सूरसागर का सार ( गोकुल लीला ) का शब्दार्थ अर्थ व्याख्या भाग -04
सूरसागर का सार ( गोकुल लीला ) का शब्दार्थ अर्थ व्याख्या भाग -04
उपमा हरि-तनु देखि लजानी शब्दार्थ अर्थ व्याख्या
उपमा हरि-तनु देखि लजानी।
कोउ जल में कोउ बननि रहीं दुरि, कोठ-कोठ गगन समानी ॥
मुख निरखत ससि गयौ अम्बर कौ, तड़ित दसन छबि हेरि।
मीन कमल, कर, चरन, नयन डर, जल में कियो बसेरि ॥
भुजा देखि अहिराज लजाने, बिबरनि पैठे धाइ ।
कटि निरखत केहरि उर भाग्यौ, बन बन रहे दुराइ ॥
गारी देहिं कबिनि कै बरनत, श्री अंग पटतर देत ।
सूरदास' हमकौ सरमावत, नाउँ हमारी लेत ॥
शब्दार्थ
दुरि = छिपी हुई।
अम्बर = = आकाश ।
तड़ित = आकाश विद्युत ।
हेरि = देखकर
कर = हाथ।
अहिराज = सर्पराज शेषनाग
विवरनि = बिल में
धाइ = दौड़कर
केहरि = सिंह ।
दुराई = छिप गये।
बरनत = वर्णन
नाउँ = नाम।
प्रसंग-
वृन्दावन में श्रीकृष्ण, ब्रज के नर-नारियों के साथ (ग्रीष्म-लीला के समय) विहार करते हैं। इस समय श्रीकृष्ण का सौन्दर्य अनुपम और 'अतुलनीय है। परिणाम? सभी दर्शक कृष्ण के इस मनोहर (शारीरिक) सौन्दर्य पर मुग्ध हैं। इसी सौन्दर्य का वर्णन (और प्रभाव स्पष्ट) करते हुए कवि (अथवा ब्रज- गोपी या कोई दर्शक ) कहता है.
व्याख्या -
कृष्ण शरीर (के अद्भुत और अतिशयोक्तिपरक रूप) को देखकर सभी उपमाएँ (उपमान) लज्जित हो गयीं, यहाँ तक कि ( लज्जा के कारण) कोई जल में छिप गयी तो कोई गहन वन में तथा कोई-कोई तो आकाश में ( जाकर ) छिप गयी। प्रमाण? कृष्ण के मुख को देखकर चन्द्रमा आकाश में चला गया तो (कृष्ण की दंत छवि को देख ) आकाश -विद्युत आकाश में छिप गयी। इसी भाँति (कृष्ण के) हाथ-पैरों (के सौन्दर्य) को देख कमल तथा नेत्रों को देख मछली ने जल में बसेरा किया। (कृष्ण की भुजा-सौन्दर्य को देख सर्पराज शेषनाग लजा गये और दौड़कर बिल में छिप गए। कृष्ण के कटि सौन्दर्य को देख सिंह ने भी भय माना और वन-वन में छिपता फिरा यह सभी उपमान कवियों के वर्णन को कि कृष्ण का अंग-प्रत्यंग सौन्दर्य उपमानों से भी श्रेष्ठ हैं, गालियाँ देते हैं कि हमारा नाम ले-लेकर कविगण हमको लज्जित करते हैं।
विशेष -
1. यहाँ पर परोक्ष विधि से कृष्ण के बाह्य सौन्दर्य का नख-शिख चित्रण किया गया है।
2. अलंकार- (क) पुनरुक्ति कोउकोउ, बन बन। (ख) प्रतीप समस्त पद में। (ग) मानवीकरण - उपमा.....लेत ।
3. भावसाम्य उपमा धीरज तज्यौ तिरखि छवि वाला पद ।
बनी मोतिनि की माल मनोहर शब्दार्थ अर्थ व्याख्या
