रीतिकालीन परिवेश- ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक
1. रीतिकालीन- ऐतिहासिक परिवेश
हिंदी साहित्य के इतिहास में संवत् 1700 से 1900 तक का समय था जब भारत में मुगलों का राज्य था। मुगलों के वैभव-विलास और विजय वत्तान्त के अनेक उदाहरण इस बात के प्रमाण है कि उस समय बादशाहों का उत्कर्ष चरम अवस्था पर पहुँचा हुआ था। शासक समर्थ थे और जैसे ही युद्ध से अवकाश मिलता था, विलासिता में डूबे रहते थे। इसका परिणाम यह भी हो रहा था कि जिस शासन को अकबर ने अपनी नीति से दढ़ बनाया और जहाँगीर ने भी अच्छी तरह संभाला वह शाहजहाँ के समय से मुगल काल उत्कर्ष के बिन्दु से नीचे गिरने लगा था। इस संबंध में डा. नगेन्द्र का मत है कि- "जिस प्रकार साहित्य के इतिहास में भक्ति काव्य के चरम वैभव के बाद संवत् 1700 के आस-पास से ही कविता क्षयग्रस्त होने लगी थी, ठीक उसी प्रकार राजनैतिक इतिहास में मुगल साम्राज्य भी अपने सम्पूर्ण यौवन को प्राप्त करने के उपरान्त हासोन्मुख हो चला था।"
मध्ययुग में समाज सामन्तवादी पद्धति का था। उच्च वर्ग के राजा और सामन्तों का जीवन, वैभव से पूर्ण था। दिल्ली के अनुकरण पर छोटे-छोटे राजाओं में भी वैभव - विलास की प्रवत्ति थी उपवन और रमणीय विहार-स्थल उस समय के समाज के लिए वंदनीय थे। पुष्प, इत्र, गंध, फव्वारे और अन्य विलास सामग्री राजा और सामन्तों को तृप्ति देती थीं। इस तरह के समाज का कवियों की रचनाओं पर भी असर पड़ा। इस संबंध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है- " श्रंगार - वर्णन को बहुतेरे कवियों ने अश्लीलता की सीमा तक पहुँचा दिया। इसमें जनता की रुचि नहीं, आश्रयदाताओं की रुचि थी, जिनके लिए वीरता और कर्मण्यता का जीवन बहुत कम रह गया था।" रीतिकाल में निम्न वर्ग का जीवन सदा की भाँति उपेक्षित था। उनकी आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं थी। कवि और कलाकारों का वर्ग राजा लोगों के यहाँ रहता था जो वैसे ही उच्च आशाएँ-आकांक्षाएँ रखता था ।
तत्कालीन समय में मुगलों की उत्तराधिकार की नियम हीनता ने अशांति और संघर्ष का वातावरण बना दिया। देश के अन्य भागों में भी इसी तरह के विद्रोह और संघर्ष के तेवर बढ़ रहे थे। अकबर के राजपूत सहयोगी नीति को औरंगजेब ने ध्वस्त करके जयपुर पर अधिकार किया तो मरवाह और मेवात सभी मुगलों के विरुद्ध हुए संघर्ष करते रहे।
शाहजहाँ के समय में स्थापत्य कला की विशेष उन्नति हुई, दिल्ली का लाल किला और जामा मस्जिद, मोती मस्जिद, दीवाने आम, ताजमहल आदि उसकी वास्तु कलाप्रियता के प्रमाण हैं। वह साहित्य प्रेमी भी था, तथा फारसी, संस्कृत और हिंदी के कवियों को संरक्षण प्रदान करता था। पंडितराज जगन्नाथ, आचार्य सरस्वती आदि कवि उसके दरबार से सम्बद्ध थे। प्रमुख रीतिकालीन कवि चिन्तामणि उसके कृपापात्र थे। इसके समय में ज्योतिष, अंकगणित, बीजगणित आदि में पर्याप्त प्रगति हुई। औरंगजेब ने लगभग अर्द्ध शताब्दी तक शासन किया। उसका साम्राज्य धार्मिक कट्टरता, अत्याचार एवं अन्याय का शासन रहा। उसकी संकीर्णता के फलस्वरूप जाट, सिक्ख, राजपूत, मराठा आदि सभी उसके विरोधी हो गये। हिन्दू मन्दिरों और पाठशालाओं को तोड़ने की आज्ञा दे दी गयी। काव्य कला से वह घृणा करता था। उसने कलाविदों को दरबार से निकाल दिया। अतः उनको ओरछा, कोटा, बूँदी, जोधपुर आदि राज्यों में शरण लेनी पड़ी। इस प्रकार औरंगजेब का अधिकांश समय विरोधियों का दमन करने में बीता। औरंगजेब के बाद थोड़े-थोड़े समय के लिए अनेक मुगल शासक हुए, लेकिन उनका समय अकर्मण्यता, अयोग्यता, विलासिता आदि का इतिहास है।
