सूरसागर के प्रमुख पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या
सूरसागर के प्रमुख पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या
अंखियनि की सुधि भूल गई शब्दार्थ व्याख्या
स्याम-अधर मृदु सुनत मुरलिका, चक्रित नारी भई ॥
जो जैसे सो तैसे रह गई, सुख दुख कयौ न जाइ।
लिखि चित्र की सी सब है गई इकटक पल बिसराइ ॥
काहूं सुधि, काहूं सुधि नाहीं, सहज मुरलिका गान ।
भवन रवन की सुधि न रही तनु, सुनत शब्द वह कान ॥
अंखियनि तैं मुरली अति प्यारी वै बैरिनी यह सौति ।
सूर परस्पर कहति गोपिका, यह उपजी उद्घौति ॥
शब्दार्थ-
सुधि = ध्यान ।
अधर = होंठ
चक्रित = चकित, चकई।
भई = हो गयीं।
काहूं = कभी।
रवन = गमन, तनिक
उद्भौति = अद्भुत
प्रसंग -
नायिका (गोपी) अपनी सखियों के साथ पारस्परिक वार्तालाप में मग्न थी। उसी समय कृष्ण की बंशी की ध्वनि उसके कानों में पड़ी। परिणाम क्या हुआ इसी को बताते हुए कवि ने कहा है
व्याख्या-
(नायिका गोपी और उसकी सभी अंतरंग सखियाँ) आँखों का ध्यान भूल गयीं। कृष्ण- होठों पर रखी मुरली की मधुर ध्वनि सुनते ही सभी गोपियाँ चकित हो गयीं (अथवा चकई की भाँति चंचल हो गयी। उस क्षण जो जिस अवस्था में थी, उसी में रह गयीं, परस्पर सुख-दुःख भी उनसे नहीं कहा जाता क्योंकि संगीत रस में डूबी होने से वाणी भी अवाक् हो गयी थी) सभी चित्र लिखित सी (स्तब्ध) हो गयी और पलभर को तो पलक झपकना भी बिसार दिया। मुरली के सहज गान में खोई और तल्लीन बनी इन गोपियों को कभी सुध थी तो कभी बेसुध (अथवा किसी को अपनी सुध थी तो कोई एकदम बेसुध बन गयी थी । उनको घर वापिस जाने की तनिक भी सुधि नहीं थीं। वे तो कानों से मुरली के शब्द को ही सुन रही थीं। उनको अपनी आँखों से अधिक मुरली प्यारी थी यद्यपि आँखें यदि शत्रु थीं तो यह मुरली सौत (की भांति कृष्ण के मुँह लगने वाली प्रिया)। गोपियाँ परस्पर कहने लगी कि यह मुरली तो अद्भुत जन्मी है (क्योंकि इसने सभी को एकदम विभोर कर दिया है)।
विशेष -
1. यहाँ पर मुरली का अतिशयोक्तिपरक प्रभाव दिखाया गया है जो पुष्टिमार्गीय मतानुयायी सूर के लिये स्वाभाविक ही था।
2. अलंकार- (क) उपमा लिखि बिसराइ (ख) अनुप्रास सुनत सबद
3. संयोग शृंगारान्तर्गत मुग्धावस्था, स्तंभ और जड़तादि अवस्थायें चित्रित हैं।
4. भावसाम्य
(क) मुरली सुनत देह गति भूलि, गोपी प्रेम-हिंडोरे झूली ।
कबहुँक चक्रित होहिं समानी, स्वेद चले द्रव जैसे पानी ।
कबहुँ सुधि कबहुँ सुधि नाहिं, कबहुँ मुरली नाद समाही।
नैना भए अनाथ हमारे नैना भए शब्दार्थ व्याख्या
नैना भए अनाथ हमारे ।
मदनगुपाल उहाँ तैं सजनी, सुनियत दूरि सिधारे ॥
वै समुद्र हम मीन बापुरी, कैसे जीवें न्यारे ।
हम चातक वै जलद स्याम-घन, पियतिं सुधारस प्यारे ॥
मथुरा बसत आस दरसन की, जोई नैन मग हारे ।
सूरदास हमको उलटि विधि, मृतकहुं तै पुनि भारे ॥
शब्दार्थ
भए = हो गये ।
उहाँ = वहाँ, मथुरा से
बापुरी = बेचारी
न्यारें = अलग
जलद = जल से भरे
जोइ = देखते, प्रतीक्षा करते।
मृतकहु = मरे हुए
पुनि = पुनः ।
प्रसंग -
