प्राकृत भाषा और साहित्य |प्राकृत: व्युत्पत्ति और विवेचन | Prakrit Language Literature

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प्राकृत भाषा और साहित्य , प्राकृत: व्युत्पत्ति और विवेचन

प्राकृत भाषा और साहित्य |प्राकृत: व्युत्पत्ति और विवेचन | Prakrit Language Literature


प्राकृत भाषा और साहित्य 

 ➽  पालि प्राकृत और अपभ्रंश मध्यकालीन आर्य भाषाएँ थींजिनका समय मोटे तौर पर 600 से 1200 ई.पू. तक स्वीकार किया जाता है। प्राकृत भाषा का समय सामान्यतः 600 ई.पू. से 600 ई. तक है किंतु संस्कृत नाटकों में छिटपुटे रूप से प्राकृतों का प्रयोग 1800 सदी तक होता रहा है।

 

 ➽  आर्य भाषा का प्राचीनतम रूप हमें ऋग्वेद की ऋचाओं में प्राप्त होता है किंतु तत्कालीन आर्यों की बोलचाल की भाषा का स्वरूप क्या था, इस बात को जानने के लिए हमारे पास कोई भी प्रामाणिक साधन नहीं। किंतु इतना निश्चित है कि उनकी बोलचाल की भाषा संहिताओं की साहित्यिक भाषा से अवश्य भिन्न होगी। अनुमानतः वही बोलचाल की भाषा प्राकृतों का मूलरूप है। वेदों के प्रणयन काल में प्राकृत विभाषाओं के रूप में नाना प्रदेशों में विद्यमान थीं और उनके शब्दों का समावेश संहिताओं में होने लगा था। वेदों में प्रयुक्त 'तितउ', दंद्रविकृतकिंकृतविकटकीकटदंड और अंड आदि शब्द उक्त कथन का स्पष्ट प्रमाण हैं। यास्क (800 ई. पूर्व) के समय छान्दस  भाषा संहिताओं की भाषा से पर्याप्त भिन्न हो चुकी थी और उसमें आर्येतर तत्त्वों का समावेश हो गया था। कदाचित् इसीलिए उन्हें अस्पष्ट वैदिक मंत्रों की पूर्व व्याख्या के लिए निरुक्त और निघंटु ग्रंथों का प्रणयन करना पड़ा। पाणिनी (600 ई.) ने छांदस और लोकभाषा का उल्लेख किया है। उन्होंने लोकभाषा (लौकिक संस्कृत) को अपने जगद्विख्यात व्याकरण द्वारा नियमबद्धसुसंस्कृत एवं परिमार्जित किया। किंतु इतना स्पष्ट है कि पाणिनि के समय तक प्राकृतों का साहित्यिक भाषा के रूप में विकास नहीं हुआ था। प्राकृत भाषा देश्य भाषा के रूप में छांदस और लौकिक संस्कृत के समानान्तर विद्यमान थी। पिशेल ने इसे प्राक्कृत पहले बनी के आधार पर संस्कृत से भी प्राचीनतम माना है।

 

प्राकृत: व्युत्पत्ति और विवेचन

 

