रीतिकालीन काव्य की विशेषताएँ
रीतिकालीन काव्य की विशेषताएँ
रीतिकालीन हिंदी साहित्य की रचना, जिन सामन्तीय परिस्थितियों में हुई, उस साहित्य को साधारण लोगों के जीवन से तो सम्बद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह साहित्य तो मूलतः दरबारी या शाही साहित्य था । आश्रित कवियों तथा आचार्यों ने जिस साहित्य की सष्टि की, उसमें तत्कालीन राजाओं " या सामन्तों की श्रंगार वासना को तप्त करने के लिए सुरा, सुन्दरी, सुराही आदि के वर्णन के अतिरिक्त कविता रूपी कामिनी के अलंकरण एवं नख - शिख वर्णन पर ही जोर दिया गया। इस प्रकार रीतिकालीन साहित्यकारों की समस्त शक्ति एवं श्रम नारी शरीर के रूप में ही लगी। ऐसे रीतिकालीन साहित्य में कृत्रिमता, अलंकरण एवं श्रंगारिकता की प्रधानता है सारे रीतिकालीन हिंदी साहित्य में बहुत थोड़ा साहित्य ऐसा है जिसे उपयोगी तथा शक्ति का साहित्य कहा जा सकता है। वीररस - युक्त तथा नीति परक भी कुछ साहित्य रचा गया। समस्त रीतिकालीन काव्यधाराओं की विशेषताएँ इस प्रकार रही है।
1. श्रंगारपरक भावों की प्रधानता
समस्त रीति साहित्य में रतिभाव, कामभाव तथा वासना एवं भोगवादी दृष्टिकोण ही प्रधान है। जिस प्रेम की पीर तथा अलौकिक प्रेम की भावना भक्तिकाल में देखी गई उसके विपरीत रीतिकाल में लौकिक प्रेम एवं भंगार भाव की ही प्रचुरता रीति साहित्य में व्याप्त है। भक्ति के माधुर्य भाव ने तो जैसे नग्न श्रंगारिकता की प्रवत्ति को खुली छूट ही दे दी थी। जीवन की सामान्य घटनाओं को भी नायक-नायिका के माध्यम से बड़े ही रसीले और श्रंगारपरक ढंग से प्रस्तुत किया जाता था। एक दोहा इस तथ्य के परिणाम के लिए पर्याप्त होगा जिसमें वर्षा ऋतु में फिसल जाने वाली घटना को भी श्रंगार एवं कामुक भाव में प्रस्तुत किया गया है। एक सखी दूसरी सखियों से कह रही है।
"हम सखी दाऊ ऐसे फिसले ।
वो भये ऊपर, मैं भई नीचे ।। "
अर्थात् नायक के साथ फिसलते हुए भी काम-वासना की अभिव्यक्ति की गई है। रीतिकाल में मुक्तक लिखने वाले कवियों ने उसी गंगार भावना की अभिव्यक्ति अपनी रचनाओं में की जिसे उर्दू-फारसी के शायर, शीशे, मद (शराब) तथा पैमाने (चषक या प्याला) में ढालते रहे। एक रीतिकालीन कवि ने लिखा है
"सेज है सुराही है, सुरा और प्याला है,
सुबाला है, दुशाला है, विशाला चित्रशाला है।"
ऐसे भाव वाली रचनाओं को ही देखकर उस समय की श्रंगार - प्रधान विलासी भावना का पता चलता है। श्रृंगार रस के संयोग पक्ष का चित्रण अधिक हुआ है। वैसे वियोग का भी कुछ चित्रण हुआ है। इस सन्दर्भ में डा० नगेन्द्र लिखते हैं, 'सोचा चाहे जैसा भी रहा हो इसमें ढली श्रंगारिकता ही ।"
2. अलंकरण की प्रवृत्ति
रीतिकालीन साहित्यकारों ने काव्य के क्षेत्र में आलंकारिता, प्रदर्शन तथा चमत्कारपूर्ण उक्तियों को अपने काव्य का प्रतिपाद्य बनाया। उन्होंने अलंकारों को कविता रूपी कामिनी के लिए अनिवार्य घोषित किया। इसीलिए केशव ने तो यहाँ तक लिख दिया है
"जदपि सुजाति सुलच्छिनी सुबरन सरस सुक्त।
भूषन दिनु न विराजई कविता बनिता मित्त।।"
अर्थात् कविता तथा वनिता चाहे कितनी ही उच्च जाति की क्यों न हो, अच्छे लक्षणों वाली सुवर्ण, रसीली तथा पुष्ट क्यों न हों परन्तु जब तक वे भूषण (अलंकार) धारण नहीं करती तब तक शोभा नहीं पा सकती।
इसी कारण रीतिकाल के अधिकांश साहित्यकारों ने अलंकारों के सहारे ही अपनी रचनाएँ रर्ची अलंकार शास्त्र ही उस समय का साहित्यशास्त्र माना जाता था ।
