सूरसागर का सार ( गोकुल लीला ) का शब्दार्थ अर्थ व्याख्या भाग -01
सूरसागर का सार ( गोकुल लीला ) प्रस्तावना
सूरदास का वात्सल्य वर्णन हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि है। श्रीकृष्ण के बाल सौंदर्य की झांकी के साथ-साथ बाल मनोविज्ञान का जैसा चित्रण सूरकाव्य में उपलब्ध होता है, वैसा अन्यत्र नहीं मिलता। बालक की चेष्टाएं, माता के हृदय की आशंकाएं, पुत्र के प्रति वात्सल्य भाव, बाल-वृत्तियों का निरूपण आदि का मनोहारी चित्रण सूरदास ने किया है। सूरदास ने 'गोकुल लीला' में बाल कृष्ण की लीलाओं का चित्ताकर्षक एवं मनोहारी चित्र अंकित करने में जैसी सफलता प्राप्त की है, वैसी किसी को नहीं मिल सकी है। कृष्ण कहीं घुटनों के बल चल रहे हैं, तो कहीं मुख पर दधि का लेप किए दौड़ रहे हैं। कहीं अपने प्रतिबिंब को पकड़ने की चेष्टा कर रहे हैं, तो कहीं किलकारी भर रहे हैं। ।
सोभित कर नवनीत लिए ।
घुटुरून चलत रेनु तन
मण्डित मुख दधि लेप किए।
सूरसागर का सार (गोकुल लीला)
गोकुल लीला
सोभा- सिंधु न अंत रही री का शब्दार्थ अर्थ व्याख्या
सोभा- सिंधु न अंत रही री।
नंद भवन भरि पूरि उमँगि चलि, ब्रज की बीधिनि फिरति बही री ॥
देखी जाइ आजु गोकुल मैं, घर-घर बेचति फिरति रही री ।
कहँ लगि कहाँ बनाइ बहुत बिधि, कहत न मुख सहसहु निबही री ॥
जसुमति उदर- अगाध उदधि तें उपजनि ऐसी सबनि कही री।
सूरस्याम प्रभु इन्द्र- नीलमनि, ब्रज-बनिता उर
लाइ गही री ॥
शब्दार्थ-
सिंधु = सागर, पूरि= पूरी तरह से, बीथिनि = गलियों। विधि = प्रकार, उदर = कोख । उदधि= = सागर। बनिता = स्त्रियों ने, लाइ = लगाकर, गही = ग्रहण करना।
प्रसंग -
कंस कारावास में देवकी की कोख से उत्पन्न होने के तुरन्त बाद ही नवजात कृष्ण वृन्दावन में यशोदा के यहाँ आ गये थे । वृन्दावन में कृष्ण को यशोदा के गर्भ से उत्पन्न कहा बताया गया। इसी नवजात कृष्ण के रूप-सौन्दर्य का बखान करते हुए कोई ब्रज-गोपी अपनी सखी से कहती है.
व्याख्या-
अरी सखी! उस (नवजात कृष्ण के रूप में सौन्दर्य की) शोभा रूपी समुद्र का कोई अन्त नहीं है (वह तो अथाह और असीम है)। वह तो ( एक अगाध - असीम नदी की भाँति नन्द के भवन से पूरी तरह से भरे, उमड़ते हुए ब्रज की गलियों में प्रवाहित होने लगा है (अर्थात् नन्द के भवन में ही नहीं वरन् सारे ब्रज की गली-गली में बाल कृष्ण के रूप-सौन्दर्य की चर्चाएँ होने लगी हैं)। (यह बात मैं कल्पना से या केवल सुनकर ही नहीं बता रही हूँ वरन्) मैंने स्वयं गोकुल जाकर इसको देखा है जबकि मैं घर-घर दही बेचती घूम रही थी (अतएव किसी एक स्थान पर ही नहीं वरन् घर-घर में ही इसकी चर्चा स्वयं सुनी देखी है)। बहुत प्रकार से प्रयत्न करने पर भी मैं इस (रूप-सागर) का वर्णन कहाँ तक करूँ? इसका पूरा वर्णन तो हजार मुख वाले शेषनाग से भी नहीं हो सकता। सबने यही बताया है कि यशोदा के गर्भ रूपी अगाध सागर से इसका जन्म हुआ है और सूर के प्रभु नवजात कृष्ण नीलवर्णीय इन्द्रमणि के समान हैं जिसको ब्रज की स्त्रियों ने हृदय से लगाकर (सावधानीपूर्वक) रखा हुआ है।
विशेष-
