हिंदी भाषा के विविध रूप , मूल भाषा मानक या परिनिष्ठित भाषा कृत्रिम भाषा
भाषा के विविध रूप
मुख्यत: इतिहास, भूगोल (क्षेत्र), प्रयोग, निर्माण, मानकता और मिश्रण इन छः आधारों पर भाषा के बहुत रूप होते हैं।
(क) उदाहरण के लिए इतिहास के आधार पर मूल भाषा ( जिससे अन्य बहुत-सी निकली हों तथा जिसके किसी अन्य भाषा से निकलने का पता न हो, जैसे भारोपीय) प्राचीन भाषा (जैसे संस्कृत ग्रीक आदि) मध्यकालीन भाषा (जैसे पालि, प्राकृत, अपभ्रंश आदि) तथा आधुनिक भाषा (हिंदी, मराठी, अंग्रेजी आदि) का उल्लेख किया जाता है।
(ख) भूगोल या क्षेत्र के आधार पर भाषा का सबसे छोटा रूप व्यक्ति बोली (idiolect) का होता है, जो एक व्यक्ति द्वारा बोली जाती है। एक क्षेत्र के बहुत से लोगों की भाषा स्थानीय बोली (sub-dialect) होती है। यह क्षेत्र की दृष्टि से व्यक्ति बोली से बड़ी होती है। बहुत-सी व्यक्ति बोलियाँ मिलकर एक स्थानीय बोली बनाती हैं। एकाधिक स्थानीय बोलियाँ मिलकर एक उपबोली (sub-dialect) बनाती हैं, तो एकाधिक उपबोलियाँ मिलकर एक बोली (Dialect), एकाधिक बोलियाँ मिलकर एक उपभाषा (sub-language), या बोली वर्ग तथा एकाधिक उपभाषाएँ मिलकर एक भाषा। दूसरे शब्दों में एक भाषा के अंतर्गत एकाधिक उपभाषाएँ हो सकती हैं जैसे हिंदी भाषा के अंतर्गत पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी आदि पाँच उपभाषाएँ या बोली वर्ग हैं), एक उपभाषा में एकाधिक बोलियाँ (जैसे पूर्वी हिंदी में अवधी बघेली छत्तीसगढ़ी बोलियाँ) एक बोली में एकाधिक उपबोलियाँ (जैसे अवधी में पश्चिमी जौनपुर की 'बनौधी' तथा रायबरेली बछरावाँ आदि में प्रयुक्त बैसवाड़ी आदि ) तथा एक उपबोली में कई स्थानीय बोलियाँ (जैसे 'कुमायूँनी' बोली की 'रौ चौसी' उपबोली के 'रामगढ़िया' तथा 'छखातिया' आदि स्थानीय रूप ) ।
(ग) प्रयोग के आधार पर बोलचाल की भाषा', 'साहित्यिक भाषा', 'जातीय भाषा', 'व्यावसायिक 'भाषा', 'दुफतरी भाषा', 'राजभाषा', 'राष्ट्रभाषा', 'गुप्त भाषा', 'जीवित भाषा', 'मृत भाषा' आदि रूप होते हैं। सहायक संपूरक, परिपूरक, संपर्क तथा समतुल्य भाषा नाम के भाषा रूप भी प्रयोग पर ही आधारित है।
(घ) निर्माण के आधार पर सहज भाषा ( सामान्य बोलचाल की जैसे हिंदी, अंग्रेजी, जर्मन आदि भाषाएँ) तथा कृत्रिम भाषा (जिसे एक या कुछ लोगों ने मिलकर कृत्रिम रूप से बनाया हो। जैसे 'एस्पेरैंतो' तथा 'इड़ो' आदि। इनके लिए देखिए 'परिशिष्ट ' ) दो भेद होते हैं। कृत्रिम भाषा के दो उपभेद सामान्य (जैसे एस्पेरैतो) और गुप्त (जैसे सेना, दलालों, डाकुओं आदि की भाषा) है।
(ङ) मानकता या शुद्धता के आधार पर या मानक या परिनिष्ठित भाषा (जो बहुत शुद्ध और व्याकरण सम्मत हो, अमानक भाषा ( जिसमें शुद्ध प्रयोग न हों। जैसे 'मैंने जाना है, मेरे को कान ही पूर जाऊँगा, जाऊँ तो गा लेकिन आज नहीं आदि) । अमानकता ध्वनि, शब्द, रूप, वाक्य अर्थ सभी की हो सकती है), तथा अपभाषा ( Slang) ; यह प्रायः अशिक्षित या अर्धशिक्षित वर्ग के लोगों में चलती है, इसमें अमानक तत्वों के साथ-साथ स्थानीय बोलचाल के ठेठ और अश्लील शब्दों का भी धड़ल्ले से प्रयोग होता है) आदि भेद होते हैं