बनी मोतिनि की माल मनोहर।
सोभित स्याम सुभग उर-ऊपर मनु गिरि तैं सुरसरि धँसी घर ॥
तट भुज दंड, भौंर भृग-रेखा, चंदन चित्र तरंग जु सुन्दर ।
मनि की किरन मीन, कुंडल- छबि मकर, मिलन आए त्यागे सर ॥
जग्युपवीत विचित्र सूर सुनि, मध्य धारा जु बनी बर
संख चक्र गदा पद्म पानि मनु कमल फूल हंसनि कीन्हें घर ॥
शब्दार्थ -
घर = पृथ्वी ।
भुजदंड = भुजा का ऊपरी भाग, बाँह
भौर = भँवर
तरंग = लहरें
मीन = मछली।
सर = सरोवर
जग्युपबीत = यज्ञोपवीत्, जनेऊ
वर = सुन्दर
पानि = हाथ
कूल = = तट।
व्याख्या -
(श्रीकृष्ण के गले में धारण की हुई) मोतियों की माला मनोहर ( अर्थात् दर्शक के मन का हरण करने वाली) बनी हुई है। यह माला कृष्ण के सुन्दर वक्ष पर सुशोभित है। (इसको देख ऐसा प्रतीत होता है कि) मानो (बक्ष रूपी) पर्वत से (माला रूपी) देवगंगा पृथ्वी की ओर धंस रही हो। (श्रीकृष्ण के) भुजदंड इसके तट हैं और (वक्ष पर महर्षि भृगु द्वारा किये गये पट्-प्रहार के चिन्ह वाली) भृगु रेखा भँवर तथा चंदन से (शरीर पर ) बने चित्र सुन्दर लहरें हैं (कृष्ण द्वारा धारण किये गये) मणि की किरणें मछली हैं तो कुंडलों की छवि मकर जो सरोवर को त्याग (पवित्र देवगंगा रूपी माला से ) मिलन हेतु आये हैं। चित्रयुक्त (कृष्ण के शरीर पर धारण किया हुआ) यज्ञोपवीत सुन्दर मध्य धारा है तथा हाथों में धारण किये हुए शंख, चक्र गदा और कमल मानो (नदी के तट पर घर करने वाले (निवास करने वाले) श्वेत हंस हैं।
विशेष -
1. अन्तिम पंक्तियों में कृष्ण का विष्णु अवतारी रूप अंकित है।
2. 'भृगु रेखा' विष्णु-भृगु-कथा की संकेतक है।
3. अलंकार- (क) सांगरूपक- समस्त पद में। (ख) उत्प्रेक्षा-सोभित..... घर, संख... बर (ग) अनुप्रास-स्याम सुभग, धंसी घर, भुजदंड भृगुरेखा, बनी वर, कमल फूल। (घ) रूपक-तट भुजदंड बर ।
चितबनि रोकै हूँ न रही शब्दार्थ अर्थ व्याख्या
चितबनि रोकै हूँ न रही।
स्यामसुन्दर- सिंधु सम्मुख सरित उमगी बही ॥
प्रेम-सलिल प्रवाह भँवरनि मिति न कबहुं लही ।
लोभ लहर-कटाच्छ घूंघट-पट - कगार ठगी ॥
थके पल पथ नाव- धीरज, परति नहिंन गही ।
मिलि सूर सुभाव स्यामहिं फेरिहु न चही ॥
शब्दार्थ-
सिंधु = सागर।
सलिल = जल
मिति = थाह
कगार = तट
गही = ग्रहण।
प्रसंग -
कृष्ण की सौन्दर्य राशि को देख ब्रज की गोपियाँ, स्वाभाविक रूप में ही, उससे प्रभावित होकर आकृष्ट हो जाती हैं। अपनी इसी विवशता का वर्णन करते हुए एक गोपी अपनी सखी ( दूसरी गोपी) से कहती है.
