रीति काल के प्रवर्तक आचार्य, रीति ग्रंथों की रचना परंपरा
रीति काल के प्रवर्तक आचार्य
हिन्दी साहित्य के इतिहास के मध्य काल का उत्तर भाग रीतिकाल के नाम से जाना जाता है। इस काल का प्रारम्भ अधिकांश विद्वानों द्वारा सं. 1706 माना गया है। कुछ विद्वानों का कहना है कि रीतिग्रन्थों के निर्माण का श्रीगणेश आचार्य चिंतामणि ने किया है। इस प्रकार इन्हें ही इस पंरपरा का प्रवर्तक मानना चाहिए। विद्वानो का एक वर्ग रीतिकाल को संवत 1650 से प्रारंभ मानता है। ऐसे विद्वानो की मान्यता है कि रीति ग्रन्थों का निर्माण विशेष पद्धति से होता है। इससे पूर्व लिखे गए ग्रन्थो में ये लक्षण नहीं मिलते हैं। इस वर्ग के विद्वानों का कहना है कि शास्त्रीय ढंग से लिखे गए ग्रंथो में कविप्रिया और रति का प्रिया का विशेष स्थान है। ये ग्रंथ शास्त्रीय आधार पर निर्मित है। इस प्रकार आचार्य केशव को ही रीति काल का प्रर्वतक मानना चाहिए। जिस प्रकार प्रत्येक धारा की रचनाओं के विषय में कुछ न अनुकूल और प्रतिकूल चर्चाएँ होती रहती हैं। इसी प्रकार रीतिकाल के रीति-ग्रन्थो और कर्मकाल पर चर्चा चलती रहती है।
रीतिकालीन कवियों और उनकी रचनाओं पर विचार करने की आवश्यकता है। हिन्दी के रीति ग्रन्थ की प्रारंम्भिक रचना कृपाराम कृत "हित तरंगिणी" को मान सकते है। उनकी कृति में पूर्व के कुछ रीति- ग्रन्थकारों की ओर भी संकेत किया गया है। इस विषय में यह उल्लेखनीय है। कि इन रीतिग्रन्थकारों की कोई भी कृति उपलब्ध नहीं है जब तक किसी साहित्यकार की ऐसी कृति मिल नहीं जाती तब तक उस पर विचार कर पाना असम्भव है।
कृपाराम की "हित तरंगिणी' पर भरतमुनि के नाट्य शास्त्र का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। इसमें दिया गया नायिका भेद बहुत कुछ नाट्यशास्त्र से मेल खाता है। यह प्रथम और प्रारंभिक रचना है, किन्तु सिद्धांत की दृष्टि से इस रचना में न कोई मौलिकता है न ही विशेष महत्व है।
कृपाराम के पश्चात रीति के शास्त्रीय ग्रंथ रचना में गौण कवि का नाम लिखा जा सकता है। 'अलंकार चन्द्रिका' इनका ग्रन्थ है। इसमें अंलकार का विवेचन है। यह ग्रन्थ भी माम चर्चा में है, किन्तु कृति उपलब्ध नहीं है। मोहन लाल मिश्र ने भी श्रंगार सागर' की रचना की है। इस विषय में अधिकांश विद्वानो का मत है कि यह कृति भक्ति काल के रीति ग्रंथो में से एक है। इसे रीति काल के ग्रंथो में रखना उचित नहीं होगा। शास्त्रीय विवेचन में यह ग्रंथ विशेष महत्व का है। इसमें रस और नायिका भेद का सविस्तार निरूपण किया गया है। अष्टछाप के कवियों में से एक कवि नन्ददास ने 'रसमंजरी' की रचना की है जिसमें नायिका भेद का शास्त्रीय संदर्भ दिखाई देता है। अकबर के शासन के अनेक कवियों ने भी रीति ग्रंथों की रचना परम्परा में अपना योगदान दिया है। इनमें रहीम, बलभद्र और कवि गंग का नाम विशेष उल्लेखनीय है। केशव से पूर्व रचे गए रीति ग्रंथो में करने से कवि के तीन ग्रंथों की विशेष चर्चा आती है। ये ग्रंथ हैं- 'करुणा-मरण', 'श्रुतिभूषण और 'भूपभूषण'। इन ग्रंथों का अपना महत्व है। ये तीनों ही ग्रंथ अलंकार चर्चा पर आधारित हैं। इतना होने पर रीति शैली की किसी विशेष बात दिखाई नहीं होती है।
इस प्रकार के विस्तृत विवेचन में केशव के पूर्व कई कवियों की कृतियाँ सामने आती हैं, किन्तु शास्त्रीय दृष्टि से रीति तत्वों का आभाव ही दिखाई देता है। इन ग्रंथों में रीति तत्वों की महत्ता न होने से इस समय के किसी कवि को रीति ग्रंथ रचना का प्रर्वत्तक नहीं मान सकते हैं।