कृष्ण के मथुरा-प्रवास के उपरान्त गोपियाँ वृन्दावन में ही अकेली रहकर कृष्ण-विरह में व्यथित रहने लगी थीं। किसी पथिक से उनको पता चला कि कृष्ण अब मथुरा को भी छोड़ दूर द्वारिकापुरी चले गये हैं फलतः गोपियों की कृष्ण-मिलन की आशा पर फिर पानी पड़ गया और वे और भी अधिक विरह-व्यथित हो उठीं। अपनी इसी अवस्था को स्पष्ट करते हुए कोई गोपी (अथवा राधिका) अपनी अंतरंग सखी से कहने लगी
व्याख्या -
(कृष्णा के चले जाने और दर्शन न कर पाने के कारण) हमारे नेत्र (स्वामी कृष्ण के अभाव में) अनाथ हो गये हैं । हे सखि ! सुनते हैं कि मदनगोपाल कृष्ण अब वहाँ (मथुरा) से कहीं दूर ( द्वारिका में) चले गये। ( अतएव अब तो उनसे मिलन होना और भी मुश्किल हो गया है। जब मथुरा से ही वे नहीं लौटे तो अब भला इतनी दूरी पर स्थित द्वारिका से क्या लौट पायेंगे)। वे यदि समुद्र हैं तो हम बेचारी मछलियाँ (जो जल में ही जीवित रह पाती है), अब भला दूर (अलग) रहकर कैसे जीवित रह सकती हैं? हम चातक (पक्षी की भाँति है) और वे (कृष्ण) जल से परिपूर्ण श्याम वर्ण वाले मेघ जिसके अमृतरस को हम (चातक की भाँति ही) पीती हैं। (कृष्ण के) मथुरा में रहते हुए तो (हमको) दर्शनों की आशा थी किन्तु अब (कृष्ण के द्वारिका पहुँच जाने के कारण) नेत्र तो रास्ता देखते-देखते (प्रतीक्षा करते-करते ) हार गये हैं। सच तो यह है कि विधाता ने हमारे लिये उल्टी स्थिति उत्पन्न कर दी है और (हम कृष्ण - विरह में पहले से ही) मरी हुई नारियों को पुनः मारा डाला है।
विशेष -
1. यहाँ पर वियोगान्तर्गत प्रेम की एकनिष्ठा - अनन्यता आदि भावनाओं तथा गुणकथन, उद्वेग आदि विरह-दशाओं का काव्यात्मक चित्रण है।
2. अलंकार- (क) उपमा- वै....प्यारे। (ख) रूपक और श्लेष स्याम घन, सुध गरस।
3. अन्तिम दो पंक्तियों में मुहावरों का सुन्दर प्रयोग कवि की भाषा कला का परिचायक है।
4. 'मदन गुपाल' तथा 'जलद स्याम घन' आदि शब्दों का सटीक और सार्थक प्रयोग है।
5. उपमानयोजना परम्परागत है।
उडुपति सौं बिनवति मृगनयनी उडुपति सौं बिनवति मृगनयनी
उडुपति सौं बिनवति मृगनयनी ।
तुम कहियत उडुराज अमृतमय, तजि स्वभाव कत बरषत बहनी ॥
उमापति- रिपु अधिक दहत हैं, हरि-रिपु-प्रीतम सुख नितैनी ॥
छपा न छीन होति सुनु सजनी, भूमि-घिसन रिपु कहा दुरैनी ॥
स्याम संदेस विचार करति हौं, कहाँ रहे हरि, छाइ जु छौनी ।
सूर स्याम बिनु भवन भयानक, जोहत रहति गोपाल की औनी ॥
शब्दार्थ -
उडुपति = नक्षत्रों का स्वामी, चन्द्रमा
विनवति = प्रार्थना करती हैं।
बहनी = वन्हि, अग्नि।
उमापति-रिपु = पार्वती के पति शिव का शत्रु, कामदेव
दहन = जलाता है।
हरि-रिपु = सर्प का शत्रु मयूर
नितैनी = पाताल।
छपा = रात्रि। भू
मिघिसन रिपु = भूमि पर रेंगने वाले साँप का शत्रु, गरुड़।
दुरैनी = छिप गया।
छौनी = किशौरी
जोहत = प्रतीक्षा
ओनी = आगमन।
प्रसंग-
कृष्ण के द्वारिका प्रवास के उपरान्त, वृन्दावन स्थित गोपियों की विरह व्यथा और भी अधिक बढ़ जात है। कृष्ण से हुआ विच्छेद और विरह-ग्रस्त स्थिति उनको पहले से भी अधिक व्याकुल करने लगती है। इसी स्थिति को प्रकट करते हुए कोई गोपी (अपने अथवा राधा के विषय में) अपनी सखी से कहती है.
