कार्य संपन्न हुआ।
➽ सुत्तपिटक बौद्ध धर्म के सिद्धांतों और साहित्यिक दृष्टि से पर्याप्त महत्त्वपूर्ण है। इसमें पाँच निकायों-दीर्घ निकाय, मज्झिमनिकाय, संयुक्त निकाय, अंगुत्तर निकाय और खुद्दक निकाय का समावेश है। इन निकाय ग्रन्थों में बुद्ध के उपदेशों और उनके प्रारंभिक शिष्यों का वर्णन है। इनमें बुद्ध धर्म की शिक्षाएँ सूत्रों और संवादों के रूप में दी गई हैं। दीर्घ निकाय में बड़े-बड़े सूत्रों का संग्रह है जबकि मज्झिम में मध्यम मान के सूत्र हैं। संयुक्त में छोटे-बड़े दोनों प्रकार के सूत्र हैं। इसी में मार आदि देवता से संबद्ध अनेक सूत्र हैं। खुद्दक निकाय में 15 खुद्दक ग्रन्थों का संग्रह है, जिनमें धम्मपद, थेरगाथा, थेरीगाथा तथा जातक नाम के ग्रन्थों का साहित्यिक दृष्टि से भी पर्याप्त महत्त्व है। हिन्दू धर्म में श्रीमद्भगवदगीता के समान बौद्ध साहित्य में धम्मपद का दार्शनिक और धार्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान है। थेरगाथा और थेरीगाथा में भिक्षु और भिक्षुणियों के प्रशंसात्मक कृत्यों का छन्दोबद्ध उल्लेख है। इनका रचनाकाल 500 के लगभग माना जाता है। इन कविताओं के अतिरिक्त दी गई अन्य कथाओं को प्रायः विद्वानों ने अप्रामाणिक माना है। थेर गाथाओं में जहाँ अंतर्जगत की अनुभूतियों का प्राधान्य है वहाँ थेरी गाथाओं में भिक्षुणियों की वैयक्तिक तरलता का प्राबल्य है। जातक में महात्मा बुद्ध के पूर्वजन्मों की अनेक कथाओं का संग्रह पौराणिक शैली में किया गया है। इन कथाओं में गौतम बुद्ध, नायक प्रतिनायक तथा दर्शन आदि की अनेक भूमिकाओं में प्रस्तुत किये गए हैं। जातकों की संख्या 550 के लगभग कही गई है। इनमें सामान्यतः बौद्ध धर्म के
➽ दार्शनिक सिद्धांतों का उल्लेख नहीं किया गया है बल्कि सभी जातकों में विशद प्रेम-कथाओं, रीति, नीति और भक्ति आदि का वर्णन है। भारतीय साहित्य में इन जातक कथाओं का ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक सभी दृष्टियों में अतीव महत्त्व है। इनसे महात्मा बुद्ध के समकालीन भारत की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक दशाओं की स्पष्ट झांकी मिलती है। इसके अतिरिक्त इनसे तत्कालीन भारत की मूर्तिकला, चित्रकला तथा स्थापत्यकला के समझने में भी पर्याप्त सहायता मिलती है। जातकों के अतिरिक्त अवदान ग्रंथों में बौद्ध भिक्षुओं के पूर्वजन्मों की कथाएँ दी गई हैं।
➽ विनय पिटक में बौद्ध संघ के अनुशासन संबंधी नियमों का सविस्तार उल्लेख है । उक्त पिटक का मुख्य आधार पाटिमोक्ख है जिसमें नियमों के उल्लंघन और उसके फलस्वरूप संघ से बहिष्कृत कर देने का उल्लेख है। अभिधम्मपिटक में बौद्ध धर्म और दर्शन की विद्वतापूर्ण व्याख्या की गई है, अतः यह सुत्तपिटक का पूरक ग्रंथ है। इसमें धम्म संगणि, विभंग, कथावस्तु, पुग्गल, पंजति, धातुकथा यमक और पट्टानष्करण एक विशालकाय क्लिष्ट रचना है। बौद्ध धार्मिक साहित्य में पारित या महापरित नामक ग्रंथ में प्रचलित तांत्रिक प्रयोगों का संग्रह है। इनका प्रयोग नवग्रह-निर्माण, अस्वस्थता और मृत्यु आदि के अवसरों पर किया जाता है। ब्रह्मा और सिंहल द्वीप में उक्त ग्रंथ का अब भी काफी आदर होता है।
➽ अनुपिटक अथवा अनुपालि साहित्य में नाना टीकाएँ अर्थात् अकथाएँ आती हैं। धर्म-तत्त्व की मीमांसा के लिए ये टीकायें प्राय: सिंहल द्वीप में लिखी गईं। केवल 'मिलिन्द पह' नामक ग्रंथ ही पश्चिमोत्तर में निबद्ध हुआ। इसमें यवनराज मिलिन्द और बौद्ध भिक्षु नागसेन का संवाद है। इसके प्रश्नोत्तर रूप में बौद्ध धर्म के दार्शनिक सिद्धांतों की अतीव सुंदर व्याख्या मिलती है। बौद्ध धर्म के सर्वप्रमुख टीकाकार बुद्धघोष हैं। इन्होंने बौद्ध धर्म के तत्त्व के स्पर्शीकरण के लिए अनेक ग्रंथों पर टीकाओं का प्रणयन किया। बुद्धघोष के समकालीन बुद्धदत्त ने भी महत्वपूर्ण टीकाएँ लिखी है। "अभि पर प्राचीनतम टीका आनदकृत अभिभम्मल टीका मानी जाती है।" पालि में एक विपुल टीका उपलब्ध होती है।
➽ पालि में धार्मिक और साहित्यिक रचनाओं के अतिरिक्त अन्य विषयों-व्याकरण, कोश, अलंकार शास्त्र तथा छंद - शास्त्र आदि पर भी रचनाएँ मिलती हैं। व्याकरणिक रचनाओं में कच्चयन व्याकरण, भोग्गलायन व्याकरण तथा अग्गवंस की कृति सद्दनीति प्रमुख ग्रंथ हैं। शुद्ध धातु संबंधी रचनाओं में धातुमंजूषा धातुपाठ तथा धात्वर्थदीपिनी आदि उल्लेखनीय हैं। भोग्गलायन - कृत अभिधम्मदीपिका नामक पालि ग्रंथ कोश के समान एक प्रसिद्ध ग्रंथ है। पालि काव्यशास्त्र संबंधी रचनाओं में संधरकिरवत रचित 'सुबोधलंकार' तथा छंद पर बुत्तोदय आदि प्राचीन ग्रंथ हैं।