हिंदी साहित्य का रीतिकाल-रीतिकाल का नामकरण
रीतिकाल का नामकरण
रीतिकाल के नामकरण को लेकर भी विद्वानों में मतभेद रहा है। हिंदी साहित्य का सर्वप्रथम काल-विभाजन करने वालों में, जार्ज ग्रियर्सन का नाम आता है। जिन्होंने इसे रीतिकाव्य नाम दिया। आगे चलकर मिश्र बन्धुओं ने इसे दो भागों में विभाजित करते हुए पूर्वालंकृत काल से उत्तरालंकृत काल की संज्ञा दी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसे आरम्भ में तो उत्तर मध्यकाल तथा रीतिकाल का नाम दिया परन्तु इसे श्रृंगार काल कहने की भी छूट देते हुए लिखा, "इस काल को रस के विचार से कोई श्रृंगारकाल कहे तो कह सकता है। इस प्रकार आचार्य शुक्ल तक इस काल के कई नाम सामने आ गए। जैसे रीतिकाल, पूर्व तथा उत्तर अलंकृतकाल, उत्तर मध्यकाल, रीतिकाल तथा श्रृंगारकाल इत्यादि । अब इन्हीं नामों तथा अन्य लेखकों द्वारा सुझाये गए नामों की समीक्षा प्रस्तुत की जा रही है।
किसी भी भाषा के साहित्यिक इतिहास का काल-विभाजन तथा नामकरण करते हुए रचनाओं की बहुलता, साहित्यकारों में
प्रमुख तत्कालीन साहित्य की मुख्य प्रवत्ति के आधार पर किया जाना ही अधिक तर्कसंगत
माना जाता है। जार्ज ग्रियर्सन ने तुलसीदास के बाद जिसे रीतिकाल कहा है वह इसलिए
माना जाता है कि रीतिकाल में जो रचनाएँ रची गई उनमें एक विशेष प्रकार की काव्य-शैली
को रीतिकाल कहा गया। मिश्रबन्धुओं ने इस काल को अलंकृत काल इसलिए कहा, क्योंकि इस काल
की रचनाओं में काव्य के अलंकरण पर ही अधिक ध्यान केन्द्रित रहा। आचार्य रामचन्द्र
शुक्ल द्वारा सुझाये गये नामों के विषय में कह सकते हैं कि उन्होंने मनोविज्ञान
तथा तत्कालीन साहित्य की विशेष अभिरूचि तथा प्रवत्ति विशेष को ध्यान में रखते हुए
तीन नाम सुझाए। आचार्य शुक्ल ने तत्कालीन काव्य पद्धति विशेष अर्थात् रीति-विशेष
के आधार पर इसे रीतिकाल कहना ही उचित समझा है।
रीतिकाल के
नामकरण के संबंध में और भी विचार सामने आते हैं। मिश्रबन्धुओं ने अपने मिश्रबन्धु
विनोद' नामक हिंदी
साहित्य के इतिहास में इस काल को 'अलंकृत काल' नाम दिया था। उनका कहने का आशय यह था कि इस युग में कविता
को अलंकृत काल नाम दिया जाना चाहिए। मिश्रबन्धुओं का तर्क बहुत सशक्त नहीं माना
गया। उन्होंने इस युग की कविताओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि यह कविता
अलंकृत है यानि अलंकारों के आग्रह से युक्त है। पर क्या केवल अलंकारों की ही निहित
इस काल की कविता में है। रसानुभूति की दृष्टि से इस काल की कविता का मूल्य किसी से
कम नहीं है। ध्वनि और वक्रता भी उसमें पर्याप्त मात्रा में मिलती है। इसलिए केवल
अलंकारों का आग्रह इंगित करना, इतना अधिक समीचीन
नहीं है जिसके कारण कि इस युग का नामकरण ही उस आधार पर कर दिया जाए। दूसरी बात यह
है कि इस काल से पहले या बाद में भी जहाँ अधिक अलंकृत कविताएँ सामने आती हैं तो
उनका नामकरण भी क्या अलंकारों के आधार पर करने की सोच सकते हैं। इसलिए मिश्र -
बन्धुओं ने जिस प्रवत्ति का अभियान करके इस काल को 'अलंकृत काल' कहा है वह एकांगी और अपूर्ण लगती है।