व्याख्या-
(वह) मृग जैसे नेत्रों वाली ( नायिका, गोपी अथवा राधिका) नक्षत्रपति चन्द्रमा से प्रार्थना करती है कि हे चन्द्रमा! कहने के लिये (अथवा कहलाने वाले) तुम अमृतमय हो किन्तु अपने (दयालु) स्वभाव को छोड़कर अग्नि की वर्षा क्यों करते हो? ( भाव यह है कि संयोगकाल में अमृतमयी लगने वाली चन्द्रिका अब वियोगकाल में अग्नि की भांति जलाने वाली प्रतीत होने लगी है।) (ऐसे उद्दीपन वातावरण में) पार्वती के पति शिव का शत्रु अर्थात् कामदेव (मुझको कामोद्दीप्त करके) बहुत अधिक जलाता है ( काम व्यथित करता है)। ऐसे में सर्प- शत्रु गरुड़ के प्रियतम अर्थात् श्रीकृष्ण न जाने कहाँ पाताल में चले गये हैं। हे सजनी ! रात्रि भी नहीं घटती। भूमि पर रेंगने वाले सर्प के शत्रु न जाने कहाँ छिप गये हैं? मैं तो कृष्ण के संदेश पर ही विचार करती हूँ। न जाने वे कहाँ हैं, जिन्होंने मुझ किशोरी को छोड़ दिया है? श्यामवर्णीय कृष्ण के बिना तो मुझे अपना भवन भी भयानक प्रतीत होता है और मैं (इन्द्रियों को सुख देकर इनका पालन करने वाले) कृष्ण के आगमन की प्रतीक्षा करती रहती हूँ ।
विशेष -
1. यहाँ पर विरह का अतिशयोक्तिपरक चित्रण है।
2. काव्यशास्त्रीय दृष्टि से उन्मादावस्था को सजीव किया गया है।
3. नायिका का वागवैदग्ध्य दृष्टव्य है।
4. 'उमापति...दुरैनी' अंश कूटकाव्य का उदाहरण है।
5. अलंकार-(क) विरोधाभास- तुम .... बहनी । (ख) अतिशयोक्ति- सूरस्याम भयानक ।
6. यहाँ पर प्रकृति का विरहान्तर्गत उद्दीपक रूप में अंकन किया गया है।
भावसाम्य-
(क) कोउ, माई! बरजै या चंदहि ।
करत है कोप बहुत हम्ह ऊपर कुमुदनि करत अनंदहि || -सूरदास
(ख) हर को तिलक, हरि चित को दहत।
कहियत है उडुराज अमृतमय, तजि सुभाव मोको वह्नि बहत ॥
(ग) कलप समान रैनि तेहि बाढ़ी,
तिल तिल भर जुग जुग जिमि गाढ़ी।
गहै बीन मकु रैनि बिहाइ ।
(घ) ऐ रे मतिमन्द चन्द! आवत न तोहि लाज,
है के द्विजराज काज करत कसाई के ।
(ङ) औरे भाँति भयेव ये चौसर चन्दन चन्द
पति बिन अति पारस विपत मारत मारुतचंद ॥
(च) किस तरह से अब कटेगी जिन्दगी,
रात कटती नजर नहीं आती।
वायस गहगहात सुनि सुन्दरि बानि शब्दार्थ व्याख्या
वायस गहगहात सुनि सुन्दरि बानि विमल पूर्व दिसि बोली
आजु मिलावा होइ स्याम कौ, तू सुनि सखि राधिका भोली ॥
कुच भुज नैन अधर फरकत हैं, बिनहिं बात अंचल ध्वज डोली ।
सोचि निवारि, करौ मन आनन्द मानो भाग दसा विधि खोली ॥
सुनत बात सजनी के मुख की, पुलकित प्रेम तरकि गई चोली ।
सूरदास अभिलाषा नन्दसुत, हरषि सुभग नारि अनमोली ॥
शब्दार्थ
वायस= कौआ
गहगहात = गद्गद् होकर बोलना ।
विमल = मीठी।
मिलावा =मिलन।
कुच = वक्ष
अधर = होंठ
ध्वज = ध्वजा
निवारि = छोड़कर।
विधि = ब्रह्मा
सुभग =सुन्दर
