रीतिकालीन दरबारी संस्कृति और लक्षण ग्रन्थ
रीतिकालीन दरबारी संस्कृति और लक्षण ग्रन्थ
रीतिकालीन दरबारी संस्कृति सांस्कृतिक अवन्ति से परिपूर्ण समय था । इसमें संस्कृति का विचारपक्ष बड़ा दुर्लभ था। जहाँगीर और शाहजहाँ दोनों ही बादशाहों के दरबारों में अद्भुत वैभव तो था, लेकिन अतप्त विलास और वासना का सागर भी उमड़ रहा था। औरंगजेब तो इन दोनों से विलग था। उसका संस्कृति और विलास - वैभव के प्रक्षय से कुछ भी लेना-देना नहीं था। दरबारी संस्कृति चमत्कार, आडम्बर, प्रतिस्पर्द्धा, श्रंगारिकता आदि से युक्त थी जिसमें जीवन्तता के स्थान पर मात्र परम्परा का अन्धानुपालन था। रीतिकालीन काव्य और दरबारी संस्कृति दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।
रीतिकालीन के कवियों ने अपने आश्रयदाताओं को सामान्य नर के रूप में चित्रित न करके दिव्य और अलौकिक गुणों से मंडित करके चित्रित किया है। कवियों ने राजाओं को अवतारी पुरुष के रूप में महिमामंडित किया है। भूषण ने अपने आश्रयदाता शिवजी को कहीं विष्णु को और कहीं राम का अवतार माना है। रीतिकालीन कवियों द्वारा स्वामिभक्ति का प्रदर्शन भी दरबारी संस्कृति का अंग रहा है। स्वामिभक्ति के लिए जयसिंह रत्नसिंह आदि राजाओं द्वारा उल्लेख मिलता है दरबारी संस्कृति की अभिरुचि का केन्द्र-श्रंगार और काव्यशास्त्र था। काव्यशास्त्र में रस, अलंकार, नायिकाभेद आदि ही प्रधान प्रतिपाद्य विषय थे। सामंती वैभव और सामंती समाज का चित्रण भी रीतिकालीन दरबारी संस्कृति की एक प्रवत्ति थी। रीतिकालीन सामंती समाज वैभव और ऐश्वर्य की पराकाष्ठा का समाज था। रीतिकालीन अनेक कवियों ने इस वैभव का बड़ा ही चमत्कारी और अलंकारी वर्णन प्रस्तुत किया
साहित्य सीमित संस्कृति और सांस्कृतिक जीवन तक ही सीमित रह गया साहित्य पूरे समाज का चित्र नहीं बन सका था। संस्कृत के बाद प्राकृत और अपभ्रंश की रचनाओं में भी लक्षण ग्रन्थ परम्परा दिखाई पड़ती है। हिंदी साहित्य की रीति परम्परा की प्रधान प्रेरणा, संस्कृत काव्यशास्त्र ही रहा है। निस्संदेह, लक्षण काव्य परम्परा के लिए हमें संस्कृत के साथ अपभ्रंश और प्राकृत की समद्ध परम्परा के अवदान को भी सहज रूप में स्वीकार करना चाहिये। यही परम्परा आगे चलकर रीतिकाव्य में प्रतिफलित हुई है। रीतिकालीन लक्षण परम्परा के असंख्य कवि हुए हैं। आचार्य केशवदास चिन्तामणि त्रिपाठी, तोष,मतिराम, भूषण, सुखदेव, रसलीन पदमाकर आदि जिन्होंने लक्षण ग्रन्थों की रचना की रीतिकालीन लक्षण ग्रन्थ काव्यशास्त्र के सर्वांगनिरूपक ग्रन्थ हैं।
