सिद्ध साहित्य : विविध रूप प्रभाव एवं महत्त्व , सिद्धादि तांत्रिक सम्प्रदायों की सामान्यप्रवृत्तियाँ
सिद्ध साहित्य
➽ भारतीय साधना के इतिहास में 8वीं सदी में सिद्धों की सत्ता देखी जा सकती है। सरहपा का समय 817 ठहरता है। ये सिद्ध कौन थे इस संबंध में भी विचार कर लेना आवश्यक है। सिद्ध परंपरा को बौद्ध धर्म की घोर विकृति मानना चाहिए। बुद्ध का निर्वाण 483 ई.पू. में हुआ। बुद्ध-निर्वाण के 45 वर्ष पश्चात बौद्ध धर्म के सिद्धांतों का खूब प्रचार हुआ। इस धर्म की विजय दुन्दुभि देश तथा विदेशों में बजती रही। बौद्ध धर्म का उदय वैदिक कर्मकाण्ड की जटिलता एवं हिंसा की प्रतिक्रिया रूप में हुआ। यह धर्म सहानुभूति और सदाचार के मूल तत्वों पर आधारित था ।
➽ ईसा की प्रथम शताब्दी में बौद्ध धर्म महायान तथा हीनयान दो शाखाओं में विभाजित हुआ । हीनयानी छोटे रथ के आरोही थे और महायानी बड़े रथ के आरोही । हीनयान शब्द का प्रयोग महायान सम्प्रदाय वालों की ओर से व्यंग्यात्मक रूप से हुआ। हीनयान में सिद्धांत पक्ष का प्राधान्य रहा जबकि महायान में व्यावहारिकता का महायान वाले अपनी गाड़ी में ऊंचे-नीचे, छोटे-बड़े, गृहस्थी - संन्यासी सबको बैठा कर निर्वाण तक पहुंचा सकने का दावा करते थे। हीनयान केवल विरक्तों और संन्यासियों को आश्रय देता था। इसमें ज्ञानार्जन, पांडित्य और व्रतादि की प्रधानता बनी रही। महायान वैष्णवों की भक्ति से अत्यंत प्रभावित हुआ और इसका व्यावहारिक पक्ष शंकर के ज्ञान कांड से जुड़ गया।
➽ वैसे तो गुप्त नरेशों के समय में बौद्ध धर्म को आघात पहुँच चुका था किंतु आठवीं सदी में कुमारिल भट्ट तथा शंकराचार्य ने इसकी जड़े तक हिला दीं। बड़े आश्चर्य की बात है कि भारत का धर्म भारत से निर्वासित हो गया। तिब्बत, नेपाल और बंगाल में इसे शरण मिली। अब यह धर्म शैव धर्म से प्रभावित हुआ और इसने जनता को अपने आश्रय में लाने के लिए तन्त्र-मन्त्र एवं अभिचार का आश्रय लिया। जो धर्म वैदिक धर्म की कर्मकांड की उलझनों की प्रतिक्रिया में उठा था वही समाधि, जन्त्र-मन्त्र, डाकिनी शाकिनी, भैरवी चक्र, मद्य-मैथुन में उलझ गया और सदाचार से हाथ धो बैठा। जिस धर्म ने ईश्वर का अस्तित्व तक स्वीकार नहीं किया था, कालांतर में उसी में बुद्ध की भगवान के रूप में पूजा होने लगी और आगे चलकर तंत्र ने इस धर्म को अपनी मूल दिशा से एकदम नई राह में मोड़ दिया। अब इसमें त्याग और संयम का स्थान भोग और सुख ने ले लिया । निवृत्तिपरायण धर्म में प्रवृत्ति प्रबल हुई और साधक 'सर्वतथागतात्मकोऽहं' जैसे मंत्रों ने ले लिया। इस प्रकार महायान मन्त्रयान बन गया। आगे चलकर इसके भी दो टुकड़े हो गए, वज्रयान तथा सहजयान जो सचमुच अपनी गाड़ी को इतना मजबूत और सहज बना सके कि उसमें पांडित्य और कृच्छ साधना का कोई महत्त्व नहीं रहा। आगे चलकर वाम मार्ग भी इसी से निकला जो विकृत अवस्था का एक हीन चित्र है।
