हिंदी साहित्य का इतिहास : काल विभाजन | हिंदी साहित्य के इतिहास के स्रोत | Sources of Hindi Literature History

Admin
0

हिंदी साहित्य का इतिहास : काल विभाजन,  हिंदी साहित्य के इतिहास के  स्रोत

हिंदी साहित्य का इतिहास : काल विभाजन | हिंदी साहित्य के इतिहास के  स्रोत | Sources of Hindi Literature History

हिंदी साहित्य का इतिहास - प्रस्तावना (Introduction) 

  • आधुनिक युग में इतिहास को कला की अपेक्षा विज्ञान के ही अधिक निकट माना जाता है। अतः प्रत्येक इतिहासकार से दृष्टिकोण की तटस्थता या वस्तुपरकता, तथ्यों की यथार्थता और निष्कर्षों की प्रामाणिकता की अपेक्षा की जाती है; यह दूसरी बात है कि विषयवस्तु की अविद्यमानता व अप्रत्यक्षता के कारण 'भौतिक विज्ञान' की-सी वैज्ञानिकता का आविर्भाव उसमें शायद ही संभव हो। वास्तव में विषय-भेद से स्वयं विज्ञान भी अनेक श्रेणियों एवं कोटियों में विभक्त हो जाता है; उदाहरण के लिए मनोविज्ञान, समाजविज्ञान व भाषाविज्ञान को हम विज्ञान की उसी श्रेणी में स्थान नहीं दे सकते जिस श्रेणी में भौतिकविज्ञान, रसायनशास्त्र और जीवविज्ञान को देते हैं। अतः इतिहास को भी हम उसी श्रेणी के विज्ञान में स्थान दे सकते हैं, जिस श्रेणी में भाषाविज्ञान व समाजविज्ञान (Sociology) को देते हैं।

 

  • आज पाश्चात्य इतिहास दर्शन के सर्वप्रमुख एवं सर्वाधिक विकसित दृष्टिकोण के रूप में विकासवादी दृष्टिकोण को स्वीकार किया जा सकता है, किंतु अनेक दृष्टियों से यह दृष्टिकोण भी अभी तक पूर्ण विकसित नहीं कहा जा सकता। एक तो अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, संस्कृति आदि विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करनेवाले विकासवादी चिन्तकों के सिद्धांतों में भी परस्पर अन्विति एवं एकरूपता का अभाव है, जहाँ डारविन का विकासवाद प्राणिशास्त्र में लागू होता है, वहाँ मार्क्स का अर्थशास्त्र में, स्पेन्सर का भौतिकविज्ञान में या बर्गसों का मनोविज्ञान में लागू होता है।

 

1 इतिहास अर्थ एवं स्वरूप 

  • शाब्दिक दृष्टि से 'इतिहास' का अर्थ है 'ऐसा ही था' या 'ऐसा ही हुआ। इससे दो बातें स्पष्ट हैं-एक तो यह कि इतिहास का संबंध अतीत से है; दूसरे यह कि उसके अंतर्गत केवल वास्तविक या यथार्थ घटनाओं का समावेश किया जाता है। उसमें उन सभी लिखित या मौखिक वृत्तों को सम्मिलित किया जाता है जिनका संबंध अतीत की यथार्थ परिस्थितियों व घटनाओं से है और साथ ही उसका संबंध केवल प्रसिद्ध घटनाओं' से ही नहीं, अपितु उन घटनाओं से भी है जो प्रसिद्ध न होते हुए भी यथार्थ में घटित हुई हों। वस्तुतः आज 'इतिहास' शब्द को इतने व्यापक अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है कि उसके अंतर्गत, अतीत की प्रत्येक स्थिति, परिस्थिति, घटना, प्रक्रिया एवं प्रवृत्ति की व्याख्या का समावेश हो जाता है। अतः संक्षेप में अतीत के किसी भी तथ्य तत्व एवं प्रवृत्ति के वर्णन, विवरण, विवेचन व विश्लेषण को जो कि कालविशेष या कालक्रम की दृष्टि से किया गया हो - इतिहास कहा जा सकता है। लाक्षणिक अर्थ में 'इतिहास' का प्रयोग अतीत की घटनाओं के विवरण के स्थान पर स्वयं अतीतकालीन घटनाओं और व्यक्तियों के लिए भी होता है, जैसे- महात्मा गांधी ने भारत के नये इतिहास का निर्माण किया' या 'सम्राट अशोक भारत के इतिहास निर्माता थे' आदि वाक्यों में। किंतु शास्त्रीय या वैज्ञानिक विवेचन में लाक्षणिक प्रयोग अग्राह्य या त्याज्य ही समझे जाते हैं।

