सूरसागर के प्रमुख पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या
सूरसागर के प्रमुख पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या (2)
संग सोभित वृषभानु किसोरी शब्दार्थ व्याख्या
संग सोभित वृषभानु किसोरी
सारंग' नैन बैन बर सारंग, सारंग बदन कहै छबि कोरी ॥
सारंग' अधर सुघर कर सारंग, सारंग जाति, सारंग' मति भोरी ।
सारंग' दसन, हसन पुनि सारंग, सारंग" बसन पीत पर डोरी ॥
सारंग" चरन, पीठ पर सारंग, कनक खम्ब मनौ अहि लसौ री।
सारंग" बरन, दीठ पुनि सारंग", सारंग गति, सारंग " गति थोरी ॥
सारंग" पुलिन, रजनि रुचि सारंग" सारंग" अंग, सुभग भुज जोरी।
बिहरति सघन कुंज, सखि निरखति, सूरस्याम घन दामिनि गोरी ॥
शब्दार्थ-
सारंग = क्रमशः 1. मृग या खंजन, 2. कोयल, 3. चन्द्रमा, 4 सरस, 5 कमलनाल, 6. पद्मनि जाति की नायिका, 7. स्त्री, 8. हीरा, 9. बिजली, 10. घनश्याम, 11. कमल, 12. वेणी, 13. स्वेत, 14, मधुरु 15. हंस, 16. सर्प, 17. नदी, 18. मधुर, 19. कामदेव
बर = सुन्दर
कर = हाथ।
अहि = सर्पिणी।
लसौरी = शोभित है।
दीठ = दृष्टि ।
पुलिन = तट।
बिहरति = विचरण करती है।
घन = मेघ ।
दामिनि = आकाशविद्युत ।
प्रसंग -
राधा और कृष्ण, प्रेमानन्द में भरकर, वृन्दावन में बिहार कर रहे हैं। इस समय राधा का एक-एक अंग-प्रत्यंग अत्यधिक सौन्दर्य से ओतप्रोत है। इन्हीं का कूटात्मक विवरण देते हुए कोई गोपी अपनी अन्तरंग सखी से कहती है
व्याख्या-
(अपने प्रिय नायक) श्रीकृष्ण के साथ (वृषभानु की किशोरावस्था वाली पुत्री) राधा सुशोभित हैं। उसके नेत्र मृग या खंजन जैसे ( सुन्दर और चंचल) हैं तो वाणी कोयल (की वाणी) जैसी मधुर । मुख चन्द्रमा जैसा (सुन्दर) है तथा छवि-एकदम साफ (पवित्र या कुंवारी) हैं। उसके होंठ सरस हैं तथा सुघड़ हाथ कमल-नाल जैसे (कोमल और सुन्दर)। वह पद्मनि जाति की ( सर्वोत्तम नारी) है तथा उसकी बुद्धि एकदम भोली (निश्छल और अबोध) स्त्री जैसी है। उसके दांत हीरे (की आभा) जैसे हैं तो हास्य आकाशविद्युत की भाँति उसके वस्त्र श्याम घन की भाँति हैं जिनमें पीले रंग की डोरी लगी है (अथवा जो पीताम्बरधारी कृष्ण पर रीझती है)। उसके चरण कमल की तरह है, तो पीठ पर सर्पिणी की भाँति वेणी लटक (लहरा रही है। कटि पर झूलती वेणी ऐसी प्रतीत होती है मानो किसी स्वर्ण खम्भ (शरीरयष्टि अथवा कटि) पर सर्प सुशोभित हो। उसके (शरीर) का वर्ण श्वेत है तथा दृष्टि भी मधुर है। उसकी चाल हंस (की चाल ) सी और थोड़ी-थोड़ी सर्प ( की चाल की भाँति लहराती हुयी) सी है। नदी तट है जिस पर मधुर-मनोहर रात्रि ( का वातावरण) है। ऐसे मादक और उद्दीपक वातावरण में राधा का अंग-प्रत्यंग साक्षात् कामदेव (के अंगों) सा प्रतीत होता है। दोनों ने अपनी सुन्दर भुजाओं को जोड़ रखा है (हाथ में हाथ पकड़ रखे हैं)। हे सखी! देखो गहन - कुंजों में (काले मेघ जैसे) कृष्ण और (मेघों में छिपी विद्युत-सी ) राधा विचरण कर रहे हैं।
विशेष -
1. संयोगान्तर्गत युगल चारण (नायक-नायिका का सम्मिलित विचरण) और पुष्टिमार्गीय विचारधारा के अनुकूल युगल - उपासना दोनों ही दृष्टियों से यह पद महत्त्वपूर्ण है।