➽ मन्त्रों द्वारा सिद्धि चाहने वाले सिद्ध कहलाये। उत्तरी भारत में शंकर के मत के प्रचार से बौद्ध धर्म के लिए केवल दक्षिणी भारत में स्थान रह गया था। आन्ध्र नरेश से इन्हें पर्याप्त प्रोत्साहन मिला। श्रीपर्वत सिद्धों का प्रधान था। 'मन्जूश्री' और 'मूलकल्प' नामक ग्रन्थ यहीं लिखे गए। राजशेखर की 'कर्पूरमंजरी' पर सिद्धों का स्पष्ट प्रभाव है। पाल शासकों ने बंगाल और बिहार पर अपना आधिपत्य जमा लिया था अतः सिद्धों का प्रचार वहाँ भी हुआ। वहाँ इनकी मगही भाषा में रचनाएँ मिलती हैं। 'विक्रमशिला' बौद्ध विश्वविद्यालय की स्थापना भी इसी काल में हुई। इन सिद्धों के बंगाल और बिहार में अत्यधिक प्रचार के कारण कदाचित बंगाल का जादू प्रसिद्ध हो सका।
➽ यद्यपि वज्रयानी परंपरा को लेकर इन सिद्ध कवियों ने सिद्धांतों का प्रतिपादन किया किन्तु इन सिद्धों में विशेष बात यह थी कि वे ईश्वरवाद की ओर अग्रसर हो रहे थे। इन्होंने गृहस्थ जीवन पर बल दिया। इसके लिए स्त्री का सेवन, संसार रूपी विषय से बचने के लिए था। जीवन के स्वाभाविक भोगों में प्रवृत्ति के कारण सिद्ध साहित्य में भोग में निर्वाण की भावना मिलती है। जीवन की स्वाभाविक प्रवृत्तियों में विश्वास के कारण सिद्धों का सिद्धांत पक्ष सहज मार्ग कहलाया ।
➽ चौरासी सिद्धों का समय 797 से 1257 तक माना गया है। हमें 14 सिद्धों की रचनाएँ उपलब्ध होती हैं। सरहपा, शबरपा आदि इनमें प्रसिद्ध हैं। प्रत्येक सिद्ध के नाम के पीछे 'पा' शब्द जुड़ा हुआ है।
➽ धर्मवीर भारती ने सिद्ध साहित्य में उपलब्ध होने वाली अश्लीलता पर आध्यात्मिकता का आरोप करना चाहा है किन्तु हमारे विचार में उस पर रहस्यात्मक प्रतीकात्मक आरोपित करना असंभव है।
➽ डॉ. भारती ने सिद्धों के प्रज्ञोपायात्मक साहित्य को साधारणजन के आस्वाद का विषय बताया है। उन्होंने सिद्धों की शब्दावली की दार्शनिक व्याख्या करते हुए इसे आध्यात्मिक घोषित कर सिद्ध साहित्य के उत्कट भोगवाद को गौण सिद्ध करना चाहा है, किन्तु हमारा विचार है कि सिद्धों का तथाकथित रहस्यवादी साहित्य किसी भी कारण अलौकिक प्रेम का काव्य नहीं कहा जा सकता है। सिद्ध साहित्य में गहन रहस्यात्मक अनुभूतियों की खोज समस्त तांत्रिक धारा के प्रवाह को प्रतीची दिशा में मोड़ने के अनावश्यक प्रयत्न के सिवाय और कुछ भी नहीं है। कभी ऐसा अवश्य था कि जबकि समस्त सिद्ध साधना और तत्कालीन समाज अश्लीलता और कामुकता के प्रवाह में बेसुध हो चला था। यही कारण है कि इस बढ़ती विलासिता का प्रतिवाद गोरखनाथ को करना पड़ा था.