(च) मिश्रण के आधार पर पिजिन तथा क्रियोल दो भेद होते हैं। इनमें से कुछ मुख्य भाषा - रूपों को नीचे अलग से लिया जा रहा है।
(1) मूल भाषा-
भाषा का यह भेद इतिहास पर आधारित है। भाषा की उत्पत्ति अत्यन्त प्राचीन काल में उन स्थानों में हुई होगी जहाँ बहुत से लोग एक साथ रहते रहे होंगे। ऐसे स्थानों में किसी एक स्थान की भाषा, जो आरंभ में उत्पन्न हुई होगी, तथा आगे चलकर जिससे ऐतिहासिक और भौगोलिक आदि कारणों से अनेक भाषाएँ, बोलियाँ तथा उपबोलियाँ आदि बनी होंगी मूल भाषा कही जायेगी। भाषाओं के पारिवारिक वर्गीकरण का आधार यही मान्यता है। संसार में उतने की भाषा परिवार माने जायँगे, जितनी कि मूल भाषाएँ मानी जायेंगी । उदाहरण के लिए, हम अपने भारोपीय परिवार की भाषाओं को ही लें तो इसकी मूल भाषा भारोपीय (Indo European ) भाषा थी, जिसका प्रादुर्भाव एक साथ रहने वाले कुछ लोगों में हुआ। भौगोलिक परिस्थितियों ने भाषा के विकास एवं शाखाओं में बाँटने का कार्य वहीं से आरंभ कर दिया था। मूल स्थान पर कुछ दिनों तक रहने के पश्चात् जब वहाँ की जनसंख्या अधिक हो गई और भोजन आदि की कमी पड़ने लगी तो कुछ लोग तो संभवतः वहीं रह गये और कुछ लोग कई शाखाओं में बँटकर अलग-अलग दिशाओं में चल पड़े। चलने के समय उन भिन्न-भिन्न शाखाओं की भाषा कुछ स्थानीय अंतरों को छोड़कर प्रायः लगभग एक सी रही होगी। थोड़ी दूर चलकर उन शाखाओं ने अपने-अपने अड्डे बनाये होंगे। उन नवीन अड्डों पर वहाँ की भौगोलिक परिस्थितियों के कारण उनके जीवन में परिवर्तन आया होगा और तदनुसार उनकी भाषा में भी विकास हुआ होगा । दो-एक सदी या दस-बीस पीढ़ी के उपरान्त अलग-अलग बसने वाली उन शाखाओं की भाषा में आपस में काफी भिन्नता आ गई होगी। कुछ दिनों के बाद वे नवीन स्थान भी जनसंख्या आदि के बढ़ने से अपर्याप्त सिद्ध हुए होंगे और प्रत्येक शाखा में कई प्रशाखाएँ फूटकर इधर-उधर चलकर नवीन स्थानों पर बसी होंगी। फिर वहाँ उनका विकास हुआ होगा और तदनुकूल उनकी भाषाएँ भी अलग रूपों में विकसित या परिवर्तित हुई होंगी। इसे वंश-वृक्ष में यों रखा जा सकता है
प्रथम अवस्था क ( मूल स्थान और उसकी भाषा )
(2) व्यक्ति बोली -
एक व्यक्ति की भाषा को व्यक्ति बोली कहते हैं। एक दृष्टि से भाषा का यह - संकीर्णतम या लघुतम रूप है। शुद्ध वैज्ञानिक दृष्टि से गहराई में जाकर यह भी कहा जा सकता है कि मनुष्य हर क्षण बदलता रहता है। 'राम' या 'मोहन' दो बजकर एक मिनट या एक सेकेंड पर वहीं 'राम' या 'मोहन' नहीं रहते, जो ठीक दो बजे रहते हैं। ऐसी स्थिति में उनकी व्यक्ति बोली' भी सर्वदा एक नहीं रहती, अर्थात् दो बजे राम की जो व्यक्ति बोली होगी, दो बजकर एक या दो मिनट पर उससे भिन्न कोई दूसरी व्यक्ति बोली होगी, चाहे यह अन्तर कितना ही कम और सूक्ष्म क्यों न हो। इस आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि किसी एक व्यक्ति की किसी एक समय की भाषा ही सच्चे अर्थों में व्यक्ति बोली है। किंतु, साथ ही किसी व्यक्ति की जन्म से मृत्यु तक की बोली को भी 'व्यक्ति बोली' कहा जा सकता है पर सच्चे अर्थों में व्यक्ति बोली इस दूसरे अर्थ में पहले अर्थ का पूरा ऐतिहासिक विकास है, क्योंकि जन्म से मृत्यु तक भाषा का एक रूप नहीं हो सकता। आदि से अंत तक उसमें कुछ न कुछ विकास होता रहता है।
