विद्यापति जीवन परिचय (जीवन-वृत्त) ग्रन्थ रचनाएँ व्यक्तित्व कृतितत्व
विद्यापति जीवन परिचय (जीवन-वृत्त)
➽ विद्यापति का जन्म सं. 1425 में बिहार के दरभंगा जिले में विसपी गाँव में हुआ था । ये विद्वान वंश से संबंध रखते थे। इनके पिता गणपति ठाकुर ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक 'गंगा भक्ति तरंगिनी' अपने मृत संरक्षक मिथिला के महाराज गणेश्वर की स्मृति में समर्पित की थी। ये तिरहुत के महाराज शिवसिंह के आश्रय में रहते थे। महाराज शिवसिंह के अतिरिक्त रानी लखिमा देवी भी इनकी बड़ी भक्त थीं। विद्यापति ने 'कीर्तिलता' और 'कीर्तिपताका' में अपने आश्रयदाता शिवसिंह और कीर्तिसिंह की वीरता का बड़े ही ओजस्वी और प्रभावशाली ढंग से वर्णन किया है। आज से लगभग 40-50 वर्ष पहले बंगाली लोग विद्यापति को बंगला का कवि समझते थे किन्तु जब उनके जीवन की घटनाओं की जाँच-पड़ताल बाबू रामकृष्ण मुकर्जी और डॉ. ग्रियर्सन ने की तब से बंगाली अपने अधिकार को अव्यवस्थित पाते हैं।
विद्यापति के ग्रन्थ-
➽ विद्यापति एक महान पंडित थे। उन्होंने अपनी रचनाएँ संस्कृत, अवहट्ट और मैथिली भाषा में लिखी हैं। संस्कृत पर इनका असामान्य अधिकार था और इन्होंने अपनी अधिकतर रचनाएँ संस्कृत में ही लिखीं। विद्यापति संक्रमण काल के कवि थे। एक ओर वे वीरगाथा काल का प्रतिनिधित्व करते हैं तो दूसरी ओर वे हिंदी में भक्ति और शृंगार की परंपरा के प्रवर्तक माने जाते हैं। कीर्तिलता और कीर्तिपताका में उनका वीर कवि का रूप है। पदावली में उनका शृंगारी रूप है और शैव सर्वस्व सार में वे भक्तिभाव में झूमते हुए दिखाई पड़ते हैं। इस प्रकार भाव और भाषा की दृष्टि से इनकी रचनाओं को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है।
भाषा के आधार विद्यापति इनकी रचनाएँ ये हैं
(क) संस्कृत -
( 1 ) शैव सर्वस्वसार, (2) शैव सर्वस्वसार प्रमाणभूत पुराण संग्रह (3) भूपरिक्रमा. (4) पुरुष परीक्षा, (5) लिखनावली (6) गंगा वाक्यावली. (7) दान वाक्यावली (8) विभाग सार, (9) गया पत्तलक (10) वर्ण कृत्य, ( 11 ) दुर्गा भक्ति तरंगिणी ।
(ख) अवहट्ट
कीर्तिलता और कीर्तिपताका ।
(ग) मैथिली - पदावली।
विद्यापति व्यक्तित्व-
➽ हिंदी साहित्य में विद्यापति की अक्षुण्ण कीर्ति का आधार उनके तीन ग्रन्थ हैं - पदावली, कीर्तिलता और कीर्तिपताका विद्यापति पदावली में इन्होंने राधा-कृष्ण की प्रणय लीलाओं का अत्यंत हृदयहारी वर्णन किया है। इस संबंध में इनके आदर्श कवि जयदेव रहे हैं। जयदेव का गीत-गोविन्द इनका उपजीव्य ग्रन्थ है। भाव और शैली दोनों दृष्टियों से विद्यापति जयदेव के ऋणी हैं। पदावली में इनका श्रृंगारी रूप पूर्णतः उभर आया है। वैसे तो शृंगार के दोनों पक्षों-संयोग और वियोग का वर्णन इस ग्रन्थ में उपलब्ध होता है पर जो तन्मयता संयोग श्रृंगार के चित्रण में दृष्टिगोचर होती है वह वियोग पक्ष में नहीं। वस्तुतः विद्यापति संयोग पक्ष के सफल गायक हैं और प्रेम के परम पारखी हैं। इन्होंने आलंबन विभाव में नायक कृष्ण और नायिका राधा का मनोहर चित्र खींचा है। उनके बीच में ईश्वरीय भावना की अनुभूति नहीं मिलती। एक और नवयुवक चंचल नायक है और दूसरी ओर यौवन और सौंदर्य की संपत्ति लिए राधा नायिका-
