साहित्य का इतिहास-दर्शन ,साहित्य- विकास के सामान्य सिद्धांत
साहित्य का इतिहास-दर्शन
सामान्यतः 'इतिहास' शब्द से राजनीतिक व सांस्कृतिक इतिहास का ही बोध होता है, किंतु वास्तविकता यह है कि सृष्टि की कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसका इतिहास से संबंध न हो। अतः साहित्य भी इतिहास से असंबद्ध नहीं है। साहित्य के इतिहास में हम प्राकृतिक घटनाओं व मानवीय क्रियाकलापों के स्थान पर साहित्यिक रचनाओं का अध्ययन ऐतिहासिक दृष्टि से करते हैं। वैसे देखा जाये तो साहित्यिक रचनाएँ भी मानवीय क्रियाकलापों से भिन्न नहीं हैं; अपितु वे विशेष वर्ग के मनुष्यों की विशिष्ट क्रियाओं की सूचक हैं। दूसरे शब्दों में, साहित्यिक रचनाएँ साहित्यकारों की सृजनात्मक क्रियाओं और प्रवृत्तियों की सूचक होती हैं, अतः उनके इतिहास को समझने के लिए उनके रचयिताओं तथा उनसे संबंधित स्थितियों, परिस्थितियों और परंपराओं को समझना भी आवश्यक है।
प्रारंभ में जिस प्रकार राजनीतिक इतिहास में राजाओं के जीवन चरित्र एवं राजनीतिक घटनाओं को संकलित कर देना पर्याप्त समझा जाता था, उसी प्रकार साहित्य के इतिहास में भी रचनाओं व रचयिताओं का स्थूल परिचय ही पर्याप्त होता था, किंतु ज्यों-ज्यों इतिहास के सामान्य दृष्टिकोण का विकास होता गया, त्यों-त्यों साहित्येतिहास के दृष्टिकोण में भी तदनुसार सूक्ष्मता व गंभीरता आती गयी। यद्यपि इतिहास के अन्य क्षेत्रों की तुलना में साहित्य का इतिहास - दर्शन एवं उसकी पद्धति अब भी बहुत पिछड़ी हुई है, किंतु फिर भी समय-समय पर इस प्रकार के अनेक प्रयास हुए हैं जिनका लक्ष्य साहित्येतिहास को भी सामान्य इतिहास के स्तर पर पहुँचाने का रहा है।
यद्यपि अंग्रेजी साहित्य के विभिन्न इतिहासकारों द्वारा यह धारणा बहुत पहले प्रचलित हो चुकी थी कि किसी भी जाति के साहित्य का इतिहास उस जाति के सामाजिक एवं राजनीतिक वातावरण को ही प्रतिबिम्बित करता है या साहित्य की प्रवृत्तियां संबंधित समाज की प्रवृत्तियों की सूचक होती हैं, फिर भी इस धारणा को एक सुव्यवस्थित सिद्धांत के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय फ्रेंच विद्वान तेन (Taine) को है जिन्होंने अपने अंग्रेज़ी साहित्य के इतिहास में प्रतिपादित किया कि साहित्य की विभिन्न प्रवृत्तियों के मूल में मुख्यतः तीन प्रकार के तत्व सक्रिय रहते हैं- जाति ( race), वातावरण (milieu), क्षण विशेष (moment)। तेन ने अपनी व्याख्या के द्वारा यह भलीभांति स्पष्ट किया कि किसी भी साहित्य के इतिहास को समझने के लिए उससे संबंधित जातीय परंपराओं, राष्ट्रीय और सामाजिक वातावरण एवं सामयिक परिस्थितियों का अध्ययन विश्लेषण आवश्यक है। तेन के इस सिद्धांत की आलोचना करते हुए हडसन ने आक्षेप किया कि उन्होंने साहित्य की विकास प्रक्रिया का सारा महत्त्व उपर्युक्त तीन तत्वों को ही दे दिया, जबकि साहित्यकार या काव्य रचयिता के व्यक्तित्व एवं उसकी प्रतिभा की सर्वथा उपेक्षा कर दी। निश्चय ही, हडसन का यह आक्षेप तेन के सिद्धांत की एक महत्त्वपूर्ण न्यूनता या त्रुटि की ओर संकेत करता है, किंतु फिर भी हम इस तथ्य को अस्वीकार नहीं कर सकते कि पूर्ववर्ती इतिहासकारों की तुलना में तेन ने अपेक्षाकृत अधिक व्यापक, स्पष्ट एवं विकसित सिद्धांत प्रस्तुत किया था, जिसके आधार पर साहित्य की विकास प्रक्रिया को बहुत कुछ स्पष्ट किया जा सकता है।