( 3 ) उपबोली या स्थानीय बोली-
भाषा का यह रूप भूगोल पर आधारित है। एक छोटे से क्षेत्र में इसका प्रयोग होता है। यह बहुत-सी व्यक्ति बोलियों का सामूहिक रूप है। हम कह सकते हैं कि 'किसी छोटे क्षेत्र की ऐसी व्यक्ति- बोलियों का सामूहिक रूप, जिनमें आपस में कोई स्पष्ट अंतर न हो, स्थानीय बोली या उपबोली कहलाती है।' एक बोली के अंतर्गत कई उपबोलियाँ होती हैं। किसी बोली के वर्णन में जब हम उसके दक्षिणी, पश्चिमी, मध्यवर्ती आदि उपरूपों की बात करते हैं तो हमारा आशय उपबोली या स्थानीय बोली से ही होता है। भोजपुरी, अवधी, ब्रज आदि बोलियों में इस प्रकार की कई उपोलियों है।
हिंदी में कुछ लोगों ने भाषा के इस रूप के लिए 'बोली' नाम का प्रयोग किया है, किंतु 'बोली' का प्रयोग अंग्रेजी डाइलेक्ट (dialect ) के लिए प्रायः चल पड़ा है, अतः इसके लिए उसका प्रयोग न करना ही उचित है। भाषा के इस रूप के लिए अंग्रेजी में 'सब-डाइलेक्ट' (sub-dialect) शब्द चलता है, उस आधार पर 'उपबोली' शब्द ठीक है। अंग्रेजी में इसके बहुत निकट के अर्थ में एक फ्रांसीसी शब्द 'पैटवा' (patois) भी चलता है। 'पैटवा' डाइलेक्ट या बोली का एक उपरूप तो है, किंतु उसकी कुछ और विशेषताएँ भी हैं और इसी कारण उसे ठीक अर्थों में 'उपबोली' या 'सब डाइलेक्ट' का समानार्थी नहीं माना जा सकता, जैसा कि डॉ. श्यामसुन्दरदास आदि हिंदी के कुछ भाषा विज्ञानवेत्ताओं ने माना है। यूरोप और अमेरिका के भाषा विज्ञानविदों ने 'पैटवा' का जिस अर्थ में प्रयोग किया है, उसमें प्रायः चार बातें सम्मिलित हैं - ( 1 ) यह बोली से अपेक्षाकृत छोटा, स्थानीय रूप है। (2) यह असाहित्यिक होती है। (3) यह असाधु होती है। (4) यह अपेक्षतया निम्न सामाजिक स्तर के अशिक्षितों द्वारा प्रयुक्त की जाती है। कहना न होगा कि इनमें केवल पहली बात ही उपबोली में होती है और बातें हो भी सकती हैं, नहीं भी हो सकती है। उदाहरणार्थ, राजस्थानी के अंतर्गत ऐसी उपबोलियों हैं, जिनमें साहित्यिक रचनाएँ हुई हैं। ऐसी स्थिति में वे उपबोली तो हैं, किंतु 'पैटवा' नहीं। अतएव 'उपबोली' को 'पैटवा' नहीं कहा जा सकता।
बोली और भाषा -
जैसे बहुत-सी बोलियां, जो आपस में प्रायः पर्याप्त साम्य रखती हों, का सामूहिक रूप उपबोली है, उसी प्रकार बहुत-सी मिलती-जुलती उपबोलियों का सामूहिक रूप बोली है, और मिलती-जुलती बोलियों का सामूहिक रूप भाषा है। दूसरे शब्दों में, यह भी कह सकते हैं कि एक भाषा क्षेत्र में कई बोलियाँ होती हैं (जैसे हिंदी - क्षेत्र में खड़ी बोली, ब्रज, अवधी आदि बोलियाँ हैं) और एक बोली में कई उपबोलियाँ (जैसे बुन्देली बोली के अंतर्गत लोधन्ती राठौरी तथा चारों आदि उपबोलियाँ) |
बोली शब्द यहाँ अंग्रेजी डाइलेक्ट (dialect) का प्रतिशब्द है। कुछ हिंदी के भाषाविज्ञानविद बोली के लिए 'विभाषा', 'उपभाषा' या 'प्रान्तीय भाषा' का भी प्रयोग करते हैं। ऊपर जिन चार व्यक्ति बोली, उपरोली बोली और भाषा के नाम लिये गये हैं, उनमें भाषा विज्ञान की दृष्टि से विशेष महत्त्व केवल अंतिम दो-बोली और भाषा का है।
बोली की परिभाषा-