1. यहाँ पर कवि ने नवजात शिशु (कृष्ण) के सौन्दर्य का अतिशयोक्तिपरक किन्तु मनोरम अंकन किया है।
2. अलंकार (क) रूपक सोभावही री जसुमति उदचि पभु... नीलमनि। (ख) अतिशयोक्ति-सोम. ..... रही, कहाँ...... निबहि री । (ग) अनुप्रास ब्रज की बीथिनी, ब्रज-बनिता (घ) पुनरुक्ति- घर-घर
3. 'री' लोकप्रचलित 1 सम्बोधन से पद में स्वाभाविकता आ गयी है।
4. भावसाम्य
(क) वेग चलों तो चलौं उत को, कवि तोष कहै, ब्रजराज दुलारे।
वे नद चाहत सिंधु भए पुनि सिंधु तो हुए जलाहल सारे ।। -तोष
(ख) गोपिनु के असुवन भरी सदा असीस अपार ।
डगर डगर नै है रही, बगर बगर के बार।
बिहारी सतसई
(ग) गोरिन के असुवान के नीर, पनारे बहे बहिके भए नारे ।
नारेहु हू सो भइ नदियाँ, नदिया नद है गए
काटि कगारे।। -तोष
(घ) अश्रु सलिल बूड़त सब
गोकुल सूर सुनकर गहि लीजै । -सूरदास
लाल हौ वारी तेरे मुख पर का शब्दार्थ अर्थ व्याख्या
लाल हौ वारी तेरे मुख पर
कुटिल अलक, मोहनि-मन बिहँसनि, भृकुटि विकट ललित नैननि पर ॥
दमकति दूध-दंतुलिया बिहंसत मनु सीपज घर कियौ बारिज पर ।
लघु लघु लट सिर घूंघरवारी, लटकन लटकि रह्यौ माथे पर ॥
यह उपमा कापै कहि आवै, कछुक कहौं सकुचित हौं जिय पर ।
नव तन चन्द्र रेख-मघि राजत, सुरगुरु-सुक्र-उदोत परस्पर ॥
लोचन लोल कपोल ललित अति, नासा को मुकता रदछद पर ।
सूर कहा न्यौछावर
करियै अपने लाल ललित लरखर पर ॥
शब्दार्थ-
हीं = मैं , बारी = न्यौछावर, कुटिल =टेढ़ी, घुंघराली, अलक = केश, मोहनि = मन-मोहक । बिहंसनि = मुस्कान। भृकुटि = भौं , बिकट = घनी, टेढ़ी। ललित = सुन्दर, सीपज = मोती, बारिज = जल से उत्पन्न होने वाला, कमल, कपे= किस पर, मधि = = चन्द्रमा, सुरगुरु = देवताओं के गुरु बृहस्पति । उदोत =प्रकाशित, कपोल = गाल, ललित = सुन्दर, नासा = नासिका । रदछद = होंठ। लरखर = = लटों ।
प्रसंग -
बालकृष्ण के रूप सौन्दर्य को देख और उससे (वात्सल्य भाव में भरकर ) प्रभावित होते हुए माता यशोदा कहती हैं
व्याख्या
हे पुत्र
(कृष्ण) में तेरे मुख (की सुन्दरता पर बलिहारी जाती हूँ तेरी घुँघराली केश-लटों, मनमोहक और सुन्दर
मुस्कान नेत्रों पर स्थित बंकिम भौहें अत्यधिक मनमोहक हैं। हँसते हुए दूध के दो
दाँत इस प्रकार दमकते हैं मानों कमल (रूपी मुख-होठों पर मोतियों (रूपी दाँतों) ने
घर कर लिया हो। तुम्हारी घुंघराली केश -लटें, मुस्कान तथा सुन्दर
नेत्रों पर स्थित बंकिम भौहें मन को मोहित करने वाली हैं। हँसते समय दूध के
छोटे-छोटे दाँत इस प्रकार चमकते हैं मानो (जल में उत्पन्न होने वाले) कमल पर (सीपी
से उत्पन्न होने वाले) मोतियों ने निवास किया हुआ हो। सिर पर स्थित पराले केशों की
छोटी-छोटी लटें तुम्हारे माथे पर लटकी हैं। इनकी उपमा किसके कहने में आ सकती है
क्योंकि यह तो अनुपम है फिर भी कुछ सकुचाते हुए कहती हूँ कि (ऐसा प्रतीत होता है)
मानो नये द्वितीया के चन्द्र के मध्य देवगुरु बृहस्पति और शुक्र परस्पर मिलकर
प्रकाश कर रहे हों। तुम्हारे नेत्र और गाल सुन्दर हैं तथा नाक में पहना गया मोती
होठों पर ( प्रतिबिम्बित होकर) दमक रहा है। अपने पुत्र कृष्ण पर क्या-क्या
न्यौछावर करूँ?