डा० रमाशंकर शुक्ल 'रसाल' ने रीतिकाल का नाम 'कला-काल माना है
डा० रमाशंकर शुक्ल 'रसाल' ने रीतिकाल का नाम 'कला-काल माना है। 'कला-काल से तात्पर्य उस काल से है, जिसमें हिंदी क्षेत्र में काव्य को कलापूर्ण किया गया, अर्थात् उसमें काव्य के चमत्कृत एवं चातुर्यपूर्ण गुणों को ध्यान में रखकर रचनाएँ की गई और साथ ही कला के नियम से संबंध रखने वाले रीति या लक्षण ग्रन्थों की रचना हुई । इस नाम के देने में रीतिकाल काव्य के बाह्य पक्ष पर तो प्रकाश पड़ता है पर उसकी एक बड़ी विशेषता श्रंगारिकता की उपेक्षा हो जाती है। यह नाम प्रायः उसी तरह का है जैसे ग्रीव्ज या मिश्रबन्धुओं ने दिया है। हिंदी साहित्य में इसे भी स्वीकार नहीं किया है।
डा० भागीरथ मिश्र ने हिंदी साहित्य के इस युग का नाम 'रीति श्रृंगार' काल रखा है
डा० भागीरथ मिश्र
: डा० भागीरथ मिश्र ने हिंदी साहित्य के इस युग का नाम 'रीति श्रृंगार' काल रखा है। वे
मानते हैं कि श्रंगार की प्रवत्ति रीतिकाल की एक विशेषता है जिसे सभी स्वीकार करते
हैं पर उसके साथ ही उस युग के साहित्य की चेतना है 'पद्धति परकता' एक पैटर्न के काव्य की रचना करने की पद्धति
परकता से अलग भी कुछ कवि रीतिकाल में थे घनानंद, बोधा, आलक,
ठाकुर आदि की
कविता को उस रीतिकाल पद्धति से अलग कर पाते। हैं। बिहारी और घनानंद पद्धति एक नहीं
है। अतः रीति श्रंगार नामकरण की बात भी विद्वानों को उसी प्रकार स्वीकार्य नहीं है
जैसे कला-साहित्य की ।
पं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने श्रंगार काल' के नाम से अभिहित किया है
पं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने श्रंगार काल' के नाम से अभिहित
किया है। उनकी मान्यता यह है कि इस युग की एक बड़ी प्रवत्ति श्रंगार की थी। इसलिए इस
युग को भंगार काल' के नाम से पुकारा
जाना चाहिए। 'श्रंगार काल' की मीमांसा करने
पर भी यही सिद्ध होता है कि यह नाम भी उपयुक्त नहीं है। पं० मिश्र ने यह देखकर इस
काल का नाम श्रंगार काल दिया है क्योंकि इस काल की कविता में भंगार की प्रवत्ति
बहुत अधिक है। बात यह है कि श्रंगार वर्णन की प्रवत्ति इस कविता में धन की
प्राप्ति के लिए आई। राजाओं की वासना को तप्त करने के लिए श्रंगार - वर्णन कवियों
द्वारा अपने मन से वह यह निकला अन्यथा भिखारी यह क्यों कहते हुआ है ।
"आगे के कतिव हि तो कविताई न तो,
राधिका कनहाई
सुमिरन को बहानी है।"
इस काल में कुछ
ऐसे भी कवि हुए हैं जिन्होंने श्रंगार को प्रमुखता नहीं दी। कुछ कवि तो ऐसे भी हुए
हैं जिन्होंने लक्षण- गन्थों की रचना करके भी श्रंगार को कोई स्थान नहीं दिया।
इसलिए इसकाल की श्रृंगारिकता के मूल में कवि की अपनी रुचि न होकर आश्रयदाता की
रुचि थी। इस काल में श्रंगार के अतिरिक्त नीति प्रकृति-चित्रण आदि की कविताओं की भी
कमी नहीं है। सभी प्रकार की कविताओं की प्रवत्ति भंगार की कैसे मानी जा सकती है।
इसीलिए इस काल को श्रंगार काल के नाम जो दिया गया, वह इतना उपयुक्त नहीं लगता। इसलिए इस काल का
नाम 'रीतिकाल' देना अधिक समीचीन