 ➽  संस्कृत के बहुत से विद्वानों ने प्राकृत भाषा का विकास संस्कृत से माना है। वाग्भट्टालंकार के टीकाकार सिंहदेवमणि ने प्राकृत को संस्कृत से उद्भूत माना है - ( प्राकृतेः संस्कृतात आगतम् प्राकृतम्) प्राकृत- संजीवनी तथा काव्यादर्श की प्रेमचंद तर्कवाजीश-कृत टीका में संस्कृत को प्राकृत योनि तथा इसे संस्कृत रूप से उत्पन्न बताया गया है। (प्राकृतं नु सर्वमेव संस्कृत योनिः। संस्कृतरूपया: प्राकृतेः उत्पन्नत्वात् प्राकृतम्) पेटर्सन ने प्रकृति को संस्कृत कहा है और उससे उत्पन्न भाषा को प्राकृत माना है। (प्राकृतिः संस्कृतं तत्रभवात् प्राकृति स्मृतम) मार्कंडेय और हेमचंद्र प्रभृति विद्वानों ने भी क्रमशः प्राकृतसर्वस्व और शब्दानुशासन नामक ग्रंथों में प्राकृत को संस्कृत से उद्भूत माना है। किंतु आधुनिक भाषा वैज्ञानिक खोजों के आधार पर प्राकृत के विकास संबंधी विद्वानों की उपर्युक्त मान्यता असत्य सिद्ध हो चुकी है। हम पहले संकेत कर चुके हैं कि संहिताओं के प्रणयन काल में बोलचाल की भाषा के रूप में प्राकृत विद्यमान थीं। इनमें बराबर परिवर्तन होता रहा है। ये भाषाएँ प्राकृत अर्थात् जनसामान्य की भाषाएँ कहलाई । रुद्रट के काव्यालंकार के टीकाकार नमिमाधु ने संस्कृत और प्राकृत के भेद का तात्विक विश्लेषण किया है। उनके अनुसार, " व्याकरण आदि के संस्कार से विहीनसमस्त जगत् के प्राणियों के स्वाभाविक वचन- व्यापार को प्रकृति कहते हैं। उसे ही प्राकृत कहा जाता है। बालक महिला आदि की समझ में यह सरलता से आ सकती है और समस्त भाषाओं की यह कारणभूत हैं।" इस कथन में सत्य की प्रभूत मात्रा सन्निहित है। छांदस भाषा और श्रेष्ठ संस्कृत प्रतिशाख्य ग्रंथों से लेकर पतंजलि के महाभाष्य तक परिमार्जित और सुसंस्कृत होती रही और लोकभाषायें बिना किसी संस्कार के निरंतर कई शताब्दियों तक लोक व्यवहार का माध्यम बनी रहीं। महावीर और बुद्ध ने इन्हीं लोकभाषाओं के द्वारा अपने उपदेशामृत से जन कल्याण किया था।

 

प्राकृतों का वर्गीकरण - 

व्याकरणधर्म और साहित्य आदि के अनेक आधारों पर प्राकृतों का विभाजन किया गया है। वैयाकरणों ने प्राकृतों के अंतर्गत महाराष्ट्रीशौरसेनीमागधीपैशाचीचूलिकाचंडालीढक्कीशाबरीऔर अपभ्रंश आदि अनेक विभाषाओं की गणना की है। धार्मिक प्राकृतों में बौद्ध ग्रंथों की भाषा पालि जैन आगमों की भाषा अर्द्धमागधी और (आर्य) जैन महाराष्ट्री जैनशौरसेनी और अपभ्रंश की गणना की गई है। साहित्यिक प्राकृतों के अंतर्गत महाराष्ट्रीशौरसेनीमागधीपैशाची और अपभ्रंश को परिगणित किया गया है। भरत ने नाट्यशास्त्र में मागधीअवन्निजाप्राच्याशौरसेनी अर्द्धमागधीबह्वीका और दक्षिणात्या नाम की सात प्राकृतें गिनाई। हैं। इसके अतिरिक्त खरोष्ठी और ब्राह्मी लिपियों की शिलालेखी प्राकृतों तथा मध्य एशिया में उपलब्ध खोतानी और निया प्राकृतों का भी परिगणन किया जा सकता है। हमें यहाँ केवल साहित्यिक प्राकृतों और उनके साहित्य की चर्चा अभीष्ट है।

 

