विरह कौ अंग : कबीर के दोहे
विरह कौ अंग : कबीर के दोहे
अंग- परिचय -
प्रेम की परिपूर्णता एवं परिपक्वता के लिए विरह आवश्यक माना गया है। विरह के द्वारा ही आत्मा-परमात्मा की ओर और भी दृढ़ता के साथ उन्मुख होती हैं। इसीलिए प्रत्येक शाखा के भक्ति काव्य में, चाहे वह सगुण का उपासक हो चाहे निर्गुण का, विरह का विधान किया गया है। प्रस्तुत अंग में कबीर ने भी परमात्मा के प्रभाव में और उसके दर्शन करने की तीव्र उत्कंठा में आत्मा के विरह का वर्णन किया है। कबीर कहते हैं कि उनकी आत्मा क्रौंच पक्षी की भाँति प्रियतम से मिलने के लिए चीत्कार कर रही है। क्रौंच पक्षी का विरह तो केवल कुछ ही समय का होता है, क्योंकि प्रातःकाल होते ही वे दोनों फिर परस्पर मिल जाते हैं, किन्तु परमात्मा का विरह तो अनंत है। जो जन राम से बिछुड़ जाते हैं, वे उन्हें कभी भी प्राप्त नहीं कर पाते। विरह की इसी अनंतता के कारण आत्मा इतनी दुःखी हो जाती है कि उसे न तो दिन को सुख मिलता है और न रात को, बल्कि स्वप्न में भी उसे सुख की प्राप्ति नहीं होती।
विरहिणी आत्मा अपने प्रियतम परमात्मा से मिलने के लिए बहुत ही आतुर है। वह रात-दिन उसके पथ पर खड़ी हुई उसकी प्रतीक्षा करती रहती है और प्रत्येक पथिक से उनके आने का समाचार पूछती रहती है। बिना प्रियतम के मिले उसे पलभर के लिए भी चैन नहीं मिलता। विरह के कारण वह इतनी दुर्बल हो गई है कि यदि राम के दर्शन की इच्छा से वह ऊपर उठती भी है तो उससे खड़ा नहीं रहा जाता और शारीरिक दुर्बलता के आधिक्य के कारण उठते ही फिर गिर पड़ती है। उसकी अवस्था मृतप्राय हो गई है और मरने के पश्चात् यदि प्रभु की प्राप्ति होगी तो उससे कोई लाभ नहीं होगा, क्योंकि लोहे के टुकड़ों के समाप्त होने के पश्चात् यदि पारस पत्थर की प्राप्ति हो तो उसका कोई उपयोग नहीं हो सकता ।
विरह का दुःख बड़ा ही अनोखा एवं विलक्षण है, क्योंकि इसमें न तो विरहिणी ही प्रियतम तक जा पाती है और न प्रियतम ही उससे मिलने आता है। इस प्रकार विरहिणी का मन विरह की तीव्र ज्वाला में जल - जलकर भस्म होता रहता है। इस अवस्था में विरहिणी के पास केवल एक ही उपचार रह जाता है कि वह अपने शरीर को विरहाग्नि में जलाकर भस्म कर दे और अपने धुएं को स्वर्ग तक पहुँचा दे। हो सकता है, उस धुएं को देखकर ही दयालु प्रियतम के मन में कुछ करुणा का उद्रेक हो ।
विरह की यह पीड़ा बड़ी ही अद्भुत होती है। इसका चाहे जो उपचार किया जाये, किन्तु इसकी वेदना कम नहीं होती। इसकी वेदना का अनुभव केवल दो ही व्यक्ति कर सकते हैं- एक तो वह जिसे वेदना हो रही है और दूसरा वह जिसने वेदना दी है। यह विरह उस सर्प के समान है जिसके विष को किसी प्रकार का भी मंत्र नहीं उतार सकता । वस्तुस्थिति तो यह है कि राम का वियोगी जीवित ही नहीं रह सकता और यदि रह भी जाये तो वह पागल हो जाता है। इस विरह सर्प के दर्शन को धीरता से सहन करना चाहिए, क्योंकि यदि मन में अधैर्य का भाव आ गया तो प्रेम को क्षति पहुँचेगी और फिर प्रियतम का मिलन असम्भव हो जाएगा। वस्तुतः प्रेम क्षेत्र के अनुभव को कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है।
इतना पीड़ादायक होने पर भी इस विरह को बुरा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि जिस हृदय में विरह का संचार नहीं होता, वह तो श्मशान के समान शून्य और भयानक है। अतः कबीर अपने विरह की तीव्रता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि प्रियतम का पथ देखते-देखते मेरे नेत्र की ज्योति मंद हो गई है, उसका नाम रटते रटते जीभ में छाले पड़ गये हैं। मैं इस शरीर का दीपक बनाकर और उसमें प्राणों की बाती डालकर जला रही हूँ क्योंकि न जाने मेरी दयनीय अवस्था देखकर प्रियतम को कुछ दया आ जाये और वह आकर मुझे दर्शन दे दें। मेरे नेत्रों से निरन्तर पानी का झरना बहता रहता है और मैं अहर्निश पपीहे की भाँति प्रियतम का नाम रटती रहती हूँ। प्रेम की कसौटी पर रखी जाने के कारण मेरी आँखें लाल हो गई हैं, जिनके कारण संसार के लोग इन्हें दुखिया समझते हैं, किन्तु आँखों की लाली या आँसू देखकर सच्चे प्रेम की पहचान नहीं की जा सकती, क्योंकि आँसू तो दुर्जन और सज्जन दोनों की आँखों से समान रूप से निकलते हैं। सच्चा प्रेमी और सच्चा विरही तो वही व्यक्ति माना जा सकता है जिसकी आँखों से आँसुओं के स्थान पर रक्त निकले।