2. रीतिकालीन सामाजिक परिवेश
रीतिकालीन काव्य की सर्जना भी सामाजिक परिवेश सम्राट के आतंक और जनसाधारण के दैन्य की परिस्थिति है। राजा बादशाह का प्रभुत्व लिए शासक वर्ग था जो शासन को चलाने वाले थे, दूसरे गरीब किसान, व्यापारी, दुकानदार थे। इतिहासकारों ने इन्हें क्रमशः योद्धा वर्ग और उत्पादक वर्ग कहा है। उनकी स्थिति को स्पष्ट करते हुए डा० ईश्वरी प्रसाद ने कहा है- "भोक्ता वर्ग सम्राट के परिवार और दरबारों से लेकर उनके नौकर चाकर और दासों तक फैला हुआ था। यह वर्ग राज्य की शक्ति था अतएव उत्पादक वर्ग पर इसका पूर्ण प्रभुत्व था। सामाजिक स्थिति भी उनकी श्रेष्ठ थी। इन दोनों के बीच बहुत बड़ा अन्तर था - शासक और शाषित - शोषक और शोषित का । "
इस समय का एक समाज मुगलों का परिवार और उनके दरबारी सामन्तों का था। बहुमूल्य आभूषण, हीरे, जवाहरात, रत्न, माणिक, स्वर्ण, रजत आदि के बेहद प्रयोग से ऐश्वर्य का पता चलता था। स्त्रियों के आभूषण और इत्र, फुलेल, श्रंगार प्रसाधनों का जिस दरबार में प्रसार था उसने उस समय के कवियों को काव्य में तरह-तरह की साज सज्जा को चित्रित करने की एक दष्टि अच्छी प्रकार दे रखी थी। श्रंगार और वैभव विलास सुरा सुराही के ऐसे चित्रण रीतिकाव्य में इसी से बड़े स्वाभाविक रूप में मिलते हैं। इस तरह का एक बड़ा प्रसिद्ध कवित्त कविवर पद्माकर द्वारा रचित इस प्रकार रहा है-
"शिशिर के पाला को न व्यापत कसाला तिन्है,
जिनके अधीन एते उदित मसाला हैं।
तान तुक ताला है विनोद के रसाला हैं,
सुबाला है दुशाला है विशाला चित्रशाला है।।"
वैभव विलास के इस समाज में क्रीड़ा और मनोविनोद के तत्कालीन प्रचलित साधनों की कमी नहीं थी। शतरंज चौसर का खेल, तोता मैना कबूतर को पालना शिकार और जानवरों की लड़ाई के शौकीन ये लोग श्रमिक दलित वर्ग के दुःख अभाव से अपरिचित होकर जीवन जी रहे थे।
स्त्रियों की समाजिक स्थिति दयनीय थी। वे पुरुष की सम्पत्ति अथवा भोग्या मात्र थीं। किसी कन्या के अपहरण अभिजात वर्ग के लोगों के लिए साधारण बात थी। कदाचित् इसीलिए अल्पायु में लड़कियों का विवाह अधिक प्रचलित हो गया था। बेगमों और रक्षिताओं की अगिनत संख्या के होते हुए भी लोग वेश्याओं के यहाँ पड़े रहते थे उनके इशारों पर लोगों के भाग्य का निर्णय तक हो जाया करता था। वस्तुतः भारतीय इतिहास में यह घोर पतन का युग था रीतिकालीन कवियों द्वारा नारी के चित्रण से उसी समाजिक परिस्थिति पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। वस्तुतः इस काल का कवि अपने आश्रयदाताओं के भोगपरक जीवन करे देखकर ओर उस प्रकार के जीवन को यश और सम्मान का कारण समझ कर उसे कल्पना और वाग्वैदग्ध्य के बल पर अपनी चरम सीमा तक घसीट ले जाने के लिए मजबूर था।