2. प्रस्तुत पद कवि की कूटकाव्य-शैली का परिचायक है।
3. उपमान-योजना में (सारंग' शब्द कवि को सर्वाधिक प्रिय रहा है। यह पद इसी सत्य का उद्घोषक है।
4. 'सारंग' शब्द का बहुअर्थी प्रयोग कवि के विशद् भाषा ज्ञान का साक्षी है।
5. अलंकार- (क) उपमा और रूपक-समस्त पद में। (ख) रूपकातिशयोक्ति-समस्त पद में। (ग) यमक- 'सारंग' शब्द की आवृत्ति और अर्थ-वैभिन्नय में। (घ) अनुप्रास वैन वर (ङ) उत्प्रेक्षा- कनकलसौ री।
6. भावसाम्य
(क) सारंग चरन सुभग कर सारंग, सारंग नाम बुलावहु
सूरदास सारंग उपकारिनि, सारंग मरत जियावहु ॥
(ख) सारंग नयन वयन पुनि सारंग, सारंग तसु समधाने ।
सारंग ऊपर उगाए दस सारंग, केलि करत मधुपाने ॥
लोचन भए पखेरू, शब्दार्थ व्याख्या
लोचन भए पखेरू, माई
लुब्धे स्याम-रूप चारा कौं, अतम-फंद परे जाई ॥
मोर मुकुट टाटी मानौं, यह बैठनि ललित त्रिभंग ।
चितवनि लकुट, लास लटकनि-पिय, कांपा अलक तरंग ॥
दौरि गहन मुख-मृदु-मुसुकावनि, लोभ-पींजरा डारे ।
सूरदास मन-व्याध हमारी, गृह बन तैं जु बिसारे ॥
शब्दार्थ-
लोचन = नेत्र।
पखेरू = पक्षी ।
लुब्धे = मोहित हुए।
अलक-फंद = केश पाश
टाटी = टट्टी, ओट
लकुट = छड़ी, लाठी
लास = लासा।
काँपा = बाँसतिली।
व्याध = शिकारी।
प्रसंग -
प्रेमारम्भ का मूल है-दर्शन और तद्जनित रूप-लिप्सा । इनका माध्यम होते हैं- नेत्र इसी से शृंगारान्तर्गत नेत्र व्यापारों का विशेष महत्त्व रहता है। अपने नेत्रों की इसी विवशता भरी स्थिति का परिचय देते हुए कोई गोपिका (अपनी सखी से) कहती है.
व्याख्या -
(अरी माई!) मेरे नेत्र तो (प्रिय कृष्ण के रूप-सौन्दर्य को देख लेने के पश्चात् ) पक्षी हो गये हैं। प्रमाण? (एक पक्षी की भाँति ) मेरे ये नेत्र श्याम वर्ण वाले कृष्ण के सौन्दर्य रूपी चारे पर मुग्ध हुए और ( शिकारी द्वारा पूर्व नियोजित फन्दे रूपी) अलक-पाश में जाकर फंस गये (अर्थात् कृष्ण की सुन्दर केशराशि पर मोहित होकर मानो वहीं पर अटक गये) कृष्ण का मोरपंखी मुकुट ही वह ओट है जिसकी आड़ में (वह कृष्ण रूपी) शिकारी (त्रिभंगिमा वाले आसन से) बैठा है। उसकी चितवन छड़ी है और केश-लटकन ही मानो लासा है तथा इसमें लहरदार केश का कंघा लगा है (जिसके द्वारा शिकारी पक्षी को फाँसकर शिकार करता है)। उसके मुख की मृदु मुस्कान ही दौड़कर (शिकार बनने वाले पक्षी को) पकड़ लेती है। (आकर्षित कर लेती है) तथा लोभ (आकर्षण) के पिंजरे में डाल देती है। सच में तो, हमारा मन ही शिकारी है जिसने हमको (पक्षी की भाँति घर और वन (अर्थात् घर और बाहर सभी) से अलग कर दिया है (तथा शिकारी की भाँति अपने रूपजाल में बन्दी बना लिया है)।
विशेष -
1. यहाँ पर प्रेमारम्भ की स्थिति का एकदम प्रभावशाली और मनोविज्ञानसम्मत अंकन है।
2. 'माई' बोलचाल की भाषा का सूचक है।
3. अलंकार - (क) सांगरूपक- समस्त पद में। (ख) उत्प्रेक्षा मोर..... मानौ (ग) अनुप्रास - लकुट ..... लटकनि, मुख..... मुसुकावनि। (घ) रूपक अलक-फंद, लोभ- पींजरा, मन-व्याध ।
4. परोक्षतः कृष्ण-सौन्दर्य का काव्यात्मक अंकन किया गया है।
5. भावसाम्य-
मोहन छवि रसखान लख, अब दृग अपने नाहिं । ऐंचे आवत धनुष से छूटे सर से जाहिं ॥