विरह से ही प्रियतम की प्राप्ति हो सकती है, अतः जो प्रियतम को प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें हँसना छोड़कर रोने से ही हेत लगाना चाहिए, किन्तु यह अवस्था भी बड़ी कठिन है। क्योंकि रोने से बल घटता है और हँसने से प्रियतम अप्रसन्न होता है। अतः विरही न तो रो सकता है और न हँस सकता है बल्कि वह अपने अन्दर ही अन्दर इस प्रकार क्षीण होता रहता है, जिस प्रकार लकड़ी को घुन लग जाता है। हँसी तो प्रेम में सर्वथा वर्जनीय है क्योंकि जिसने भी अपना प्रियतम प्राप्त किया है वह रो-रोकर ही किया है यदि हँसी से ही प्रियतम की प्राप्ति होने लगे तो फिर इस संसार में विरही अथवा विरहिणी कोई भी नहीं रहे। विरह वेदना इतनी कष्टप्रद होती है कि इसमें विरहिणी की केवल दो ही अभिलाषाएँ रह जाती हैं- या तो विरहिणी मर जाये अथवा उसे उसका प्रियतम मिल जाये। चाहे जो हो विरहिणी हर प्रकार से अपने प्रियतम को प्राप्त करने के लिए कटिबद्ध हो जाती है, चाहे उसके नेत्र प्रियतम का मार्ग देखते-देखते ज्योति-विहीन हो जायें, चाहे विरह की आग में जल जलकर उसका शरीर भस्म हो जाये। अतः प्रियतम से मिलने का और प्रेम को परिपक्व करने का केवल एक ही मार्ग है- प्रियतम के विरह में अहर्निश जलते रहता।
रात्रूंनी विरहनी, यूं बंधी कुं कुंज
कबीर अंतर प्रजल्या प्रगट्या बिरहा पुंज ॥ 1 ॥
शब्दार्थ - रात्यू =रातभर, अंतर= हृदय, पुंज = समूह।
व्याख्या - परम तत्व की विरहिणी आत्मा रात्रि भर इस प्रकार रोती रही, जिस प्रकार वियुक्त क्रौंच पक्षी करुण चीत्कार करता रहता है। कबीर जी कहते हैं कि विरह समूह के प्रकट होने से हृदय वियोग ज्वाला में दग्ध हो रहा है।
विशेष- रूपक । प्रस्तुत रूपक में रूढ़ मिथ्य का प्रयोग है। सुमित्रानन्दन पन्त ने भी कविता की उत्पत्ति के संबंध में इस मिथ्य का प्रयोग किया है।
अंबर कुंजा कुरलियाँ, गरज भरे सब ताल।
जिनि थैं गोबिन्द बीछुटे, तिनके कौण हवाल ॥2॥
शब्दार्थ- अंबर =आकाश , हवाल = रक्षक।
व्याख्या - आकाश ने क्रौंच एवं कुररि पक्षियों की विरहानुभूति पर करुणार्द्र हो बरस कर समस्त ताल जल से परिपूर्ण कर दिये इन विरहियों की पुकार तो बादल ने सुन भी ली किन्तु जो प्रभु वियुक्त हैं, उनका रक्षक तो ( प्रभु के अतिरिक्त) और कोई नहीं है।
विशेष- शब्द-शक्ति उद्भव वस्तु से अलंकार ध्वनि है, व्यतिरेक अलंकार ध्वनित है।
चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभाति ।
जे जन बिछुटे राम सूं, ते दिन मिले न राति ॥3॥
व्याख्या - रात्रि की बिछुड़ी हुई चकवी अपने चकवे से प्रभात के आगमन पर मिल जाती है, किन्तु जो राम से वियुक्त हैं वे तो दिन या रात कभी उनसे नहीं मिल पाते।
विशेष - 1. एक प्रकार से कबीर के इस वियोग का उद्दीपन विभाव-वर्णन है जिसमें विरहिणी आत्मा को एक वियुक्तयुग्म का मिलन देखकर अपना मिलना खटकता है।
2. यह विश्वास है कि चकवा और चकवी दिन छिपते ही अलग-अलग होकर एक-दूसरे के विरह में तड़पते हैं और प्रभात में मिल जाते हैं।
वासुर सुख नां रैणि सुख, नाँ सुख सुपिने माहिं कबीर बिछुयाराम सूं, नां सुख धूप न छाँह ॥ 4 ॥
शब्दार्थ- वासुरि =दिन।
व्याख्या - कबीर जी कहते हैं कि रामवियोगी को न दिन में और न रात में सुख हैं और न स्वप्न में उसे प्रिय की वियोग व्यथा ही व्यथित किये रहती है। धूप या छाँह कहीं भी उसे सुख प्राप्त नहीं होता।
विशेष -प्रस्तुतालंकार, विप्रलम्भ श्रृंगार ।
बिरहनि ऊभी पंथ सिरि, पंथी बूझै धाइ एक सबद कहि पीव का, कबर मिलेंगे आई ॥5॥
शब्दार्थ - ऊभी =खड़ी हुई। पथ सिरि= मार्ग के किनारे। कबर= कबा
व्याख्या - विरहिणी मार्ग में प्रिय की प्रतीक्षा में खड़ी आते जाते पथिक से जिस प्रकार उत्कण्ठा सहित प्रिय आगमन का समाचार पूछती है उसी प्रकार साधक की ब्रह्म वियुक्त आत्मा गुरु से प्रिय (ब्रह्म की ) चर्चा सुनती हुई यह जानना चाहती है कि प्रभु से कब भेंट होगी।
विशेष- प्रस्तुतालंकार । (लौकिक एवं आध्यात्मिक प्रेम की व्यंजना एक ही विभाव के माध्यम से युगपत रूप से हो रही है, अतः यहाँ प्रस्तुत अप्रस्तुत का निर्णय न होने से प्रस्तुतालंकार है ।)
बहुत दिनन की जोवती बाट तुम्हारी राम।
जिव तरसै तुझ मिलन कूँ, मनि नाहीं विश्राम ॥ 6 ॥
शब्दार्थ- सरल है।
व्याख्या - हे राम ! मैं (विरहिणी आत्मा) तुम्हारी प्रतीक्षा बहुत समय से कर रही हूँ। मेरे प्राण तुम्हारे दर्शन के लिये तृषित हैं और मन बिना दर्शन व्याकुल है।
विशेष प्रस्तुतालंकार, विप्रलम्भ श्रृंगार ।
बिरहिन ऊठै भी, पड़े दरसन कारनि राम। मूवा पीछे देहुगे, सो दरसन किंहि काम॥ 7 ॥
शब्दार्थ - मूवा = मरने पर, सोदरसन = सुदर्शन ।
व्याख्या - हे राम! यदि आपके दर्शनों की उत्सुकता में विरहिणी उठती भी हैं तो क्षीणकाय होने के कारण गिर गिर पड़ती है, अर्थात् आपके विरह में वह अत्यन्त कृशकाय हो गई है। उसने मरणोपरान्त यदि आपने रोग निवारक सुदर्शन चूर्ण-अपना सौन्दर्यमय स्वरूप दर्शन दिया तो वह किस प्रयोजन का ?
