पिंगल भाषा , पिंगल भाषा के संबंध में विद्वानों के मत
पिंगल भाषा
➽ चारणों द्वारा डिंगल और पिंगल दोनों भाषाएँ
व्यवहृत हुई हैं। एक ही कवि द्वारा उसके साहित्य में इन दोनों का समान रूप से
प्रयोग हुआ है। कभी-कभी ये दोनों भाषाएँ इतनी घुल-मिल गई हैं कि इनमें विभाज रेखा
खींचना कठिन व्यापार हो गया है। आज के भाषाशास्त्री के लिए इन दोनों भाषाओं के
रूपों का पृथक् पृथक् विश्लेषण करना एक समस्या बनी हुई है। बल्कि कभी-कभी तो वह यह
समझ बैठता है कि डिंगल और पिंगल दो स्वतंत्र भाषाएँ नहीं हैं वरन् एक ही भाषा के
अंतर्गत हैं।
पिंगल भाषा के संबंध में विद्वानों के मत
➽ पिंगल भाषा के
संबंध में अनेक विद्वानों ने अनेक मत प्रस्तुत किये हैं। यहाँ उनका अध्ययन कर लेना
आवश्यक है।
श्यामसुन्दर दास
(1) डॉ. श्यामसुन्दर दास “उसी प्रकार हिंदी के भी एक साहित्यिक सामान्य रूप की प्रतिष्ठा हो गई और साहित्यिक ग्रंथों की प्रचुरता होने के कारण उसी की प्रधानता मान ली गई और उससे व्याकरण आदि का निरूपण भी हो गया। हिन्दी के उस साहित्य रूप को उस काल में पिंगल कहते थे और अन्य रूपों की संज्ञा डिंगल थी। पिंगल भाषा में अधिकतर वे विद्वान रचना करते थे जो अपने ग्रन्थों में संयत भाषा तथा व्याकरणसम्मत प्रयोगों के निर्वाह में समर्थ होते थे। पिंगल की रचनाओं में धीरे-धीरे साहित्विकता बहने लगी और नियमों के बंधन भी जटिल होने लगे।"
समीक्षा -
उक्त
संदर्भ के अध्ययन के अनन्तर हमारा ध्यान कुछ मुख्य बातों की ओर आकृष्ट होता है-
(क) पिंगल आदिकाल की साहित्यिक भाषा थी। (ख) यह एक व्याकरणसम्मत और संयत भाषा थी।
(ग) उसके साहित्यिक क्षेत्र में प्रतिष्ठित होने पर क्रमशः उसमें नियमों और बंधनों
की जटिलता आने लगी। हमारे विचार में डिंगल और पिंगल दोनों उस समय की साहित्यिक
भाषाएँ थीं और इस रूप में दोनों का बराबर प्रयोग हुआ। दूसरी बात यह है कि पिंगल
नियमबद्ध और व्याकरणसम्मत भाषा थी और डिंगल उसके अन्यथा । किन्तु सत्य यह है कि जब
दोनों साहित्यिक भाषाएं थीं तो दोनों का व्याकरणसम्मत होना ही संगत लगता है।
क्योंकि किसी भी भाषा का साहित्यिक रूप व्याकरणसम्मत और परिमार्जित हुए बिना रह ही
नहीं सकता। मात्रा का अंतर भले ही रह सकता है।
(2) पं. रामचन्द्र शुक्ल “इससे यह सिद्ध हो जाता है कि
प्रादेशिक बोलियों के साथ-साथ ब्रज या मध्य - देश का आश्रय लेकर एक सामान्य
साहित्यिक भाषा भी स्वीकृत हो चुकी थी जो चारणों में पिंगल के नाम से पुकारी जाती
थी।
समीक्षा -
आचार्य
शुक्ल के मत में बहुत कुछ सत्य निहित है। आचार्य शुक्ल डिंगल भाषा के समान पिंगल
को उस समय की एक मान्य साहित्यिक भाषा स्वीकार करते हैं। राजस्थानी भाषा का यह
स्वरूप है जिसमें ब्रज तथा मध्य देश की भाषा का सम्मिश्रण हुआ और धीरे-धीरे उन
प्रदेशों की भाषाओं के फलस्वरूप इसमें व्याकरणबद्धता और नियमानुकूलता आई ।
(3) डॉ. रामकुमार वर्मा "शौरसेनी अपभ्रंश से उत्पन्न
ब्रज बोली में साहित्य की रचना बारहवीं शताब्दी से प्रारंभ हुई। उस समय इसका नाम
पिंगल था। यह राजस्थानी साहित्य डिंगल के समान मध्य देश की साहित्यिक रचना का नाम
था। "
समीक्षा -
डॉ.