कि आरे नव जौवन अभिरामा ।
जत देखल तत कहएन पारिअ छओ अनुपम इकठामा ॥
➽ अंग्रेजी कवि बायरन के समान विद्यापति का भी यह सिद्धांत वाक्य है कि “यौवन के दिन ही गौरव के दिन हैं।" डॉ. रामकुमार, “विद्यापति का संसार ही दूसरा है। वहाँ सदैव कोकिलाएँ ही कुंजन करती हैं। फूल खिला करते हैं पर उनमें कांटे नहीं होते। राधा रातभर जागा करती है। उसके नेत्रों में ही रात समा जाती है। शरीर में सौंदर्य के सिवाय कुछ भी नहीं है। पथ है उसमें भी गुलाब है, शैया है उसमें भी गुलाब है, शरीर है उसमें भी गुलाब । सारा संसार ही गुलाबमय है। उनके संसार में फूल फूलते हैं, कांटों का अस्तित्व नहीं है। यौवन- शरीर के आनन्द ही उसके आनन्द हैं। "
➽ राधा तथा कृष्ण के प्रेम की तन्मयता का अनुपम चित्र निम्नांकित पंक्तियों में दर्शनीय हैं-राधा के मुख से बार-बार राधा शब्द निकलता रहा है और कृष्ण के मुख से कृष्ण-कृष्ण की रट लग रही है। राधा के हृदय में कृष्ण इस रूप से बस चुके हैं कि वह कृष्णमय हो चुका है और एतदर्थ वह राधा-राधा की पुकार कर रहा है। और उधर दूसरी ओर कृष्ण का हृदय इतना राधामय हो चुका है कि उससे कृष्ण प्यारे की निरन्तर धुन लग रही है। यह है प्रेम की पराकाष्ठा
अनुखन माधव माधव सुमरित,
सुन्दरि भेल मचाई।
सद्यः स्नाता का एक नयनाभिराम चित्र देखिये-
कामिनी करए सनाने हेरतहि हृदय हनए बच बाने।
चिकुर गरए जलधारा जनि मुख सनि उर रोअए अंधारा ।।
राधा का नख-शिख सौंदर्य भी दर्शनीय है
चाँद सार लए मुख घटना करु लोचन चकित चकोरे ॥
अमित धोय आंचर धनि पोछलि दहउं दिति भेल उंजोरे ॥
➽ कुछ विद्वानों ने विद्यापति द्वारा चित्रित राधा-कृष्ण के प्रणय के लीला-पदों को देखकर इन्हें भक्त कवि कहा है किन्तु हमारे विचारानुसार विद्यापति राधा और कृष्ण के भक्त न होकर शैव भक्त थे। विद्यापति को कृष्णभक्त परंपरा में न समझना चाहिए। आचार्य शुक्ल का इस संबंध में कहना है कि "आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गये हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने गीत-गोविन्द के पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया है वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी।" सच यह है कि विद्यापति ने राधा-कृष्ण संबंधी पदों की रचना श्रृंगार काव्य की दृष्टि से की है। डॉ. रामकुमार के शब्दों में “विद्यापति पदावली संगीत के स्वरों में गूंजती हुई राधा-कृष्ण के चरणों में समर्पित की गई है। उन्होंने प्रेम के साम्राज्य में अपने हृदय के सभी विचारों को अन्तर्हित कर दिया है। उन्होंने शृंगार पर ऐसी लेखनी उठाई है जिससे राधा और कृष्ण के जीवन का तत्त्व प्रेम के सिवाय कुछ भी नहीं रह गया है।" वे आगे चलकर और स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं- "विद्यापति के बाह्य संसार में भगवद् भजन कहाँ, इस वय: सन्धि में ईश्वरसन्धि कहाँ, सद्यः स्नाता में ईश्वर से नाता कहाँ, अभिसार में भक्ति का सार कहाँ ? उनकी कविता विलास की सामग्री है, उपासना की साधना नहीं। " कुछ भी हो, विद्यापति की पदावली में भाषा के माधुर्य और भावों के माधुर्य का एक अद्भुत समन्वय हुआ है। भले ही उनमें प्रेम के बाह्य संसार पर है अधिक बल है किन्तु फिर भी वह अत्यंत मनोरम है।