विशेष- " का बर्षा जब कृषी सुखाने" से तुलना कीजिए।
मूवां पीछें जिनि मिलै, कहै कबीरा राम ।
पाथर घाटा लोह सब, (तब) पारस कोण काम ॥ 8 ॥
शब्दार्थ - मूवा= मृत्यु । जिनि = यदि ।
व्याख्या - कबीर जी कहते हैं कि हे प्रभु! यदि आपका दर्शन मृत्यु के पश्चात् हुआ तो वह किस प्रयोजन का? वह तो उसी प्रकार निरर्थक है जिस प्रकार कोई पारस पत्थर की प्राप्ति के लिए लोहे को प्रत्येक पत्थर से घिस कर समाप्त कर दे और तब उसे पारस पत्थर की प्राप्ति हो।
विशेष प्रस्तुतालंकार है । दृष्टान्त अलंकार द्वारा वेदना की व्यंजना में सहायता मिली है। वियोग श्रृंगार का उत्तम परिपाक है।
अंदेसड़ा न भाजिसी, संदेशौ कहियां । कै हरि आयां भाजिसी, कै हरि ही पास गयां ॥ 9 ॥
शब्दार्थ-अंदेसड़ा = आशंका, अंदेशा , भाजिसी= नष्ट होता है।
व्याख्या- विरहिणी आत्मा किसी दूत से कहती है कि मेरी प्रिय मिलन में असफलता की आशंका नष्ट नहीं होती। अत: तुम प्रभु से कहना कि या तो वे स्वयं भागकर शीघ्र मेरे पास आ जायें, अथवा फिर मुझे ही उनके पास आना पड़ेगा।
विशेष प्रस्तुतालंकार है । विप्रलम्भ श्रृंगार का उत्तम परिपाक हुआ है।
आइ न सकौं तुज्झ पैं, सकूं न तुझे बुलाइ । जियरा यौंही लेहुगे, बिरह तपाइ तपाइ ||10
शब्दार्थ - जियरा = जीव, प्राण लेहुगे = लोगे।
व्याख्या- कबीर की वियोगिनी आत्मा कहती है कि मैं तेरे पास भी नहीं आ सकती क्योंकि मैं इतनी समर्थ नहीं हूँ। (भाव यह है कि मैं अभी माया में संलिप्त हूँ) और तुझे अपने पास नही बुला सकती क्योंकि मैं अभी सर्वात्म समर्पण नहीं कर सकी, जो तुझे आकृष्ट कर मेरे पास तक ले आये। अतः यही दिखाई देता है कि तुम हमारे प्राणों को इसी प्रकार विरह में तपाते तपाते समाप्त कर दोगे।
विशेष -प्रस्तुतालंकार विप्रलम्भ शृंगार का उत्तम परिपाक -
यहु तन जालौं मसि करूं, ज्यूं धूवां जाइ सरग्गि मति वै राम दया करै, बरसि बुझावै अग्गि ॥11॥
शब्दार्थ-मसि = क्षार राख, सरग्गि = स्वर्ग, मति = संभव है। अग्गि = आग। विरह= दुःख ।
व्याख्या विरह की इस असहनीय अवस्था में यह इच्छा होती हैं कि मैं अपना यह शरीर भस्म कर क्षार कर दूँ, जिससे मेरी अस्थियों का जो धुआँ आकाश में फैलेगा, तो सम्भव है, वे दयानिधि राम दयार्द्र होकर अपनी कृपा-दृष्टि के वारि से उस अग्नि को बुझावें।
विशेष - प्रस्तुतालंकार है । रूपकातिशयोक्ति एवं संबंधातिशयोक्ति भी यहाँ हैं। विप्रलम्भ शृंगार का उत्तम परिपाक है।
यहु तन जालौं मसि करों, लिखौं राम का नाउँ। लेखणि करूं करंक की लिखि लिखि राम पठाउँ॥12॥
शब्दार्थ-करंक = अस्थिपंजर, पठाउँ= भेजूँ।
व्याख्या- विरहिणी कहती है कि यह इच्छा होती है कि इस शरीर को जलाकर स्याही बना लूँ और अस्थियों की लेखनी, इससे राम का नाम लिखूँ और लिख-लिखकर अपने प्रभु राम को भेजूँ. कदाचित् इस कृत्य से प्रसन्न होकर वे दर्शन दें।
विशेष प्रस्तुतालंकार, संबंधातिशयोक्ति विप्रलम्भ शृंगार का परिपाक
कबीर पीर पिरावनीं पंजर पीड़ न जाड़। एक ज पीड़ परीति की रही कलेजा छाड़ ||13||
शब्दार्थ-पीर= वेदना। पिरावनीं = कसकपूर्ण । पंजर= शरीर, परीति = प्रीति, प्रेम ।
व्याख्या -कबीर कहते हैं कि पीड़ा बड़ी वेदनापूर्ण होती है, शरीर की पीड़ा ही इतनी कसकमय होती है कि उपचार करने पर भी नहीं जाती, फिर प्रेम की जो पीड़ा है वह तो सर्वथा ही उपचार से बाहर है, वही असह्य पीड़ा मेरे हृदय में समा गई है।
विशेष- अर्थ शक्ति- उद्भव वस्तु से व्यतिरेक अलंकार ध्वनित है। विप्रलम्भ शृंगार
चोट सतांणीं बिरह की सब तन जर जर होइ । मारणहारा जाणिहै, कै जिहिं लागी सोइ ||14||
