आदिकाल में अपभ्रंश की प्रमुख रचनाएँ
संदेश रासक-
➽ ' संदेश रासक' अद्दहमाण संभवत: अब्दुर्रहमान द्वारा रचित एक खंडकाव्य है। कबीर की भांति अब्दुर्रहमान भी जुलाहा परिवार से संबद्ध हैं। वे अपने संबंध में स्वयं लिखते हैं- "मैं म्लेच्छ देशवासी तन्तुवाय मीरसेन का पुत्र हूँ।" अब्दुर्रहमान मुल्तान के निवासी थे तथा संस्कृत और प्राकृत के अच्छे पंडित थे। उनकी भारतीय साहित्य तथा संस्कृति में गहन आस्था थी ।
➽ संदेश रासक के निर्माण काल के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। डॉ. कत्रे ने इसका रचनाकाल || वीं शताब्दी तथा 14वीं शताब्दी के मध्य माना है। मुनि जिनविजय ने 12वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर 13वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक इस रचना का समय माना है। अगरचन्द नाहटा इसे सं. 1400 के आसपास रचना मानते हैं परन्तु डॉ.. हजारीप्रसाद ने इसे 11वीं सदी की रचना स्वीकार किया है, कारण हेमचन्द्र ने अपनी रचना में सन्देश रासक के पद्यों को उद्धृत किया है। हेमचन्द्र का जन्म सं. 1145 में तथा मृत्यु 1229 में हुई। अतः अब्दुर्रहमान को 11वीं सदी का मानना युक्तियुक्त है।
➽ संदेश रासक विरह का एक खंडकाव्य है जो कि एक कल्पित लोक जीवनमय कथा पर आद्धृत है। यह रचना कालिदास के मेघदूत के समान कथात्मक होते हुए भी विभिन्न मुक्तकों की एक मणिमाला है। इसमें विरह की सूक्ष्म अनुभूतियों की सुंदर अभिव्यक्ति हुई है। हिंदी साहित्य में बीसलदेव रासो भी इसी प्रकार का काव्य है। संदेश रासक मध्यकालीन श्रृंगारी परंपरा पर लिखे हुए विरह साहित्य में प्रतिनिधि काव्य है। इसमें विरहणी की शत-शत भावपूर्ण प्रेम के ज्वारभाटे से विह्वल और करुण कातर हृदय की भावनाओं की अतीव मार्मिक कलात्मक अभिव्यक्ति हुई है। उसके संदेश में एक गहरी टीस, सुप्त दर्प प्रेम की सघनता, उपालम्भ एवं आत्मसमर्पण का विलक्षण समन्वय है। "प्रिय तुम मेरे हृदय में स्थित हो और तुम्हारे रहते हुए विरह मुझे कष्ट दे रहा है। क्या आपके लिए यह लज्जास्पद नहीं ? क्या यह आपके पौरुष को चुनौती नहीं ? "
➽ डॉ. हजारीप्रसाद इस संबंध में लिखते हैं-" इस संदेश रासक में ऐसी करुणा है जो पाठक को बरबस आकृष्ट कर लेती हैं। उपमाएँ अधिकांश में यद्यपि परम्परागत और रूढ ही हैं तथापित बाह्यवृत्त की वैसी व्यंजना उसमें नहीं है जैसी आंतरिक अनुभूति की । ऋतु वर्णन प्रसंग में बाह्य प्रकृति इस रूप में चित्रित नहीं हुई जिसमें आंतरिक अनुभूतियों की व्यंजना दब जाये। प्रिय के नगर से आने वाले अपरिचित पथिक के प्रति नायिका के चित्त में किसी प्रकार के दुराव का भाव नहीं है। वह बड़े सहज ढंग से अपनी कहानी कह जाती है। सारा वातावरण विश्वास और घरेलूपन का है।"
➽ यह तीन प्रक्रमों में विभाजित 223 छंदों की एक छोटी-सी रचना है। प्रथम में मंगलाचरण, कवि का व्यक्तिगत परिचय, ग्रंथ रचना का उद्देश्य तथा कुछ आत्म-निवेदन है। दूसरे प्रक्रम से मूल कथा का आरंभ होता है। कथासूत्र इतना ही है कि विजय नगर की एक प्रोषितपतिका अपने प्रिय के वियोग में रोती हुई एक दिन राजमार्ग से जाते हुए एक बटोही को देखती है और दौड़कर उसे रोकती है। उसे पता चलता है कि वह पथिक सामोर से आ रहा है और स्तंभ तीर्थ को जा रहा है। वह पथिक से निवेदन करती है कि अर्थ-लोभ के कारण उसका प्रिय उसे छोड़कर स्तंभ तीर्थ चला गया है. इसीलिए कृपा करके मेरा संदेश लेते जाओ। पथिक को संदेश देकर नायिका ज्यों ही विदा करती है कि दक्षिण दिशा से उसका प्रिय आता हुआ दिखाई देता है। तीसरे प्रक्रम में ग्रन्थ का अंत करते हुए कवि कहता है कि जिस प्रकार उसका कार्य अचानक सिद्ध हो गया है उसी प्रकार पढ़ने-सुनने वालों का भी सिद्ध हो जो अनादि और अनन्त है, उसकी जय हो।
