कबीर की भाषा-शैली , कबीर की भाषा की प्रमुख विशेषताएँ
कबीर की भाषा-शैली प्रस्तावना (Introduction)
कबीरदास ने अपनी रचनाओं में पंजाबी, राजस्थानी, बघेली, ब्रजभाषा, खड़ीबोली, भोजपुरी, अरबी, फारसी, सिन्धी, गुजराती, बाँग्ला तथा मैथिली आदि अनेकानेक बोलियों तथा भाषाओं का प्रयोग किया है। इतनी भाषाओं के एक समान प्रयोग करने के कारण कबीर की भाषा का अध्ययन करने में एक सबसे बड़ी समस्या समीक्षकों के सामने यह आ खड़ी होती है कि उनकी भाषा का अध्ययन किस विशेष बोली अथवा भाषा को आधार मानकर किया जाए और उनकी बोली को क्या नाम दिया जाए? इस समस्या को स्वयं ही सुलझाते हुए समीक्षकों ने उनकी भाषा को एक विशिष्ट नाम दिया- 'सधुक्कड़ी अन्नकूट'। विद्वानों ने सधुक्कड़ी अन्नकूट को साधुओं की भाषा कहा है, जिसमें लिंग, वचन और कारक आदि का कोई बन्धन नहीं होता। इसमें विभिन्न बोलियों के शब्द, पद-विन्यास आदि ज्यों-के-त्यों अनगढ़ रूप में प्रयुक्त किए जाते हैं। इसका एक मुख्य कारण यह होता है कि ये साधुगण कहीं एक स्थान पर स्थायी रूप से नहीं रहते, वरन् विभिन्न भाषा-भाषी क्षेत्रों का भ्रमण करते रहते हैं, जिस कारण उन भाषाओं के शब्द और पद-विन्यास स्वाभाविक रूप से उनकी भाषा में आ जाते हैं।
कबीर की भाषा-शैली
कबीर की बहुआयामी भाषा को
सधुक्कड़ी के अतिरिक्त कोई अन्य नाम दे पाना वास्तव में दुष्कर है। कविता करना
क्योंकि कबीर का उद्देश्य न था; अतः उन्होंने उसकी भाषा पर कोई विशेष ध्यान
नहीं दिया। जो मुँह में आया, वही उनकी भाषा और कविता बन गया। वे अपनी आत्मा
की प्रेरणा के अनुसार कार्य करते थे। उनकी वाणी को सुगठित भाषा की आवश्यकता न होकर
भावों की आवश्यकता थी। कबीर के पदों में लगभग आधा दर्जन भाषाओं के शब्द उपलब्ध
होते हैं।
1 कबीर की भाषा और उसका वैविध्य
कबीर की भाषा में विभिन्न भाषाओं का सम्मिश्रण है। परशुराम चतुर्वेदी ने कबीर के काव्य से विभिन्न भाषाओं के निम्नलिखित उदाहरण प्रस्तुत किए हैं—
अवधी- “जब तूं तस तोहि कोई न जान।”
"तैसें नाचत मैं दुख पावा।
भोजपुरी— नाँ हम जीवत मुख न ले माँही
" X X X X
दाँत गैल मोर पान खात, केस गैल मोर गंग नहात
ब्रजभाषा — अपनापौ आपुन ही बिसरतौ
लोट्र्यों भौमि बहुत पछितानौं, लालचि लोगौ करत कनीं ।
खड़ीबोली-
करण किया करम का नाम
यह मन चंचल चोर है, यह मन सुद्ध ठगार
पंजाबी-
लूण बिलग्गा पाँणियां पाणि लूँण बिलग्ग
राजस्थानी-
क्या जाणों उस पीव कूँ, कैसे रहसी रंग
X X
बीछड़िया मिलियौं नहीं, ज्यौं काँचली भुवंग |
इस प्रकार हम देखते हैं कि कबीर की भाषा में विभिन्न भाषाओं का सम्मिश्रण है कबीर ने भाषा की ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया। भाषा में जो कुछ सौन्दर्य है, उनकी तीव्र अनुभूति के कारण हैं। विभिन्न आलोचकों ने कबीर की भाषा का मूल्यांकन विभिन्न प्रकार से किया है। किसी ने उसकी भाषा को ब्रज, किसी ने अवधी और किसी ने पंजाबी बताया है।
कबीर की भाषा क सम्बन्ध में आलोचकों के मत यहाँ प्रस्तुत हैं-
डॉ. श्यामसुन्दरदास - "कबीर ग्रन्थावली की भाषा पंचमेल खिचड़ी है।"
डॉ. बाबूराम सक्सेना - "कबीर अवधी के प्रथम संत कवि हैं।"
डॉ. सिद्धनाथ तिवारी- “हम जब उनकी आँखन देखी बातों से आगे बढ़ते हैं तो ऐसा लगता है कि कबीर भाषा का सरल पथ छोड़कर रूखड़े मार्ग पर यात्रा कर रहे हैं।"
डॉ. रामकुमार वर्मा - "कबीर ग्रन्थावली की भाषा में पंजाबीपन अधिक है।"
रेवरेन्ड अहमदशाह - "कबीर बीजक की भाषा बनारस, मिर्जापुर तथा गोरखपुर के आस-पास की बोली है।"