शब्दार्थ- सताणीं= व्यथित करती है। जर जर = जीर्ण, कृश ।
व्याख्या- विरह की चोट बड़ी व्यथित करती है, इसकी वेदना से शरीर कृशकाय हो जाता है। इस पीड़ा का - अनुभव केवल दो को ही होता है- एक तो उसको जो उसे भोग रहा है तथा दूसरे उसको जो इस पीड़ा को प्रदान करता है।
विशेष -प्रस्तुतालंकार, विप्रलम्भ शृंगारा
कर कमाण सर सांधि करि, खैचि जु मार्या मांहि । भीतरि भिद्या सुमार हैं, जीवै कि जीव नाहि ।।15।।
शब्दार्थ - सांधि करि = साधकर । सुमार = गहरी चोट ।
व्याख्या- भगवान् रूपी प्रियतम ने हाथ में धनुष धारण कर खींचकर ऐसा प्रेमबाण चलाया है कि वह हृदय के आरपार हो गया। हृदय प्रेममय ही हो गया। उसके प्रेम-तीर की यह चोट इतनी गहरी लगी है कि जीवन जन्म और मरण के मध्य झूल रहा है, अर्थात् प्रभु प्रेम उसे अपनी ओर खींचता है और सांसारिक आकर्षण अपनी ओर ।
विशेष-रूपक द्वारा क्रिया-बिम्ब का गठन हुआ है, जिससे विप्रलम्भ के उत्तम परिपाक में सहायता मिल रही है।
जबहूँ मारया खँचि करि, तब मैं पाई जाणि । लागी चोट मरम्म की गई कलेजा छांणि॥16॥
शब्दार्थ- जाणि= जान, ज्ञान । मरम्म = मर्मान्तक । छाणि = बांधना ।
व्याख्या- जब गुरुवर ने पूर्ण शक्ति के साथ खींचकर उपदेश द्वारा प्रेम रूपी बाण चलाया तभी मुझे ज्ञात हुआ कि इस प्रेम बाण की मर्मान्तक चोट मेरे हृदय के पार हो गई। भाव यह है कि प्रेम से तन-मन बिंध गया।
विशेष-रूपकातिशयोक्ति विप्रलम्भ शृंगार के परिपाक में सहायक है।
जिहि सरि मारी काल्हि, सो सर मेरे मन बस्या । तिहि सरि अजहूँ मारि, सर बिन सच पाऊँ नहीं ॥17॥
शब्दार्थ- सरि = बाण। सच - सुख, शान्ति।
व्याख्या - हे गुरुदेव ! जिस प्रेम बाण से आपने मुझ पर चोट की, वह मेरे मन में बस गया है। वह बाण स्वर - वाणी का अर्थात् प्रेमोपदेश का था। उसी (वाणी के) बाण को मेरे आज भी मार, क्योंकि उसके बिना मुझे शान्ति नहीं।
विशेष- कैसा विरोधाभास है जो बाण शरीर को बींधता है, वहीं प्रिय लग रहा है, यह कबीर जैसे प्रेमी के लिए ही संभव है।
बिरह भुवंगम तन से मंत्र न लागै कोइ राम बियोगी ना जिव, जिवै तो बौरा होई ॥18 ॥
शब्दार्थ-भुवंगम = सांप । बौरा = पागल ।
व्याख्या- विरह रूपी सर्प शरीर की बांबी में घुसा बैठा है, उसे कोई भी मंत्र (साधक) बाहर निकालने में समर्थ नहीं हो सकता । प्रभु का वियोगी तो जीवित ही नहीं रह सकता, वह जीवन मुक्त हो जाता है और यदि जीवित रहता है तो सांसारिक कर्तव्यों आदि से पूर्ण असम्पृक्त हो जाता है जिसे लोग पागल कहने लगते हैं।
विशेष - 1. प्रथम चरण में सर्प को पकड़ने की क्रिया से विरह की तुलना है, बांबी में से सर्प को मन्त्रबल से निकालकर वशीकृत किया जाता है। 2. रूपक अलंकार ।
विरह भुवंगम पैसि करि, किया कलेजे घाव साधू अंग न मोहड़ी ज्यूं भावै त्यूं खाव ॥19॥
शब्दार्थ- पैसि करि =पैठ कर, प्रवेश कर। अंग न मोहड़ी = विचलित नहीं होते।
व्याख्या - विरह रूपी सर्प ने शरीर में प्रवेश कर हृदय में घाव कर लिया है, किन्तु इस वेदना से साधुजन विचलित नहीं होते। जैसे उसकी इच्छा होती है, उस रूप में उसे अपने को खाने देते हैं। भाव यह है कि साधक विरह की कठोर यातनाओं से पथ- विचलित नहीं होते।
विशेष रूपक अलंकार ।
सब रंग तंतर बाबतन, विरह बजावै नित्त । और न कोई सुणि सकै, के साई के चित्ता 20
शब्दार्थ - रंग= रंग, शिराएँ । तंतर = पशु चर्म निर्मित तांत जो तन्त्री में प्रयुक्त होती है। बाब= इकतारे के समान तन्त्री जिसे जोगी बजाते फिरा करते हैं।
