रीतिकालीन प्रतिनिधि रचनाकार-बिहारी भूषण मतिराम देव भिखारी दास घनानन्द जीवन परिचय
बिहारी जन्म साहित्यिक देन श्रंगार वर्णन भाषा
जन्म :
इनका जन्म ग्वालियर के पास बसुवा गोविंद पुर गाँव में संवत् 1660 के लगभग माना जाता है। एक दोहे के मुताबिक इनकी बाल्यावस्था बुंदेलखण्ड में बीती और तरुणावस्था में ये अपनी ससुराल मथुरा में आकर रहने लगे थे।
साहित्यिक देन
श्रंगार रस के ग्रंथों में जितनी ख्याति और मान-सम्मान 'बिहारी सतसई' का हुआ उतना किसी और रचना का नहीं। इसका एक-एक दोहा हिंदी-साहित्य में एक-एक रत्न माना जाता है। इसकी पचासी रचनाएं टीकाएं रची गई। बिहारी ने 'सतसई' के अतिरिक्त और कोई ग्रंथ नहीं लिखा। यही ग्रंथ उनकी इतनी बड़ी कीर्ति का आधार रहा है। यह बात साहित्य क्षेत्र के इस तथ्य की स्पष्ट घोषणा कर रही है कि किसी कवि का यश उसकी रचनाओं के परिणाम के हिसाब से नहीं होता, गुण के हिसाब से होता है। मुक्तक कविता में जो गुण होना चाहिए वह बिहारी के दोहों में अपने चरम उत्कर्ष पर पहुंचा है, उसमें किसी प्रकार का कोई सन्देह नहीं किया जा सकता है। मुक्तक में प्रबन्ध के समान रस की धारा नहीं रहती जिसमें कथा प्रसंग की परिस्थिति में अपने को भूला हुआ पाठक मग्न हो जाता है।
भाव व्यंजना या रस व्यंजना के अतिरिक्त बिहारी ने वस्तु व्यंजना का सहारा भी बहुत लिया है। विशेषतः शोभा या कांति, सुकुमारता विहरताप, विरह की क्षीणता आदि के वर्णन में कहीं कहीं इनकी वस्तु-व्यंजना औचित्य की सीमा का उल्लंघन करके खिलवाड़ के रूप में हो गई है।
श्रंगार वर्णन
बिहारी ने श्रंगार को अपने काव्य में विशेष स्थान प्रस्तुत किया है। श्रृंगार के संचारी भावों की व्यंजना की ऐसी मर्मस्पर्शी है कि कुछ दोहे सहृदयों के मुंह से बार-बार सुने जाते हैं।
भाषा
बिहारी की भाषा चलती होने पर भी साहित्यिक है। वाक्य रचना व्यवस्थित है और शब्दों के रूपों का व्यवहार एक निश्चित प्रणाली पर है। यह बात बहुत कम कवियों में पाई जाती है। ब्रजभाषा के कवियों में शब्दों को तोड़-मरोड़कर विकृत करने की आदत बहुतों में पाई जाती है।
भूषण जन्म साहित्यिक देन श्रंगार वर्णन भाषा
जन्म :
भूषण का जन्म संवत् 1670 में हुआ था। वीर रस के कवि भूषण चिंतामणि और मतिराम के भाई थे। चित्रकूट के सोलंकी राजा रूद्र ने इन्हें कवि भूषण की उपाधि दी थी तभी से ये भूषण नाम से प्रसिद्ध हो गए। उनका असली नाम क्या था इसका अभी तक कोई प्रमाण प्राप्त नहीं है। ये कई राजाओं के यहां पर अपने काव्य का सजन करते रहे थे।
साहित्य को भूषण की देन