 

नोट्स- शाब्दिक दृष्टि से 'इतिहास' का अर्थ है 'ऐसा ही था' या 'ऐसा ही हुआ'

 

  • प्राचीनकाल से ही इतिहास को अध्ययन के एक स्वतंत्र विषय के रूप में मान्यता प्राप्त है, किंतु अध्येताओं के दृष्टिकोण एवं पद्धति के अनुसार उसका स्वरूप बदलता रहा है; इसलिए कभी उसे कला के क्षेत्र में और कभी विज्ञान के क्षेत्र में स्थान दिया जाता रहा। वस्तुतः इतिहास कला है या विज्ञान, यह प्रश्न आज भी विवाद का विषय बना हुआ है। इस विवाद के मूल में यह भ्रान्ति विद्यमान है कि कोई भी वस्तु या विषय अपने आपमें कला या विज्ञान की कोटि में आ सकता है जबकि वास्तविकता यह है कि कला या विज्ञान का निर्णय विषयवस्तु के आधार पर नहीं, अपितु उसकी अध्ययन पद्धति या रचना-पद्धति पर निर्भर है। इतिहास हमें अतीत का इतिवृत्त प्रदान करता है, किंतु यह हम पर निर्भर है कि उस इतिवृत्त का उपयोग किस प्रकार करते हैं। यदि अतीत के इतिवृत्त को हम आत्मपरक दृष्टिकोण, वैयक्तिक अनुभूति एवं ललित शैली में प्रस्तुत करते हैं तो वह 'कला' की संज्ञा से विभूषित हो सकता है जबकि वस्तुपरक दृष्टिकोण, तर्कपूर्ण शैली एवं गवेषणात्मक पद्धति से प्रस्तुत किया गया अतीत का विवरण 'विज्ञान' की विशेषताओं से युक्त माना जा सकता है। वस्तुतः इतिहास से कवि, साहित्यकार, उपदेशक, शोधकर्ता आदि विभिन्न वर्गों के लोग प्रेरणा ग्रहण करते रहे हैं तथा उनकी दृष्टि व पद्धति के अनुसार उसका स्वरूप भी बदलता रहा है ऐसी स्थिति में इतिहास के भी विभिन्न रूप उपलब्ध हों तो कोई आश्चर्य नहीं।

 

  • आधुनिक युग में इतिहास को कला की अपेक्षा विज्ञान के ही अधिक निकट माना जाता है। अतः प्रत्येक इतिहासकार से दृष्टिकोण की तटस्थता या वस्तुपरकता, तथ्यों की यथार्थता और निष्कर्षो की प्रामाणिकता की अपेक्षा की जाती है; यह दूसरी बात है कि विषयवस्तु की अविद्यमानता व अप्रत्यक्षता के कारण 'भौतिक विज्ञान' की-सी वैज्ञानिकता का आविर्भाव उसमें शायद ही संभव हो। वास्तव में विषय-भेद से स्वयं विज्ञान भी अनेक श्रेणियों एवं कोटियों में विभक्त हो जाता है; उदाहरण के लिए मनोविज्ञान, समाजविज्ञान व भाषाविज्ञान को हम विज्ञान की उसी श्रेणी में स्थान नहीं दे सकते जिस श्रेणी में भौतिकविज्ञान, रसायनशास्त्र और जीवविज्ञान को देते हैं। अतः इतिहास को भी हम उसी श्रेणी के विज्ञान में स्थान दे सकते हैं, जिस श्रेणी में भाषाविज्ञान व समाजविज्ञान (Sociology) को देते हैं।

 