व्याख्या - शरीर रूपी तन्त्री पर शिराओं रूपी तांतों को विरह नित्य बजाता है। विरह वेदना से है शिरोपरशिराएँ झंकृत रहती हैं। इससे निस्सृत संगीत को कोई तीसरा नहीं सुन सकता। या तो उसे प्रियतम ही सुन सकते हैं और या मेरा हृदय ही प्रेम क्षेत्र के अनुभव ऐसे हैं जिन्हें भुक्त भोगी ही जान सकते हैं।
विशेष-रूपक, विप्रलम्भ श्रृंगार
बिरहा बुरहा जिनि कहौ, बिरहा है सुलितान। जिस घटि बिरह न संचरै, सो घट सदा मसान ॥21॥
शब्दार्थ- बुरहा = बुरा । जिनि = मत। सुलितान = राजा । मसान= श्मशान।
व्याख्या- हे मनुष्यो विरह को बुरा मत बताओ, वह तो राजा के समान सर्वोपरि है- संयोग से भी ऊपर है। जिस हृदय में विरह का संचार नहीं होता वह सर्वदा श्मशान की भाँति शून्य है, निर्जीव है।
विशेष-रूपक।
अंपड़ियां झांई पड़ी, पंथ निहारि निहारि । जीभड़ियां छाला पड्या, राम पुकारि पुकारि ॥22॥
शब्दार्थ - अंषड़ियां= नेत्र , झांई मन्द ।
व्याख्या - प्रिय आगमन का मार्ग तकते तकते मेरी नेत्र ज्योति मन्द पड़ गई है एवं राम को पुकारते -पुकारते मेरी जीभ में छाले पड़ गए हैं। प्रियतम! मैं कब से तुम्हारी बाट जोह रही हूँ।
विशेष- अतिशयोक्ति अर्थ-शक्ति-उद्भव वस्तु से वस्तु ध्वनि। ध्वनित है-'ईश्वर के प्रेम में तप्त होते रहना अपेक्षित है।'
इस तन का दीवा करौं, बाती मेल्यूँ जीव । लोही सींचौ तेल ज्यूँ, कब मुख देखौ पीव ॥23॥
शब्दार्थ- दीवा = दीपक । मेल्यूँ = डालूं। जीव = प्राण । लोही = रक्त।
व्याख्या- मैं अपने शरीर रूपी दीपक में प्राणों की वर्तिका डालकर और उसका लोहूरूपी तेल स्नेह से अभिषिचन कर न जाने कब से प्रिय आगमन का मार्ग देख रही हूँ, न जाने कब उनका मुख निहार सकूँगी ।
विशेष - 1. औत्सुक्य संचारी की व्यंजना हुई है।
2. ईश्वर के मुख को देखने के लिए संभावित योजना के कारण यहाँ संभावना अलंकार है।
नैनां नीझर लाइया, रहट बहैं निस जाम। पपीहा ज्यूं पिव पिव करौ, कबरु मिलहुगे राम ॥24॥
शब्दार्थ- नैनां = नेत्रों से, नीझर = निर्झर , जाम = याम, प्रहर (दिन के )।
व्याख्या- मेरे नेत्रों से अहर्निश अश्रु प्रवाह रहट की भाँति अवान्तर गति से चलता रहता है और मैं सर्वदा पपीहे की भाँति प्रिय नाम रटती रहती हूँ। प्रियतम राम! तुम कब मिलोगे?
विशेष - 1. गम्योत्प्रेक्षा एवं उपमा की संसृष्टि है।
2. अश्रु सात्विक की व्यंजना हुई है।
अषड़यां प्रेम कसाइयाँ, लोग जाँण दुखड़िया । साई अपर्ण कारण रोई रोड़ तड़िया 25
शब्दार्थ- प्रेम कसाइयाँ = प्रेम की कसौटी पर कसी गई। साई स्वामी, प्रिया
व्याख्या- मेरी आँखें प्रेम की कसौटी पर लाल हो गई हैं। वे प्रिय-वियोग में निरंतर रोने के कारण लाल हो गई हैं और संसार यह अनुमान लगा रहा है कि ये दुखनी आ गई हैं।
विशेष- विप्रलम्भ शृंगार
सोई आंसू सजणा, सोई लोक बिड़ाहि जे लोइण लोहीं चुवै तौ जाणी हेत हियांहि ॥26॥
शब्दार्थ -सोई = वे ही , सजणां = सज्जनों के लोक, बिड़ाहि =लोक बाह्य अर्थात् दुर्जनों के, लोइण = नेत्र। लोहीं = रक्त। चुवै =गिरता है।
व्याख्या - केवल मात्र अश्रु देखकर सच्चे प्रेम की पहचान नहीं की जा सकती, क्योंकि आँसू तो सज्जन और दुर्जन दोनों के समान रूप से गिरते हैं, किंतु जिन नेत्रों से रक्त के आँसू गिरें, वहीं सच्चे प्रेम की अवस्थिति जानो ।
विशेष- अर्थ शक्ति - उद्भव वस्तु से अलंकार ध्वनि है, व्यतिरेक अलंकार ध्वनित है।
कबीर हसणा दूरि करि कति रोवण सौं चित्त । , बिन रोयां क्यूं पाइए, प्रेम पियारा मित्त॥27॥
शब्दार्थ - मित्त मित्र, प्रियतम ।
व्याख्या- कबीर कहते हैं कि हे मित्र ! हँसना छोड़ दे अर्थात् सुखमय जीवन को त्याग दे एवं रुदन अर्थात् प्रिय वियोग की वेदना को ही अपना । बिना विरह की अनुभूति के प्रेम पात्र को तू कैसे प्राप्त कर सकेगा?