साहित्येतिहास की व्यवस्था में जर्मन चिन्तकों का भी कम योगदान नहीं है। वैसे तो उनके द्वारा कई सिद्धांत स्थापित हुए. किंतु उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण युग चेतना' (spirit of age) का सिद्धांत है। इस सिद्धांत के अनुसार, साहित्य के इतिहास की व्याख्या तद्युगीन चेतना के आधार पर की जानी चाहिए। ए.एच. कॉफे ने महान कवि गेटे की साहित्यिक प्रवृत्तियों की व्याख्या युगीन चेतना के आधार पर करके इस सिद्धांत की महत्ता को प्रमाणित किया है। किंतु हमारे विचार में यह सिद्धांत भी एकांगी ही है क्योंकि साहित्य के विकास में युगीन चेतना का ही नहीं, पूर्ववर्ती परंपराओं का भी न्यूनाधिक योगदान रहता है अतः उनकी उपेक्षा करके सारा श्रेय युगीन चेतना को ही दे देना तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता।
इधर मार्क्सवाद से प्रभावित आलोचकों ने द्वंद्वात्मक भौतिक विकासवाद, वर्ग संघर्ष और आर्थिक परिस्थितियों के संदर्भ में साहित्य की विकास प्रक्रिया को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। उदाहरण के लिए, सैक्युलिन ने रूसी साहित्य के इतिहास की व्याख्या करते हुए साहित्य की विभिन्न प्रक्रियाओं व प्रवृत्तियों का संबंध आर्थिक परिस्थितियों एवं वर्ग संघर्ष की प्रतिक्रिया से स्थापित किया है। किंतु कई बार मार्क्सवादी आलोचक साहित्य की सभी प्रवृत्तियों के मूल में अर्थ को ही स्थापित करके एक ऐसा अनर्थ कर देते हैं जो एकांगिता व अतिवादिता का प्रमाण होता है।
मनोविज्ञान, मनोविश्लेषण और अर्थविज्ञान के आधार पर भी साहित्य के विभिन्न पक्षों की विशेषत: शैलीपक्ष के विकास की व्याख्या विभिन्न पाश्चात्य विद्वानों द्वारा हुई है, जिनमें आई.ए. रिचर्ड्स, विलियम एम्पसन, सी. एस. लेविस, डब्ल्यू. पी. कर, एफ. डब्ल्यू. बैटसन प्रभृति के नाम उल्लेखनीय हैं। इन विद्वानों द्वारा विभिन्न दृष्टियों से शैलीगत प्रवृत्तियों के विश्लेषणों एवं उनके आधारभूत कारणों को खोजने का प्रयास हुआ है, जिससे आंशिक रूप में साहित्येतिहास को भी समझने में सहायता मिल सकती है। किंतु इनके निष्कर्षों में पारम्परिक सामंजस्य, एकरूपता एवं अन्विति का अभाव होने के कारण वे अध्येता के मार्ग को प्रशस्त कम और कंटकाकीर्ण अधिक करते हैं।
अस्तु साहित्येतिहास की व्याख्या के लिए विभिन्न दृष्टियों से विभिन्न प्रयास होते रहे हैं जो हमें किसी निश्चित, स्पष्ट एवं समन्वित निष्कर्ष तक नहीं पहुँचाते, किंतु फिर भी इनसे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि आज साहित्य का अध्ययन विश्लेषण केवल साहित्य तक सीमित रहकर नहीं किया जा सकता; उसकी विषयगत प्रवृत्तियों व शैलीगत प्रक्रियाओं के स्पष्टीकरण के लिए उससे संबंधित राष्ट्रीय परंपराओं, सामाजिक वातावरण, आर्थिक