➽ विद्यापति का व्यक्तित्व विविधमुखी है। उसमें पांडित्य, कला, रसिकता और भावुकता का अद्भुत समन्वय है । संक्रान्तिकालीन कवि होने के कारण उनके साहित्य में विगत तथा अनागत युगों के साहित्य की प्रवृत्तियाँ सहज में प्रतिबिम्बित हो उठी हैं।
➽ अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से विद्यापति के साहित्य को तीन भागों में बांटा जा सकता है— (क) शृंगारिक, (ख) भक्ति संबंधी, (ग) विविध विषयक नीति वीरगाथात्मक आदि। उनके श्रृंगारी साहित्य के सिंहावलोकन के पश्चात् यह नि:संकोच रूप से कहा जा सकता है कि भले ही वे शिव भक्त हों किन्तु कम से कम वे कृष्णभक्त नहीं हैं। पदावली में चित्रित राधा-माधव की केलि लीलाओं के पीछे किसी भी प्रकार का कोई भक्ति, धार्मिकता सांकेतिकता प्रतीकवाद या रहस्यवाद नहीं है। विद्यापति द्वारा गृहीत राधा-माधव साधारण नायिका नायक है तथा उनकी लीलाओं और प्रेम-व्यापारों का चित्रण विशुद्ध लौकिक स्तर पर हुआ है। उनकी मिलन-कालीन क्रीड़ाओं में मांसलता और स्थूलता इतने उत्कृष्ट रूप में उभरी हुई है कि उनमें किसी प्रकार के रूपक या उज्ज्वल रस एवं मधुर रस की कल्पना - यथार्थ से आँखें मूंदना है तथा कवि के पदावली संबंधी प्रणयन के उद्देश्य को न समझना है। सच तो यह है कि पदावली पर हठात् अध्यारोपित रूपक या रहस्यवाद निभाने पर भी नहीं निभ सकता है। चैतन्य महाप्रभु एक महाप्राणी थे। उनके सामने शूद्र और चांडाल, श्लील और अश्लील सब समान थे। यदि वे भावविभोर होकर पदावली के गीतों को गुनगुनाते थे, तो इससे पदावली या विद्यापति की कृष्ण-भक्ति परायणता कदापि सिद्ध नहीं होती है। भक्त लोग तो गलदश्रु भाव से गीत-गोविन्द के गीतों को
➽ भगवदाराधना के निमित्त गाते हैं और खोजने वाले तांत्रिकों के अति कामुकता से अभिभूत सिद्ध साहित्य में अतीन्द्रियता और रहस्यमयता को उद्घोषित करने तक का साहस कर दिया करते हैं, किन्तु न हो तो गीत-गोविन्द और न ही सिद्ध साहित्य में किसी प्रकार की कोई आध्यात्मिकता है। पदावली में केवल राधा-कृष्ण के नामों के ग्रहण से किसी अतीन्द्रिय प्रेम या भक्ति की कल्पना का तात्पर्य यह होगा कि हमें समूचे हिंदी के रीति- साहित्य में भी इसी प्रकार के प्रेम और भक्ति की कल्पना करनी होगी जो कि नितांत अवैज्ञानिक तथा असंगत है।
कीर्तिलता रचना का वर्णन
➽ इस रचना का हिंदी साहित्य में दो दृष्टियों में महत्त्व है- साहित्यिक प्रवृत्तियों तथा भाषा संबंधी परिवर्तन के कारण। इस ग्रन्थ में अपने आश्रयदाता कीर्तिसिंह की वीरता का वर्णन और यशोगान है। यह एक अपूर्व ऐतिहासिक काव्य है। पृथ्वीराज रासो से यह अपने ऐतिहासिक महत्त्व के कारण भिन्न हो जाता है। कवि ने अपने समसामयिक राजा का गुणगान बड़ी अलंकृत भाषा में किया है फिर भी कवि ने ऐतिहासिक तथ्यों को कल्पित घटनाओं एवं संभावनाओं से धूमिल नहीं होने दिया है। इस ग्रन्थ में उस समय का पूर्ण प्रतिबिम्ब है।