रीतिकाल की एक प्रमुख विशेषता यह भी रही है कि इसमें अनेक लक्षण ग्रन्थों का निर्माण हुआ जिनमें अलंकरण में प्रवत्ति प्रमुख है। अलंकार शास्त्र में उत्तम कविता के उदाहरणों में सैंकड़ों सरस श्लोक उद्धत किए गये हैं। इस शास्त्र की आरम्भ में दो स्पष्ट धाराएँ विद्यमान थीं। एक नाट्यशास्त्र में प्रकट हुई थी जिसका प्रधान प्रतिपाद्य 'रस' था दूसरी, चिंता अलंकार शास्त्र के रूप में प्रकट हुई जिसका पद्य विवेच्य विषय अलंकार थे। इन दो सम्प्रदायों को एकत्र करने का काम ध्वनि, सम्प्रदाय के पंडितों ने किया।
रीतिकालीन हिंदी कवियों तथा आचार्यों की मुख्य प्रवत्ति लक्षण ग्रन्थों को रचने अथवा संस्कृत के काव्य शास्त्रीय सिद्धान्तों को लक्षण तथा उदाहरणों से स्पष्ट करने की रही। रीति निरूपण से अभिप्राय लक्षण ग्रन्थ लिखकर आचार्यत्व की पदवी प्राप्त करना ही समझना चाहिए। रीतिकालीन साहित्यकारों ने काव्य के क्षेत्र में अलंकारिकता प्रदर्शन तथा चमत्कारपूर्ण उक्तियों को अपने काव्य का प्रतिपाद्य बनाया। उन्होंने तो अलंकारों को कविता रूपी कामिनी के लिए अनिवार्य घोषित किया। इसीलिए केशव दास ने तो यहाँ तक लिख दिया है कि-
" जदपि सुजाति सुलच्छिनी, सुबरन सरस सुवत्त ।
भूषन बिनू न बिराजई, कविता बनिता भित्त ।"
अर्थात् कविता तथ बनिता चाहे कितनी ही उच्च जाति की क्यों न हो, अच्छे लक्षणों वाली सुवर्ण, रसीली तथा पुष्ट क्यों न हो? परन्तु जब तक वे भूषण (अलंकार) धारण नहीं करती, तब तक शोभा नहीं पा सकती। इसी कारण रीतिकाल के अधिकांश साहित्यकारों ने अलंकारों के सहारे ही अपनी रचनाएँ रची अलंकार शास्त्र ही उस समय का साहित्य शास्त्र माना जाता था। अतः काव्य में अलंकारण की प्रवत्ति भी खूब फली फूली।
रीतिकालीन रचनाकारों ने प्रबन्ध काव्य की अपेक्षा मुक्तक काव्य शैली को प्रमुखता प्रदान की तत्कालीन आश्रयदाताओं को तुरंत प्रसन्न करने के लिए मुक्तक काव्य शैली का खूब प्रसार हुआ क्योंकि मुक्तक काव्य चुने हुए फूलों का गुलदस्ता है जिसमें सभा या दरबार को आसानी से मोहित किया जा सकता है।
इस काल के कवियों ने रीति या शास्त्र की भूमिका पर अपनी कविता की रचना की है। केशवदास ने सर्वप्रथम शास्त्रीय पद्धति पर रस और अलंकारों का निरूपण रसिक प्रिया और कविप्रिया' में किया, किन्तु चिन्तामणि त्रिपाठी से लक्षण ग्रन्थों की अखण्ड परम्परा चलती रही। इन ग्रन्थों में रीतिबद्ध कवियों ने कोई मौलिक उद्भावना नहीं की है, वरन् संस्कृत के काव्यशास्त्र के विवेचन को भाषा में पद्यबद्ध कर दिया है, केवल लक्ष्य ग्रन्थ लिखने वाले कवियों ने रीति का कसाव कुछ ढीला कर दिया है । किन्तु फिर भी रीति की परिपाटी का ज्ञान हुए बिना इनकी कविता को अच्छी तरह नहीं समझा जा सकता है।
रीतिकालीन काव्य और दरबारी संस्कृति
रीतिकालीन काव्य और दरबारी संस्कृति दोनों को एक-दूसरे का पूरक माना जाये तो अत्युक्ति नहीं होगी। वास्तव में, दरबारी संस्कृति ही रीतिकालीन काव्य का आधार है। रीतिकालीन काव्य में चित्रित दरबारी संस्कृति का अध्ययन इस प्रकार किया जा सकता है।
1. आश्रयदाताओं की अतिरंजित प्रशस्ति