तरकि = = तड़कना, खुलना
प्रसंग -
श्री कृष्ण के द्वारिका गमन के पश्चात् ब्रज का गोपी समाज एकदम विरह-व्यथित हो गया। इनमें सबसे अधिक व्यथित थी- राधा। किसी दिन श्रेष्ठ शकुन देख राधा की कोई अन्तरंग सखी प्रसन्न हो उठी। विरह-व्यथित राधा की सान्त्वना देते हुए वह कहने लगी
व्याख्या -
हे सुन्दरी (राधा) सुनो। पूर्व दिशा में कौआ गद्गद् होकर मीठी वाणी में बोल रहा है। हे भोली सखी राधा ! तू इसको सुन आज तेरा श्याम से मिलन अवश्य होगा। आज कुच, भुजा, नेत्र और होंठ अपने आप फड़क रहे हैं तथा बिना वायु के झोंके के आँचल रूपी ध्वजा फहराती है। (ये सभी प्रिय मिलन के शुभ लक्षण हैं।) अतएव चिन्ता छोड़कर मन में प्रसन्न हो ऐसा लगता है मानो ब्रह्मा ने तेरे भाग्य की दशा को खोल दिया है (अर्थात् तेरा भाग्योदय हो गया है)।
सखी के मुख से कही गयी इन सान्त्वनामयी) की बातों को सुनकर राधा प्रेम पुलकायमान हो गयी तथा उनकी चोली के बन्द टूट गये। नन्द के पुत्र कृष्ण से मिलन होने की अभिलाषा से भरकर वह सुन्दर और अनमोल नारी (राधा) हर्षित हो गयी।
विशेष -
1. लोक-नारी समाज में शकुन विचार की आम परिपाटी है। यहाँ कवि ने ऐसे ही कुछ लोक प्रचलित शकुनों का उल्लेख किया है जो एक ओर कवि के शकुन-परिचय के साक्षी हैं तो दूसरी ओर कवि की जनसमाज में गहरी पैठ तथा समकालीन नारी समाज के भी।
2. काव्यशास्त्रीय दृष्टि से यहाँ पर मिलनातुर नायिका का मर्मस्पर्शी चित्रण है।
3. अलंकार- (क) अनुप्रास - सुनि सुन्दरि, वानि विमल । (ख) रूपक - अंचल ध्वज। (ग) उत्प्रेक्षा - सोचि..... ..खोली । 4. 'पुलकित..... चोली' में सुन्दर अनुभाव चित्रण किया गया है। 1
4. भावसाम्य -
(क) मोरा रे अगनवा चनन केरि गछिया ताहि चढ़ि कुरुरय । - विद्यापति
(ख) पिय आया परदेस ते हिय हुलसि अति बाम।
टूट-टूट कंचुकि जियो करि कमनैति काम ॥ -रसराज
माधव या लगि है जग जीजत शब्दार्थ व्याख्या
माधव या लगि है जग जीजत।
जात हरि सौं प्रेम पुरातन, बहुरि नयौ करि लीजत ॥
कहँ हाँ तुम जदुनाथ सिंधु तट, कहँ हम गोकुलवासी।
वह वियोग यह मिलन कहाँ अब काल चाल औरासी ॥
कह रबि राहु कहाँ यह अवसर, विधि संजोग बनायी।
उहिं उपकार आजु इन नैननि, हरि दरसन सचु पायौ ।
तब अरु अब यह कठिन परय अति निमिषहु पीर न जानी।
सूरदास प्रभु जानि आपने, सबहिनि सौं रुचि मानी ॥
शब्दार्थ-
या लगि = इसीलिये
जीजत = जीवित है।
जाते = जिससे
बहुरि = पुनः
हाँ= कहाँ
औरासी = विलक्षण
विधि = भाग्य, ब्रह्मा
उहि = उसी
सचु = सुख।
निमिषहु = क्षण भर
पीर = पीड़ा
रुचि = प्रेम |
प्रसंग -
ब्रज का समुदाय कृष्ण से भेंट करने के लिये कुरुक्षेत्र जा पहुँचा। वहाँ पर कृष्ण से भेंट करते हुए ब्रज- समाज का कोई व्यक्ति कहने लगा.