व्याख्या -
" (हे सखी!) मेरी दृष्टि प्रयत्न करने पर भी नहीं रुक सकी और श्याम वर्ण वाले कृष्ण के सौन्दर्य रूपी सागर के पीछे उसी प्रकार चल दी जैसे उमगित होकर कोई नदी स्वाभाविक तेजी से बढ़ती है। प्रेम रूपी जल के भंवर प्रभाव में वह पूर्णतया मग्न हो गयी और परिणामस्वरूप उसकी थाह तक नहीं मिल सकी। कृष्ण-दर्शन के लोभ और कटाक्ष रूपी लहरों से घूँघट रूपी किनारों को भी ढक दिया अर्थात् घूँघट आदि के व्यवधानों को दर्शनों की लालसा ने समाप्त कर दिया। अब टकटकी बांधकर निर्निमेष दृष्टि से उनके दर्शन करने लगी। फिर भी धीरज रूपी नौका नहीं पकड़ी जा सकी अर्थात् धैर्य प्राप्त न कर सकी। इस प्रकार मेरी दृष्टि उन्हीं में निमग्न है।"
विशेष -
1. यहाँ कवि ने गत्यात्मक सौन्दर्य का सुन्दर चित्र प्रस्तुत किया है।
2. यहाँ प्रेम (भक्ति) भाव की अनन्यता एवं सहजाकर्षण और सौन्दर्य की प्रभावात्मकता दर्शनीय है। 3. यहाँ सांगरूक, विभावना और वृत्यानुप्रास अलंकार हैं।
4. भावसाम्य
'हरि छबि जल जब तें परे, तब नें छिनु बिछुरै न।" - बिहारी सतसई
देखि री हरि के चंचल नैन खंजन देखि री हरि के चंचल नैन खंजन
देखि री हरि के चंचल नैन
खंजन - मीन - मृगज चपलाई, नहीं पटतक इक सैन ॥
राजिवदल इन्दीवर सतदल, कमल, कुसेसय जाति
निसि मुद्रित प्रातहि वै विकसित, ये विकसित दिन राति ॥
अरुन स्वेत सित झलक पलक प्रति को बरनै उपमाइ ।
मनु सरसुति गंगा जमुना मिलि आश्रम कीन्हौं आइ ॥
अवलोकनि जलधार तेज अति, तहाँ न मन ठहराइ ।
सूर स्याम - लोचन अपार दबि, उपमा सुनि सरमाइ ॥
शब्दार्थ-
खंजन = एक पक्षी
मृगज= मृग वाली
पटतर = समान
सैन = दृष्टि
राजिवदल इंदीवर सतदल = = कमल-पुष्प के विविध प्रकार
कुसेसय = कमल का एक प्रकार
मुद्रित = बन्द होना, सोना।
अरुन = लाल ।
स्वेत = = श्वेत।
सित= काला
लोचन = नेत्र
प्रसंग
श्री कृष्ण के ( बाह्य शारीरिक सौन्दर्य के अन्तर्गत ) नेत्रों के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कोई गोपिका - (अपनी सखी से ) कहती है.
व्याख्या -
हे सखी! कृष्ण के चंचल नेत्रों को देख इन नेत्रों में खंजन, मछली और हिरण के नेत्रों वाली चपलता है तथा एक दृष्टि में यह (अधिक क्षण तक) समान स्थिति में नहीं रहते। राजीवदल, इन्दीवर, शतदल, कुसेसय आदि विविध प्रकार के कमल की भाँति सुन्दर ये नेत्र भी हैं किन्तु सच में, ये उनसे भी बढ़कर हैं। प्रमाण? वे तो (सूर्यास्त होने के पश्चात्) रात्रि में मुंद जाते और (सूर्योदय होने पर) प्रातः में विकसित होते हैं किन्तु ये नेत्र दिन-रात दोनों समय में निरन्तर ही विकसित रहते हैं। प्रत्येक पलक में इनमें लाल, श्वेत और काले रंग की अलग-अलग झलक मारती है। भला कौन-सी उपमा इनका वर्णन कर सकती है? (कोई नहीं)। ऐसा प्रतीत होता है कि सरस्वती (लालिमा), गंगा (श्वेत) और यमुना (कालिमा) तीनों नदियों ने मिलकर यहाँ ( इन नेत्रों में) निवास किया है। इनकी जलधार देखने में अत्यधिक तेज है और वहाँ पर मन स्थिर नहीं हो पाता। सूर के श्याम कृष्ण के नेत्रों की छवि तो अपार है जिसको सुनकर (देखकर) उपमान भी लज्जित हो जाते हैं।