➽ कवि ने उस समय की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सभी परिस्थितियों का चित्र-सा उतार दिया है। हिन्दू, मुसलमान खान, वेश्याओं तथा सैनिकों के सजीव एवं पक्षपातरहित चित्रण से ग्रन्थ के साहित्यिक सौंदर्य में और भी अभिवृद्धि हुई है। विद्यापति ने अपने चरित नायक के चरित्र-चित्रण में बड़े चातुर्य से काम लिया है। ग्रन्थ में जहाँ कीर्तिसिंह का उज्ज्वल वीर रूप स्पष्ट है वहाँ जौनपुर के सुल्तान फिरोजशाह के सामने उसका अति नम्र रूप भी प्रकट हुआ है। लेखक ने कहीं भी ऐतिहासिक तथ्यों को विकृत करने का प्रयत्न नहीं किया है।।
➽ कीर्तिलता के काव्य रूप की चर्चा करते हुए डॉ. द्विवेदी लिखते हैं- “ऐसा जान पड़ता है कि कीर्तिलता बहुत कुछ उसी शैली में लिखी गई थी, जिसमें चन्दबरदायी ने पृथ्वीराज रासो लिखा था। यह भृंग और भृंगी के - संवाद-रूप में है। इसमें संस्कृत और प्राकृत के छन्दों का प्रयोग है। संस्कृत और प्राकृत के छन्द रासो में बहुत आये हैं। रासो की भाँति कीर्तिलता में भी गाथा ( गाहा) छन्द का व्यवहार प्राकृत भाषा में हुआ है। यह विशेष लक्ष्य करने की बात है कि संस्कृत और प्राकृत पदों में तथा गद्य में भी तुक मिलाने का प्रयास किया गया है जो अपभ्रंश परम्परा के अनुकूल ही है।" इसमें अपभ्रंश की पद्धतियाँ, बंध-शैली का प्रयोग हुआ है।
➽ विद्यापति ने अपने इस काव्य को कथा - काव्य न कहकर काहाणी कहा है। कथा काव्य में राज्य-लाभ के साथ ही कन्याहरण, गंधर्व विवाह एवं बहुविवाह का प्राधान्य रहता है। कीर्तिलता केवल राज्य लाभ तक ही सीमित है। यही कारण है। कि कीर्तिलता में इतनी अधिक कल्पित घटनाओं और संभावनाओं का आयोजन नहीं हो पाया जितना पृथ्वीराज रासो में है। उसमें रोमांस के प्रकरण निकल जाने से बहुत कल्पित घटनाओं के लिए स्थान नहीं रहा है, साथ-साथ स्वाभाविकता भी बनी रही है। संभवतः कथा काव्य और काहाणी का अंतर बहुत कुछ संस्कृत साहित्य के कथा और आख्यायिका का सा है। कीर्तिलता में बीच-बीच में गद्य का प्रयोग भी हुआ है। कारण इस ग्रन्थ से पूर्ववर्ती कथा - काव्यों में तथा संस्कृत में चम्पू काव्यों में उक्त प्रयोग प्रचलित था।
➽ भाषा के विकास की दृष्टि से भी यह ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण बन पड़ा है। कीर्तिलता में परिनिष्ठित साहित्यिक अपभ्रंश से कुछ आगे बढ़ी हुई भाषा के दर्शन होते हैं। विद्यापति ने उसे अवहट्ट कहा है। इसमें तत्कालीन मैथिली भाषा का सम्मिश्रण है। कीर्तिलता में गद्य में तत्सम शब्दों के व्यवहार की अधिकता है तथा पद्य में तद्भव शब्दों का एकछत्र राज्य है। ये दोनों प्रवृत्तियाँ परिनिष्ठित अपभ्रंश से आगे बढ़ी हुई भाषा में देखने को मिलती है। आदिकाल की प्रामाणिक रचनाओं में कीर्तिलता का महत्त्वपूर्ण स्थान है। विद्यापति की कीर्तिलता में अपनी भाषा को देसिलबअना नाम दिया है। विद्यापित की कीर्तिलता में भाषाविषयक यह गर्वोक्ति प्रसिद्ध है-