चारि पहिर आलिंगन निद्रा, संसार जाई विषया दाही ।
➽ सिद्ध प्रायः अशिक्षित और जीन जाति से संबंध रखते थे, अतः उनकी साधना की साधनभूत मुद्राएँ- कापाली, डोम्बी आदि नायिकाएँ भी निम्न जाति की थीं क्योंकि उनके लिए ये ही सुलभ थीं। इनकी सांध्य भाषा की उलझी हुई शब्दावली में उनके अधकचरे दार्शनिक (Psudo Philosophers) होने का आभास भले ही मिल जाये किन्तु असल में वे दार्शनिक नहीं और न ही दर्शन की कोई ऊंची वस्तु देना उनका उद्देश्य था। उन्होंने धर्म और अध्यात्म की आड़ में जनजीवन के साथ विडम्बना करते नारी का उपभोग किया। बस यही उनका चरम गन्तव्य था। उनके कलम और कुलिश योनि और शिश्न के प्रतीक मात्र हैं।
➽ सिद्धों की कुछ रचनाएं अपभ्रंश भाषा में हैं। वह भाषा अर्द्धमागधी अपभ्रंश के निकट ही है। इसे संध्या भाषा भी कहा जाता है क्योंकि यह भाषा अपभ्रंश के संध्या काल में प्रचलित थीं।
➽ इनकी रचनाओं में शान्त और श्रृंगार रस उपलब्ध होते हैं। भले ही काव्य लक्षणों के अनुसार इनकी रचनाओं में रस का परिपाक न हुआ हो परन्तु उसमें अलौकिक आनन्द तथा आत्म-तोष का प्रवाह अवश्य है। उसे अलौकिक रस कहा जा सकता है। यही रस कबीर, मीरा और दादू की रचनाओं में मिलता हैं। उदाहरणार्थ सरहपा की दो पंक्तियाँ देखिए-
जब्बे मण आत्क्षमण जाइ, तणु तुट् टइ बंधण |
तब्बे समरस सहजे बज्नइ सुद्ध न बन्हण ।।
सिद्ध साहित्य में दोहा, चौपाई और चर्या गीत आदि छन्द मिलते हैं।
सिद्ध साहित्य के विविध रूप
सिद्धों के साहित्य को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है (क) नीति तथा आचारमय, (ख) उपदेशात्मक (ग) साधना-संबंधी अर्थात् रहस्यवादी । इसके अतिरिक्त सिद्ध साहित्य में फुटकर रूप से कतिपय काव्यशास्त्रीय बातों की भी प्रासंगिक रूप से चर्चा मिलती है। सिद्ध साहित्य में धावक तथा डोम्बी और शबरी आदि परस्पर आश्रय और आलम्बन है। गुरु दौत्य कार्य सम्पन्न करता है। कापालिका आदि नायिकाओं को स्वकीया, परकीया, सामान्या, प्रौढ़ा, मुग्धा, मध्य एवं अभिसारिका आदि की कोटि में रखा जा सकता है। चर्यापदों में शृंगार के नायकारब्ध तथा नायिकारब्ध दोनों रूप मिलते हैं। उद्दीपन विभाव के अंतर्गत नायिका का सौन्दर्य तथा प्राकृतिक वर्णन आते हैं।
सिद्धादि तांत्रिक सम्प्रदायों की सामान्य प्रवृत्तियाँ-
सिद्धों के तांत्रिक सम्प्रदाय के समानान्तर काल में शैवागमों के कापालिक रसेश्वर जंगम पाशुपत लिंगायत आदि सम्प्रदायों का प्रचलन हुआ। शाक्तों के वीर आदि सम्प्रदाय वैष्णवों के पांचरात्र आदि सम्प्रदाय तथा नाथ सम्प्रदाय आदि भी उस समय निज निज गन्तव्यों के प्रसारण में परायण थे। उक्त सभी सम्प्रदाय भारतीय धर्म साधना के मध्ययुगीन तांत्रिक प्रभाव से अत्यधिक प्रभावित थे। निःसंदेह भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों की पारिभाषिक शब्दावली में थोड़ा-बहुत अन्तर रहा हो किन्तु इस रूप में प्रवृत्तिगत एकता दृष्टिगोचर होती है।
सामान्य प्रवृत्तियाँ-
(1) प्रत्येक तांत्रिक सम्प्रदाय में देवता मन्त्र और तत्त्व दर्शन की पारिभाषिक शब्दावली भिन्न-भिन्न है, किंतु साधना पद्धति सबकी समान है।