इसके अतिरिक्त समाज का एक और भी वर्ग था वह था विद्वान और कवि कलाकारों का ये प्रायः छोटे वर्ग से आये हुये होते थे । परन्तु बादशाह और राजा - सामन्तों के आश्रय में रहते थे। इनकी कला का पुरस्कार बड़े लोग ही दे सकते थे इसलिए ये उनके आश्रय में रहते थे और उसी तरह का तेवर रखते थे। कई कवि तो जैसे केशव, बिहारी, भूषण तो राजाओं की तरह ही रहते थे। मुगल साम्राज्य के पतन की परिस्थिति का इन कवि-कलाकारों पर भी प्रभाव पड़ा। दिल्ली के बादशाह औरंगजेब के बाद दिल्ली में स्थायी शासन न होने से ये कलावन्त छोटे-छोटे राजा, नवाब, सामन्तों और रईसों के आश्रय में रहने लगे। रीतिकाल के कवियों के समाज का यह जीवित सत्य है।
3 रीतिकालीन- सांस्कृतिक परिवेश
तत्कालीन राजनीतिक सामाजिक अवस्था के समान इस युग में देश की धार्मिक-सांस्कृतिक स्थिति भी अत्यन्त शोचनीय थी। अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ की उदारतावादी नीति तथा संतों और सूफियों के उपदेशों के कारण हिन्दू और इस्लाम संस्कृतियों के निकट आने का जो उपक्रम हुआ था, वह औरंगजेब की कट्टरता के कारण एक प्रकार से समाप्त हो चला था । भक्तिकाल में काव्य की जो चार धारायें प्रारम्भ हुई थीं वे किसी न किसी रूप में इस युग में भी वर्तमान थीं किन्तु उनकी आध्यात्मिक गरिमा संत और भक्त कवियों की अपने उपास्य के प्रति अनन्य निष्ठा, स्वान्तः सुखाय काव्य-रचना का संकल्प, राजकीय वैभव की उपेक्षा और लोकमंगल की भावना धीरे-धीरे समाप्त हो रही थी। संत कवियों की बायाचार विरोधमूलक पति और सूफियों के प्रेम की पीर का कुछ प्रभाव समाज पर अवश्य पड़ा था। इस आलोच्यकालीन युग में भी पुरानी परम्परा के सूफी तथा संत विद्यमान थे, पर किसी में भी कबीर, नानक अथवा जायसी जैसा व्यक्तित्व और प्रतिभा नहीं थी, जो जन-जीवन को प्रभावित कर सकती। ये लोग पूर्ववर्तियों की वाणी के मात्र प्रचारक थे। इस युग में रामकाव्य-धारा में की पूर्व परम्परा एक प्रकार से अवरुद्ध सी हो गयी थी और उसमें जो रसिक सम्प्रदाय पनप रहा था, उसमें घोर श्रंगारिकता आ गयी थी। सूरदास एवं अष्टछाप के अन्य कवियों ने राधाकृष्ण के प्रेम का खुलकर वर्णन किया था। यद्यपि उसके मूल में आध्यात्मिक चेतना प्रखर रूप से विद्यमान थी, किन्तु रीतिकाल तक आते-आते भक्ति और अध्यात्म का आवरण क्षीण होता गया और लौकिक श्रंगार प्रबल होता गया। रीतिकाल के लगभग सभी कवियों ने प्रेम-वर्णन में सम्मान के साथ राधाकृष्ण का नाम लिया किन्तु श्रंगार का अतिरंजनात्मक वर्णन किया ।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि इस युग में देश की सांस्कृतिक अवस्था भी अत्यन्त शोचनीय थी। अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ की उदारतावादी नीति तथा संतों और सूफियों के परिणामस्वरूप हिन्दू और इस्लाम एक-दूसरे के विरुद्ध होने लगे थे वैष्णव सम्प्रदायों के मठाधीश राजाओं और सामन्तों को गुरुदीक्षा देने में गौरव का अनुभव करने लगे थे मन्दिरों में अब ऐश्वर्य और विलास की लीला होने लगी थी । स्थिति यहाँ तक पहुँच गई थी कि हिन्दू अपने आराध्य राम-कृष्ण का अतिशय भंगार ही नहीं करने लगे थे, उनकी लीलाओं में अपने विलासी जीवन की संगति खोजने लगे थे। धर्म का नैतिकता के साथ संबंध विछिन्न हो गया। जनता के अन्धविश्वासों का लाभ पुजारी और मुल्ला उठाते थे और धर्म स्थान भ्रष्टाचार तथा पापाचार के केन्द्र बन गए थे।