विशेष -
1. नायक- सौन्दर्यांकन में नेत्र चापल्य का सौन्दर्यांकन प्रचलित काव्य-परिपाटी है और यहां पर कवि ने इसी का पालन किया है।
2. 'री' बोलचाल का सम्बोधन हैं जो कवि के जनसमाज-विषयक ज्ञान का परिचायक है। कहना न होगा कि इससे पद में स्वाभाविकता बढ़ गयी है।
3. अलंकार- (क) विरोधाभास - राजिवदल...... दिन रात। (ख) उत्प्रेक्षा- मनु...आइ । (ग) मानवीकरण - उपमा सुनि सरमाई।
4. भावसाम्य- (क) “अमिय हलाहल मद भरे श्वेत श्याम रतनार ।" (ख) “नैन सुरसति जमुना गंगा उपमा डारौ वारि ।"
देखि सखी अधरनि की लाली शब्दार्थ अर्थ व्याख्या
देखि सखी अधरनि की लाली।
मनि मरकत ते सुभग कलेवर, ऐसे हैं बनमाली
मनौ प्रात की घटा सांवरी तापर अरुन प्रकास
ज्यौं दामिनि बिच चमकि रहत है फहरत पीत सुबास ॥
किधौं तरुन तमाल बेलि चढ़ि जुग फल बिम्ब सुपाके ।
नरसा कीर आइ मनु बैढ्यो लेत बनत नहिं ताके ॥
हँसत दसन इक सोभा उपजति उपमा जदपि लजाइ ।
मनी नीलमनि-पुट मुक्तागन, बंदन भरि बगराइ ॥
किधौं ब्रज-कन, लाल नगनि खँचि तापर बिद्रुम पाँति ।
किधी सुभग बंधूक-कुसुम-तर, झलकत जल-कन कांति ॥
कियौं अरुन अंबुज बिच बैठी सुन्दरताई जाए।
सूर अरुन अधरनि की शोभा, बरनत बरनि न जाइ ॥
शब्दार्थ -
अधरनि = होठों
मरकत = लीनमणि
सुभग= सुन्दर
कलेवर =शरीर
तापर = उस पर
अरुन = सूर्य
दामिनी = आकाश विद्युत।
पीत सुबास = पीताम्बर
किधौं = अथवा
सुपाके = परिपक्व
नासा = नासिका
कीर = तोता ।
पुट पर्वत ।
बगराइ =फैलाना।
बज्रकन = हीरे के कण
नगनि = नगीना ।
खाँच = सूर्य ।
विद्रुम = मूंगा।
बंधूक = गुलदुपहरिया का लाल पुष्प
अंबुज = कमल।
बरनत = वर्णन ।
प्रसंग
श्रीकृष्ण के रक्तिम आभा वाले होंठों के सौन्दर्य का आलंकारिक वर्णन करती हुई कोई गोपिका अपनी सखी से कहती है
व्याख्या-
'हे सखी! श्रीकृष्ण के होंठों की लाली देखो ये बनमाली कृष्ण मरकत मणि से सुन्दर शरीर वाले हैं। इनका रूप ऐसा है जैसा प्रातः कालीन काली घटा पर सूर्य का प्रकाश पड़ रहा हो। इनका पीताम्बर ऐसा फहराता है। जैसे घटा में बार-बार बिजली चमक रही हो अथवा किसी तमाल के वृक्ष पर चढ़ी हुई कोई बेल उसके पके हुए बिम्ब- फलों को लेने का प्रयत्न कर रही हो। इनकी नासिका ऐसी लग रही है मानो कोई तोता उस तमाल वृक्ष पर आकर बैठ गया हो और वे बिम्ब- फल उससे लेते नहीं बन रहे हों। हँसते समय इनके दाँतों से जो सौन्दर्य उत्पन्न होता है, उसे देखकर सारी उपमायें लज्जित हो जाती हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे नीलमणि पर्वत पर किसी ने चन्दन बिखेर दिया हो और बीच-बीच में मोतियों का पुट दे दिया हो अथवा हीरे का नगीना जड़कर उस पर मूँगों की पंक्ति सजा दी गई हो अथवा बन्धूक के सुन्दर फूल पर तरल-जलबिन्दु झलक रहे हों अथवा लाल कमल के बीच में सुन्दरता आकर बैठ गई हो। वास्तव में उनके लाल अधरों की सुन्दरता का वर्णन किया ही नहीं जा सकता।"
