राम काव्यधारा और विशेषताएं , Ram Kavya Dhara Ki Visheshtaayen
राम काव्यधारा और विशेषताएं
तुलसी का 'रामचरितमानस हिंदी का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है और हिन्दू धर्म तथा संस्कृति का गौरव-ग्रन्थ है। इस प्रकार सैकड़ो कवियों ने भक्तिकाल के साहित्य को विकसित किया है। राम अनन्त हैं, उनके गुण अनन्त है, उनकी कथा अनन्त है। राम के नाना अवतार हैं लोक में उनके चरित्र का निरूपण करने वाली अनेक रामायणें हैं। वास्तव में, रामकथा देश और काल से परे है। उसकी धारा युग-युग से प्रवाहित होती चली आ रही है तथा अपनी सरसता से कवियों-कलाकारों-भावकों भक्तों को आनन्दित करती रही है। युगीन परिवर्तनों के बावजूद राम का रूप सर्वत्र मनोहारी तथा प्रभावशाली रहा है।
रामकाव्यधारा की विशेषताओं को निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है -
1. राम के सगुण साकार रूप की अर्चनाः
राम के दो रूप माने गये हैं एक निर्गुण रूप और दूसरा सगुण रूप भक्तिकालीन रामकाव्यधारा के कवियों ने निर्गुण राम की नहीं, वरन् सगुण राम रूप की अवतारणा अपने काव्यों में की है। उन्होंने राम और रामायण को देशकाल तथा जनजीवन के अनुरूप बनाकर प्रस्तुत किया है। राम काव्यधारा में ऐसे विराट् राम की प्रतिष्ठा हुई है और भावुक भक्तों तथा कवियों ने राम के इन्हीं रूपों की अर्चना - वंदना की है। रामकथाओं के लिए राम ही सर्वस्व हैं।
2. दार्शनिक चेतना:
भक्तिकालीन राम कथाकार दार्शनिक नहीं, वरन् वे कवि थे। राम कथा के विविध पक्षों का रसमय गायन करना उनका उद्देश्य था । वे कोरे ज्ञान को महत्त्व नहीं देते थे। कोरी शिक्षा उनके समीप मिथ्या थी। 'विनयपत्रिका' में तुलसी ने कहा है
" वाक्य ग्यान अत्यन्त निपुन भव-पार न पावै कोई।।
निसि गह मध्य दीप की बातन्ह तम निक्त्त न होई ।।
" राम काव्यधारा की दार्शनिक चेतना पर कई दर्शनों का प्रभाव देखा जा सकता है। रामकथा के कवियों का प्रयोजन रामभक्ति था। वे व्यक्ति मन के कालुष्य को समाप्त कर देना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने कलिगल शगन और भव-तरन' के लिए रामभक्ति का सहारा लिया है ।
3. सामाजिक संवेदनाः
रामभक्ति काव्य की सामाजिक संवेदना बड़ी गहरी है। सामाजिक दष्टि से रामभक्ति काव्य की विशेष महिमा है। जिस समय रामभक्ति काव्य का प्रणयन हो रहा था, उस समय समाज अनेक प्रकार की भ्रांति और अशांति का शिकार था और गुगलों के शासन के कारण भारतीय संस्कृति संकट में पड़ी थी। ऐसे विषम समय में रामभक्ति काव्य प्रणेताओं ने भारतीय समाज को पुनर्गठित तथा भारतीय संस्कृति को पुनर्जागत करने का उपक्रम किया है।
रामभक्ति का समग्र प्रयत्न आदर्श समाज और आदर्श परिवार की स्थापना का था जिसके आधार पर उन्होंने समपर्ण और प्रेम को अंगीकार किया है, विवेकपूर्ण, कर्त्तव्यपालन को स्वीकार किया है। तुलसी आदि रामभक्ति के कवि वर्णाश्रम व्यवस्था के पक्षधर थे, इसीलिए वे वर्णाश्रम मर्यादा के विरूद्ध आचरण पर अपना क्षोभ प्रकट करते हैं और वर्णाश्रम व्यवस्था की महत्ता पर बल देते हैं
"बरनाश्रम निज-निज धरम, निरत वेद पथ लोग ।
चलहिं सदा पावहिं सुखहिं, नहीं भय सोक न रोग ।। "
4. युगीन समस्याओं का निरूपणः
श्रेष्ठ साहित्यकार तत्कालीन समस्याओं से मुँह मोड़कर साहित्य-सर्जना नहीं कर सकता है। वास्तव में, वह युगबोध से जुड़कर युग को संदेश भी देता है। तुलसीदास आदि रामभक्ति काव्य के श्रेष्ठ कवि है और रामोपासना करते हुए भी उन्होंने अपने युग की समस्याओं को अनदेखा नहीं किया है। अनेक युगीन समस्याओं को रामकथा में यथास्थान निरूपित किया गया है। इतना ही नहीं, उस समय का लोक जीवन विपन्न और कारूणिक था, उसका चित्रण भी 'कवितावली' में चित्रित किया गया है। यथा
"खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,
बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी ।
जीविका विहिन लोग सीघमान सोच बस,
कहैं एक एकन सों, 'कहाँ जाई, का करी' ?
दारिद- दसानन दबाई दुनी, दीनबन्धु ।
दुरित- दहन देखि तुलसी हहा करी ।। "
5 समन्वय की विराट् चेष्टाः
भारत भारतीय संस्कृति और भारतीय साहित्य संगम का देश है, यहाँ पर संगम की संस्कृति है और संगम का साहित्य है। संगमधर्मिता इसकी प्रध् प्रवत्ति है। कितनी ही विचारधाराओं के लोग यहाँ आये, बसे। इसी कारण यहाँ समन्वय की विराट् चेष्टा हुई है। यह समन्वय अनेक स्तरों पर दिखाई पड़ता है। देवता - राक्षस और मानव की संस्कृति में संवेदना और शिल्प में समन्वय करके रामभक्ति काव्य में समन्वयवाद को प्रतिष्ठित किया है। समन्वय साधना से संबंधित कुछ पंक्तियाँ द्रष्यव्य हैं-
"प्रेम पुलकि केवट कहिनामू । कीन्ह दूरि ते दंड प्रनामू ।
रामसखा रिषि बरबस भेंटा जनु महि लुटत सनेह समेंटा।। "