एक भाषा के अंतर्गत कई बोलियाँ होती हैं, या बोली का क्षेत्र अपेक्षाकृत छोटा होता है और भाषा का बड़ा । इस रूप में बोली का स्वरूप स्पष्ट है, किंतु प्रकृति की दृष्टि से भाषा और बोली में अंतर करना बड़ा कठिन है, फिर भी काम चलाने के लिए बोली की परिभाषा, बल्कि व्याख्या ( भाषा से अलग) कुछ इस प्रकार दी जा सकती है-
'बोली' किसी भाषा के एक ऐसे सीमित क्षेत्रीय रूप को कहते हैं जो ध्वनि, रूप, वाक्य गठन, अर्थ, शब्द- समूह तथा मुहावरे आदि की दृष्टि से उस भाषा के परिनिष्ठित तथा अन्य क्षेत्रीय रूपों से भिन्न होता है, किंतु इतना भिन्न नहीं कि अन्य रूपों के बोलने वाले उसे समझ न सकें, साथ ही जिसके अपने क्षेत्र में कहीं भी बोलने वालों के उच्चारण, रूप-रचना, वाक्य गठन, अर्थ, शब्द-समूह तथा मुहावरों आदि में कोई बहुत स्पष्ट और महत्त्वपूर्ण भिन्नता नहीं होती।
एक भाषा के अंतर्गत जब कई अलग-अलग रूप विकसित हो जाते हैं तो उन्हें 'बोली' कहते हैं। सामान्यतः कोई 'बोली' तभी तक 'बोली' कही जाती है जब तक उसे (1) साहित्य, धर्म, व्यापार या राजनीति के कारण महत्त्व न प्राप्त हो, या (2) जब तक पड़ोसी बोलियों से उसे भिन्न करने वाली उसकी विशेषताएँ इतनी न विकसित हो जाएँ कि पड़ोसी बोलियों के बोलने वाले उसे समझ न सकें। इन दोनों में किसी एक (या दोनों) की प्राप्ति करते ही बोली 'भाषा' बन जाती है। अंग्रेजी, हिंदी, रूसी संस्कृत, ग्रीक तथा अरबी आदि विश्व की सभी भाषाएँ अपने आरंभिक रूप में बोली रही होंगी, और बाद में महत्त्व प्राप्त होने पर या विकास के कारण पूर्णतः भिन्न हो जाने पर वे भाषा बन गईं। इसी प्रकार आज बोली कहलाने वाली भोजपुरी, अवधी तथा मैथिली आदि उपर्युक्त कारणों से भाषाएँ बन सकती हैं।
बोलियों के बनने का कारण बोलियों के बनने का कारण प्रमुखतः भौगोलिक है। मूल भाषा के चित्र में प्रथम अवस्था में 'क' एक भाषा थी उससे 'ख', 'ग' और 'घ' शाखाएँ फूटकर अलग-अलग चली गईं और एक-दूसरे से इतनी दूर जा बसी कि आपस में किसी प्रकार का संबंध संभव न था। एक शाखा के लोग दूसरी शाखा के लोगों से मिलकर बातचीत नहीं कर सकते थे। फल यह हुआ कि तीनों शाखाओं में कुछ विशेषताएँ विकसित हो गई और इस प्रकार तीनों अलग-अलग बोलियाँ हो गईं। किसी भाषा की एक शाखा का अन्य से संबंध-विच्छेद या अलग होना ही बोली के बनने का प्रधान कारण है। ऐसा भी होता है कि यदि कोई भाषा बहुत दिन से एक बड़े क्षेत्र में बोली जा रही है और उस क्षेत्र में एक उपक्षेत्र के लोग दूरी के कारण दूसरे उपक्षेत्र के लोगों से नहीं मिल पाते, तो उन दोनों या अधिक उपक्षेत्रों में भी बोलियाँ विकसित हो जाती हैं। हिंदी में अवधी, ब्रज आदि इसी प्रकार विकसित हो गई हैं। भूकंप या जल-प्लावन से भी ऐसी परिस्थितियाँ आ जाती हैं। एक क्षेत्र के बीच में व्यवधान आ जाता है, अतः लोग मिल नहीं पाते और बोलियाँ विकसित हो जाती हैं। बहुधा यह देखा जाता है कि किसी बड़ी नदी के दोनों ओर की बस्तियाँ भाषा की दृष्टि से कुछ अंतर रखती हैं। यह भी उसी का द्योतक है।