विशेष -
1. अलंकार - (क) उपमा-ज्यों सुवास। (ख) उत्प्रेक्षा- मनो... प्रकास, मनो नीलमनि .... बगराइ । (ग) व्यतिरेक-मनि... बनमाली । (घ) सन्देह किधौं..... ताके
2. भावसाम्य -
(क) 'सोहत औढ़े पीत- पटु श्याम सलोने गात।
मनौ नीलमनि सैल पर आतुप पर्यो प्रभात।"
3. आलंकारिक शैली का सुन्दर प्रयोग है।
श्याम सौं काहे की पहिचानि शब्दार्थ अर्थ व्याख्या
श्याम सौं काहे की पहिचानि ।
निमिष निमिष वह रूप न वह छवि, रति कीजै जिय जानि ॥
इकटक रहति निरन्तर निसिदिन, मन-बुद्धि सौं चित सानि ।
एकौ पल सोभा की सीवाँ सकति न उर महँ आनि ॥
समुझि न परै प्रगटहीं निरखत, आनन्द की निधि खानि ।
सखि यह बिरह संजोग, कि समरस सुख दुख लाभ कि हानि ॥
मिटति न घृत तैं होम अग्नि रुचि, सूर सुलोचन बानि ।
इत लोभी उत रूप परम निधि, कोउ न रहत मिति मानि ॥
शब्दार्थ-
निमिष = क्षण ।
रति प्रेम
सानि= सना हुआ, लिप्त
सीवा = सीमा
बानि = आदत
मिति = सीमा।
प्रसंग -
गोपी के मतानुसार श्रीकृष्ण का सौन्दर्य अनुपम तो है ही, पल-पल में परिवर्तन होने वाला भी है। परिणाम? इस सौन्दर्य को देखने वाले का दर्शन-लोभ बढ़ता ही जाता है। कृष्ण-सौन्दर्य और अपने दर्शन-लोभ की इसी विचित्र स्थिति से अवगत कराते हुए गोपिका अपनी सखी से कहती है
व्याख्या -
कृष्ण से भला किस प्रकार की पहचान हो सकती है? (पूर्ण परिचय भला कैसे हो सकता है?) कारण यह है कि उनका वह रूप और उसकी छवि तो पल-पल में परिवर्तनशील है जिसको मन में जानकर मैं प्रेम करती हूँ । (रूप-छवि एक-सी रहे तभी तो उसको समुचित प्रकार से पहचाना जा सकता है किन्तु वहाँ तो स्थिति एकदम विपरीत हैं।) (इसी सौन्दर्य की दर्शन-लालसा से उत्प्रेरित होकर ) मैं रात-दिन निरन्तर अपलक देखती रहती हूँ और सच में तो, यह सौन्दर्य सदा ही मेरे मन, बुद्धि और हृदय पर छाया रहता है। वह सौन्दर्य इतना मोहक और मनोरम है कि एक-एक पल में शोभा की सीमा प्रतीत होती है और एक पल के लिये भी हृदय में नहीं समा पाता। ( भाव यह है कि कृष्ण-सौन्दर्य का एक-एक दृश्य मनोरम है किन्तु पल-पल परिवर्तन हो जाने के कारण मन में कोई भी एक दृश्य अधिक समय तक टिक नहीं पाता। इतना ही नहीं, प्रत्यक्षतः देखने पर भी यह समझ में नहीं आता। वास्तव में तो यह आनन्द की निधि है। हे सखी! इस विरह-दशा में भी उससे जो मानसिक संयोग है, उसे मैं समझ नहीं पाती। ( प्रेमान्तर्गत आने वाला) यह संयोग-वियोग सुख-दुख है अथवा लाभ-हानि है अथवा सुख-दुख से परे आनन्द वाली समावस्था है, कुछ भी समझ में नहीं आता। कृष्ण-सौन्दर्य को देखने की आदत तो मेरे नेत्रों को पड़ गयी है यद्यपि इससे मेरे नेत्र उसी प्रकार सन्तुष्ट नहीं होते जैसे कि घी से होमाग्नि शान्त नहीं होती। सच तो यह है कि इधर तो मेरे (कृष्ण-दर्शन को उत्सुक बने) लोभ नेत्र हैं और उधर कृष्ण का परमानिधि सौन्दर्य, लेकिन दोनों में कोई भी अपनी स्थिति से नहीं हटता ( अर्थात् नेत्र सौन्दर्य-दर्शन से नहीं हटते और कृष्ण-सौन्दर्य पल-पल में परिवर्तन होते रहने से बाज नहीं आता ) । व्यंजना यही है कि मैं कृष्ण-सौन्दर्य को निरन्तर देखते रहने के लिये विवश सी हो गयी हूँ ।