प्राकृत साहित्य - 

महाराष्ट्रीशौरसेनीअर्द्धमागधीमागधी तथा पैशाची आदि प्रमुख साहित्यिक प्राकृत भाषाएँ हैं। इनमें मुक्तक कथाकाव्यनाटकधार्मिक साहित्य तथा इतर साहित्य की विपुल सृष्टि हुई है। प्राकृतों में महाराष्ट्री सर्वप्रमुख एवं सर्वोत्कृष्ट मानी गई है। किसी समय यह विंध्याचल से हिमाचल तक के समूचे भारत की एक परिनिष्ठित साहित्यिक और सांस्कृतिक भाषा थी । वैयाकरणों ने इसके नियमों के अंतर्गत ही अन्य प्राकृतों के नियम का अंतर्भाव कर दिया है। शुद्ध साहित्य की अधिकांश रचनाएँ इसी प्राकृत में उपलब्ध होती हैं। प्राकृतों में श्लोक रचना के लिए यह एक अत्यंत उपयुक्त भाषा थी। अतः कविता के क्षेत्र में इसका अधिकाधिक प्रयोग हुआ। इनमें बहुत से स्वर सुरक्षित हैं जो श्रवणेंद्रिय को अत्यंत मधुर लगते हैं। इन्हीं कारणों से यह कविता- रचना के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुई।

 

➽ महाराष्ट्री प्राकृत में निबद्ध प्रबन्ध काव्यों में प्रवरसेन (400 ई.) द्वारा प्रणीत 'रावणवहोंतथा 'दसमुहवहाँहै जिसका संस्कृत रूपांतर सेतुबंध है। 14 आश्वासनों में लिखित यह रचना एक अनुरागांक महाकाव्य है। इसमें राम की कथा वर्णित है। कई विद्वानों ने इसे कालिदास की कृति कहा है जो कि सर्वथा असंगत है। इसमें कालिदासोत्तर संस्कृत साहित्य की कृत्रिम अलंकृति शैली का स्पष्ट प्रभाव है। यह रचना बाण के समय में पर्याप्त प्रसिद्ध हो चुकी थीक्योंकि उन्होंने हर्षचरित की भूमिका में इसका उल्लेख किया है। यशोवर्मा के राजाश्रित कवि वप्पइराअ (वाक्-पतिराज) (800 ई.) द्वारा रचित गडडबहों (गोडुवधः ) । वाक्पतिराज की एक अन्य रचना 'रहुमह विअ - अका भी पता चला है। परवर्ती प्राकृत काव्यों में कृष्ण लीलाशुक का 'सिरचिंध क्वम्श्रीकंठ का सोरचित्तिम तथा राम पाणिवाद के कंशवहो तथा 'उसागिरुद्धकाव्यों का पता चला है। अनुमान है कि इन परवर्ती काव्यों का सृजन 16वीं सदी के बाद ही हुआ है।

 

 ➽  अनुमान है कि महाराष्ट्री शुद्ध साहित्यिक मुक्तकों की दृष्टि से भी काफी समृद्ध थी किंतु इसमें उक्त परम्परा की केवल दो ही प्रतिनिधि रचनाएँ उपलब्ध होती हैं। इसका शेष मुक्तक काव्य कराल काल ने ही कवलित कर लिया है। गाहा (गाथा सप्तशती) का संग्रह आंध्र प्रदेश के राजा सातवाहन (हाल) ने ईसा की प्रथम शताब्दी में किया। उसने अपने से पूर्व और अपने समय में प्रचलित असंख्य गाथाओं में से सर्वश्रेष्ठ नीति और श्रृंगारपरक गाथाओं का संकलन किया था। किंतु इसमें प्रक्षेपों की प्रक्रिया पांचवीं छठी सदी तक चलती रही। गाथा सप्तशती में श्रृंगार के संयोग और वियोग पक्षों में प्रणय के उन्मुक्त चित्रणों और प्रेम के नानाविध रूपों के अंकन में जो ताजगीस्वाभाविकतासरसता और हृदयावर्जकता हैवह निश्चय ही अद्वितीय है। इस ग्रंथरत्न ने अपभ्रंश और हिंदी के नीति एवं श्रृंगारपरक मुक्त रचनाओं को अपरिमित रूप से प्रभावित किया है। इस परम्परा का दूसरा काव्य श्वेताम्बर जैन जय वल्लभ (1200 ई.) द्वारा रचित 'वज्जालग्गहै। सातवाहन के समान जयवल्लभ ने भी विविध कवियों द्वारा रचित कविताओं का संग्रह किया था। इस ग्रंथ के 48 परिच्छेदों में 795 छंदों का संकलन है। इनमें नीतिश्रृंगार चरित्र और व्यवहार आदि के विषयों का निरूपण मिलता हैसंस्कृत के अनेक काव्यशास्त्रियों और टीकाकारों ने उक्त ग्रंथ की गाथाओं का उपयोग किया है। इसके अतिरिक्त 'गाथासहस्री' 'गाथाकोशतथा 'तसालयआदि अन्य भी प्राकृत के सुभाषित ग्रंथों का पता चला है।