भूषण की कविता कवि कीर्ति संबंधी एक अविचल सत्य का दष्टांत है। जिसकी रचना को जनता का हृदय स्वीकर करेगा उस कवि की कीर्ति तब तक बराबर बनी रहेगी जब तक स्वीकृति बनी रहेगी भूषण शिवाजी के दरबार में पहुंचने के पहले और राजाओं के पास भी रहे थे। उनके प्रताप आदि की प्रशंसा भी उन्हें अवश्य ही करनी पड़ी होगी पर वह झूठी थी, इसी से टिक न सकी। पीछे से भूषण को भी अपनी उन रचनाओं से विरक्ति हुई होगी। इनके 'शिवराज-भूषण', 'शिवाबावनी' और 'छत्रसाल दसक' में ग्रंथ मिलते हैं। इनके अतिरिक्त 3 ग्रंथ और कहे जाते हैं-'भूषण उल्लास', 'दूषण उल्लास' और 'भूषण हजारा' भूषण वीर रस के कवि थे। इधर इनके दो-चार कवित्व श्रंगार के भी मिलते हैं, पर वे गिनती के योग्य नहीं हैं। रीतिकाल के कवि होने के कारण, भूषण ने अपना प्रधान ग्रंथ 'शिवराज-भूषण' अलंकार के ग्रंथ के रूप में बनाया ।
भाषा
भूषण की भाषा में ओज की मात्रा तो पूरी है पर वह अधिकतर अव्यवस्थित हैं। व्याकरण का उल्लंघन प्राय है और वाक्य - रचना भी कहीं-कहीं गड़बड़ है। इसके अतिरिक्त शब्दों के रूप भी बहुत बिगड़ गये हैं और कहीं-कहीं बिलकुल गठत के शब्द ही रखे गये हैं।
मतिराम जन्म साहित्यिक देन श्रंगार वर्णन भाषा
जन्म :
ये रीतिकाल के मुख्य कवियों में से हैं। इनका जन्म तिकवाँपुर (जिला कानपुर) में संवत् 1674 के लगभग हुआ था।
साहित्यिक अवदान
ये बूंदी के महाराजा भावसिंह के यहां बहुत समय तक रहे और उन्हीं के आश्रय में अना 'ललितललाम' नामक अलंकार का ग्रंथ संवत् 1716 और 1745 के बीच के समय में रचा। इनका 'छंदसार' नामक पिंगल का ग्रंथ महाराज शंभुनाथ सोलंकी को समर्पित है। इनका परम मनोहर ग्रंथ 'रसराज' किसी को समर्पित नहीं है। इनके अतिरिक्त इनके दो ग्रंथ और हैं- साहित्यसार' और 'लक्षण श्रंगार बिहारी सतसई के ढंग पर इन्होंने एक मतिराम सतसई' भी बनाई जो हिंदी पुस्तकों की खोज में मिली है। इसके दोहे सरसता में बिहारी के दोहों के समान ही हैं।
मतिराम की रचना की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनकी भाषा अत्यंत स्वाभाविक है, न तो उसमें भावों की कृत्रिमता है, न भाषा की। भाषा शब्दाडम्बर से सर्वथा मुक्त है। इस प्रकार की स्वच्छ, चलती और स्वाभाविक भाषा रीति ग्रंथवाले कम कवियों में मिलती है। मतिराम की सी रसस्निग्ध और प्रसादपूर्ण भाषा रीति का अनुसरण करने वालों में बहुत ही कम मिलती है।
'रसराज' और 'ललितललाम मतिराम के ये दो ग्रंथ बहुत ही प्रसिद्ध रहे हैं। क्योंकि रस और अलंकार की शिक्षा में इनका उपयोग बराबर होता चला आया है। वास्तव में ये अपने समय के अनुपम ग्रंथ हैं। उदाहरणों की रमणीयता से अनायास रसों और अलंकारों का अभ्यास होता चलता है। 'रसराज' का तो कहना ही क्या है। 'ललितललाम' में भी अलंकारों के उदाहरण बहुत सरस और स्पष्ट हैं। इसी सरसता और स्पष्टता के कारण ये दोनों ग्रंथ इतने लोकप्रिय रहे हैं।
रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों में पद्म को छोड़ और किसी कवि में मतिराम की सी चलती भाषा और सरल व्यंजना नहीं मिलती।
देव जन्म साहित्यिक देन श्रंगार वर्णन भाषा
जन्म :
इनका जन्म संवत् 1730 के लगभग हुआ था। ये इटावा के रहने वाले सनाढ्य ब्राह्मण थे । कुछ लोगों ने इन्हें कान्यकुब्ज सिद्ध करने का भी प्रयत्न किया है। इनका पूरा नाम देवदत्त था ।
साहित्यिक अवदान
रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों में शायद सबसे अधिक ग्रंथ रचना देव ने की है। इनकी रची पुस्तकों की संख्या 52 है और कई विद्वान 72 तक बतलाते हैं। इनके प्रसिद्ध ग्रंथों में भाव-विलास, अष्टयाम भवानी - विलास, सुजान - विनोद, प्रेम तरंग, कुशल-विलास, देवचरित्र, रस-विलास, पावस-विलास, आत्म-दर्शन पचीसी, रसानंद, प्रेमदीपिका, सुमिल-विनोद, राधिका विलास आदि रहे हैं।
देव आचार्य और कवि दोनों रूपों में हमारे सामने आते हैं। यह पहले ही कहा जा चुका है कि आचार्यत्व के पद के अनुरूप कार्य करने में रीतिकाल के कवियों में पूर्ण रूप से कोई भी समर्थ नहीं हुआ।
कवित्व शक्ति और मौलिकता देव में खूब थी पर उनके सम्यक् स्फुरण में उनकी रुचि प्रायः बाधक हुई है। कभी-कभी वे कुछ बड़े और पेचीदे विषय का हौसला बांधते थे पर अनुप्रास के आडंबर की रूचि बीच ही में उसका अंग-भंग करके पद्य को कीचड़ में फंसा छकड़ा बना देती थी। अधिकतर इनकी भाषा में प्रवाह पाया जाता है। कहीं-कहीं शब्द व्यय बहुत अधिक है और अर्थ अल्परीतिकाल के कवियों में ये बड़े ही प्रगल्भ और प्रतिभा सम्पन्न कवि थे, इसमें संदेह नहीं। इस काल के बड़े कवियों में इनका विशेष गौरव का स्थान है। कहीं-कहीं इनकी कल्पना बहुत सक्षम और दूरारूढ़ है। इनका सा नवोन्मेष बिरले ही कवियों की रचनाओं में मिलता है।
दास (भिखारी दास) जन्म साहित्यिक देन श्रंगार वर्णन भाषा
जन्म :
ये प्रतापगढ़ (अवध) के पास टयोंगा गाँव के श्रीवास्तव कायस्थ थे। इन्होंने अपना वंश-परिचय पूरा दिया है। इनके पिता कृपालदास, पितामह वीरभानु प्रपितामह राय रामदास और वद्ध पितामह राय नरोत्तमदास थे। दास जी के पुत्र अवधेशलाल और पौत्र गौरीशंकर थे जिनके सुपुत्र मर जाने पर वंश परंपरा खंडित हो गई।
काव्य रचनाएं एवं अन्य ग्रंथ
दास के ग्रंथ-रससारांश छंदीर्ण पिंगल, काव्यनिर्णय, श्रंगारनिर्णय, नामप्रकाश, विष्णु पुराण भाषा, छंद प्रकाश, शतरंज-शतिका, अमप्रकाश आदि रहे हैं।
साहित्यिक देन
काव्यांगों के निर्माण निरुपण में दास को सर्वप्रधान स्थान दिया जाता है, क्योंकि उन्होंने छंद, रस, अलंकार, रीति, गुण-दोष, शब्द शक्ति आदि सब विषयों का औरों से अधिक विस्तत प्रतिपादन किया हैं। इनकी विषय-प्रतिपादन शैली उत्तम है और आलोचना शक्ति भी इनमें कुछ पाई जाती है। हिंदी काव्य क्षेत्र में इन्हें परकीया के प्रेम की प्रचुरता दिखाई पड़ी जो रस की दृष्टि से रसामास के अन्तर्गत आता है। बहुत से स्थलों पर तो राधा-कृष्ण का नाम आने से देवकाव्य का आरोप हो जाता है और दोष का कुछ परिहार हो जाता है। पर सर्वत्र ऐसा नहीं हुआ है।