बालचन्द विज्जाबड़ भाषा, दुहु नहि लग्गई दुज्जन हासा ।
ओ परमेसर सिर सोहड़ ई त्रिच्चय नाअर मन मोहइ ॥
विद्यापति के साहित्य के संक्षिप्त विवेचन
➽ विद्यापति के साहित्य के संक्षिप्त विवेचन के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वीर कवि, भक्त कवि और श्रंगारी कवि सभी रूपों में परिपूर्ण दिखाई देते हैं। एक ओर उनकी कीर्तिलता और कीर्तिपताका चारण काव्य की वीरगाथाओं का स्मरण दिलाती है तथा दूसरी ओर उनकी पदावली कृष्ण कवियों विशेषतः रीतिकालीन कवियों की श्रृंगारपरक सुकोमल भाव सामग्री की मूल प्रेरक सिद्ध होती है। विद्यापति हिंदी साहित्य में पदशैली के प्रवर्तक और सूर के पथ-प्रदर्शक जान पड़ते हैं। इनमें भाषा की सुकुमारता और भाव मधुरिमा का मणिकांचन योग है। विद्यापित अपने समय के बड़े सफल कवि थे। यही कारण है कि इनके प्रशंसकों ने उन्हें नाना उपाधियों से विभूषित किया है- अभिनय जयदेव, कवि शेखर सरस कवि, खेलन कवि, कवि कंठहार और कवि रंजन आदि । अस्तु विद्यापित ने मध्य युग के प्रायः समस्त काव्य को प्रभावित किया है। श्रृंगार-काव्य की सारी मान्यताएँ इसमें दृष्टिगोचर होती हैं। कल्पना, साहित्यिकता और भाषा की भंगिमा में ये अनुपम हैं। डॉ. रामरत्न भटनागर इनके संबंध में लिखते हैं—“ जयदेव के गीतों में जिस माधुर्य भाव की प्रतिष्ठा है उनमें जो भावसुकुमारता और विदग्धता है, जो पद - लालित्य है, वह तो विद्यापति में है ही, परन्तु साथ ही सामन्ती कला के तीव्र आकर्षक रंग भी उस पर चढ़े हैं और कवि की सभाचातुरी, वचनविदग्धता और भावविभोरता ने उसके काव्य को जयदेव के काव्य से कहीं अधिक मार्मिक बना दिया है। यही कारण है कि परवर्ती युग में कवियों और साधकों ने जयदेव के स्थान पर राधा-कृष्ण का नेतृत्व उन्हें दे दिया।" विद्यापति तथा जयदेव के काव्य संबंधी दृष्टिकोणों में भी पर्याप्त साम्य दृष्टिगोचर होता है। गीत गोविन्दकार जयदेव विद्यापति के परम अनुकरणीय रहे हैं। इन दोनों की साहित्यिक परिस्थितियों और व्याख्यात्मक दृष्टिकोणों में साम्य का होना अनिवार्य था । यदि जयदेव के काव्य में हरिस्मरण, विलास - कला (काम-कला), काव्य-कला (नायिका भेद) और संगीत कला का समन्वित रूप है, तो विद्यापति की पदावली में रस-रीति ( कामानन्द संभोग कलाएँ), काव्य-कला ( नायिका भेद) और संगीत का विचित्र सम्मिश्रण है। जयदेव में भक्ति का झीना आवरण फिर भी जहाँ-तहाँ बना रहा है (यद्यपि वह है अवास्तविक ) किन्तु विद्यापति की पदावली किसी प्रकार के धर्म या भक्ति की ग्रंथि से ग्रस्त नहीं है। अतः उसमें राधा-माधव की सहकेलियों का और भी उन्मुक्त गान हुआ है।