 

 ➽  महाराष्ट्री के कथा साहित्य में कुतूहल नामक ब्राह्मण ( 10वीं सदी) की लीलाबाई (लीलावती) नामक रचना उल्लेखनीय है। इसमें प्रतिष्ठान के राजा सातवाहन और सिंहल द्वीप की राजकुमारी लीलावती के प्रेम का चित्रण किया गया है। शैली और प्रतिपाद्य की दृष्टि से उक्त रचना सुबंधु की वासवदत्ता और बाण की कादम्बरी की परंपरा में आती है।

 

 ➽  राजशेखर की 'कर्पूर मंजरीमहाराष्ट्री में रचित नाटकों में प्रमुख रचना है। यह हर्षवर्धन की लिखी हुई नाटिकाओं - प्रियदर्शिका और रत्नावली की पद्धति पर लिखा हुआ एक सट्टक है जिसमें कुन्तक देश की राजकुमारी कर्पूर मंजरी और राजा चंद्रपाल के प्रणय को निबद्ध किया गया है। इस नाटक से यह विदित होता है कि राजशेखर (900 ई.) के समय प्राकृत पर्याप्त लोकप्रिय थी। उनका कहना है कि- संस्कृत का गठन पुरुष और प्राकृत का गठन सुकुमार है। पुरुष और महिलाओं में जितना अंतर होता है उतना ही अंतर संस्कृत और प्राकृत काव्य में समझना चाहिए।" कर्पूर मंजरी के ढंग पर प्रणीत अन्य सट्टक-विलासवती ( रचयिता मार्कंडेय 1700 ई)चंदलेह ( रचयिता रुद्रदास 1600 ई.) आनंद सुंदरी ( रचयिता घनश्यामदास 1700 ई.)सिगार मंजरी (कर्ता विश्वेश्वर 18वीं सदी का पूर्वार्द्ध) रंभा मंजरी ( कर्त्ता नयचंद्र 14वीं सदी) भी उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त राम पाणिवाद की 'लीलावतीनामक रचना भी प्राप्त हुई है जो कि एकांकी प्राकृत रूपक है।

 

 ➽  संस्कृत नाटकों में नायिकाउसकी सहेलियाँउच्च वर्ग की स्त्रियाँऊँची स्थिति की दासियाँबालकनपुंसक और विदूषक शौरसेनी प्राकृत का प्रयोग करते हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कदाचित नाटक का उद्भव शूरसेन प्रदेश में हुआ हो और इसके बोलचाल का क्षेत्र अत्यंत व्यापक था। कई विद्वानों ने संस्कृत को उच्च पात्रों की भाषा माना है। इस प्राकृत का उद्भव शूरसेन प्रदेश अर्थात् ब्रजमंडल में हुआ जो कि लौकिक संस्कृत का प्रमुख केंद्र था। अतः यह संस्कृत से प्रभूत मात्रा में प्रभावित हुई। शौरसेनी ने निश्चय ही राजस्थानपंजाबगुजरात और अवध की भाषाओं को प्रभावित किया। यद्यपि शौरसेनी में लिखित कोई स्वतंत्र ग्रंथ उपलब्ध नहीं होता किंतु संस्कृत के नाटकों में इसका प्रयोग बराबर होता रहा है। अश्वघोष ने अपने नाटकों में शौरसेनी का ही प्रयोग किया है। दिगम्बर जैन संप्रदाय के कतिपय ग्रंथों का प्रणयन जैन शौरसेनी प्राकृत में हुआ। कुंद कुंदाचार्य (प्रथम सदी) की प्रायः सभी रचनायें शौरसेनी प्राकृत में हैं। उक्त आचार्य का 'पवयण सारनामक ग्रंथ जैन शौरसेनी की एक प्रसिद्ध रचना है। इसके अतिरिक्त कार्तिकेय स्वामी रचित 'कत्ति गेयाणुपेक्खातथा ऋकेशचार्य द्वारा रचित 'मूलाचारआदि ग्रंथ इसी भाषा में हैं।