हिंदी साहित्येतिहास स्रोत - हिंदी साहित्य के इतिहास की आधारभूत सामग्री 

हिंदी साहित्य के इतिहास की आधारभूत सामग्री को मुख्यतः दो भागों में रखा जा सकता है- 

(क) अंत:साक्ष्य तथा (ख) बाह्य साक्ष्य। 

अंतः साक्ष्य के अंतर्गत उपलब्ध सामग्री को भी तीन रूपों में बाँटा जा सकता है - 

( 1 ) भक्त एवं संत कवियों से संबंद्ध आधारभूत ग्रंथ

(2) कवि- विषयक काव्य संग्रह,

 (3) साहित्यकारों की प्रकाशित व अप्रकाशित रचनायें तथा कवियों के परिचय से सम्बद्ध पुस्तकें।

बाह्य साक्ष्य के अंतर्गत प्राप्त सामग्री चार रूपों में मिलती है- 

(1) साहित्यिक सामग्री

(2) प्राचीन ऐतिहासिक स्थान, शिलालेख, वंशावलियां व प्रामाणिक उल्लेख 

(3) जनश्रुतियां 

(4) विभिन्न युगों की आंतरिक व बाह्य परिस्थितियों की ज्ञापक सामग्री।

 

साहित्य के इतिहास के लेखन कार्य में बाह्य साक्ष्य की अपेक्षा अंतः साक्ष्य अधिक विश्वसनीय और महत्त्वपूर्ण है क्योंकि एक समन्वित दृष्टिकोण संपन्न इतिहास लेखक अपनी विवेकमयी सारग्राहिणी बुद्धि से उस सामग्री से ग्राह्य व प्रामाणिक उपादानों को ग्रहण करता है। एक श्रेष्ठ इतिहास लेखक सर्वदा " सार-सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय" के आदर्श का दृढ़ता से पालन करता है।

 

(क) अंतः साक्ष्य-हिंदी साहित्य के इतिहास की  सामग्री 

 

(1 ) भक्त एवं संत कवियों से संबद्ध आधारभूत ग्रंथ

  • इस कोटि के अंतर्गत गोकुलनाथ द्वारा रचित "चौरासी और दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ताएँ', नाभादास रचित 'भक्त-माल', 'गुरुग्रंथ साहब', 'गोसाईं चरित्र', ध्रुवदास लिखित 'भक्त नामावली' तथा 'संत बानी' संग्रह व अन्य संतों की बानी आदि ग्रंथ आते हैं। चौरासी और दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ताओं में पुष्टि मार्ग के अनुयायी वैष्णवों की जीवनियों पर प्रकाश डाला गया है। इनमें अष्टछाप के कृष्ण भक्त कवि सूरदास और नंददास आदि सम्मिलित हैं। भक्तमाल में अनेक भक्तों के व्यक्तित्व से संबंधित 108 छप्पय छंदों का उल्लेख है। इनमें उनके जीवन और कृतित्व के बारे में श्रद्धापूर्वक उल्लेख है। इनमें अनेक भक्ति कवि भी हैं। 'गुरुग्रंथ साहब' में कबीर, रैदास तथा नाभादास की वाणियों का संग्रह है। 'गोसाईं चरित्र' में गोस्वामी तुलसीदास के जीवन चरित्र की अलौकिक घटनाओं का वर्णन मिलता है। संत बानी संग्रह तथा अन्य संतों की बानी में 24 संत कवियों के जीवन चरित्र और काव्य-संग्रह हैं। इन सब ग्रंथों में भक्तों व संत कवियों के विषय में स्तुत्यात्मक कथन है, अतः उनके उपयोग में इतिहासोचित सावधानी अपेक्षित है। गुरुमुखी लिपि में निवद्ध हिंदी कवियों के ग्रंथों ने हिंदी साहित्य के इतिहास के निर्माण में काफी उपयोगी सामग्री जुटाई है।

 

