रीतिकालीन गद्य साहित्य- खड़ी बोली दक्खिनी राजस्थानी भोजपुरी और अवधी गद्य साहित्य
रीतिकालीन गद्य साहित्य
आधुनिक काल में जो गद्य पूर्ण वैभव के साथ प्रारंभ हुआ उससे पहले रीतिकाल में गद्य को दढ़ भित्ति पर खड़े होने का समय मिल गया था। इस समय में अनेक मौलिक रचनाएँ गद्य में हुई। बहुत सी रचनाएँ अनुवाद करने के रूप में प्रकाश में आई संस्कृत के पुराने ग्रंथों का हिंदी में अनुवाद करके सबको सुलभ कराने के प्रयास ने अनूदित गद्य का बड़ा विस्तत रूप प्रस्तुत किया। रामायण, महाभारत, पुराण, हितोपदेश आदि के अनुवाद गद्य में हुए। उनमें रामप्रसाद निरंजनी का भाषा योग वशिष्ठ' बड़ी प्रसिद्ध रचना है। एक और प्रवृत्ति जो टीका - व्याख्या की चली उसने भी गद्य को बहुत आगे बढ़ाया। रीतिकाल के आचार्य कवियों ने अनेक संस्कृत काव्यशास्त्र के ग्रंथों की टीकाएँ की चिन्तामणि, भिखारीदास, सोमनाथ इस दृष्टि से जाने-माने आचार्य है। उन्होंने कवि कुल कल्पतरू काव्यनिर्णय, रस पीयूषनिधि नामक ग्रंथों में काव्यशास्त्र की टीका परक गद्य प्रस्तुत किया। इसके साथ ही हिन्दी कविता के अनेक ग्रंथ, जैसे विनयपत्रिका, रामचन्द्रिका कविप्रिया, रसिकप्रिया (बिहारी सतसई आदि पर टीका-परक गद्य निर्मित हुआ और भी बहुत से ऐसे ग्रंथ लिखे गये जो कविता में थे पर उनको गद्य में सरलीकृत करके या उनकी टीका करके प्रस्तुत किया गया। हिंदी गद्य का यह पूरी तरह से विकासमान परिवेश बन गया। उसके अनेक रूप देखने में आते हैं।
भक्तिकाल और रीतिकाल में ब्रजभाषा का वर्चस्व रहा है। अपनी सरलता, कोमलता एवं काव्योचित विशेषताओं के कारण कवियों ने कविता के लिए ब्रज भाषा को बहुत 'अधिक अपनाया था। रीतिकाल से पूर्व भी और रीतिकाल में आकर तो ब्रजभाषा में गद्य लेखन की प्रवत्ति वेग से देखने में आती है। काव्य के ग्रन्थों का रीतिकाल में चलन बढ़ा तो उसकी टीकाएँ भी सामने आईं और वे प्रायः ब्रजभाषा में ही लिखी गई। विद्वानों ने ब्रज भाषा गद्य के अनेक रूप गिनाये हैं, जैसे वार्ता, जीवनी, पत्र, संवाद, वचनिका, टीका, ललित गद्य आदि ब्रजभाषा गद्य में वर्णित विषय धर्म, दर्शन, इतिहास, ज्योतिष, चित्रकारी, काव्यशास्त्र आदि हैं। ब्रज भाषा गद्य में वार्ता साहित्य बहुत महत्वपूर्ण है। उसमें अधिकतर वे रचनाएँ हैं जो धार्मिक हैं या किसी धर्म-सम्प्रदाय के तत्वों को निरूपित करती हैं। चौरासी वैष्णवन की वार्ता', 'दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता' इसी प्रकार की हैं। इनमें क्रमशः बल्लाभचार्य के शिष्यों और उनके पुत्र विट्ठलनाथ के शिष्यों के जीवन चरित्र हैं। बहुत सी वार्ताओं और वचनामतों को संकलित और संपादित करने का श्रेय स्वामी हरिदास को है। उन्होंने स्वयं भी बहुत सी वार्ताएं लिखी हैं। उनके वचनात ऐसे हैं जिनमें उस समय के इतिहास की भी झांकी मिल जाती है। कुछ वचनामतों के नाम ये हैं-चौरासी बैठक चरित्र, वन यात्रा गिरिधर दास की बैठकन के चरित्र, नित्य सेवा प्रकार आदि ।