कभी-कभी राजनैतिक या आर्थिक कारणों से कुछ लोग भाषा के क्षेत्र से बहुत दूर जाकर बस जाते हैं और वहाँ भी उनकी नयी बोली विकसित हो जाती है। मध्य यूरोप में जर्मन भाषा का क्षेत्र था। वहाँ से लोग इंग्लैंड में बस गये और अंग्रेजी उसकी एक अलग बोली बन गई। कभी आसपास की भाषाओं या दूर की भाषाओं के प्रभाव के कारण भी एक भाषा में एक क्षेत्रीय रूप विकसित हो जाता है और वह बोली का रूप धारण कर लेता है।
बोलियों के महत्त्व पाने का कारण
बोलियों के महत्त्व पाने का कारण जैसा कि ऊपर कहा गया है, कुछ बोलियाँ किसी प्रकार महत्त्व की प्राप्ति कर धीरे-धीरे बोली से भाषा बन जाती हैं। बोलियों के महत्त्व पाकर 'भाषा' की संज्ञा पाने के प्रधान कारण निम्नांकित हैं-
(क) कुछ बोलियाँ जब अपनी अन्य बहनों से बिल्कुल अलग हो जाती हैं, या अपनी अन्य बहनों के मर जाने के कारण अकेली बच जाती हैं तो उन्हें महत्त्वपूर्ण समझा जाने लगता है और वे 'भाषा' की संज्ञा से विभूषित हो जाती हैं। 'ब्राहुई' प्रथम कारण से ही भाषा कहलाती है।
(ख) साहित्य की श्रेष्ठता के कारण भी कुछ बोलियाँ महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं। प्राचीन काल में मध्यदेशीय बोली साहित्य के लिए प्रयुक्त होती थी, अतः उसका अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाना स्वाभाविक था ।
(ग) धार्मिक श्रेष्ठता भी बोली का महत्त्व बढ़ा देती है। राम संबंधी प्रधान तीर्थ अयोध्या है, तथा कृष्ण-संबंधी मथुरा। फल यह हुआ कि दोनों स्थानों की बोलियों (अवधी और ब्रज) को औरों की अपेक्षा अधिक महत्त्व मिला और कई सदियों तक साहित्य की भाषा बनी रही। 'ब्रज' का तो नाम ही 'ब्रजभाषा' हो गया था। इसी प्रकार 'खड़ी बोली' को महत्त्व प्रदान करने में आर्य समाज का भी हाथ रहा है।
(घ) बोलने वालों का महत्त्वपूर्ण होना भी बोली को महत्त्वपूर्ण बना देता है। अंग्रेजी जो मूलतः एक बोली है, अंग्रेजी के आधुनिक युग में विश्वभर में अपना व्यापार फैला देने से तथा उनके महत्त्वपूर्ण होने से आज विश्व की व्यापारिक भाषा एवं अंतर्राष्ट्रीय भाषा बनी हुई है। चाहे जर्मनी हो, चाहे जापान, और चाहे चीन हो या फ्रांस, सभी लोग अपनी बनाई पुस्तकों पर प्रायः अंग्रेजी में ही 'मेड-इन' (Made in) आदि लिखते हैं। इसी प्रकार विदेश जाने के लिए भी अंग्रेजी जानना आवश्यक माना जाता है, क्योंकि इसका प्रचार प्रायः सर्वत्र है, यद्यपि अब यह स्थिति कुछ समाप्त होती सी दिख रही है।
(ङ) बोली के प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण होने का सबसे बड़ा कारण है राजनीति। जहाँ राजनीति का केन्द्र होगा, वहाँ की बोली अवश्य की महत्त्वपूर्ण होकर भाषा बन जायेगी। दिल्ली के समीप की खड़ी बोली आज हिंदी भाषा भाषी प्रान्तों की प्रमुख भाषा है, और उसने मैथिली, अवधी और ब्रज जैसी प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण बोलियों को भी दबाकर भाषा ही नहीं, राज एवं राष्ट्रभाषा के स्थान को अपना लिया है। इसी प्रकार पेरिस की फ्रेंच और लंदन की अंग्रेजी बोलियाँ, अपनी अन्य बहनों से बहुत आगे निकल गई हैं और अपने देश की राष्ट्रभाषा बन बैठी है। मराठी की कोंकणी, मारवाड़ी और बरार आदि बोलियाँ ही रह गई पर पूना की बोली आज वहाँ की साहित्यिक भाषा है। चीन की मन्दारिन बोली की भी यही दशा है। इस प्रकार के उदाहरण सभी देशों में मिल सकते हैं।