 

 ➽  पैशाची प्राकृत अब एक प्राचीन विभाषा बन गई है। वैयाकरणों ने इसे चूलिका पैशाची अथवा भूतभाषा भी है। गुणाढ्य (ईसा की प्रथम सदी) की वृहत् कथा इसी भाषा में निबद्ध थी जो कि अब अप्राप्य है। रामायणकहा महाभारत और भागवत के समान वृहत् कथा भी परवर्ती भारतीय साहित्य के लिए निरन्तर कई शताब्दियों तक उपजीव्य ग्रंथ बना रहा है। भारतीय कथा साहित्य प्रतिपाद्य शैली और कथानक रूढ़ियों की दृष्टि से वृहत् कथा से अपरिमित रूप से प्रभावित हुआ है। क्षेमेन्द्र की 'वृहत् कथा मंजरीसोमदेव का 'कथासरित सागरतथा बुद्ध स्वामी का 'वृहत् कथा श्लोक संग्रहगुणाढ्य की वृहत् कथा के संस्कृत के संक्षिप्त रूपान्तर मात्र हैं। षड्भाषा चंद्रिका के लेखक लक्ष्मीधर ने पैशाची और चूलिका पैशाची को राक्षसपिशाच और नीच व्यक्तियों की भाषा बताया है और पांड्यकेकयबाह्वीकसिंह, (सह्य) नेपालकुन्नलसुधेष्णुभोजगंधारहैवक और कन्नौज की गणना पिशाच देशों में की है। इससे अनुमान है कि पैशाची प्राकृत भारत के उत्तर और पश्चिमी भागों में बोली जाती रही होगी।

 

 ➽  मागधी प्राकृत मगध जनपद (बिहार) की विभाषा थी। इसमें स्वतंत्र रचनाएँ प्राप्त नहीं होतीं। संस्कृत नाटकों में केवल हीन कोटि के पात्र राक्षसभिक्षुक्षपणकचेटअश्वरक्षकसेंध लगाने वाले आदि इसका प्रयोग करते हैं। यह शौरसेनी से अत्यधिक प्रभावित है। पुरुषोत्तम ने मागधी के अंतर्गत शाकारीचांडाली और शाबरी भाषाओं का परिगणन किया है।

 

 ➽  अर्द्धमागधी एक मध्यवर्ती प्राकृत थी। इसकी पश्चिमी सीमा पर शौरसेनी और पूर्वी पर मागधी थी। इसकी बहुत-सी विशेषताएँ अशोक के शिलालेख में पाई जाती हैं। महावीर स्वामी ने इसी भाषा में अपनी अमूल्य शिक्षाएँ दी थीं। कुछ विद्वानों की धारणा है कि महावीर ने ही इनमें तत्कालीन अन्य भाषाओं की सदुक्तियों और सुंदर प्रयोगों को समाविष्ट कर इसे सर्वप्रिय बनाया था। कदाचित् इसी कारण से इसका नाम अर्द्धमागधी पड़ा। मार्कंडेय ने प्राकृत- सर्वस्व में इसे शौरसेनी से उद्भूत कहा है जबकि कामदीश्वर ने इसे महाराष्ट्री मिश्रित कहा है। इसे आर्य भाषा भी कहा गया है।

अर्द्धमागधी में प्रणीत जैन सिद्धांत साहित्य निम्नांकित हैं

 ➽  यह एक समृद्ध साहित्य की स्वामिनी है। इसमें जैनों के सिद्धांत और सिद्धान्तेत्तर साहित्य की विपुल सृष्टि हुई हैजो मात्रा और गुण दोनों दृष्टियों से बौद्ध साहित्य की अपेक्षा काफी समृद्ध है। इसके अतिरिक्त जैन साधुओं ने जैन शौरसेनी और जैन महाराष्ट्री में भी अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया है। अर्द्धमागधी में प्रणीत जैन सिद्धांत साहित्य निम्नांकित हैं