डॉ. उदयनारायण तिवारी- "कबीर की मूल वाणी का बहुत कुछ अंश उनकी मातृ-भाषा बनारसी बोली में ही लिखा गया था, किन्तु उनके पदों का पछाँह की साहित्यिक भाषाओं में रूपान्तर कर दिया गया है।"
डॉ. त्रिगुणायत ने कबीर की भाषा में विभिन्न भाषाओं के सम्मिश्रण के सम्बन्ध में लिखा है, "कबीर ने किसी एक भाषा का प्रयोग नहीं किया है। उनकी बोलियों में हिन्दी, उर्दू, फारसी आदि कई भाषाओं का सम्मिश्रण तो मिलता ही है, साथ ही साथ खड़ीबोली, अवधी, भोजपुरी, पंजाबी, मारवाड़ी आदि उप-भाषाओं का भी प्रचुर प्रयोग किया है।"
पूर्वी भाषा- कतिपय विद्वानों ने कबीर की भाषा को पूर्वी भाषा बताया है। कबीर की भाषा को पूर्वी भाषा मानने वालों का आधार सम्भवतः कबीर बीजक की निम्नलिखित साखी है-
बोली हमरी पूरब की, हमें लखै नहीं कोय
हमको तो सोई लखै, धुर पूरब का होय ॥
परन्तु वास्तव में कबीर की भाषा पूर्वी नहीं है। कबीर की भाषा में ब्रज, पंजाबी और राजस्थानी के बहुत अधिक शब्द मिलते हैं। परशुराम चतुर्वेदी ने उपर्युक्त साखी का आध्यात्मिक अर्थ लगाया है। 'कबीर साहित्य की परख' में उन्होंने इस साखी का अर्थ दिया है- “हमारा कथन मौलिक दशा से सम्बन्ध रखता है, जिस कारण हमें कोई समझ नहीं पाता। हमारी बात वही समझेगा, जिसे उसका अनुभव हो चुका है।"
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
ने कबीर की भाषा को 'सधुक्कड़ी' भाषा कहा है। वास्तव में
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का यह मत अन्य मतों की अपेक्षा कहीं अधिक संगत प्रतीत होता
है।
कबीर की भाषा की विविधरूपता के कारण-
- कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे, वे तन्मय होकर जो कुछ गाते थे, उनके शिष्य उनको लिपिबद्ध कर लिया करते थे। उन शिष्यों को भाषा से मोह न रहकर केवल भाव से मोह रहा होगा। शिष्यों ने अपने प्रदेश की भाषा के अनुसार उसको लिपिबद्ध कर लिया होगा। इस प्रकार अपने-अपने प्रदेश की भाषानुसार उन पदों में परिवर्तन कर लिया होगा। विभिन्न प्रदेशों के शिष्य उनके पास आया करते थे। अतः इस प्रकार भाषा में परिवर्तन होना स्वाभाविक ही है। कबीर के पूर्ववर्ती सन्तों ने भी अपने काव्य में अनेक भाषाओं का प्रयोग किया था।
- भाषा में विभिन्न भाषाओं के शब्दों के प्रयोग का एक कारण यह भी है कि सन्त कबीर देशाटन किया करते थे। जिस प्रदेश में वह जाते थे, उसी प्रदेश की भाषा के शब्द उनके काव्य में स्थान पा जाते थे; क्योंकि श्रोताओं को समझाने के लिए वे उस प्रदेश विशेष की भाषा के प्रचलित शब्दों का ही प्रयोग करते थे। इस प्रकार कबीर के काव्य में भाषाई विविधता है।
कबीर की भाषा की प्रमुख विशेषताएँ
(1) कबीर की भाषा सीधी-सादी और सरल है। कबीर की उलटबांसियाँ और पारिभाषिक शब्दों वाले पद अवश्य क्लिष्ट हैं। उन पदों को छोड़कर कबीर का समस्त साहित्य साधारण पढ़े-लिखे व्यक्ति की समझ में सरलता से आ जाता है। इस कारण कबीर की साखियों का इतना अधिक प्रचार है।
(2) उनका अधिकांश काव्य गेय है।
(3) कबीर की भाषा विषयानुकूल बदलती रहती है। जब वे मुसलमान सूफियों के सम्बन्ध में कुछ कहते हैं, तो उसमें अरबी और फारसी के शब्दों का अत्यधिक प्रयोग करते हैं; यथा
मियाँ तुम्हसौ बोल्यां वाणी नहीं आवै ।
हम मसकीन खुदाई बन्दे, तुम्हारा जसमन भावै ॥
अल्लाह अबील दीन का साहिब, जारे नहीं फुरमाया।
मुरसिद पीर तुम्हारे है को कहा थै आया ॥
इसी प्रकार जब वे हिन्दुओं के साधु-सन्तों के सम्बन्ध में कुछ