विशेष- अनभिप्रेत रुदन को काम्य बताने के कारण यहाँ अनुज्ञा अलंकार है ।
जौ रोऊँ तौ बल घटै हँसौ तौ राम रिसाइमनही माँहि विसूरणां, ज्यूं पुंण काढहि खाइ | 128|
शब्दार्थ-बिसूरणां = क्रंदन। घुण = घुन । काठहि= काष्ठ को।
व्याख्या- यदि मैं विरह में रोता हूँ तो मेरी शक्ति क्षीण होती हैं, हँसता हूँ तो राम को प्रिय नहीं है, क्योंकि बिना मिलन उल्लास क्यों और कैसे? अब मेरी आत्मा मन-ही-मन क्रंदन कर मुझे वैसे ही क्षीण करती रहती है। जैसे घुन भीतर ही भीतर काष्ठ को काटकर खोखला बना देता है। भाव यह है कि विरह भीतर ही भीतर सालता रहता है।
विशेष - 1. हँसी तो राम रिसाई' द्वारा 'पीड़ित जगत में मनुष्य का हँसना अनुचित है' को वस्तु ध्वनि है। 2. उपमा।
हँस हँस कंत न पाइए, जिन पाया तिन रोइ । जे हाँसेही हरि मिले तो नहीं हानि कोई 29
शब्दार्थ - दुहागनि = दुर्भागिनी
व्याख्या - हँस-हँसकर सांसारिक आनंद उड़ाते हुए किसी ने प्रभु को नहीं पाया है। जिसने भी उनकी प्राप्ति की है उसने उनके विरह की मर्मानुभूति की है। जो इस प्रकार भोगविलास द्वारा ब्रह्म, स्वामी की सुहागिन बन जायें तो कोई अभागिन रहे ही नहीं।
विशेष- अर्थान्तरन्यास।
हाँसी खेलौं हरि मिलै तौ कौण सह्रै घरसान। काम क्रोध त्रिष्णां तजै, ताहि मिलै भगवान ॥ 30 ॥
शब्दार्थ- परसान = तलवार।
व्याख्या- यदि प्रभु सुख-वैभव की विविध क्रीड़ाओं में प्राप्त हो जायें तो तलवार की धार के समान तीक्ष्ण विरह वेदना का अनुभव करने के लिए कौन प्रस्तुत होगा। जो काम, क्रोध एवं तृष्णा का परित्याग कर देगा उसे ही भगवत्प्राप्ति हो सकती है।
विशेष- तुलना कीजिए
" अति तीक्ष्ण प्रेम को पंथ महा, तलवार की धार पै धावनौ है।"
पूत पियारो पिता कौं, गौहनि लागा धाड़। लोभ मिठाई हाथि दे, आपण गया भुलाइ ॥ 31॥
शब्दार्थ-पूत= पुत्र , गौहनि = साथ, आपण= अपनापन ।
व्याख्या - आत्मा रूपी पुत्र प्रभु रूपी पिता के प्रेम के कारण उसके साथ के लिए दौड़ पड़ा, किंतु वह पिता लोभ की मिठाई पुत्र के हाथ में देकर स्वयं को छिपा गया।
भाव यह है कि आत्मा तो स्वाभाविक प्रेम के कारण परमात्मा से मिलना चाहती है किंतु प्रभु लोभ का व्यवधान डालकर छिप जाते हैं-साधक की दृष्टि से ओझल हो जाते हैं।
विशेष- 1. अन्योक्ति अलंकार ।
2. वात्सल्य भाव की भक्ति व्यंजित है।
डारी खांड पटकि करि, अंतरि रोस उपाइ । रोवत रोवत मिलि गया, पिता पियारे जाइ ॥ 32॥ ,
शब्दार्थ - अंतरि = हृदय में , रोस = क्रोध |
व्याख्या- किंतु इस लोभ की मिठाई की सारहीनता जब आत्मा रूपी पुत्र ने देखी तो उसने उसे उठाकर फेंक दिया, लोभ का परित्याग कर दिया, और उसे अपने कृत्य पर आक्रोश हुआ कि यह तूने क्या किया ? इस तुच्छ मिठाई के कारण पिता को छोड़ दिया। इस वियोग में वह पुत्र ( आत्मा ) वेदना का अनुभव कर रोने लगा और रोता- रोता अपने प्रिय पिता (प्रभु) तक जा पहुँचा।
विशेष- 1. रूपकातिशयोक्ति अलंकार प्रथम पंक्ति में है।
2. वात्सल्य रस के विप्रलम्भ-पक्ष का परिपाक हुआ है।
नैना अंतरि आचरू, निस दिन निरषौं तोहि ।
कब हरि दरसन देहुगे, सो दिन आवै मोंहि ॥33॥
शब्दार्थ- नैनां अंतरि आँखों में आचरू आँजकर, लगाकर। व्याख्या- हे प्रभु! न जाने वह दिवस कब आयेगा जब मैं आपको नेत्रों के भीतर काजल के समान आँजकर अहर्निश आपका दर्शन लाभ प्राप्त करूँगी। न जाने प्रभु आप कब दर्शन देकर तेरे लिए इस सौभाग्यशाली दिवस को बुलाओगे।
भाव यह है कि मुझे किस दिन यह सौभाग्य प्राप्त हो सकेगा।
विशेष- माधुरी भक्ति औत्सुक्य संचार की व्यंजना
कबीर देखत दिन गया, निस भी देखत जाइ
विरहणि पिव पावै नहीं, जियरा तलपै माइ ॥34॥