➽ सच पूछा जाये तो निःसन्देह कहना होगा, कि विद्यापति का व्यक्तित्व और कृतित्व बहुआयामी था। उन्होंने संस्कृत, अपभ्रंश मैथिली, भोजपुरी आदि भाषाओं में साधिकार साहित्य सृजा। अब तक भी उक्त सभी संदर्भों में विस्तृत खोजों की अपेक्षा है, तभी उनका विविध आयामी साहित्य वृहत् परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकेगा। उनकी एक पुरुष परीक्षा नायक पोथी मिली है जो कदाचित् कामशास्त्र व सामुद्रिक शास्त्र से संबद्ध है। विद्यापति की सर्व - लोकप्रियता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि वे अपने जीवन काल में ही लोगों द्वारा संपूज्य हो गये थे विशेषतः मिथिला और भोजपुर के जनपदीय आंचलिक क्षेत्रों में अब तक भी उक्त जनपदों में कई स्थानों पर विद्यापति के मंदिरों का मिलना तथा घर-घर में उनकी प्रतिष्ठा इस तथ्य का प्रमाण है।
➽ यद्यपि वे परम शैव-भक्त थे किन्तु उन्होंने अपने सर्वप्रिय प्रेम के प्रतीक स्वरूप, शृंगार रस के अधिष्ठाता कृष्ण व ललित भावात्मिका राधा के ऐहिक अद्वैत प्रेम के वे थिरकते मनोहारी चित्र अंकित किये हैं जो हिंदी साहित्य की शाश्वत चिरनिधि हैं। गीत-गोविन्दकार जयदेव के परवर्ती कवि होने के नाते, निःसंदेह विद्यापति उसकी अतुल भाव-संपदा से प्रभावित हुए होंगे और संभवत: अपभ्रंश-रचित प्रणय के मनोरम चित्रों ने भी उन्हें जिस किसी मात्रा में प्रभावित किया होगा किन्तु सब कुछ होते हुए भी विद्यापति ने राधा-कृष्ण की उदात्त प्रणय लीला के वे अवदात स्वर उद्घोषित किये हैं जिन्होंने रीतिकालीन कवि समुदाय के लिए राधा-कृष्ण के सहज-प्रणयात्मक लोभनीय चित्रांकन के लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया। बड़े मजे व आश्चर्य की बात यह है कि विद्यापति के राधा कृष्णात्मक ऐहिकतापरक पदों को सुन कर चैतन्य महाप्रभु गलद् अश्रुभाव से सहज-समाधिस्थ होकर उन पदों की आध्यात्मिकता से प्रभावित होकर घंटों तक आनन्दविभोर रहते थे। संभवत: परमात्मा में ऐकान्तिक भाव से तल्लीन परमहंस समाधिस्थ जनों के समक्ष ऐहिकता व आयुष्मिकता की विभाजक रेखायें स्वतः समाप्त हो जाती हैं। संस्कृत-साहित्य में यदि जयदेव के गीत-गोविन्द में, हरिस्मरण, कामकला, कुतूहल, विलास कला-कौशल के साथ लयात्मक गायन का समन्वय है, तो हिंदी में विद्यापति की पदावली उक्त सभी विशेषताओं से अभिमंडित है। राधा-कृष्ण के परकीया प्रेम की पार्श्वभूमि की सीमित परिधि में अंकित नानाविध नायिकाओं के अभिराम चित्र मन को हरने की एक अद्भुत क्षमता रखते हैं।
➽ इस संदर्भ में प्रो. रामस्वरूप चतुर्वेदी, आचार्य शुक्ल के द्वारा विद्यापति की पदावली की आध्यात्मिकता पर किये गये तीक्ष्ण व्यंग्य का निराकरण करते हुए लिखते हैं, “आचार्य शुक्ल इस अनुभव तक नहीं पहुँचते कि विद्यापति के ये पद अपनी शृंगार भावना के साथ सच्चे रूप में ऐहिक हैं और उनकी तन्मयता की गहरी अनुभूति ही उन्हें आध्यात्मिक स्तर पर रूपांतरित कर देती है। विद्यापति में वैष्णव-भाव की मर्यादा और शैव का तादात्म्य भाव दोनों एक साथ मिलते हैं। काम भाव और शरीर का सौंदर्य उनके यहाँ उत्सव रूप में है।" उपर्युक्त पंक्तियों से यह तो स्पष्ट है कि विद्यापति द्वारा चित्रित राधा-कृष्णाश्रित प्रेम ऐहिक है। उसमें शरीर पक्ष की प्रधानता है। कवि की तन्मयात्मक अनुभूति ने उसे सर्वत्र शालीन बनाये रखा है, शायद वैष्णवी मर्यादा से वे यही इंगित करना चाहते है किन्तु याद रखना होगा कि केवल तन्मयता पदावली में चित्रित भौतिक प्रेम को आध्यात्मिक स्तर पर रूपान्तरित नहीं कर सकती है। हाँ, विद्यापति में भावों की सांद्रता और संप्रेषणीयता के अद्भुत गुण हैं। तन्मयता एक श्रेष्ठ व उत्तम काव्य का एक अनिवार्य घटक है।