(2) विविध कवियों से संबद्ध काव्य संग्रह

  •  इस प्रकार के अनेक काव्य संग्रह मिलते हैं- 'कविमाला' - में 75 कवियों की कविताओं का संकलन है। 'कालिदास हजारा' में 292 कवियों की एक हजार कविताओं का संग्रह है। भिखारीदास के 'काव्य निर्णय' में जहाँ एक ओर काव्य के आदर्शों का उल्लेख है, वहाँ उसमें कुछ कवियों का संक्षिप्त निर्देश भी कर दिया गया है। 'सत्कवि गिरा विलास' में केशव, चिंतामणी, मतिराम और बिहारी आदि 17 कवियों की कविताओं का संग्रह है। 'कवि नामावली' में लेखक ने दस कवियों का नाम गिनाकर उन्हें प्रणाम अर्पित किया है। 'विद्वान मोदतरंगिणी' में 15 कवियों का काव्य संग्रह है। सरदार कवि के 'श्रृंगार संग्रह ' में काव्य के विविध अंगों के निरूपण के साथ-साथ 125 कवियों की कविताओं के उद्धरण प्रस्तुत किये गये हैं। हरिश्चंद्र के 'सुंदरोतिलक' में 69 कवियों के सवैयों का संग्रह है। 'काव्य-संग्रह' में अनेक कवियों का काव्य संग्रह है। मातादीन मिश्र के 'कवित्त रत्नाकर' में 20 कवियों का काव्य संग्रह है। शिवसिंह सेंगर के 'शिवसिंह सरोज' में एक हजार कवियों का जीवनवृत्त और उनकी कविताओं के उदाहरण जुटाए गए हैं इतिहास की सामग्री की दृष्टि से यह ग्रंथ काफी उपादेय है। 'विचित्रोपदेश' नामक ग्रंथ में अनेक कवियों की कवितायें हैं। 'कवि रत्नमाला' में राजपूताने के 108 कवियों की कविताएँ जीवनी सहित दी गई हैं। 'हफीजुल्ला खां हजारा के दो भागों में अनेक कवियों के कवित्त और सवैयों का संग्रह है। लाला सीता राम के सलेक्शन फ्रॉम हिंदी लिट्रेचर' (Selection from Hindi Literature) में अनेक कवियों की आलोचनाएँ और कविताएँ हैं। लाला भगवानदीन के 'सूक्ति सरोवर में ब्रज भाषा के अनेक कवियों की साहित्यिक विषयों पर सूक्ति हैं। कृष्णानंद व्यासदेव रचित 'राग सागरोद्भव राग कल्पद्रुम' में अनेक राग-रागनियों के उल्लेख के साथ कृष्णोपासक दो सौ से अधिक कवियों के काव्य संग्रह हैं। 'दिग्विजय भूखन' में 192 कवियों का काव्य-संग्रह है। ठाकुर प्रसाद त्रिपाठी के 'रस चंद्रोदय' में 242 कवियों की कविताओं का संकलन है। उपर्युक्त काव्य-संग्रहों की विषय-वस्तु से स्पष्ट है कि इनमें अनेक कवियों की मूल्यवान कविताएँ हैं जिनके आधार पर संबद्ध कवियों को साहित्यगत प्रवृत्तियाँ निर्धारित की जा सकती हैं। इन ग्रंथों से मध्ययुगीन हिंदी कवियों और उनके काव्यों के विषय में काफी तथ्यों का पता चलता है।

 

(ख) बाह्य साक्ष्य-हिंदी साहित्य के इतिहास की  सामग्री 

 