(2) प्रत्येक सम्प्रदाय में शास्त्रीय चिन्तन पक्ष गौण था। साधना क्रिया और चर्यापदों की प्रमुखता थी । साधना पक्ष में गुरु को अत्यधिक महत्त्व प्रदान किया गया। तांत्रिक साधना में शिव-शक्ति, लिंग-अंग प्रज्ञा-उपाय, रस अभ्रक आदि की अद्वय स्थिति पर अत्यधिक बल दिया है।
(3) तांत्रिक सम्प्रदायों की साधना पद्धति में शिव और शक्ति की युगबद्धता और उनकी मिथुनात्मक व्याख्या मिलती है। प्रत्येक सम्प्रदाय की साधना में गुह्याचारों पर अत्यधिक बल दिया गया है।
(4) तांत्रिक साधना में जाति-पांति और वर्ण-भेद आदि की भरसक निन्दा की गई है।
(5) इन सम्प्रदायों में योग साधना पर अत्यधिक बल दिया गया है। तांत्रिक साधना के लिए शरीर शुद्धि प्रथम आवश्यक उपलब्धि है। ब्रह्मांड में जो शिव और शक्ति है शरीर में वही सहस्त्राधार और कुण्डलिनी है। उनकी अद्वयता के लिए योग साधना अनिवार्य है।
(6) मिथुनात्मकता साधना की निरूपण पद्धति सर्वथा सांकेतित है।
(7) प्रत्येक सम्प्रदाय में वैदिक देवताओं के प्रति अनास्था प्रकट की गयी है और उनके स्थान पर लोक देवताओं और उनकी असंस्कृत पूजन पद्धतियों को प्रश्रय दिया गया है।
(8) सब सम्प्रदायों ने ब्राह्मणवाद की पौराणिक रूढ़ियों का खंडन और वेदों के प्रति असम्मान दर्शाया है।
(9) तांत्रिक साधना में मरणोपरान्त मुक्ति या निर्वाण प्राप्ति की अपेक्षा जीवनकाल में सिद्धियों को प्राप्त करना श्रेयस्कर बताया गया है।
(10) चमत्कार प्रदर्शन सभी सम्प्रदायों में समान रूप से मिलता है। मंत्र यंत्र और बीजाक्षरों का प्रचलन सभी सम्प्रदायों में समान रूप से हुआ। सब सम्प्रदायों में गुह्य साधना के ब्याज से कामशास्त्रीय विधियों का समावेश परोक्ष रूप से हुआ है।
(11) तांत्रिक काल में उद्भूत वैष्णवों के पांचरात्र सम्प्रदाय में उपासना के चार अंग स्वीकार किये गये हैं- ज्ञानपाद, योगपाद, क्रियापाद और चर्यापाद । क्रियापाद का संबंध मूर्तियों और मन्दिरों के निर्माण से है और चर्यापाद का संबंध मंत्रों एवं तंत्रों की व्याख्या से है। इस प्रकार चमत्कारप्रिय युग में मन्दिरों और मूर्तियों के निर्माण में कृत्रिमता और अलंकरण-प्रियता को स्थान मिलने लगा। इस प्रकार रीतिकाल में कलागत जिस सज्जावाद, चमत्कारिता और कृत्रिमता के दर्शन होते हैं, उसका आरंभ तांत्रिक काल में ही हो गया था। यह दूसरी बात है कि रीतिकाल के सामन्ती प्रभाव तथा ईरानी कलाओं के मिश्रण की प्रक्रिया से उक्त प्रवृत्तियों में और भी गहरा रंग उभर आया हो। रीतिकाल में कलागत अलंकरण और चमत्कृतप्रियता के लिए केवल मुगल शासन ही उत्तरदायी नहीं है। उसके मूल बीज इस धरती पर पहले से विद्यमान थे। काव्यक्षेत्र में अलंकार रीति और वक्रोक्ति सम्प्रदाय इसके उदाहरण हैं। मध्ययुगीन भारतीय स्थापत्य कला का भी इस विषय में साक्षात् निदर्शन है।
रीति पर विविध प्रभाव - सिद्ध साहित्य का प्रभाव एवं महत्त्व
सिद्ध साहित्य का प्रभाव एवं महत्त्व-
चारण साहित्य तत्कालीन राजनीतिक जीवन की प्रतिच्छाया है, परन्तु यह सिद्ध साहित्य सदियों से आने वाली धार्मिक और सांस्कृतिक विचारधारा का एक स्पष्ट उल्लेख है। इसने हमारे धार्मिक विश्वास की श्रृंखला को और भी मजबूत किया है। आगे पूर्व मध्यकाल एवं उत्तर मध्यकाल में जो गोपी-लीला एवं अभिसार के वर्णन मिलते हैं, सिद्ध साहित्य में उसका पूर्व रूप देखा जा सकता है। सिद्धों की उलझी हुई उक्तियों को कबीर की उलटबांसियों का प्रेरक समझना चाहिए।