रीतिकालीन आचार्य केशव के ग्रंथों में प्रतिपादित रीति तत्त्वों को देखते हुए इनको रीति-चिंतन पद्धति पर विचार करना चाहिए। इनके पूर्व कृपाराम कृति 'हित तरंगिणी' एक मात्र ऐसा ग्रंथ है जिसमें रीति तत्त्वों का समावेश मिलता है, किन्तु अनुकूल शास्त्रीय व्यवस्था का अभाव है। किसी सीमा तक इसका नायिका भेद उपयोगी मान सकते हैं।
आचार्य केशव संस्कृत के प्रकांड विद्वान
आचार्य केशव संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। उन्होंने संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन किया और अपनी रचनाओं में रीति पंरपरा का गुरुतर संवहन किया है। उनकी कृतियों में रस, अलंकार, काव्य-दोष, कवि कम, काव्य-स्वरुप और काव्य-वत्तियों आदि का सविस्तार विवेचन किया गया है। केशव को अलंकार प्रतिपादन और सैद्धान्तिक विवेचन में अग्रणी कवि माना गया है। केशव अलंकारवादी कवि थे। इसी प्रवति के कारण केशव को भामह और दण्डी के साथ रखा जाता है। इस प्रकार केशव के काव्य में रीति के तत्त्वों का गंभीरता से प्रतिपादन किया गया है।
आचार्य चिंतामणि रीति काल के कवि
आचार्य चिंतामणि रीति काल के अन्य प्रमुख कवि है जिनकी लेखनी चार महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का सजन हुआ है। इनके ग्रंथ हैं- 'काव्य-विवेक', 'कविकुल कल्पतरु', 'काव्य-प्रकाश' और 'रसमंजरी' । इन ग्रंथों में काव्य की विविध धाराओं का उत्तम विवेचन किया गया है। इनके द्वारा छंद शास्त्र पर 'पिंगल' नामक कृति का भी सजन किया गया है। इस प्रकार रीति ग्रंथ निर्माण की बलवती परंपरा का स्वरूप सामने आता है। इस काल के अधिकांश कवियों ने संस्कृत के कवियों से मिली है। इन ग्रंथों के रचना की प्रेरणा संस्कृत के कवियों से मिली है। इन ग्रंथों के आधार संस्कृत ग्रंथ है सर्वप्रथम आधार कवियों और उनके ग्रंथो की चर्चा आवश्यक है।
आचार्य भरतमुनि के 'नाट्य शास्त्र में रस के विशद विवेचन के साथ छंद अलंकार, काव्य-गुण, काव्य- दोष और नाटय स्वरुप का विवेचन किया गया है। नाट्य शास्त्र के विभिन्न अध्यायों में काव्यशास्त्र के विभिन्न संदर्भों का विवेचन है। इसकी छाप रीतिकालीन कवियों पर यत्र-तत्र दिखाई देती है। आचार्य भामह के 'काव्यालकांर में अलंकार सिद्धांत की बहु विधि विवेचना की गई है। भारतीय आचार्यों द्वारा स्थापित छः सिद्धांतो की चर्चा संरकत की ही देन हैं जहाँ से रीतिकाल के कवियों को प्रेरणा मिली है।
रीति ग्रंथों की रचना परंपरा
रीति ग्रंथों की रचना परंपरा में संस्कृत के पश्चात प्राकृत और अप्रभंश की कृतियाँ भी उल्लेखनीय हैं-
(1) प्राकृत के रीति ग्रंथ एवं अन्य ग्रंथ
1. भविसयत्तमहा ( 10वीं शती)
2. णायकुमारचरिउ पुष्पदैतचरिउ ( 10वीं शती)
3. महापुराणम- महाकविपुष्पदैतविरचित (972 वि.स.)
4. चनुप्पन महापुरिस चरियं (11वीं शती)
5. प्राकृत कथा संग्रह (11वीं शती)
6. आख्यामानक मणिकोश - नेमचन्द्र सूरि ( 12वीं शती)
7. जिनदत्ताख्यानद्वय (12वीं शती)
8. अपभ्रंश काव्यमयी (13वीं शती)
9. प्रबंध चिंतामणि ( 14वीं शती)
(2) अपभ्रंश के रीति ग्रंथ एवं अन्य ग्रंथ
1. माइल्लधवल (दोहा ग्रंथ ) श्री देव सेन मुनि
2. मुंज के दोहे
3.ब्रह्म कवि के दोहे
4. भोज के दोहे एवं समस्यापूर्ति
5. हेमचन्द का व्याकरण
6. कुमारपाल प्रतिबोध
7. रासो
8. प्रबन्ध चिन्तामणि
9. ढोला मारु दोहा
10 पुरानी हिन्दी के दोहे
इस प्रकार रीति ग्रंथों के साथ अन्य ग्रन्थो के रचना की गंभीर परंपरा दिखाई देती है। इसके आधार पर रीतिकालीन ग्रंथ सामने आए है।