(1) साहित्यिक सामग्री- 

  • इसके अंतर्गत टाड का 'राजस्थान' नागरी प्रचारिणी सभा की खोजक रिपोर्ट, मोतीलाल मेनारिया की 'राजस्थान में हिंदी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज', बिहार में हस्तलिखित ग्रंथ, हिंदूइज्म एंड ब्राह्मणनिज्म, कबीर एंड दि कबीर पंथ, हिस्ट्री ऑफ सिख रिलीजन इंडियन थीइज्म ए डिस्क्रिप्टिव केलॉग ऑफ वार्डिक एंड हिस्टॉरिकल मैन्युस्क्रिप्ट, एन आउट लाइन ऑफ दि रिलीजस लिट्रेचर ऑफ इंडिया, गोरखनाथ एंड दि कनफटा योगीज आदि ग्रंथ आते हैं। टाड रचित 'राजस्थान' में राजस्थान के चारण कवियों की चर्चा है। काशी नागरी प्रचारिणी सभा की खोज रिपोर्टों में अनेक अज्ञात कवियों और लेखकों का परिचय एवं उनकी रचनाओं के उदाहरण हैं। मोतीलाल मेनारिया ने अपने ग्रंथ में राजस्थान के अनेक ज्ञात व अज्ञात कवियों एवं लेखकों का परिचय और उनकी रचनाओं के उदाहरण जुटाये हैं। ऊपर अंग्रेजी भाषा में लिखित ग्रंथों की चर्चा की गई है उनमें हिंदू धर्म और दर्शन के सिद्धांतों के निरूपण के साथ-साथ हिंदी के अनेकों कवियों और आचार्यों के विचारों की भी समीक्षा कर दी गई है। इन ग्रंथों में अधिकतर साहित्य के धार्मिक तथा सांस्कृतिक पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। एल.पी. टैसीटरी के 'ए डिस्क्रिप्टिव केटेलॉग ऑफ वार्डिक एंड हिस्टोरिकल मैन्युस्क्रिप्ट' राजस्थान में रचित डिंगल काव्य के अनेक विवरण हैं।


(2) प्राचीन ऐतिहासिक स्थान व शिलालेख - 

  • शिलालेख प्राचीन इतिहास पर प्रकाश डालने में पर्याप्त सहायक सिद्ध होते हैं। चंदेल राजा परमाल ( परमार्दिदेव) के समय के जैन शिलालेख तथा आबू पर्वत के राजा जेत और शलख के शिलालेख तत्कालीन इतिहास पर प्रकाश डालते हैं। 
  • ऐतिहासिक स्थानों के अंतर्गत काशी में कबीर चौरा, अस्सी घाट, कबीर की समाधि बस्ती जिले में आमी नदी का तट, अमेठी में जायसी की समाधि, राजापुर में तुलसी की प्रस्तर मूर्ति, सोरो में तुलसीदास के स्थान का अवशेष तथा नरसिंह जी का मंदिर, केशवदास का स्थान टीकमगढ़ और सागर आदि आते हैं।

 

(3) जनश्रुतियाँ - 

  • उपर्युक्त सामग्री के अतिरिक्त कवियों की जीवनियों और उनकी साधना से संबद्ध अनेक जनश्रुतियाँ प्रचलित हैं। निःसंदेह जनश्रुतियाँ विशेष प्रामाणिक नहीं होतीं किंतु उनमें सत्य की ओर कुछ संकेत अवश्य मिल जाते हैं। जनश्रुतियाँ शताब्दियों से जन जिल्ह्वा की सवारी करती आ रही होती हैं अतः इनमें अतिरंजना का योग आवश्यक है। फिर भी एक कृति इतिहास की मनीषा उनके ग्राहणीय अंशों का सार्थक उपयोग कर लेती है।

 

  • (4) विभिन्न युगों की परिस्थितियों की बोधक सामग्री में विभिन्न युगों के इतिहास आदि ग्रंथ आते हैं। ऊपर हमने हिंदी-साहित्य के इतिहास की जिस आधारभूत सामग्री अथवा मूल स्रोतों की चर्चा की है, वह इतनी अपर्याप्त है कि उसके आधार पर हिंदी साहित्य का एक सुनिश्चित व प्रामाणिक इतिहास तैयार हो पाना कठिन है। अतः इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए भारतीय विश्वविद्यालयों द्वारा गत 40-50 वर्षों में इस दिशा में किये गये महत्त्वपूर्ण अनुसंधानों और शोध प्रबंधों की सामग्री का सावधानीपूर्वक उपयोग आवश्यक है। इन अनुसंधानों से काफी महत्त्वपूर्ण तथ्य आलोक में आए हैं। आधुनिक काल के इतिहास के लिए डॉ. माताप्रसाद गुप्त तथा डॉ. प्रेमनारायण टंडन आदि अनेक लेखकों द्वारा समकालीन लेखकों और उनकी रचनाओं के वृत्तसंग्रह निर्देशिकाओं के रूप में पर्याप्त सहायक सिद्ध हो सकते हैं।

Post a Comment

0 Comments
Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top