रीतिकालीन दरबारी संस्कृति की एक प्रमुख विशेषता राजप्रशस्ति रही थी। इस कालखण्ड में राजप्रशस्ति के तीन आयाम है- युद्धवीर, दानवीर और धर्मवीर । भूषण ने महाराज शिवाजी के माध्यम से युद्धवीरता का सर्वोच्च प्रतिमान प्रस्तुत किया है। यहाँ पर यह भी उल्लेख करना समीचीन प्रतीत होता है कि मुस्लिम शासकों के विरोध में संघर्ष करने वाले शासकों का ही युद्ध कौशल रीतिकालीन कवियों द्वारा वर्णित हुआ है। वैसे जो छत्रपाल की वीरता के वर्णन के लिए भूषण विख्यात हैं, लेकिन मतिराम ने भी इस प्रसंग और पात्र को अपनी कविता का प्रतिपाद्य बनाया है । वतान्त है कि छत्रपाल औरंगजेब से युद्ध मतिराम इस दशा की व्यंजना इस प्रकार व्यक्त करते हैं : करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे |-
"औरंगदारा जे जुरे दोऊ युद्ध, भर भर शुद्ध विनाद- विलासी,
भारू बजे, मतिराम, बखानै, भई अति अस्त्रनि की बरषा सी ।
नाथ-तने तिहिठौर मर्यो, तजय नाजिकै छत्रि को रन करसी ।
सीस भयो हर-हार सुमेरु, छता भयो, आप सुमेरु को बासी।।"
रीतिकालीन रचनाकारों ने राजा के धर्मवीर रूप की चर्चा भी की है। भूषण ने शिवाजी के प्रशस्ति वर्णन के माध्यम से उनके धर्मवीर स्वरूप की विवेचना की है, यथा
"वेद राखे विविन पुरान परसिद्ध राखे,
राम-नाम राख्यो अति रसना सुधर मैं ।
हिन्दुन की चोटी रोटी राखी है रिसपाहिम की,
काँचे में जनेऊ राख्यौ माला राखी गर मैं,
राजन ही हद्द राखी तेग-बल सिवराज,
देव राखे देवल स्वधर्म राख्यौ घर में।।*
2. दिव्यता और अलौकिकता युक्त आश्रयदाता
रीतिकालीन कवियों ने अपने आश्रयदाताओं को सामान्य नर के रूप में चित्रित न करके दिव्य और आलौकिक गुणों से सम्पन्न करके चित्रित किया है। कवियों ने उन्हें अवतारी पुरुष के रूप में भी महिमा मंडित किया है। महाकवि भूषण ने अपने आश्रयदाता शिवाजी को कहीं विष्णु और कहीं राम का अवतार माना है। उन्होंने शिवाजी को राम का अवतार मानते हुए कहा है
"दशरथ राजा राम भौ वसुदेव के गोपाल ।
सोई प्रकयौ साहि के श्रीशिवराय भुआल ।"
न केवल भूषण ने बल्कि अन्य रीतिकालीन कवियों ने भी अपने-अपने आश्रयदाताओं में दिव्यता की प्रवत्तियों को प्रमुखता से स्थान दिया है। कविवर पद्माकर को अपने आश्रयदाता जगतसिंह के रूप में राम और कृष्ण के अवतारों की प्रतीति होती है, यथा
"प्रबल, प्रताप कुल दीपक छता के पुण्य
पातक पिता के राम राजा ज्यों भगतराज ।
कान्ह अवतार बैरी - बारिधि-मथनकाज,
सील के जहाज बली विम तखत राज ।। "
3. राजरुचि का विवरण :
कवियों, कलाकारों, दस्तकारों आदि को आश्रय देना दरबारी संस्कृति की राजरूचि थी। यह उस समय की सामान्य राजरूचि रही थी। आजमशाह ने देव को आश्रय दिया, सुजानसिंह ने सूदन को पारछीत ने ठाकुर को राजभोगी लाल ने देव को दलेल सिंह ने थान कवि को तथा ललन ने बनी प्रवीन को आश्रय दिया था.