भाषा की दृष्टि से भी सिद्ध साहित्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। संत साहित्य का आदि स्रोत इन सिद्धों को, मध्य नाथपंथियों को और उसका पूर्ण विकास कबीर से आरंभ होने वाली संत परंपरा में नानक, दादू और मलूक आदि को मानना चाहिए। भक्तों के अवतारवाद पर महायान शाखा का विशेष प्रभाव है। डॉ. हजारीप्रसाद का कहना है कि भक्तिवाद पर सिद्धों का प्रभाव है, ईसाई मत का कोई प्रभाव नहीं है। सिद्ध साहित्य का मूल्यांकन करते हुए हिन्दी के एक प्रसिद्ध विद्वान आलोचक ने लिखा है- “जो जनता नरेशों की स्वेच्छाचारिता, पराजय या पतन से त्रस्त होकर निराशावाद के गर्त में गिरी हुई थी, उसके लिए इन सिद्धों की वाणी ने संजीवनी का कार्य किया। निराशावाद के भीतर से आशावाद का सन्देश देना, संसार की क्षणिकता में उसके वैचित्र्य का इन्द्रधनुषी चित्र खींचना इन सिद्धों की कविता का गुण था और उसका आदर्श था जीवन की भयानक वास्तविकता की अग्नि से निकालकर मनुष्य को महासुख के शीतल सरोवर में अवगाहन कराना। "
आचार्य शुक्ल सिद्धों और नाथों के साहित्य को धार्मिक एवं साम्प्रदायिक कहकर उसे शुद्ध रागात्मक साहित्य की कोटि में स्थान नहीं देते। उनका कहना है-“उनकी (सिद्धों, नाथों, जैनों) रचनाओं का जीवन की स्वाभाविक सरणियों, अनुभूतियों और दशाओं से कोई संबंध नहीं। वे साम्प्रदायिक शिक्षा मात्र हैं अतः शुद्ध साहित्य की कोटि में नहीं आ सकती। उन रचनाओं की परम्परा को हम काव्य या साहित्य की धारा नहीं कह सकते।" हमारा विचार है कि आचार्य शुक्ल ने इन रचनाओं का महत्त्व आंकते समय पूर्ण न्याय नहीं किया है। डॉ. रामकुमार वर्मा के विचार इस संबंध में अवलोकनीय हैं “सिद्ध साहित्य का महत्त्व इस बात में बहुत अधिक है कि उससे हमारे साहित्य के आदि रूप की सामग्री प्रामाणिक ढंग से प्राप्त होती है। चारणकालीन साहित्य तो केवल तत्कालीन राजनीतिक जीवन की प्रतिच्छाया है। यह सिद्ध साहित्य शताब्दियों से आने वाली धार्मिक और सांस्कृतिक विचारध नारा का स्पष्ट उल्लेख है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से भी यह साहित्य महत्त्वपूर्ण है।"
साहित्यिक उदात्तता और परिपक्वता की दृष्टि से उक्त साहित्य का कोई विशेष महत्त्व नहीं है और कदाचित् इसीलिए यह उपेक्षणीय भी रहा है। किन्तु इन सिद्धों में इतनी साहित्यिक देन अवश्य है कि इन्होंने अनेक चर्यापदों को विविध रागों में लिखकर परवर्ती गीतिकाव्यकारों जयदेव, विद्यापति, सूरदास आदि के लिए मार्ग खोल दिया। शृंगार को काम-समन्वित बना इन्होंने उनमें नाना कामकलाओं का वर्णन किया। इस प्रकार इन्होंने भागवतकार और गीत - गोविन्दकार जयदेव के लिए पृष्ठभूमि प्रस्तुत कर दी। कतिपय विद्वानों का विचार है कि दर्शन के क्षेत्र में इन लोगों ने शंकर के मायावाद के लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया और उनके अद्वैतवाद को बौद्धों की शताब्दियों से चली आती हुई शून्य संबंधी - चिन्तनधारा ने अग्रसर करने के लिए कोई कम महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं किया।