शब्दार्थ - निस = रात, जियरा= प्राण। तलपै- तड़पना।
व्याख्या - कबीर कहते हैं कि विरहिणी आत्मा दूसरी आत्मा को संबोधित कर कहती है कि हे सखि प्रिय की प्रतीक्षा में समस्त दिवस बीत गया और रात्रि भी यूँ ही रीती बीती जा रही है। विरहिणी को प्रिय की प्राप्ति नहीं होती, इससे उसका हृदय वेदना में तड़पता है।
विशेष प्रस्तुतालंकार
के विरहण के मीच दे के आया दिखलाई। आठ पहर का दाझणां, मोपैं सह्या न जाइ ॥35॥
शब्दार्थ- मीच =मृत्यु। दाझणां =दग्ध होना।
व्याख्या- हे प्रभु विरहिणी की या तो जीवन लीला ही समाप्त कर दो या अपना स्वरूप दर्शन दो। अब दिन-रात यह वेदना मुझ से सहन नहीं हो पाती।
विशेष - 1. प्रस्तुतालंकार ।
2. वक्तृवैशिष्ट्य ध्वनि के रूप में आत्मा परमात्मा का संबंध व्यक्त हो रहा है।
3. विप्रलम्भ शृंगार अपने लौकिक एवं अलौकिक दोनों धरातलों पर परिपक्व हुआ है।
बिरहणि थी तौ क्यूँ रहीं, जली न पीव की नालि ।
रहु रहु मुगधा गहेलड़ी, प्रेम न लाजूं मारि॥36॥
शब्दार्थ-नालि = साथ , रहु-रहु = बस बस, मुगधा= मुग्धा ,गहेलड़ी= देरी करने वाली ।
व्याख्या - यदि तू वास्तविक अर्थों में वियोगिनी थी तो जीवित क्यों रह गयी? प्रिय के साथ चिता में ही क्यों न भस्म हो गई? अपनी लज्जा के कारण प्रिय मिलन में असफलता प्राप्त करा देने वाली मुग्धा? तू अधिक बात मत बना बस कर क्यों व्यर्थ प्रेम को भी लज्जित करती है। "
विशेष- प्रस्तुतालंकार, विप्रलम्भ श्रृंगार ।
हौं बिरह की लाकड़ी, समझि समझि धूं धाऊँ। छूट पड़ीं या विरह से जे सारी ही जलि जाऊं 1371 ,
शब्दार्थ- समझ = समझ. सुलग = सुलग
व्याख्या- मैं विरह की उस लकड़ी के समान हूँ जो शनैः-शनैः सुलग कर जल कर रही है। इससे तो अच्छा है कि प्रिय दर्शन दे दें और मैं इस विरह से मुक्त हो सकूँ अथवा मैं जलकर सर्वथा क्षार हो जाऊँ। यह विरहावस्था असहनीय है।
विशेष- अनुज्ञा तथा रूपक अलंकार से विप्रलम्भ शृंगार के परिपाक में सहायता ली गई है।
कबीर तन मन लौं जल्या, बिरह अगनि सूं लागि । मृतक पीड़ न जाई, जांणगी यह आणि ॥38॥
व्याख्या- कबीर कहते हैं, विरह अग्नि से मेरा शरीर और हृदय इस प्रकार भस्म हो गये कि वे चैतन्य रहित हैं। जिस प्रकार मृतक पीड़ा से सर्वथा असम्पृक्त रहता है, उसी प्रकार विरहिणी भी। यदि कुछ वेदना की जलन का अनुभव और ज्ञान होगा तो इस विरहाग्नि को ही होगा।
विशेष- 1. रूपक अलंकार ।
2. अलंकार से वस्तु ध्वनि है। रूपक से यह वस्तु ध्वनित हैं कि साधक की तन-मन की आसक्ति दग्ध हो चुकी है, वह परमात्मा रूप हो चुका है।
बिरह जलाई मैं जलौं, जलती जल हरि जाऊँ। मो देख्यां जल हरि जले, संतौ कहां बुझाऊँ ।।39।।
शब्दार्थ- सरल है।
व्याख्या- मैं विरहाग्नि में जली जा रही हूँ। इस असह्य अवस्था के शमन के लिए यदि मैं गुरु रूपी तालाब के पास जाती हूँ तो मुझको उस प्रेमाग्नि में जलता देखकर गुरु भी और अधिक उस आग से जलने लगे। संतजन, मैं इस विचित्र स्थिति का क्या वर्णन करूँ।
भाव यह है कि शिष्य का यह अपार प्रेम देखकर गुरु में भी प्रेम उद्दीप्त हो उठता है।
विशेष - 1. रूपक अलंकार से विरहानुभूति की तीव्रता व्यंजित हुई है।
2. अलंकार से वस्तु ध्वनि है। ध्वनित है परम प्रिय के विरह में आकुल मनोदशा ।
3. अतिशयोक्ति के द्वारा व्यक्तिगत विरह को लोकव्यापी दिखाया गया है, यह सूफी परंपरा में है।
परवति परबति में फिर्या नैना रोड़ सो बूटी पाँऊँ नहीं, जातैं जीवनि होइ॥40॥
शब्दार्थ- परबति = पर्वत । बूटी =औषधि।
