सूरदास की भक्ति भावना
सूरदास की भक्ति भावना- प्रस्तावना ( Introduction)
भक्त प्रवर सूरदास भक्तिकाल की सगुणधारा के कृष्ण भक्त कवि हैं। वे वल्लभाचार्य के शिष्य थे तथा अष्टछाप के कवियों में सर्वप्रमुख थे। भक्ति के क्षेत्र में वल्लभाचार्य का साधना मार्ग 'पुष्टि मार्ग' के नाम से जाना जाता है। वल्लभाचार्य के पुष्टि मार्ग में दीक्षित होने से पहले सूरदास एक 'सन्त' थे जो सभी उपासना पद्धतियों, भक्ति प्रणालियों को समान भाव से देखते थे। उनके प्रारम्भिक पद विनय, आन्तरिक साधना, गुरु का महत्त्व, आदि से सम्बन्धित हैं, किन्तु पुष्टि मार्ग में दीक्षित होने के उपरान्त जो पद उन्होंने रचे वे प्रेमलक्षणा भक्ति से सम्बन्धित हैं। श्रीमद्भागवत के द्वितीय स्कन्ध में दशम अध्याय के अन्तर्गत 'पुष्टि' को परिभाषित करते हुए कहा गया है- पोषणं तदनुग्रह' अर्थात् ईश्वर का अनुग्रह (कृपा) ही पोषण है। भगवत्कृपा से ही भक्त के हृदय में भगवान के प्रति प्रेमलक्षणा भक्ति जाग्रत होती है।
पुष्टि मार्ग में तीन प्रकार के जीव माने गए हैं-
1. पुष्टि जीव जो भगवान के अनुग्रह पर विश्वास करते हैं और उनकी 'नित्यलीला' में प्रवेश पाते हैं।
2. मर्यादा जीव–जो वेद विहित मार्ग का अनुसरण कर स्वर्ग प्राप्त करते हैं।
3. प्रवाह जीव - जो संसार
के प्रवाह में पड़कर सांसारिक सुखों में लीन रहते हैं। इन तीनों में पुष्टि जीव ही
सर्वोपरि है। ईश्वर पर पूर्णतः निर्भर जीव ही उसके अनुग्रह का अधिकारी बनता है और
अन्त में 'नित्यलीला' में सम्मिलित होता है। गोपियों की प्रेम भक्ति
को पुष्टिमार्गी भक्ति का सर्वोत्तम उदाहरण माना गया है।
सूरदास की भक्ति भावना
महात्मा सूरदास ने अपना सर्वस्व कृष्ण के चरणों में अर्पित कर पुष्टि मार्ग को अपनाया था। भगवान श्रीकृष्ण परब्रह्म हैं और दिव्य गुण सम्पन्न पुरुषोत्तम हैं। वे कृष्ण स्वयं प्रेममय हैं। उन्होंने प्रेम के वशीभूत होकर ही ब्रह्म में अवतार लिया है। सूर ने प्रेम की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए भक्त की विकलता, अभिलाषा एवं विवशता का सुन्दर चित्रण किया है।
सूरदास की भक्ति 'सख्य भाव' की है जिसमें
भगवान के साथ भक्त का 'सखा भाव' रहता है। सूरदास ने
पुष्टिमार्गीय सेवा भाव को अपनाते हुए भक्ति के तीनों रूप गुरु सेवा, सन्त सेवा तथा
प्रभु सेवा को अपनी भक्ति भावना में स्थान दिया है। पुष्टिमार्ग में नित्य सेवा
विधि एवं वार्षिकोत्सव सेवा विधि का विशेष महत्त्व है। सूर ने प्रातःकाल से लेकर
शयनपर्यन्त भगवान की सेवा विधि का वर्णन अपने काव्य में किया तथा वार्षिकोत्सव
सेवा विधि के अन्तर्गत उन्होंने विभिन्न अवतारों का पूरा-पूरा वर्णन किया है।
पुष्टिमार्ग में तीन
आसक्तियां बताई गई हैं- 1. स्वरूपासक्ति 2. लीलासक्ति, 3. भावासक्ति ।
सूरदास ने लीलासक्ति को अपनाते हुए भगवान कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का गान अपने