अन्य विषयों की गद्य रचनाएँ भी ध्यान देने योग्य हैं वैधक ग्रन्थ जैसे अश्वचिकित्सा, ग्रंथ जैसे वेदान्त निर्णय, गरुड़ पुराण व पद्मपुराण अनुवाद, चाणक्य नीति अनुवाद, हितोपदेश अनुवाद, मानस की टीका, बिहारी की सतसई का टीका, रसिक प्रिया टीका, हित चौरासी का गद्य पद्यमय टीका आदि अनेक ग्रंथ ब्रजभाषा के हैं।
रीतिकालीन में खड़ी बोली में गद्य साहित्य
रीतिकाल में खड़ी बोली का स्वतंत्र रूप में गद्य-प्रयोग नहीं मिलता। जिस प्रकार आदिकालीन गद्य में कहीं-कहीं और भक्तिकालीन गद्य में कुछ अधिक प्रयोग खड़ी बोली के मिलते हैं उसी प्रकार रीतिकाल में भी मिलते हैं। इस काल में कुछ अधिक विस्तार हुआ है। खड़ी बोली का गद्य दूसरी भाषाओं के गद्य के साथ मिला हुआ दिखलाई देता है। अधिकतर ब्रजभाषा गद्य में खड़ी बोली का गद्य मिला हुआ है। पूर्वी हिन्दी, राजस्थानी और पंजाबी में भी खड़ी बोली गद्य का मिश्रित रूप देखने में आता है। यह गद्य अधिकतर साहित्येत्तर विषयों से संबंध रखने वाला अधिक है। उसमें अध्यात्म दर्शन वैधक ज्योति इतिहास, भूगोल आदि विषय मिलते हैं। ब्रज, पंजाबी, उर्दू आदि के साथ मिश्रित रूप में लिखी गई खड़ी बोली गद्य की कुछ रचनाएँ महत्वपूर्ण हैं- फर्सनाम, सुरासुर निर्णय, मोक्षमार्गप्रकाश चिद्धिलास रीतिकाल में खड़ी बोली गद्य का एक रूप टीका और अनुवादों में प्रयुक्त खड़ी बोली है। इनमें से कुछ रचनाएँ पंजाबी, फारसी मिश्रित ध्यान देने योग्य हैं-भाषा योग वशिष्ठ, भाषा पद् पुराण, आदिपुराण वचनिका, सूर्य सिद्धान्त आदि ।
ब्रज भाषा मिश्रित खड़ी बोली वाली टीकाओं में प्रमुख रूप से निम्नलित्रित टीकाएँ ध्यान देने योग्य हैं :
प्रवचनसार टीका -पंडित हेमराज
भाषामत गीता टीका- भगवानदास
जपु टीका -आनन्द धन
बिहारी सतसई- इसवी खां
रानी केतकी की कहानी- इंशा अल्लाह खां
उपर्युक्त गद्य रचनाएँ खड़ी बोली के मिश्रण का उदाहरण है। धीरे-धीरे खड़ी बोली अन्य भाषाओं के साथ मिलकर अपना स्थान बना रही थी। इनमें से कुछ रचनाएँ उर्दू फारसी के अधिक मिश्रण की हैं, कुछ ब्रज की हैं। कहीं तत्सम शब्दावली की प्रधानता है कहीं विदेशी शब्दों की ।
रीतिकालीन दक्खिनी गद्य साहित्य
रीतिकाल में दक्खिनी गद्य भक्तिकाल की तरह उर्दू फारसी मिश्रित रूप में मिलता है। सूफी संतों, साधुओं और धर्म सम्प्रदाय के अनुयायी व्यक्तियों के अनुवाद किये गये ग्रंथ इसमें अधिक हैं। साहित्येत्तर रचनाएं वैधक, इतिहास आदि की तथा पत्र हुकमनामे भी इसी गद्य में लिखे गये मिलते हैं। इस समय की कुछ दक्खिनी गद्य रचनाएँ निम्नलिखित हैं :- रिसाले बजूदिया (शाहबुरहाहीन कादरी), मंजमखफी (मुहम्मद शरीफ) रिसाले तसव्वुफ (अब्दुल हमीद)। इस गद्य में बहुत सी रचनाएँ ऐसी भी मिलती हैं जिनके लेखकों के नाम ज्ञात नहीं हैं। इतिहास संबंधी ग्रंथ भी हैं और वैधक भी हैं। ये सब रचनाएं उर्दू शैली की हैं और हिंदी की एक शैली के रूप में उर्दू की यह शैली हिंदी के अधिक निकट है।