श्रंगार - निरूपण और शास्त्र - निरूपण उस युग की काव्य- प्रवत्ति थी। इस प्रवृत्ति की पष्ठभूमि में राजाओं की श्रंगारिक रूचि विद्यमान थी और उनकी शास्त्रीयता के प्रति आग्रह थी। इस आग्रह के परिणामतः अनेक शास्त्रीय ग्रन्थ लिखे गये। इन ग्रन्थों में कुछ सर्वांगनिरूपक ग्रन्थ थे और कुछ विशिष्टांग निरूपक आलंकारिक ग्रन्थों में भाषा भूषण ( महाराज जसवन्त सिंह) नरेन्द्र भूषण (भान कवि), ललित (मतिराम ) आदि का विशेष उल्लेख मिलता है। दरबारी संस्कृति की राजरूचि का केन्द्र - श्रंगार और काव्यशास्त्र था। काव्यशास्त्र में रस, अलंकार, नायिकाभेद आदि ही प्रधान प्रतिपाद्य विषय थे। श्रंगारिकता की रूचि ने कला के सभी रूपों को अपने कब्जे में कर रखा था ।
4. स्वामिभक्ति का प्रदर्शन:
स्वामिभक्ति का प्रदर्शन भी दरबारी संस्कृति का अंग रहा है। स्वामिभक्ति के लिए जयसिंह, रतनसिंह, छत्रपाल, भावसिंह आदि राजाओं का उल्लेख मिलता है। महाराज शाहजहाँ (भूषण के नायक छत्रपाल नहीं) दिल्ली के बादशाह शाहजहाँ के अधीन थे। शाहजहाँ के प्रति अपनी भक्ति प्रदर्शित करते हुए उन्होंने औरंगजेब से युद्ध किया । भावसिंह ने शिवाजी से युद्ध किया, वह भी औरंगजेब से मैत्री निर्वाह करने के लिए। इस प्रशस्ति का प्रदर्शन मतिराम ने इस प्रकार किया है-
"सूबनि को मेटि डिल्ली देस दलिवे कौं चमू,
सुभट समूहिन सिवा की उमहति है।
कहैं मतिराम ताहि रोकिवे कौं संगर में
काहू केन हिम्मति हिये में उलहति है।
सत्रुसाल नंद के प्रताप की लपट सब
गरवी गनीम वरगीन कौं दहति है।
पति पातसाह की इजति उमराव की।
राखी रैया राव भावसिंह की रहति है।"
5. सामंती समाज का चित्रण
सामंती समाज का चित्रण भी रीतिकालीन दरबारी संस्कृति की एक प्रवत्ति थी। रीतिकालीन सामंती समाज वैभव और ऐश्वर्य की पराकाष्ठा का समाज था । रीतिकालीन अनेक कवियों ने इस वैभव का बड़ा ही चमत्कारी और अलंकारी वर्णन किया है। इस दष्टि से कवि मतिराम, गजन, भिखारीदास आदि अनेक कवियों का काव्य दर्शनीय है। गंजन की कुछ प्रमुख पंक्तियों का अवलोकन
"मीना के महल जखाफ दर परदा है,
हलवी फनूसन में रोशन चिराग की ।
गुलगुली गिलम गरक आब पग होत,
जहाँ बिछी मनसद लालन के दाम की ।।
केती महताबमुखी खचित जवाहिरन,
गंजन सुकवि कहैं बौरी अनुराग की ।
एतमादुदौला कमरूद्दीपन खाँ की मजलिस,
सिसिर में ग्रीष्म बनाई बड़ भाग की ।।"
दरबारी संस्कृति में सामंती समाज का विशेष महत्त्व होता है। इस समाज में सरदार, मनसबदार, अमीर-उमराव के साथ शासन, न्याय और सुरक्षा से सम्बद्ध कर्मचारी आते थे। दरबारों से कुछ जातियाँ भी अनायास सम्बद्ध थीं। इसमें चारण, भाट, मागद, सूत, बंदीजन आदि प्रमुख हैं। सामंती समाज में सामान्या (गणिका) का विशेष आदर था। वह सौन्दर्य और आकर्षण का केन्द्र हुआ करती थी।
कवि चन्द्रशेखर ने इन वेश्याओं-गणिकाओं का चित्रण इस प्रकार किया है-
"बसन विभूषन बिराजत बिमल वर
मदन मरोरनि तरकि तन तोरतीं।
प्यारे पातसाह के परम अनुराग रंगी,
चाप भरी चापल चपल दग जोरतीं।
काम अबला सी, कलाधर की कला सी,
चारू चंपक लता सी चपला सी चित चोरतीं।।"
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि उत्तर मध्यकाल में आकर प्रेम की उदान्त भावनाएँ लौकिक वासनाओं के रूप में परिवतर्तित हो गयीं। पूरा सामाजिक परिवेश और साहित्य श्रंगार के सागर में डूबने लगा था। अलौकिक शास्त्रीय ज्ञान इस युग का शास्त्रीय ज्ञान बन गया। ऐसी स्थिति में, साहित्य सीमित संस्कृति और सांस्कृतिक जीवन तक ही सीमित रह गया था। साहित्य समाज का दर्पण होता है, लेकिन ऐसी स्थिति में वह पूरे समाज का चित्र नहीं खींच सका और यहीं सब रीतिकालीन दरबारों की संस्कृति रही है।