व्याख्या -
हे माधव ! यह संसार इसलिये जीवित है जिससे कि हम अपने हरि के प्रति अपने प्रेम को फिर से नया कर लें। (भाव यह है कि कृष्ण से हमारा प्रेम जन्म-जन्मान्तर का है जो हमारे हर एक जनम में नया होता रहता है)। कहाँ तो तुम सिंधु-तट (द्वारिका) पर रहने वाले यदुराज तथा कहाँ हम गोकुल ग्राम के निवासी? फिर भी दोनों में कहाँ तो वह वियोग और कहाँ अब यह मिलन। वास्तव में, समय की गति बड़ी विलक्षण है। कहाँ तो सूर्य और कहाँ राहू ? (दोनों का परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं) लेकिन आज यह अवसर है कि दोनों का मिलन हो रहा है। विधि ने भी यह क्या संयोग बनाया है। कारण? उसी ब्रह्म ( द्वारा निर्मित संयोग रूपी) उपकार से हम अपने इन नेत्रों से हरि-दर्शन का सुख प्राप्त कर रहे हैं। तब (वियोग- काल में) और अब (मिलन-काल में) दोनों ही स्थितियों में यह (समझ पाना ) बड़ा कठिन है। अब तो क्षण भर को भी पीड़ा नहीं जान पड़ी। कारण? सूर के प्रभु कृष्ण ने सबको अपना जानकर प्रेमपूर्वक व्यवहार किया।
राधा माधव भेंट भई राधा माधव भेंट भई
राधा माधव भेंट भई ।
राधा माधव माधव राधा कीट, भृंग गति है जु गई ॥
माधव राधा के रंग राँचे, राधा माधव रंग रई ।
माधव राधा प्रीति निरन्तर, रसना करि सो कहि न गई ॥
बिहँसि कहयौ -हम तुम नहिं अन्तर यह कहिकै उन ब्रज पठई ।
सूरदास प्रभु राधा माधव ब्रज-बिहार नित नई-नई
शब्दार्थ
भई = हुई।
कीट भृंग = भृंग नामक कीड़ा
रांचे = रंगे
रई = हो गयी
रसना = जिह्ना, वाणी ।
बिहँसि = हँसकर
पठई = भेज दिया।
प्रसंग-
प्रिय कृष्ण से भेंट करने के लिये आये हुए ब्रज समाज में कृष्ण की अटल अनन्य बाल सखा राधा भी थी। दीर्घकाल के पश्चात् उसकी कृष्ण से भेंट हुई थी। निःसंदेह इस भेंट में राधा-माधव एकाकार हो गए। इसी भेंट-चित्रण और राधा-माधव पर हुई भेंट प्रतिक्रिया को अभिव्यक्त करते हुए कवि ने कहा है
व्याख्या -
(दीर्घ प्रतीक्षा और दीर्घ काल के पश्चात्) राधा और माधव (बसन्त जैसे मादक और सुन्दर कृष्ण ) की भेंट हुई। मिलते ही राधा माधवमय हो गई तो माधव राधामय (अर्थात् दोनों एक-दूसरे में खोकर एकाकार एकरूप हो गए। दोनों की अवस्था भृंग नामक कीट की भाँति हो गयी (अर्थात् दोनों एक हो गये) माधव राधा के रंग में रंग गये तो राधा माधव के । राधा और कृष्ण में पारस्परिक प्रीति निरन्तर बढ़ने लगी जिसका वर्णन जिह्वा या वाणी से भी नहीं किया जा सकता। कृष्ण ने हँसते हुए राधा से कहा कि 'हम-तुम में कोई अन्तर नहीं है, (दोनों अभिन्न हैं)। यह कहकर राधा को ब्रज वापिस भेज दिया। सूर के प्रभु राधा और माधव ब्रज में नित्य नया विहार करते हैं ( अर्थात् राधा-कृष्ण की ब्रज-विहार-लीला अनित्य है)।
विशेष -
1. इस पद का महत्त्व कई दृष्टियों से उल्लेखनीय है। काव्य-दृष्टि से यहाँ पर नायक-नायिका का अभेद भाव प्रतिपादित किया गया है तो कवि की पुष्टिमार्गीय विचारधारा के अनुकूल राधा-कृष्ण (ब्रह्म और जीव अथवा ब्रह्म और माया) का अनित्यत्व और अभेद ।
2. राधा-कृष्ण प्रेम के द्वारा प्रेम की आदर्श स्थिति यहाँ पर प्रकट की गयी है।