व्याख्या- मैंने पर्वत - पर्वत छान डाला और नेत्र प्रिय वियोग में रोते-रोते नष्ट कर बैठा, किंतु मैं कहीं भी वह संजीवनी बूटी अर्थात् ब्रह्म- स्वामी, नहीं प्राप्त कर सका जिससे जीवन सफल हो सके। विशेष- कबीर के ध्यान में इस समय लक्ष्य शक्ति प्रसंग अवश्य घूम रहा होगा।
फाड़ि पुटोला धज करौं, कामड़ली पहिराउं। जिहि जिहि भेषां हरि मिलै सोइ सोई भेष कराउं ॥ 41 ।।
शब्दार्थ- पुटोला= रेशमी वस्त्र, धज=टूक-टूक, धज्जियाँ, कामड़ली= कंबल ।
व्याख्या - यदि प्रिय को मेरा यह सौंदर्यपूर्ण वेश रुचिकर नहीं तो अपने रेशमी वस्त्रों को फाड़कर धज्जियाँ कर साधुओं के समान कंबल धारण कर लूँ। जिस-जिस वेश (आचरण) के द्वारा प्रभु मिलन की संभावना है, मैं वही वेश धारण कर सकती हूँ।
विशेष- 'पटोला' शब्द नारी के रेशमी वस्त्रों की ओर ध्यान ले जाता है, अतः इसके द्वारा, संदर्भ के योग से विरह दशा रूप वस्तु ध्वनित है।
नैन हमारे जलि गए, छिन छिन लोड़ें तुझ्झ ।
ना मिलेन में सुखी ऐसी बेदन मुझ114211
व्याख्या- मेरे नेत्र क्षण-क्षण में तेरी प्रतीक्षा में बाट जोहते जोहते नष्ट को गये। मुझे ऐसी वेदना है कि तेरे मिलन बिना आनंद नहीं .
विशेष - 1. 'जलि गए' से शब्द-शक्ति उद्भव विरह की तीव्रता रूप वस्तु ध्वनित है। पूरी साखी से अतिशयोक्ति अलंकार भी ध्वनित है।
2. 'लोड़ें' या 'लोरें' क्रिया का विकास संस्कृत पुल्लिंग 'लोडन' से प्रतीत होता है, जिसका अर्थ इधर-उधर चलना या लुढ़कना होता है।
भेलो पाया स्त्रम सौं, भौसागर के मांहि । जे छड़ों तौ डूबिहौ; गहौं त डसिये बांह | 43 ॥
शब्दार्थ-भेलो = बेड़ा। भौसागर = भवसागर
व्याख्या - इस भवसागर के मध्य डूबते हुए को तैरने के लिए बड़े परिश्रम से प्रेम का बेड़ा मिला है किंतु इस पर विरह रूपी सर्प बैठा हुआ है। जो इसे छोड़ता हूँ तो डूबने का भय है और यदि इसका आश्रय लेता हूँ तो आशंका है कि यह विरह भुजंगम मुझे डस न ले।
भाव यह है कि संसार से मुक्त होने के लिए प्रेम एकमात्र साधन है, किंतु इसके साथ विरह अवश्य भोगना पड़ता है।
विशेष - 1. यहाँ रूपकातिशयोक्ति है। श्रम से प्राप्त होने वाले बेड़े का प्रयोग राम-विरह के लिए है। इसमें 'डसिए' क्रिया के द्वारा एक सर्प का बिंब भी जुड़ गया है, जो इसके पीड़क पक्ष को उभारता है।
2. 'भेला' का तात्पर्य नदी पार करने के लिए बाँस आदि से बना बेड़ा या 'उडुप' है। डॉ. पारसनाथ तिवारी ने 'श्रम' को 'श्रप' या 'सरप' रूप में पढ़ा है, यह ठीक भी लगता है। इस स्थिति में अर्थ होगा- 'सर्प रूप बेड़े को भव सागर में पाया।'
रणा दूर बिछोहिया, रहु रे संघम झूरि । देवल देवलि धाहड़ी, देसी ऊँगे सूरि ॥44॥
शब्दार्थ- संषम = चक्रवाक, झूरि= विसूर कर। धाहड़ी =उच्च स्वर में।
व्याख्या - चक्रवाक पक्ष में हे चक्रवाक ! रात्रि ने तेरे प्रिय को तुमसे वियुक्त कर दिया है, अब तू बिलख-बिलख कर उच्च वाणी में मंदिर-मंदिर अथवा घर-घर पर उसके लिए पुकार लगा रहा है, किंतु उससे मिलन सूर्य ही करायेगा।
मनुष्य पक्ष में- अज्ञान रात्रि में तुझसे प्रभु वियुक्त हो गये हैं। अब तू चक्रवाक की भाँति मंदिर-मंदिर में उसके लिए पुकार लगा रहा है, किंतु उसकी प्राप्ति ज्ञान सूर्य उदय होने पर ही होगी। विशेष- अन्योक्ति से पुष्ट सांगरूपक अलंकार
सुखिया सब संसार है, खायै अरु सौवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै ॥ 451
व्याख्या- कबीर कहते हैं कि समस्त संसार सुखी है जो भोग-विलास का जीवन व्यतीत कर अज्ञान रात्रि में सोता है। दुखी तो केवल एक कबीर है जो ज्ञान-प्राप्ति के लिए जग भी रहा है और प्रभु-मिलन के लिए रो भी रहा है।
विशेष-वस्तु से वस्तु ध्वनित है। ध्वनित है-संसारासक्त मनुष्य निश्चिन्त दिखाई पड़ता है, किंतु भगवान का भक्त विरह में व्याकुल ।