पदों में किया है। सूरदास के गुरु वल्लभाचार्य जी ने उन्हें कृष्ण के लीला पदों का
गान करने का ही निर्देश दिया था इसीलिए सूर ने भक्ति विभोर होकर गोकुल से लेकर
मथुरा तक की समस्त कृष्णलीलाओं को अपने पदों का विषय बनाया है।
सूरदास ने सख्य भाव की
भक्ति को अपनाते हुए भी कृष्ण के प्रति नन्द-यशोदा के वात्सल्य भाव का तथा राधा
एवं गोपियों के दाम्पत्य एवं माधुर्य भाव की सुन्दर व्यंजना की है। गोपी लीला के अन्तर्गत
कृष्ण एवं गोपियों के जिस प्रेम का चित्रण सूरदास ने किया है उसमें उनकी भक्ति
भावना पराकाष्ठा पर पहुंची दिखाई पड़ती है।
सूर की भक्ति पद्धति का
मेरुदण्ड पुष्टिमार्ग ही है। भगवान का अनुग्रह ही भक्त का कल्याण करके उसे इस लोक
से मुक्त करने में सफल होता है:
जापर दीनानाथ ढरै ।
सोइ कुलीन बड़ौ सुन्दर सोइ जा पर कृपा करै
सूर पतित तरि जाय तनक में जो प्रभु नेक ढरै ॥
नारद भक्ति सूत्र में
आसक्तियों के एकादश रूप बताए गए हैं जिनमें से सूर का मन सख्यासक्ति, वात्सल्यासक्ति, रूपासक्ति, कान्तासक्ति और
तन्मयासक्ति में अधिक रमा है। कृष्ण गोपियों के हृदय में ऐसे गड़ गए हैं कि अब वे
किसी तरह निकलते ही नहीं, गोपियों की इसी 'तन्मयासक्ति' का वर्णन इस पद
में है':
उर में माखन चोर गड़े।
अब कैसेहूं निकसत नहिं
ऊधौ तिरछे हैजु अड़े ॥
'विरहासक्ति' को भ्रमरगीत के
पदों में देखा जा सकता है। भक्ति के दार्शनिक स्वरूप को ध्यान रखते हुए ने सूरदास
ने वल्लभाचार्य के 'शुद्धाद्वैतवाद' की मान्यताओं को ग्रहण
किया है। जीव को ब्रह्म का अंश मानते हुए वे उन दोनों का अद्वैत सम्बन्ध स्वीकार
करते हैं। जीव की दुरावस्था माया के कारण होती है। यदि माया का प्रपंच न हो तो जीव
शुद्ध एवं अविकारी है। माया के कारण ही जीव जगत के प्रपंच में फंसता है, इसीलिए सूर कृष्ण
से जो मायापति हैं, इस माया का निवारण करने का अनुरोध करते हैं:
माधवजी नेकु हटकौ गाय
वल्लभाचार्य ने जगत और संसार दोनों को पृथक्-पृथक् स्वीकार करते हुए जगत को सत्य और संसार को असत्य माना है। जगत ईश्वर की इच्छा से निर्मित ईश्वर के सत् अंश का विस्तार है जबकि संसार अविद्या के कारण उत्पन्न होता है और नश्वर है । कामिनी, कंचन, शरीर, भौतिक पदार्थ, वैभव ये सभी संसार है जबकि सृष्टि का अनादि प्रवाह जगत है । जगत ब्रह्म की शक्ति है जबकि संसार जीव की अविद्या का परिणाम है ।
सूर ने ‘सायुज्य मुक्ति' को महत्त्व दिया
है जिसमें जीव ईश्वर के साथ एकीभाव को प्राप्त हो जाता है। सूरदास वस्तुतः भक्त
कवि हैं अतः उनके पदों में दार्शनिक नीरसता के स्थान पर माधुर्य भाव से परिपूर्ण
भक्ति की सरस ही अधिक दिखाई पड़ती है । सूरदास की भक्ति रागानुगा भक्ति है जिसमें 'कर्मकाण्ड' का स्थान नहीं है
उनकी भक्ति भावना में सिद्धान्त पक्ष की अपेक्षा माधुर्य भाव की प्रबलता है इसीलिए
वह भक्तों को अधिक प्रिय है ।