3.भक्ति एवं लोक-जीवन का चित्रण :
रीतिकालीन रचनाकारों का मुख्य प्रतिपाद्य तो श्रंगार रस ही रहा परन्तु उनकी रचनाओं में माधुर्य, भक्ति तथा लोक जीवन की नीति संबंधी भी कुछ रचनाएँ मिलती हैं। लेकिन उनकी संख्या है बहुत कम राधा और कृष्ण का माध्यम बनाकर कुछ श्रंगारपरक भक्ति काव्य भी रचा गया। उन्हें तो राधाकृष्ण को प्रसन्न करने के लिए
श्रंगारपरक मधुराभाव की भक्ति ही अधिक उपयुक्त प्रतीत हुई। लोकाचार संबंधी जो मुक्तक अर्थात् नीतिपरक दोहे या कवित्त लिखे गए हैं उनमें भी श्रंगारी भाव छिपा है।
4. मुक्तक काव्य शैली का प्रयोग
काव्यरूपों तथा काव्यशैलियों की दृष्टि से सोचा जाए तो रीतिकालीन रचनाकारों ने प्रबंध काव्य की अपेक्षा मुक्तक काव्यशैली को प्रमुखता प्रदान की। तत्कालीन आश्रयदाताओं को तुरंत प्रसन्न करने के लिए मुक्तक काव्यशैली की प्रवत्ति का खूब प्रसार हुआ क्योंकि मुक्तक काव्य चुने हुए फूलों का गुलदस्ता होता है जिससे दरबार को असानी से मोहित एवं प्रसन्न किया जा सकता है।
5. वीररस की ओजस्वी प्रवत्ति
रीतिकाल में ही भूषण कवि हुए हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं में वीर रस का ऐसा सुन्दर एवं सरस चित्रण किया है कि उनका नाम अद्वितिय है। रीतिकाल में रचे गये साहित्य में वीर रस का अजस्र प्रवाह प्रतीत होने लगता है। इनसे संबंधित रचनाएँ मध्यप्रदेश, पंजाब, राजस्थान, हरियाणा आदि प्रदेशों के संग्रहालयों में सुरक्षित है।
6. नारी विषयक दृष्टिकोण
रीतिकालीन साहित्य में नारी के प्रति यह दृष्टिकोण रहा है कि उसे केवल भोग्या एवं भोग-विलास का साधन ही माना जाए। राज्याश्रित कवि भी अपनी कविता का केन्द्र नारी का नाख-शिख वर्णन मानते रहे। वे नारी के अंगों विशेषतः कच और कुचों में ही उलझे रहे। सौंदर्य का नग्न चित्रण ही उन्हें प्रिय रहा। नारी के बाह्य रूप-रंग को ही महत्त्व दिया जाता रहा। नारी जीवन के प्रति रीति कवियों का ऐसा संकुचित एवं एकांगी दृष्टिकोण निश्चित रूप से मुगल शासक की विलासी प्रवत्ति का परिणाम कहना चाहिए।
7. रीतिकाव्य में प्रकृति चित्र्वण :
रीतिकालीन काव्य में रचनाकारों ने अपनी रचनाओं में प्रकृति का चित्रण विशेष रूप से आलम्बन रूप में की किया है। सयोंग श्रंगार में सुखद तथा वियोग श्रंगार में दुःखद प्रकृति का चित्रण हुआ है। षडऋतु वर्णन तथा बारहमासा चित्रण भी किया गया है। वियोग की अवस्था में प्रकृति के सुखद उपादान भी दुःखद हो जाते हैं। ऐसे चित्रण बड़े ऊहात्मक भी हो गये हैं, क्योंकि चन्द्रमा की चांदनी वियोगिनी नायिका के लिए कसाई का काम करती हुई दिखाई गई है।
8. कामशास्त्रीय चित्रण मनोवैज्ञानिक आधार पर
रीतिकालीन साहित्य में स्त्री-पुरुष के यौन-सम्बन्धों को वात्स्यायन के कामसूत्र तथा कोका के कोकशास्त्रीय आधार पर चित्रित करते हुए जिस मनोवैज्ञानिक आधार की बात कही जाती है उसे ही आधुनिक युग में फ्रायडवादी दृष्टिकोण कह दिया है परन्तु रीतिकालीन रचनाकार तो संस्कृत की कामशास्त्रीय परम्परा से प्रेरित थे। रीतिकालीन साहित्य में कामुकता तथा ऐन्द्रियता की बहुत अधिकता है। नायक-नायिका भेद भी कामुक दृष्टिकोण से ही किए गए हैं। पद्मिनी, हंसिनी, हस्तिनी तथा चित्रवणी आदि नायिकाएँ उनकी मानसिक तथा कामुक प्रवृत्ति के आधार पर ही चित्रित की गई है।
9. स्वतंत्र चिन्तन का अभाव