विशेष -
1. यहाँ पर संयोग शृंगारान्तर्गत अनन्यता की स्थिति का चित्रण है।
2. अलंकार- (क) पुनरुक्ति-निमिष, निमिष । (ख) अनुप्रास - सोभा ..... सकति, मिति मानि । (ग) संदेह - साखि... बानि । (घ) अतिशयोक्ति - सम्पूर्ण पद में ।
3. भावसाम्य-
(क) “तजत न लोचन लालची ए ललचौंही बानि ।” -बिहारी सतसई
(ख) “क्षणे - क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः ।" -भारवि
मन-मृग बेध्यो नैन-बान सौं शब्दार्थ अर्थ व्याख्या
गूढ़ भाव की सैन अचानक, तकि ताक्यो भृकुटि-कमान सौं ॥
प्रथम नाद कल घेरि निकट लैं, मुरली सप्तक सुर बंधान सौं ।
पाछे बंक चितै, मधुरे हंसि, घात कियौ उलटे सुठान सौं ॥
सूर सु मार बिथा या तन की, घटति नहीं औषधि आन सौं।
है है सुख तबहीं उर अन्तर, आलिंगन गिरिधर सुजान सौं ॥
शब्दार्थ-
बेध्यो = बींधना, वध करना।
ताक्यो = देखना
नाद =ध्वनि
मार = चोट ।
बंधान = मचान।
बंक = कटाक्ष
सुठान= अच्छे स्थान काम।
मार = चोट,
सुजान = प्रिय ।
प्रसंग -
नायक श्रीकृष्ण के नेत्र कटाक्षों से कोई नायिका (गोपी) प्रभावित हो गयी और प्रेम-लिप्त हो उठी। प्रेमातुरता का उपचार था - आलिंगनबद्ध होना। अपनी और अपने प्रिय कृष्ण की इसी प्रेम स्थिति को स्पष्ट करते हुए वह अपनी अतरंग सखी से कहती है
व्याख्या -
अपने नेत्र (कटाक्ष) के बाण से कृष्ण ने मेरे मन-मृग को बेध दिया। प्रेम के गूढ़ भावों से परिपूर्ण नेत्रों (के कटाक्ष-बाणों) को भृकुटि रूपी कमान पर रखकर अचानक ही उस (कृष्ण) ने छोड़ा ( फलतः मेरे मन-मृग को बचने का अवसर ही नहीं मिल पाया और वह कृष्ण कटाक्ष का शिकार हो गया।) एक चतुर शिकारी की भाँति कृष्ण ने पहले तो अपनी मुरली के सप्त स्वर मचान से मधुर ध्वनि करके मन-मृग को मोहित कर घेर लिया ( क्योंकि हिरण स्वभावतः ही संगीत की मधुर ध्वनि को सुन आकर्षित मोहित ही जाता है) तत्पश्चात् अपनी बंकिम चितवन (दृष्टि ) और मधुर हँसी के अच्छे स्थान से पलट कर घात की । (सच तो यह है कि इस शरीर में व्याप्त काम (चोट) की व्यथा किसी अन्य औषधि से नहीं घटती । हृदय को तो तभी सुख होता है जबकि (गोबर्धन पर्वत को धारण करने वाले नायक) प्रिय कृष्ण आलिंगन करें।
विशेष -
1. यहाँ पर प्रेम की विविध स्थिति-सोपानों का अंकन है, एकदम क्रमबद्ध और मनोविज्ञान सम्मत रूप में।
2. अलंकार- (क) सांगरूपक - समस्त पद में। (ख) रूपक-मन-मृग, नैन-बान, भृकुटि-कमान। (ग) अनुप्रास-तकि ताक्यों।
3. यहां मृग-आखेट का पूरा रूपक है।
4. भावसाम्य-
(क) दृगनु लगत बेधत हियहिं बिकल करत अंग आन ।
ए तेरे सब तैं विषम ईछन-तीछन बान ॥
(ख) लड़ गई उनसे नजर, खिंच गये अबरू उनके ।
मारिके इश्क के अब तीरो-कमां तक पहुँचे