परिस्थितियों, युगीन चेतना एवं साहित्यकार की वैयक्तिक प्रवृत्तियों का विवेचन-विश्लेषण आवश्यक है। अतः कहा जा सकता है कि पूर्वोक्त सिद्धांत साहित्य की विकास प्रक्रिया के विभिन्न अंगों पक्षों व तत्वों के सूचक हैं। यद्यपि इनमें कोई भी सिद्धांत परिपूर्ण नहीं है, किंतु आंशिक सत्य से भी ये सर्वथा शून्य नहीं हैं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए किसी भी साहित्य की विकास प्रक्रिया के अध्ययन के लिए उससे संबंधित इन पांच तत्वों पर विचार किया जाना चाहिए - (1) सर्जन-शक्ति (साहित्यकार की प्रतिभा और उसका व्यक्तित्व) (2) परंपरा (साहित्यिक व सांस्कृतिक परंपराएँ), (3) वातावरण, (4) द्वंद्व और (5) संतुलन। वस्तुतः यह सिद्धांत सृष्टि की सामान्य विकास प्रक्रिया की दृष्टि से प्रतिपादित है, जिसे साहित्य पर लागू करते हुए संक्षेप में कहा जा सकता है - साहित्य के क्षेत्र में भी प्राकृतिक सर्जन-शक्ति अर्थात् साहित्यकार की नैसर्गिक प्रतिभा परंपरा (सांस्कृतिक तथा साहित्यिक परंपरा) और वातावरण ( युगीन परिस्थितियों, प्रवृत्तियों तथा चेतना) के द्वंद्व से प्रेरित होकर गतिशील होती है, जिसका चरम लक्ष्य द्वंद्व के दोनों पक्षों में संतुलन स्थापन होता है। वस्तुत: यह द्वंद्व ही साहित्यकार की मूल प्रेरणा होता है, किंतु स्थितिविशेष व व्यक्तिविशेष के अंतर से द्वंद्व का क्षेत्र परिवर्तित होता रहता है; अतः कोई साहित्यकार अपने ही आन्तरिक या मानसिक द्वंद्व से परिचालित होता है, तो कोई पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक या अंतर्राष्ट्रीय से एक क्षेत्र का द्वंद्व संतुलित या शांत हो जाने पर साहित्यकार या साहित्यकारों की सर्जन - शक्ति किसी अन्य क्षेत्र के द्वंद्व की ओर उन्मुख होती है। वस्तुत: परंपरा और युगीन वातावरण के अंतर्विरोध से उत्पन्न द्वंद्व ही साहित्य के विभिन्न आंदोलनों, उसकी धाराओं और प्रवृत्तियों को गति देता हुआ साहित्य की विकास प्रक्रिया को संचालित करता है। अतः साहित्येतिहास की विकासवादी व्याख्या के लिए उन सभी तथ्यों पर विचार करना आवश्यक है जो साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं उससे संबंधित पूर्व-परंपरा, युगीन वातावरण, द्वंद्व के स्रोत, अभीष्ट लक्ष्य आदि पर प्रकाश डालते हैं।
साहित्य- विकास के उपर्युक्त सामान्य सिद्धांत के अतिरिक्त कुछ ऐसे सिद्धांत भी प्रतिपादित किये गये हैं। जिनसे साहित्य के रूपात्मक प्रवृत्यात्मक तथा गुणात्मक विकास के अध्ययन में सहायता मिल सकती है। किंतु, यहाँ इनका विस्तृत परिचय न देकर इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि जिस प्रकार सामान्य इतिहास का वैज्ञानिक अध्ययन विकासवाद के आधार पर ही संभव है, उसी प्रकार साहित्य के इतिहास की भी वैज्ञानिक व्याख्या के लिए विकासवादी सिद्धांतों का आधार ग्रहण करना आवश्यक है, यह दूसरी बात है कि जो लोग इतिहास को भी कल्पना- विकास और भाव सौंदर्य का क्षेत्र मानते हुए उसे कला की श्रेणी में स्थान देते हैं, वे विकासवादी दृष्टिकोण और वैज्ञानिक पद्धति दोनों को ही व्यर्थ समझें।