है। रीति की प्रवत्ति के अन्तर्गत लक्षण ग्रन्थ भी आ जाएँगे श्रंगार की रचनाएं भी
और श्रंगारेत्तर रचनाएँ भी,
क्योंकि लक्षण
बताने और उसके अनुसार कविता करने की रीति सभी प्रकार की कविताओं में देखने में आती
है। अतः इस काल का नाम 'रीतिकाल सबसे
अधिक उपयुक्त है।
रीतिकाल नाम क्यों उचित है ? ( हिंदी रीतिकाल के संस्थापक)
आज हिंदी साहित्य के लगभग सभी विद्वान, आलोचक तथा साहित्य के इतिहास-लेखक यह स्वीकार करते हैं कि इस काल का नाम रीतिकाल ही उचित है क्योंकि उसमें तत्कालीन कवियों की काव्य-रचना पद्धति एवं काव्य-शिक्षा दोनों ही बातें आ जाती हैं। रीतिकाल का नामकरण करने के पश्चात् एक और बात भी विद्वानों में मतभेद का विषय बनी हुई है कि रीतिकाल का संस्थानक आचार्य किसे माना जाये ? इस विषय में विद्वानों के दो वर्ग हैं। एक वर्ग तो आचार्य केशव को रीतिकाल का संस्थापक मानता है और दूसरा वर्ग आचार्य केशव के बाद होने वाले आचार्य चिन्तामणि त्रिपाठी को ही रीतिकाल का संस्थापक तथा प्रवर्त्तक मानता है। इस मतभेद को उत्पन्न करने वालों में सर्वप्रथम तो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ही हैं, क्योंकि उनके मतानुसार तो केशवदास की गणना भक्तिकालीन कवियों में की जानी चाहिए क्योंकि कालक्रम के अनुसार केशवदास संवत् 1612 से 1674 तक जीवित रहे। इसके अतिरिक्त आचार्य शुक्ल यह भी तर्क देते हैं कि आचार्य केशव ने अपने लक्षण ग्रंथों में संस्कृत के अलंकारवादियों भामह, दण्डी, उद्भट, रूप्पक आदि की पद्धति को अपनाया। शुक्ल ने यह भी कहा है कि केशव ने जिन अलंकारवादी आचार्यों के संस्कृत समीक्षा - शास्त्र से अलंकार संबंधी सामग्री ग्रहण की उसमें अलंकार तथा अलंकार्य का भेद स्पष्ट नहीं था। उन्होंने तो रस को अलंकार ही मान लिया था । केशव के विपरीत चिन्तामणि त्रिपाठी ने तथा उनके पीछे चलने वाले रीति-कवियों ने अलंकारों का वर्णन 'चन्द्रालोक' और 'कुवलयानन्द' के आधार पर किया.
उपर्युक्त कथनों
से तथा ऐसे ही कुछ अन्य वक्तव्यों से यह मतभेद बढ़ता ही गया, परन्तु निष्पक्ष
होकर विवेचना करने पर जो निर्णय लिया जाये वह उचित ही कहा जायेगा। यह ठीक है कि
आचार्य केशव को कालक्रम के अनुसार भक्तिकाल में लिया जा सकता है परन्तु केवल
कालक्रम को ही एकमात्र आधार नहीं माना जा सकता। जहाँ तक केशव की रीति-पद्धति का
प्रश्न है वह चाहे दण्डी तथा उद्भट से प्रभावित हो अथवा पोषित हो अथवा अन्य किसी
से है तो रीति पद्धति ही आचार्य चिन्तामणि द्वारा अपनायी गई काव्य रचना तथा
साहित्य साधना की पद्धति भी रीति पद्धति ही है। जिसे उन्होंने रसवादियों, रीतिवादियों, ध्वनिवादियों आदि
के अतिरिक्त चन्द्रालोक तथा कुवलयानन्द आदि अलंकारवादियों से प्रेरणा ग्रहण करके
अपनाया है।
निष्कर्ष रूप में यही कहा जा सकता है कि हिंदी रीतिकाल के संस्थापाक आचार्य केशवदास ही हैं। जिन्होंने संस्कृत काव्यशास्त्र को लोकभाषा यानि ब्रजमिश्रित अवधी में प्रस्तुत करके आगे आने वाले कवि आचार्यों के लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया। अतः काल का नाम 'रीतिकाल' सबसे अधिक उपयुक्त है।