रीतिकालीन राजस्थानी गद्य साहित्य
राजस्थानी गद्य साहित्य का विकास रीतिकाल में पर्याप्त मात्रा में हुआ। इस गद्य में वचनिका, दवावैत, पत्र, वंशावली, पदावली अनेक तरह का गद्य मिलता है। कहीं तुकमय गद्य मिलता है उसमें धर्म, दर्शन, अध्यात्म, इतिहास, ज्योतिष, वैधक, तंत्रमंत्र आदि विषयों को निरूपित किया गया है इस गद्य में बात जैसी विधा प्रसिद्ध है। बात में गद्य पद्य मिश्रित रचना होती है। ये 'वात' कई प्रकार की होती हैं। ये इतिहास सम्मत भी होती है और काल्पनिक भी कुछ प्रसिद्ध 'वात' इस प्रकार हैं- राव राम सिंह से वात, सिद्धराज जयसिंह री वात, रावरिणमल री वात, सयणी चारिणी री वात गोरा बादल री वात वचनिका के रूप में जो राजस्थानी गद्य मिलता है उसमें भी अनेक रचनाएँ हैं।
राजस्थानी ललित गद्य की रचनाएं भी रीतिकाल में मिलती हैं, जैसे-दलपति विलास, बीतानेर री ख्यात, बांकीदास री ख्यात, सीसोदिया री वंसावली पट्टे परवाने जन्म पत्रियाँ भी इसमें हैं।
रीतिकालीन भोजपुरी और अवधी में गद्य साहित्य
रीतिकालीन गद्य साहित्य के कुछ नमूने भोजपुरी भाषा में की मिलते हैं। फणीन्द्र मिश्र का पंचायत का न्यायपत्र' अवधीमिश्रित भोजपुरी का उदाहरण माना गया है। और भी कागज पत्र इस तरह की मिश्रित गद्य के विद्वानों ने खोज निकाले हैं। अवधी भाषा का गद्य प्रायः ब्रजभाषा के गद्य के मिश्रण के साथ मिलता है। उनमें से कुछ प्रमुख गद्य रचनाएँ इस प्रकार हैं-
मानसटीका- रामचरणदास
रसविनोद- व्यवहारवाद
भानु मिश्र- प्रियादास
कबीर बीजक- महाराज विश्वनाथसिंह
हिंदी साहित्य गद्य की उपभाषाओं में निहित का कारण यह है कि जिस समय ब्रज भाषा में काव्य रचना का बोलबाला था । अवधी भोजपुरी की कविता अपने क्षेत्र में चल रही थी। धीरे-धीरे कविता की भाषा से जैसे ब्रज भाषा में गद्य को देखा गया, उसी तरह भोजपुरी और अवधी में भी पद्य से गद्य में भाव व्यक्त करने का चलन बना। आधुनिक काल में जो विकास हुआ, विभिन्न भाषाओं के गद्य-प्रयोग उस विकास के पूर्व सूचक हैं।
रीतिकाल में अनेक गद्य विधाओं में साहित्य सर्जना हुई है अर्थात् कहानी, वार्ता, चरित्र, प्रवचन, नाटक, टीका, भाव आदि अनेक रूपों में रीतिकालीन गद्य-साहित्य प्राप्त होता है। गद्य के इन विविध रूपों में धर्म, दर्शन, इतिहास, भूगोल, काव्यशास्त्र, व्याकरण आदि विषयों का वर्णन मिलता है।
रीतिकालीन गद्य साहित्य अपने पूर्ववर्ती गद्य साहित्य से पर्याप्त समद्ध है । कवित्व के प्रति आसक्ति, दरबारी संस्कृति का दबाव, रसिकता आदि के कारण रीतिकालीन गद्य का समग्र विकास नहीं हो पाया, लेकिन रीतिकालीन गद्य ने आधुनिक गद्य की अनेक विधाओं में लेखन की ओर अग्रसर जरूर कर दिया ।