वर्मा ने पिंगल और ब्रजभाषा को एक माना है। उनके मतानुसार पिंगल का मध्य देश से
संबंध है, राजस्थान से कोई
संबंध नहीं है। ये दोनों ही बातें निराधार प्रतीत होती हैं। पहली बात तो यह है कि
पिंगल और ब्रजभाषा दोनों एक नहीं हैं, दूसरे पिंगल का
राजस्थान से निश्चित रूप से संबंध है। यह अवश्य है कि मध्य देश की बोलियों का
पिंगल पर आते प्रभाव पड़ा। पिंगल का साहित्यिक रूप ब्रजभाषा से प्रभावित अवश्य है
किंतु पिंगल को ब्रजभाषा समझना एक भूल है।
मुंशी देवीप्रसाद
(4) मुंशी देवीप्रसाद" मारवाड़ी भाषा में गल्ल का
अर्थ बात या बोली है। डींगा लंबे और ऊँचे को और पांगला पंगे या लूले को कहते हैं।
चारण अपनी मारवाड़ी कविता को बहुत ऊँचे स्वरों में पढ़ते हैं और ब्रजभाषा की कविता
धीरे-धीरे मंद स्वर में पढ़ी जाती है। इसलिए डिंगल और पिंगल संज्ञा हो गई, जिसको दूसरे शब्दों
में ऊँची और नीची बोली की कविता कह सकते हैं। "
समीक्षा-
भाषा-विज्ञान
के इतिहास में ऐसा एक भी उदाहरण उपलब्ध नहीं होता है जहाँ ऊँचे-नीचे या लूले लँगड़े
जैसे अर्थों को आधार बनाकर किसी भाषा का नामकरण किया गया है। भाषा विज्ञान की
दृष्टि से यह नितांत असंगत प्रतीत होता है। दूसरी बात और भी है। प्रत्येक भाषा में
कोमल रसों के प्रकरण में वाणी के लहजे में मृदुता आ जाती हैं और वीर तथा रौद्र आदि
पुरुष प्रकृति के रसों के प्रसंग में वाणी में स्वाभाविक रूप से ओज और कठोरता आ
जाती है। फिर ऐसी भी बात नहीं कि ब्रजभाषा केवल कोमल रसों के ही अनुकूल हो।
रीतिकाल में भूषण सूदन लाल तथा पद्माकर आदि ने इसका वीर रस में भी बड़ा ओजस्वी तथा
भव्य प्रयोग किया है।
(5) कुछ विद्वानों ने कहा है कि पिंगल वीरगाथा काल की
साहित्यिक भाषा थी और उसका छंदशास्त्र अलग होने के कारण उसका नाम पिंगल पड़ा।
डिंगल का कोई स्वतंत्र छंदशास्त्र नहीं है। किंतु यह मत भी कोई मान्य प्रतीत नहीं
होता है।
(6) पिंगल का छंदशास्त्र था और डिंगल का नहीं था, इसलिए एक नाम पिंगल पड़ा कुछ संगत प्रतीत नहीं होता। संस्कृत में छंदशास्त्र को पिंगल मुनि प्रणीत होने के कारण पिंगल शास्त्र कहते हैं। उस पिंगल शास्त्र पर मेरे विचार में भारत की सभी प्रान्तीय भाषाओं का समान अधिकार है। ऐसी बात नहीं है कि वह एक भाषा विशेष की थाती हो और फिर डिंगल भाषा में अनेक छंदों का बड़ा कलात्मक प्रयोग हुआ है।