3. अलंकार- (क) पुनरुक्ति- राधा... राधा, नई-नई । (ख) उदाहरण - राधा.....गई। (ग) अतिशयोक्ति- रसना.. ..... गई।
4. 'राधा' और 'माधव' शब्दों का एकदम सटीक और सार्थक प्रयोग है जो कवि की अद्भुत शब्द-प्रयोगशक्ति का परिचायक है।
5. भावसाम्य -
(क) मिलन दुहुं तन कि वा अपरूप। - चंडीदास : पदावली
(ख) राधा सेय जब पुनतहि माधव, माधव सेय जब राधा...... ।
दुहि दिसि दाह दारून दगधई आकुल कीट कीट परागा ।
(ग) मोहि मोहि मोहन को मन भयो राधामय
राधा मन मोहि मोहि मोहन भई भई ॥
(घ) सूर स्याम नागर इह नागरि एक प्राण तनु द्वै ।
6. धार्मिक दार्शनिक प्रतीकत्व की दृष्टि से अन्तिम दो पंक्तियाँ महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि उसमें राधा-कृष्ण के साथ-साथ ब्रज और ब्रज-लीलाओं की अनित्यता के स्पष्ट संकेत दिये गये हैं।
7. यहाँ पर 'रंग राचे' और 'रंग रई' आदि ब्रजप्रदेशीय मुहावरों का एकदम काव्यात्मक और व्यंजनात्मक प्रयोग मिलता है जो कवि की भाषा समृद्धि और लोकज्ञान वैपुल्य का परिचायक है।
स्याममुख देखे ही परतीति शब्दार्थ व्याख्या
स्याममुख देखे ही परतीति ।
जो तुम कोटि जतन करि सिखवत जोग ध्यान रीति ॥
नाहिन कछू सयान ज्ञान में यह हम कैसे मानै ।
कहाँ कहा कहिये या नम को कैसे उर में आने ॥
यह मन एक, एक वह मूरति भृंगकीट सम माने ।
सूर सपथ दे, बूझत ऊधौ यह ब्रज लोग सयाने
शब्दार्थ-
परतीति = विश्वास।
कोटि = करोड़ों
सयान = चालाकी
नभ = शून्याकाश
उर = हृदय
भृंगकीट = बिलनी अथवा उपात्त नामक कीड़ा जो हर दूसरे कीड़े को अपनी ही तरह का बना लेता है।
सम= समान।
बूझत = पूछना।
व्याख्या -
श्यामल कृष्ण के मुख को देखकर ही हमको (उनके प्रेम पर) विश्वास है अथवा कृष्ण के मुख को देखकर ही हम (तुम्हारे द्वारा लाये गये) उस योग-संदेश पर विश्वास कर सकती हैं। जिस योग को तुम करोड़ों प्रकार से प्रयत्न करके हमको सिखा रहे हो उसके ध्यान-रीति पर हमको तभी विश्वास हो सकता है जबकि हम कृष्ण-मुख के दर्शन कर लें। तुम्हारे इस ज्ञान (उपदेश) में कोई चालबाजी नहीं है, यह बात हम किस प्रकार मान लें (क्योंकि) हमको तो तुम्हारा बार-बार योग का उपदेश देना चालाकी अथवा धूर्तता से भरा हुआ लगता है। तुम ही बताओ, इस शून्य (ब्रह्म) आकाश को हृदय में किस प्रकार धारण किया जा सकता है कारण? हमारा मन तो एक ही है और उसमें 1 केवल (कृष्ण की ही) एक मूर्ति बसी है। इस मूर्ति ने उपात्त कीट की भाँति हमारे मन को भी अपनी ही भाँति बना लिया है। हे उद्धव ! हम तुमको शपथ देकर पूछती हैं, तुम सच बताओ कि क्या हृदय में एक मूर्ति के रहते किसी दूसरे (ब्रह्म अथवा योग) का ध्यान किया जा सकता है? हम ब्रज के लोग बहुत सयाने हैं अतएव सोच-समझकर सच ही बताना।
विशेष -
1. यहां पर गोपियों का नारी वाग्वैदग्ध्य, अनन्य प्रेम-भाव और तर्क शक्ति एक साथ मुखर हुई मिलती है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि सूर नारी मनोविज्ञान के कितने बड़े कुशल चितेरे थे।
2. यहाँ पर उपमा (भृंगकीट), रूपकातिशयोक्ति ( कही..... आन ) अलंकार हैं।