4. रीतिकालीन- साहित्यिक परिवेश
साहित्य और कला की दृष्टि से यह युग पर्याप्त समद्ध कहा जा सकता है। इस काल के कवि और कलाकार यद्यपि साधारण वर्ग के व्यक्ति थे, तथापि उन्हें अपने आश्रयदाता मुगल सम्राटों या देशी नवाबों से इतना सम्मान मिलता था कि समाज के प्रतिष्ठित लोगों में उनकी गिनती की जाती थी। मुगल दरबार की भाषा फारसी थी। उस समय फारसी शैली मजदूं आदि की रोमानी कहानियाँ भी निबद्ध हो रही थीं। जिनका प्रभाव रीतिकालीन हिंदी साहित्य पर स्पष्ट देखा जा सकता है। शाहजहाँ आत्म-प्रशंसा सुनने का अत्यन्त प्रेमी था। ब्रजभाषा जन-जीवन के निकट होते हुए भी फारसी के प्रभाव से न बच सकी। विलासी आश्रयदाताओं की वासना को गुदगुदाने के लिए लिखी हुई श्रंगारिक रचनाओं पर भी इस शैली का ऐसा ही प्रभाव स्पष्टतः देखा जा सकता है। परन्तु संयोग से ये कवि चमत्कार के उपकरणों के लिए फारसी की ओर उन्मुख न होकर संस्कृत की ओर उन्मुख हुए। इतना ही नहीं, इन लोगों ने इन उपकरणों का निरूपण भी इतने मनोयोगपूर्वक किया कि आज पद्धति अथवा रीति के कारण ही इस युग को रीतिकाल की संज्ञा देना अधिक उपयुक्त समझा जाता है। इधर जन-समुदाय के ऐसे कवि भी विद्यमान थे, जो स्वतंत्र रूप से काव्य की रचना कर रहे थे।
प्रदर्शन - प्रधान रीतिकालीन चित्रकला नायक-नायिकाओं की बंधी बंधाई प्रतिकृतियाँ तैयार होती रहीं। उस समय की चित्रकला की नायक-नायिकाओं के रूढिबद्ध चित्र, पौराणिक कथाओं पर आधारित चित्र तथा राग-रागनियों के प्रतीक चित्रों का बाहुल्य है। कृष्ण और राधा के तो उस युग में अश्लील चित्र बने थे, साथ ही साथ शिव-पार्वती को भी उसी कोटि में लाकर खड़ा कर दिया। काव्य और चित्रकला के अतिरिक्त इस युग में स्थापत्य कला और संगीत कला का भी विशिष्ट स्थान रहा। मुगल सम्राट शाहजहाँ को यद्यपि संगीत का अच्छा ज्ञान था। तथापि उसकी रुचि स्थापत्य कला में अधिक रहीं। शाहजहाँ ने जितनी इमारतें बनवायीं, उन सबमें सूक्ष्म सौन्दर्य पर अधिक ध्यान दिया गया है। आगरा का ताज' और दिल्ली का 'दिवाने खास' इसके सशक्त उदाहरण हैं। इस काल में कवियों और कलाकारों को राजाश्रयों में यथोचित सम्मान प्राप्त होने के कारण साहित्य और कला की स्थिति कुल मिलाकर अच्छी रही। किन्तु अलंकारप्रिय विलासी आश्रयदाताओं की अभिरुचि से अत्यधिक प्रभावित रहने के कारण इनमें से किसी का भी क्षेत्र गुण की दृष्टि से विशद् न हो सका। हिंदी रीतिकाल को मानव मूल्यों के मापदण्ड पर पतनोन्मुख ही कहा जायेगा क्योंकि प्राकृतिक प्रतिभा को कुंठित करके आरोपित मूल्यों को कोई भी प्रबुद्ध आलोचक उचित नहीं कह सकता। इसीलिए रीतिकालीन हिंदी साहित्य में जो श्रंगार एवं अलंकरण की प्रवृत्ति देखी जाती है वह प्रदर्शन की भावना ही है। रीतिकालीन साहित्य की उपलब्धि मौलिक रचनाओं में नहीं देखी जा सकती, क्योंकि मौलिक रचनाएँ तो बहुत ही कम लिखी गई।