➽ संदेश रासक के कथासूत्र से स्पष्ट है कि कवि को कथा से कोई विशेष मतलब नहीं। उसका उद्देश्य है सामोर नगर के जीवन, पेड़-पौधों तथा षड् ऋतु वर्णन के साथ प्रोषितपतिका की विरह वेदना का वर्णन करना । इन सब बातों के लिए उसने पथिक की अवतारणा की है।
➽ काव्यसौंदर्य की दृष्टि से संदेश रासक का अपभ्रंश साहित्य में विशेष स्थान है। संदेश कथन में नारी हृदय की परवशता, आकुलता और विदग्धता एक साथ मुखरित हो उठी है। वह कहती है, जिन अंगों के साथ तुमने विलास किया है, आज वे ही अंग विरह द्वारा जलाये जा रहे हैं। सचमुच तुम्हारे पौरुष को यह एक सबल चुनौती है
गवड परिहव कि न सहउ पौरिस निलएण।
जिहि आँगहि तू बिलसिया ते दद्धा विरहेण ।।
➽ शरद ऋतु का वर्णन करती हुई नायिका कहती है कि क्या देश में ज्योत्स्ना का निर्मल चन्द्र नहीं उगता ? क्या वहाँ अरविन्दों के बीच हंस कल-कल ध्वनि नहीं करते? क्या वहाँ कोई ललित ढंग से प्राकृत काव्य नहीं पढ़ता? क्या वहाँ कोकिल पंचम स्वर से नहीं गाती? क्या वहाँ सूर्योदय के कारण खिले हुए कुसुमों से वातावरण महक नहीं उठता? होता तो यह सब होगा लेकिन लगता है कि प्रिय ही अरसिक है जो इस शरद काल में भी घर का स्मरण नहीं करता.
किं तहि देस शाह फुरइ जुन्ह निसि णिम्मल चन्द्रह।
यह कलरउ न कुणति हंस फल सेवि रविदह ।
अह पाय पहु पढ्इ कोइ सुललिय पुण राइण ।
अह पंचड हु कुणई कोई कावालिय भाइण ।
➽डॉ. हजारीप्रसाद इस काव्य की पृथ्वीराज रासो से भिन्नता प्रकट करते हुए कहते हैं- “पृथ्वीराज रासो प्रेम मिलन पक्ष का काव्य है और संदेश रासक विरह पक्ष का रासो काव्य-रूढ़ियों द्वारा वातावरण तैयार करता है और संदेश रासक हृदय की मर्म वेदना के द्वारा रासो के घर के बाहर का वातावरण प्रमुख है और संदेश रासक में भीतर का। रासो नये-नये रोमांस प्रस्तुत करता है और संदेश रासक पुरानी प्रीति को निखार देता है। "
➽ संदेश रासक के संबंध में यह उल्लेखनीय है कि नायिका के रूप वर्णन में वासनात्मकता कहीं भी नहीं हैं। पथिक द्वारा साम्बरपुर के वर्णन में नागरिक जीवन की स्पष्ट प्रतिध्वनि है। वहाँ की वीर वनिताओं तथा क्ष रमणियों की भंगिमाओं का वर्णन परम्परानुमोदित है। नगरोद्यान, पादप एवं पुष्पों को सविस्तार अथवा नीरस वर्णन कथा की गति या उसकी प्रभावोत्पादकता में किसी प्रकार का योग नहीं देते। कवि को ऐसे वर्णनों में आनुपातिका से काम लेना चाहिए था। षड्ऋतु वर्णन प्रेम काव्यों की परम्परा की एक महत्त्वपूर्ण रूढ़ि है, जिसका पालन संदेश - रासक में भी किया गया है। रासक का ऋतु वर्णन कामोद्दीपन है और वह कालिदास के ऋतुसंहार की परंपरा में आता है। सच तो यह है कि इस प्रकार के प्रेम-प्रसंगों में जहाँ नायिका विरह व्यथा को कह सकने में असमर्थ है और पथिक अधिकाधिक त्वरा-संपन्न है वहाँ इस प्रकार के विस्तृत ऋतु वर्णन का अवकाश ही नहीं था ।
➽ संदेश रासक में दोहा छंद का सुंदर प्रयोग हुआ है। रासक छंद इसका प्रमुख छंद है। इस ग्रन्थ से हमें रासक के गेय रूपक का पता चलता है। भाषा विज्ञान तथा इतिहास की दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। आदिकालीन काव्य-रूपों को समझने में यह ग्रन्थ अत्यंत सहायक सिद्ध होता है। यह मसृण शैली में रचित गेय रूपक है। भाषा की दृष्टि से यह संक्रान्तिकालीन भाषा का परिचायक है। इसमें हमें एक नया विचार-बिंदु मिलता है कि भारतीय साहित्य में मुसलमानों का कितने समय से काव्य से संबंध चला आ रहा है। कुछ विद्वानों ने रासक को ग्राम्य अपभ्रंश में रचित माना है परन्तु डॉ. नामवरसिंह का विचार है कि "यह समझना भ्रांति है कि वह ग्राम्य अपभ्रंश में लिखा हुआ काव्य है। वस्तुतः इसके भाव और भाषा पर नागरिकता की छाप है। छंद-विविधता और अलंकार सज्जा दोनों दृष्टियों से संदेश रासक अत्यंत परिमार्जित रचना है।"
'संदेश रासक' अद्दहमाण संभवत: अब्दुर्रहमान द्वारा रचित एक खंडकाव्य है।