विद्यापति का परवर्ती साहित्य के प्रति दाय
विद्यापति को संस्कृत साहित्य के श्रृंगार-वर्णन की परम्परा परम्परागत सम्पत्ति के रूप में मिली और उसका उन्होंने यथासंभव सदुपयोग भी किया। जयदेव, विद्यापति के अत्यंत अनुकरणीय रहे हैं, जिसकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं। जयदेव ने काव्य-कला, काम-कला, संगीत - कला तथा हरि - स्मरण का संतुलित रूप गीत-गोविन्द में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है किन्तु इस कार्य में उन्हें पूर्ण सफलता नहीं मिली। गीत-गोविन्द की संगीत लहरी में नायिका-भेद तथा केलिरह (काव्य कलाएँ) मुख्य रूप से गुंजरित हो उठी हैं। जहाँ हरि-स्मरण की क्षीण ध्वनि विलीन हो जाती है। विद्यापति में जयदेव काव्य की उपर्युक्त सब प्रवृत्तियाँ हैं, किन्तु उनके साहित्य में रस - रीतिवाद का सर्वप्राधान्य है। यद्यपि विद्यापति ने किसी निश्चित रूपरेखा के अनुसार पदावली में नायिका - भेद-प्रभेद प्रस्तुत नहीं किया है, किन्तु राधा-कृष्ण के परकीया प्रेम के सीमित वृत्त में नायिका भेद का जो भाग सहज में समाविष्ट हो सकता था, वह सब कुछ पदावली में है। अतः विद्यापति ने परवर्ती कवियों, कृष्ण भक्ति साहित्य तथा रीतिकालीन साहित्य के लिए राधा-कृष्ण के ब्याज से नायिका भेद वर्णन की प्रवृत्ति का परोक्ष रूप से मार्ग प्रशस्त कर दिया। रीतिकाल में रीतिबद्ध कवियों के लक्षण-ग्रंथों में यह प्रवृत्ति स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती है। रीतिकाल में रस-रीतिपरक, अर्थात् विलासिता तथा कामानन्द से संबद्ध साहित्य के प्रणयन की प्रेरणा विद्यापति द्वारा मिलना कोई अकल्पनीय नहीं है। रीति कवि के लिए राधा और कृष्ण के नाम पर लौकिक शृंगार की अभिव्यक्ति का मार्ग विद्यापति के द्वारा पहले से प्रशस्त कर दिया गया था। राधा-कान्ह के सुमिरन का बहाना करके प्रणयलीलाओं के उन्मुक्त मांसल चित्र उपस्थित करने वाले रीतिकालीन कवि तथा विद्यापति के दृष्टिकोण, उद्देश्य तथा परिस्थितियों में पर्याप्त साम्य है। हाँ, इस दिशा में विद्यापति में फिर भी थोड़ी-बहुत कलात्मकता बनी रही है जबकि 'रीति' कवि में उसका सर्वथा अभाव है।
➽ विद्यापति की कीर्तिलता से वीर रसात्मक तथा पुरुष परीक्षा जैसे ग्रन्थों से नीति और उपदेशमय ग्रन्थों की शैली का हिंदी के परवर्ती युगों में अनुसरण होता रहा ।
➽ विद्यापति का काव्य और व्यक्तित्व विविधमुखी है। एक ओर जहाँ विद्यापति के द्वारा मिथिला भाषा कवि गोविन्दास तथा लोचन आदि कवि प्रभावित हुए वहीं दूसरी ओर कृष्णभक्त व काव्यकार भक्तवर सूरदास आदि भी इस प्रभाव से अछूते न रहे। हालांकि सूर में भक्ति भावना, कलात्मकता और संयम अधिक है। इसके अतिरिक्त रीतिकाल का साहित्य कई दिशाओं में विद्यापति से अत्यधिक प्रभावित हुआ है।