इन सबके अतिरिक्त शिक्षा का माध्यम बन जाने के कारण, सेना में स्वीकृत होने के कारण, व्यापार में प्रयुक्त होने के कारण, तथा विज्ञान आदि में व्यवहृत होने के कारण भी बोली महत्त्व प्राप्त कर लेती है। इस प्रसंग में एक बात की ओर संकेत कर देना आवश्यक है कि यह जरूरी नहीं है कि महत्त्व प्राप्त करके बोली भाषा बन ही जाए। यह भी होता है कि महत्त्व प्राप्त करके भी बोली बोली ही रह जाती है, या कभी-कभी थोड़े दिन के लिए महत्त्व मिलता है और फिर छिन जाता है 'ब्रज', 'अवधी' के संबंध में ऐसा ही हुआ है।
(4) मानक या परिनिष्ठित भाषा-
सभ्यता के विकसित होने पर यह आवश्यक हो जाता है कि एक भाषा क्षेत्र (जिसमें कई बोलियाँ हों) की कोई एक बोली मानक मान ली जाए और पूरे क्षेत्र से संबंधित कार्यों के लिए उसका प्रयोग हो। उसे मानक या परिनिष्ठित भाषा कहा जाता है, और वह पूरे क्षेत्र के प्रमुखतः शिक्षित वर्ग के लोगों की शिक्षा, पत्र-व्यवहार या समाचार पत्रादि की भाषा हो जाती है। साहित्य आदि में भी प्रायः उसी का प्रयोग होता है।
एक बोली जब मानक भाषा बनती है और प्रतिनिधि हो जाती है तो आसपास की बोलियों पर उसका पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। आज की खड़ी बोली ने ब्रज, अवधी, भोजपुरी सभी को प्रभावित किया है। कभी-कभी ऐसा भी देखा गया है कि मानक भाषा आसपास की बोलियों को बिल्कुल समाप्त कर देती है। रोम की लैटिन जब इटली की मानक भाषा बनी तो आसपास की बोलियाँ शीघ्र ही समाप्त हो गई, पर ऐसा बहुत की कम होता है।
मानक भाषा के तत्कालीन रूप को लेकर उसका उच्चारण और व्याकरण आदि निश्चित कर दिया जाता है और फल यह होता है कि मानक भाषा स्थिर हो जाती है और कुछ दिन में उसका रूप प्राचीन पड़ जाता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि आज की खड़ी बोली का लिखित रूप जीवित बोली से उच्चारण तथा शब्द समूह आदि सभी दृष्टियों से कम-से-कम चालीस वर्ष पीछे है। व्याकरण में भी कुछ परिवर्तन आ गया है।
मानक भाषा का रूप पूरे क्षेत्र में एक ही नहीं होता। प्रादेशिक बोलियों का प्रभाव भी उस पर कुछ पड़ता है। यह प्रभाव व्याकरण और शब्द-समूह तथा उच्चारण तीनों में ही देखा गया है। भोजपुरी लोग 'दिखाई दे रहा है' के स्थान पर 'लौक रहा है' तथा 'हमने काम किया' के स्थान पर 'हम काम किये' का प्रयोग करते हैं। पंजाबी लोगों ने भी आदर्श हिंदी पर अपनी पॉलिश कर दी है और खड़ी बोली हिंदी का 'हमको जाना है' वाक्य उनके बीच 'हमने जाना है' हो गया है।
मानक भाषा के मौखिक और लिखित रूप मानक भाषा के प्रादेशिक रूपों के अतिरिक्त लिखित और मौखिक भी दो रूप होते हैं। सभी मौखिक भाषाएँ अपने लिखित रूपों से प्रायः भिन्न होती हैं। बोलने में सर्वदा ही वाक्य छोटे-छोटे रहते हैं। पर, लिखित रूप के वाक्य अधिकतर बड़े हो जाते हैं। कादम्बरी के वाक्य कहीं-कहीं पृष्ठ पार कर जाते हैं, पर बोलचाल की संस्कृत कभी भी ऐसी न रही होगी। इस प्रकार मौखिक रूप स्वाभाविक है और लिखित रूप कृत्रिम ये बातें मानक भाषा में भी पायी जाती हैं।