 

(क) द्वादश अंग - 

आचारंगसूत्रकृतांगस्थानांग समवायांगव्याख्या प्रज्ञप्ति ज्ञातृ धर्म कथाउपासक दशा अनुत्तरोप पातिकदशाप्रश्नव्याकरण विपाक श्रुत अन्नकृद्दशा तथा दृष्टिवाद। इन जैन तीर्थंकरोंमहापुरुषोंश्लाकापुरुषोंमहावीर के दस गृहस्थी शिष्योंमोक्ष प्राप्तिकर्ता स्त्री-पुरुषों एवं महात्माओं और मुनियों के आधार-व्यवहारोंजीवन-वृत्तों अन्य धर्मों के खंडनोंजैन धर्म की मान्यताओं और निगूढ़-तत्त्वोंशुभ-अशुभ कर्मों के फलों तथा व्रतों का उल्लेख किया गया है। इसमें कतिपय रचनाएँ साहित्यिक दृष्टि से भी काफी महत्त्वपूर्ण बन पड़ी हैं।

 

(ख) द्वादश उपांग- 

औपयातिकराज प्रश्नीयजीवाजीवाभिगमप्रज्ञापना सूर्य प्रज्ञाप्ति जम्बूद्वीप प्रज्ञाप्ति कल्पिकाकल्पावतसिकापुष्पिका पुष्प चूला तथा वृष्णिदशा । इनकी रचना जैन धर्म के सिद्धांतों की व्याख्या के लिए की गई। साहित्यिक दृष्टि से इनका कोई विशेष महत्त्व नहीं है।

 

(ग) दश प्रकीर्ण-

चतुः शरणआतुर प्रत्याख्यानमहाप्रत्याखनंभक्त परिज्ञातन्दुल वैचारिकसंस्तारकगच्छाचारगणिविद्यदेवन्द्रस्तवतथा मरण समाधि । ये श्रमणों की रचनायें हैं। जिनमें तीर्थकरों के उपदेशों का अनुसरण किया गया है। इनमें आचार-व्यवहारउपचारगणित विद्या तथा शरीर विज्ञान आदि से संबद्ध विषयों का निरूपण किया गया है।

 

(घ) छेद सूत्र - 

निशीथमहानिशीथव्यवहारदशा क्षुत स्कंध बृहत कल्प तथा पंचकल्प अथवा जीत कल्प। इनमें आचार शुद्धता पर बल दिया गया है। ये संक्षिप्त शैली में लिखे गए हैं और इन्हें परम रहस्यमय बताया गया है।

 

(ङ) मूल सूत्र - 

उत्तराध्ययनआवश्यक दश वैकाशिक पिंड निर्युक्तिओध नियुक्तिपाक्षिकसूत्र क्षाभणा सूत्रवंदित्तु सुत्तऋषि भाषित तथा नन्दी और अनुयोगदारइनमें साधु जीवन के मूलभूत आदर्शों और नियमों का उल्लेख है। धार्मिक दृष्टि से भी ये बौद्ध सूत्रों के समान महत्त्वपूर्ण हैं।

 

इसके अतिरिक्त जैन आगमों पर लिखा हुआ एक विशाल व्याख्या साहित्य उपलब्ध होता हैजिसमें निर्युक्तिभाष्यचूर्णीटीका आदि लिखने की परंपरा दूसरी सदी ई. से 16वीं सदी तक चलती रही । षट खंडागमकपाय प्राभूत मंत्रशास्त्र तथा आगमोत्तर कालीन जैन धर्मग्रंथों की एक विशाल राशि तैयार हुई। जैनों का सिद्धान्तेत्तर साहित्य जैन महाराष्ट्री और जैन शौरसेनी में लिखा गया ।

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