दास ने साहित्यिक और परिमाजित भाषा का व्यवहार किया है। श्रृंगार ही उस समय का मुख्य विषय रहा है। इनका श्रंगार - निर्णय अपने ढंग का अनूठा कार्य है। उदाहरण मनोहर और सरस हैं। भाषा में शब्दाडंबर नहीं है। न ये शब्द चमत्कार पर टूटे हैं, न दूर की सूझ के लिए व्याकुल हुए हैं। इनकी रचना कलापक्ष में संयत और भावपक्ष में रंजनकारिणी है।
घनानन्द जन्म साहित्यिक देन श्रंगार वर्णन भाषा
जन्म :
घनानन्द का जन्म 1673 के लगभग बुलन्दशहर जिले के कायस्थ परिवार में हुआ था ।
जीवन परिचय
घनानन्द दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला के दरबार में मीर मुन्शी थी। ये उसी बादशाह के दरबार की सुजान नामक एक वेश्या से प्रेम करते थे। एक बार बादशाह के कहने पर भी घनानन्द ने गाकर नहीं सुनाया, परन्तु सुजान के कहने पर इन्होंने आत्म-विभोर हो गाया। इस कारण बादशाह के कोप का शिकार होना पड़ और दिल्ली छोड़नी पड़ी परन्तु सुजान, कहने पर भी उनके साथ नहीं गई। उसकी विरह - भावना को लेकर इन्होंने सरस-मुक्तकों की रचना की। इनका काव्य हृदयानुभूति से निकला हुआ काव्य है।
प्रमुख रचनाएँ
इनकी प्रमुख रचनाओं में 'सुजान सागर', 'विरहलीला', 'कोकसागर', 'घन आनन्द कवित्त', 'सुजानहित प्रबन्ध', 'वियोग बेलि', 'प्रीति- पावस' एवं 'सुजान - विनोद' आदि हैं।
काव्यगत प्रमुख विशेषताएँ
सौंदर्य वर्णन - घनानंद का प्रेम रूप-जन्य है। कवि ने मुहम्मद शाह रंगीले के दरबार में रहकर सुजान - वेश्या से वस्तुतः प्रेम किया था और यह प्रेम इसलिए हुआ क्योंकि सुजान रूप का आगार थी । सुजान के अंग-प्रत्यंग में सौंदर्य की ऐसी तरंगें उठती थीं मानो क्षणभर में ही चू पड़ेगी। सुजान का ऐसा रूप नित नवीन लगने वाला है।
संयोग में वियोग का आनन्द
घनानन्द के प्रेम की एक अभूतपूर्व विशेषता उनके संयोग में वियोग का वर्णन है। यदि प्रेमी भूले से स्वप्न में भी क्षणभर के लिए उन्हें दिखाई दे जाता है तो उन्हें यह चिन्ता हो जाती है कि कुछ समय पश्चात वह फिर चला जाएगा। ऐसी स्थिति केवल घनानन्द के काव्य में ही मिलती है।
सात्विक प्रेम निरूपण
घनानन्द का प्रेम रूप जन्य है, नितांत लौकिक है। इसलिए उनकी प्रेमानुभूति मिल-सुख से सुवसित है । उसमें रति सुख है। उनके प्रेमकाव्य में आलिंगन, मिलन, परिरम्भण आदि हैं।
कला-पक्ष
कला-पक्ष की दृष्टि से घनानन्द की काव्य-भाषा ब्रज भाषा है। लेकिन अभिव्यंजना की दृष्टि से वह व्यावहारिक, सजीव व्याकरण सम्मत एवं पूर्णतया साहित्यिक है।