मानक भाषा के लिखित रूप पर मौखिक रूप की अपेक्षा प्रादेशिकता की छाप कम रहती है, क्योंकि लिखने में लोग अपेक्षाकृत अधिक सतर्क रहते हैं। लिखित रूप मौखिक की अपेक्षा अधिक संस्कृत रहता है।
(5) अपभाषा (Slang) -
जैसे कि नाम से ही स्पष्ट है, 'अपभाषा' भाषा का वह रूप हैं, जिसे परिनिष्ठित एवं शिष्ट भाषा की तुलना में विकृत या अपभ्रष्ट समझा जाता है। यह विशेष तबके के लोगों में प्रयुक्त होती है। भाषा के आदर्श रूप की तुलना में इसमें अधोलिखित विशेषताएँ मिलती हैं : (क) अपरिनिष्ठित रूपों का प्रयोग, जैसे हिंदी में करा (किया), मेरे को (मुझे या मुझको), गया (गया), आदि। (ख) अपरिनिष्ठित वाक्य-रचना, जैसे हिंदी में 'मैंने जाना है' या 'मुझ पर रुपये नहीं हैं' आदि। (ग) अश्लीलता, जैसे परिनिष्ठित हिंदी में अश्लील समझे जाने वाले शब्दों का प्रयोग (घ) परिनिष्ठित भाषा द्वारा अगृहीत मुहावरों आदि का प्रयोग ।
(6) राष्ट्रभाषा (National Language) -
आदर्श भाषा तो केवल उसी क्षेत्र में रहती है, जिसकी वह एक बोली होती है, जैसे हिंदी खड़ी बोली राजस्थान, उत्तर प्रदेश तथा बिहार आदि की परिनिष्ठित या आदर्श भाषा है। किंतु जब कोई बोली आदर्श भाषा बनने के बाद भी उन्नत होकर और भी महत्त्वपूर्ण बन जाती है तथा पूरे राष्ट्र या देश में अन्य भाषा क्षेत्र तथा अन्य भाषा-परिवार क्षेत्र में भी उसका प्रयोग सार्वजनिक कामों आदि में होने लगता है तो वह राष्ट्रभाषा का पद पा जाती है। हिंदी को धीरे-धीरे भारतवर्ष में लगभग यही स्थान प्राप्त हो रहा है। वह अपने परिवार के अहिंदी प्रान्तों (राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, बंगाल आदि ) तथा अन्य परिवार के प्रान्तों (मद्रास, आदि) में भी धीरे-धीरे व्यवहार में आती जा रही है। पूरे यूरोप में कुछ दिन तक फ्रेंच को भी यही स्थान प्राप्त था । व्यापार आदि के क्षेत्र में अंग्रेजी आज विश्वभाषा या विश्व की अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। किसी बोली की चरम सीमा उसका किसी रूप में विश्वभाषा होना ही है।
(7) विशिष्ट भाषा-
व्यवसाय या कार्य आदि के अनुसार भिन्न-भिन्न वर्गों की अलग-अलग भाषाएँ हो जाती हैं। ये भाषाएँ आदर्श भाषा के ही विभिन्न रूप होती हैं, जो अधिकतर शब्द-समूह, मुहावरे तथा प्रयोग आदि में एक-दूसरे से भिन्न होती हैं। कभी-कभी उच्चारण संबंधी अंतर भी दिखाई देता है। विद्यार्थियों की भाषा या छात्रावास की भाषा, व्यापारियों की भाषा, सोने चाँदी के दलालों की भाषा, कहारों की भाषा, धार्मिक संघों की भाषा, राजनयिक भाषा, राजनैतिक संस्थाओं की भाषा तथा साहित्यिक गोष्ठियों की भाषा इसी अर्थ में विशिष्ट है। किसी पर अंग्रेजी का प्रभाव अधिक रहता है तो किसी पर संस्कृत का और किसी पर गाँव की बोलियों का तो किसी पर गूढ़ या पारिभाषिक शब्दों का।
( 8 ) कृत्रिम भाषा-
भाषा के ऊपर दिये गये रूप स्वाभाविक रूप से विकसित होकर बनते हैं, किंतु इनके विरुद्ध, कृत्रिम भाषा बनायी जाती है। इसके दो रूप किये जा सकते हैं- (क) गुप्त भाषा और (ख) सामान्य भाषा । यहाँ इन दोनों पर संक्षेप में प्रकाश डाला जा सकता है।
(क) गुप्त भाषा