रीतिकालीन रचनाकारों ने अपनी आजीविका के लिए जो साहित्य रचा उसमें मौलिकता तथा स्वतंत्र चिन्तन की अत्यन्त कमी दिखती है। उन्हें तो अपने आश्रयदाताओं की रुचि के अनुसार नायक-नायिका भेद अथवा काम-क्रीड़ाओं का ही अधिक चित्रण करना था संस्कृत साहित्य से विषय वस्तु लेकर उसे लोकभाषा में रूपान्तरित - करके ही उन्हें सन्तुष्ट होना पड़ता था।
10. यथार्थ जीवन के प्रति विचार
रीतिकालीन हिंदी साहित्य में सबसे महत्वपूर्ण प्रवत्ति यही है कि उसमें यथार्थ जीवन के प्रति गहरी अभिरुचि दिखाई गई है। रीतिकालीन कवियों एवं आचार्यों का जीवनदर्शन ही ऐसा था जिसमें जीवन तथा यौवन का पूर्ण उपयोग करना था। डा० भागीरथ मिश्र ने रीतिकालीन रचनाकारों को यौवन तथा बसन्त के कवि कहा है। उसे मस्ती से भरा मदमाता जीवन दर्शन कह सकते हैं। जहां जीवन का ऐसा विश्राम स्थल समझा गया कि सब प्रकार की दौड़-धूप से शान्त होकर नारी के आंचल की मधुर छाया में, मदिरा के चषकों में उंडेल दिया हो। दुःखों एवं पराभावों को भूल कर जीवन को जीने की ही नहीं अपितु भोगने और पेश करने की प्रवत्ति से जो आशावादी दृष्टिकोण विकसित हुआ उससे तत्कालीन समाज को यदि कुछ न मिला हो पर आश्रयदाताओं तथा आश्रित कवियों में तो कम से कम जीवित रहने की प्रबल इच्छा पनपी ।
11. रीतिकालीन संदर्भ काव्यभाषा
प्रत्येक युग के साहित्यकार अपने परिवेश तथा मानसिक दबाव के कारण अपने साहित्य में कुछ विशिष्ट शब्दों मुहावरों, विशेषणों तथा लोकोक्तियों को अपनी अभिव्यंजना पद्धति में सम्मिलित करते हैं। रीतिकालीन कवियों ने भी ऐसा ही किया, 'राध' और 'कृष्ण' शब्दों का प्रयोग साधारण नायक-नायिका के रूप में होने लगा । रीतकालीन हिंदी काव्य में फारसी के प्रभाव के कारण ऐसी अभिव्यंजना शैली का विकास हुआ तो कृत्रिम तथा ऊहात्मक थी।
12. रागात्मक प्रवृत्ति
भक्तिकाल में प्रकृति और निवत्ति दोनों ही जीवन मार्गों पर चलने वाले साहित्य की रचना हुई परन्तु रीतिकाल में तो रागात्मक वत्ति अथवा प्रवत्ति मार्ग को ही अपनाया गया है। स्वींकीया तथा परकीया दोनों प्रकार की नायिकाओं के माध्यम से जिस लौकिक प्रेम अथवा रागात्मक वत्ति की कविता रची गई है, उनमें वैराग्य भाव या निवत्ति मार्ग तो नगण्य ही है।
13. ब्रजभाषा की प्रधानता
रीतिकालीन हिंदी साहित्य की अधिकांश काव्य भाषा तो ब्रज ही है पर कुछ नीतिसाहित्य पंजाबी, कन्नौज, हरियाणवी तथा अवधी भाषा में भी रचा गया है। भाषा की दृष्टि से रीतिकालीन हिंदी साहित्य में माधुर्य गुण की कोमलता अत्यन्त आकर्षक है। लोक ब्रज को साहित्य के उच्च स्तर तक ही नहीं बल्कि उच्च शिखर पर पहुँचाने का कार्य हिन्दी के रीतिकालीन रचनाकारों ने किया।
14. स्पर्धा की प्रवत्ति
रीतिकालीन साहित्यकारों में प्रतिस्पर्धा एवं प्रतियोगिता की भावना भी मिलती है। इसी कारण प्रत्येक रचनाकार अपनी रचना की उत्कृष्टता की स्थापना के लिए अधिक से अधिक चमत्कारपूर्ण श्रंगार साहित्य की रचना करता रहा। रीति कवियों में आचार्यत्व को प्राप्त करने की भी स्पर्धा रही। ऐसी स्पर्धा में गंभीरता संबंधी विचारों का अभाव था।
15. साहित्य की अनेकानेक प्रवत्ति
रीतिकाल को भारतीय संस्कृति और साहित्य का पुनस्थान काल कहा गया है। इस युग में ज्ञान का क्षेत्र अनेक दिशाओं में विस्तत हुआ । रीतिकालीन आचार्य एवं कवि को अनेक विषयों का विद्वान होना आवश्यक था। उसे ज्योतिष, हस्त, सामुद्रिक, कामशास्त्र, अंक विधा, संगीतशास्त्र, चित्रकला आदि का पूर्ण ज्ञाता होना चाहिए था। इस दृष्टि से तो रीतिकालीन हिंदी साहित्य मे अनेक कलाओं को पुनः स्थापित किया गया है।