विशेष -
1. यहाँ पर माता यशोदा के वात्सल्यमय हृदय की झांकी एकदम स्वाभाविक और मनोविज्ञानसम्मत रूप में प्रस्तुत की गई है।
2. बालकृष्ण के सौन्दर्य का काव्यात्मक अंकन सूर की काव्य-प्रतिभा का परिचायक बन पड़ा हैं। 3. अलंकार- (क) अनुप्रास - दमकति ......... .. दंतुलिया, लघु.. ...लट, लोचन लाल, लाल........ लरखर (ख) उत्प्रेक्षा - मनु सीपज बारिज पर (ग) पुनरुक्ति-लघु लघु। (घ) उपमा-नव परस्पर । (ङ) अतिशयोक्ति - यह ........ जिय पर
4. भावसाम्य
(क) वर दंत की पंगति कुंदकली अधराधर पल्लव खोलन की।
चपला चमकै घन बीच जगै छबि मोतिन माल अमोलन की ॥
घुघरारि लटें लटकें मुख ऊपर, कुंडल लाल कपोलन की।
नेवछावरि प्रान करै तुलसी
बलि जाऊँ लला, इन बोलन की ॥ -तुलसी कवितावली
(ख) ललन हीं या छबि ऊपर वारी ।
सुन्दरता को पार न पावति, रूप देखि महतारी ॥ सूरदास
(ग) लालन वारि या मुख ऊपर।
सरबस मैं पहिले ही वार्यौ, नान्हीं नान्हीं दंतुली दू पर ।
अब कहा करौ निछावरि, सूरज, सोचति अपने लालन
जू पर -सूरदास
5. वात्सल्य से ओतप्रोत
इस प्रकार के पद कवि की सूक्ष्म पर्यवेक्षण क्षमता के परिचायक तो हैं ही, कवि के जन्मान्ध
होने पर भी प्रश्नवाचक चिन्ह लगा देते हैं।
सोभित कर नवनीत लिये का शब्दार्थ अर्थ व्याख्या
सोभित कर नवनीत लिये।
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित, मुख दधि लेप किए ॥
चारु कपोल, लोल लोचन, गोरोचन तिलक दिए ।
लट लटकनि मनु मत्त मधुपगन मादक मधुहिं पिए
कठुला कंठ बज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख, का सतकाल्प जिए ॥
शब्दार्थ-
नवनीत = माखन, कर = हाथ, घुटुरुनि घुटनों के बल। रेनु = धूल, मंडित = युक्त, सजा, दधि = दही, चारू = सुन्दर, लोचन = नेत्र, गोरोचन = गोबर, मधुपगन = भ्रमर समूह, कठुला = ताबीज \ हिए = हृदय, का = क्या, सत = शत । बज्र = मणि। केहरि-नख = शेर का नाखून
प्रसंग
घुटनों के सहारे चलने वाले वालकृष्ण के मनोहर रूप-सौन्दर्य का चित्रण करते हुए सूर ने कहा है
व्याख्या-
अपने हाथ में माखन लिये हुए बालकृष्ण सुशोभित (प्रतीत हो रहे हैं। घुटनों के सहारे चलने से उनका शरीर (हाथ-पैर आदि ) मिट्टी से युक्त हैं तथा मुख पर ( असावधानीवश मक्खन वाला हाथ फेरने के कारण मानो) दही का लेप किया हुआ है। उनके गाल सुन्दर एवं नेत्र चंचल हैं तथा माथे पर गोबर का टीका लगा हुआ है। (घुटनों के बल चलने और उल्टे पृथ्वी की ओर झुके होने के कारण) उनके माथे पर पड़ी केश-लटें ऐसी लगती हैं। मानों (मुख-कमल से सौन्दर्य रूपी) मादक मधु पीने के लिए मस्त बना भ्रमर-समुदाय ( भंडरा रहा है। उनके गले में कठुला पड़ा है जिसमें मोती और शेर के नाखून जड़े हुए हैं। यह कठुला उनके हृदय पर सुशोभित हो रहा है। कृष्ण के इस रूप-सौन्दर्य को क्षण भर देखने का सुख भी धन्य है (और बिना इसके सैकड़ों कल्पों तक जीवित रहने से क्या लाभ?
विशेष-
1. बालकृष्ण के बाह्य सौन्दर्य और मुद्रा-चित्रण का यह वर्णन कवि की सूक्ष्म पर्यवेक्षण-क्षमता का परिचायक है।
2. कवि (या कृष्ण) का समकालीन ग्राम्य समाज-विशेषतः ब्रज- समाज की स्थिति की झलक यहाँ मिलती है; यथा नवनीत, गोरोचन तिलक, कठुला नख आदि से।
3. 'कठुला ....हिए' अंश में कवि का लोकज्ञान प्रकट होता है। भारतीय ग्राम्य समाज में नजर उतारने या न लगने के लिये कठुला प्रयोग आज भी प्रचलित है।
4. अन्तिम पंक्ति में कवि की अनन्य भक्ति भावना प्रकट हुई है। 5. 'बालकृष्ण भक्ति' पुष्टिमार्गीय सम्पद्राय की प्रमुख मान्यता है, प्रस्तुत पद इसी प्रभाव का परिचायक है।
6. अलंकार- (क) उत्पेक्षा-लट पिए। (ख) अनुप्रास - कठुला कंठ, लोल लोचन, मनु...... मधुहि, राजत रुचिर ।
7. भावसाम्य-
(क) अरबिन्दु सो आननु रूप मरंदु अनंदित लोचन -भृंग पिएँ । -तुलसी कवितावली
(ख) आंगन फिरत घुटुरुवनि धाए - तुलसीः गीतावली