गुप्त भाषा का प्रयोग प्रायः सेना, गुप्तचर विभाग, चोरों, डाकुओं, क्रांतिकारियों तथा लड़कों आदि में होता है। इसका प्रमुख उद्देश्य अपनी बात को अनपेक्षित लोगों को न मालूम होने देना है। विनोद में भी इसका प्रयोग करते हैं। एक अंग्रेज ने उत्तर प्रदेश के जरायम पेशावालों की गुप्त भाषा का अध्ययन किया था। ये लोग कुछ शब्दों को तोड़-मरोड़कर तथा कुछ सामान्य शब्दों को नये अर्थों में प्रयुक्त कर अपनी गुप्त भाषा इस प्रकार की बनाते हैं, जिनको दूसरे समझ न सकें।
Ex. परसाद दो अमर करो -जहर दो
भारत के आजाद होने के पूर्व यहाँ के आतंकवादियों एवं क्रांतिकारियों में भी इस प्रकार की कुछ गुप्त भाषाएँ तथा लिपियाँ प्रचलित थीं। इन पंक्तियों के लेखक को भी इस जीवन का कुछ अनुभव है। मुझे याद है कि एक नेता को एक बार बुलाने के लिए उन्हें तार में केवल 'ऐबसेंट' (absent = अनुपस्थित) लिखा गया था, और वे पूर्व निर्णय के अनुसार आ गये थे। लड़कों में गुप्त भाषा की प्रवृत्ति अधिक दिखाई पड़ती है। बाल्यावस्था में प्रायः ऐसी तीन-चार गुप्त बोलियाँ प्रचलित होती थीं। जिसमें दो लड़के घंटों बात करते थे या कर सकते थे। दूसरी बोली वाले उसमें कुछ भी नहीं समझ पाते थे। वह है
राकस्तूरी पजा बीरे मकस्तूरी मासा राम
गकस्तूरी पंजा बीरे याकस्तूरी मासा गया
इनमें इन दोनों स्थानों पर एक-एक अक्षर रखकर शब्द और वाक्य बनाये जाते थे। कुछ लोग र् और म् लगाकर बोलते थे, पर यह भाषा सुरक्षित नहीं समझी जाती थी। जैसे मरमैं खरमाना खरमा करमर जरमाऊँ गरमा-मैं खाना खाकर जाऊँगा ।
सबसे आसान रास्ता 'फुल' लगाकर था फूलभो फुलला फुलना फुलथ - भोलानाथ
कभी-कभी गुप्त भाषाओं की अलग लिपि भी होती है। एक उदाहरण देखिए- जो बँगला, अंग्रेजी, उर्दू और
चले आना = ब ALEA A
गुप्त भाषा प्रतीकात्मक शब्द, नये शब्द, अंक, शब्दों या रूपों के आरंभ, मध्य या अंत में ध्वनि-योग तथा विपर्यय आदि की सहायता से प्रायः बनाई जाती है।
(ख) सामान्य भाषा
कृत्रिम भाषा के प्रथम रूप 'गुप्त भाषा' में हमने देखा कि भाषाएँ स्वाभाविक रूप से विकसित न होकर बनाई रहती हैं। 'सामान्य कृत्रिम भाषा' और 'गुप्त कृत्रिम भाषा' में अंतर यह है कि गुप्त भाषा बातचीत के लिए बनती है, अतः प्रचलित भाषा से अधिकाधिक दूर रखी जाती है, ताकि कोई समझ न सके। किन्तु सामान्य भाषा में यह बात नहीं रहती। वह प्रचलित भाषा से मिलती-जुलती है और ऐसी बनाई जाती हैं कि यथाशीघ्र लोग उसे समझ कर उसका प्रयोग कर सकें।
डॉ. जमेनहाफ की बनाई एसपरैतो भाषा ऐसी भाषाओं में सबसे अधिक प्रसिद्ध है। यह संसारभर के लिए बनाई गई है। इसका बहुत से देशों में प्रचार है और विज्ञापन-संबंधी, तथा कुछ अन्य विषयों की भी. अनेक पत्रिकाएँ इस कृत्रिम भाषा में निकलती हैं। कुछ रेडियो स्टेशनों से कभी-कभी इस कृत्रिम भाषा में प्रोग्राम भी सुनने में आते हैं। संसार के अनेक शहरों की भाँति दिल्ली में भी इसके पढ़ाने की व्यवस्था है। इसके लिए एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था है जो सारे संसार में इसके पूर्ण प्रचार के लिए प्रयत्नशील है। इस प्रकार की एक दर्जन से ऊपर भाषाएँ बनाई जा चुकी हैं, जिनमें 'इडी', 'नोक्पिल', 'इंटरलिंगुवा', 'ऑक्सिडेंटल' आदि प्रमुख हैं।