टिप्पणी करते हैं तो वे हिन्दी के तद्भव शब्दों का प्रयोग करते हैं; यथा
निरवैरी निहकामता, साँई सेती नेह ।
विषिया न्यारा रहै, सन्तनि का अंग एह ॥
(4) कबीर ने व्याकरण के
नियमों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया है डॉ. सिद्धनाथ तिवारी ने लिखा है- "जब हम
उनकी आँखिन देखी बातों से आगे बढ़ते हैं तो ऐसा लगता है कि कबीर भाषा का सरल पथ
छोड़कर रूखड़े मार्ग पर यात्रा कर रहे हैं।"
(5) कबीर की भाषा की
प्रशंसा करते हुए कबीर साहित्य के मर्मज्ञ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है
“भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने
जिस रूप में प्रकट करना चाहा, उसे उसी रूप में भाषा में कहलवा दिया है-बन गया
है तो सीधे-सीधे नहीं तो दरेरा देकर। भाषा कबीर के सामने कुछ लचर-सी नजर आती है।
उसमें मानो हिम्मत ही नहीं है कि इस लापरवाह फक्कड़ की किसी फरमाइश को न कर सके, और अकथ कहनी को
रूप देकर मनोग्राही बना देने की जैसी ताकत कबीर की भाषा में हैं, वैसी बहुत कम
लेखकों की भाषा में पाई जाती है।"
2 कबीर की शैली और उसका वैविध्य
कबीर की शैली भी भाषा की
भाँति अनिश्चित-सी है। शैली में विविधरूपता है। कबीर का समस्त काव्य मुक्तक शैली
में रचा गया है। कबीर के काव्य में गेय पदों की प्रधानता है। कबीर भक्त पहले हैं
और कवि बाद में । अतः वे मस्त होकर तन्मयता के साथ गाते हैं तो उनको किसी बात का
ध्यान ही नहीं रहता है। उनकी रचनाओं में हमें निम्नलिखित प्रमुख शैलियों के दर्शन
होते हैं
(क) खण्डनात्मक शैली-
कबीर
की शैली के ऊपर उनके व्यक्तित्व की स्पष्ट छाप है। जब कबीर पण्डित, मुल्ला, वामपन्थी और
अवधूतों को फटकारते हैं तो उनकी शैली बड़ी सबल और सशक्त हो जाती है। कबीर ने
प्राचीन रूढ़ियों और अन्धविश्वासों का कड़ा विरोध किया। इस प्रकार के वर्णन में
शैली का तीखापन द्रष्टव्य है। इस प्रकार की शैली मर्म पर सीधी चोट करती है। उस
शैली को खण्डनात्मक शैली कहते हैं।
(ख) उपदेशात्मक शैली -
हिन्दू-मुसलमानों को उपदेश देते समय वे अपने विचारों को अत्यन्त सरल और सीधे-सादे
ढंग से व्यक्त करते थे, ताकि श्रोतागण उसको सरलता से समझ सकें। वे
हिन्दुओं को उपदेश देते समय शुद्ध हिन्दी के और मुसलमानों को उपदेश देते समय फारसी
शब्दों का प्रयोग करते थे। कबीर की यह उपदेशात्मक शैली सीधी-सीधी तथा सरल है।
(ग) अनुभूति - व्यंजक शैली -
कबीर की तीसरे प्रकार की शैली अनुभूति-व्यंजक है। यह कबीर की साहित्यिक शैली है। यह शैली गीतिकाव्य के समस्त लक्षणों से परिपूर्ण है। इसमें अनुभूति की अतुल गहराई है। इस शैली में माधुर्य गुण सर्वथा दृष्टिगोचर होता है।
इस शैली के सम्बन्ध में 'कबीर काव्य
कौस्तुभ' में एक स्थान पर लिखा है, "इस शैली में सन्त
की कोमलता, व्यंजना की प्रौढ़ता, साधन की कातरता, स्वानुभूति का
सफल अंकन तथा अलंकारों एवं प्रतीकों का मार्मिक प्रयोग है, जो उनके काव्य को
अलौकिक बना देता है।"
भाषा की शब्द-शक्ति-
कबीर ने अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना तीनों प्रकार की शब्द-शक्तियों का प्रयोग अपने काव्य में किया है। कबीर के लाक्षणिक प्रयोग देखते ही बनते हैं-
काजल केरी कोठरी, मसि के कर्म कपाट ।
पाहनि बोई पृथमी, पंडित पाड़ी वाट ॥
उलटबांसियों और प्रतीकों
के प्रयोग में शैली अस्पष्ट होते हुए भी चमत्कारपूर्ण है।
अलंकार -
कबीरदास
अलंकारों के पण्डित नहीं थे। उन्होंने अपनी वाणी को कभी-भी सजाने, सँवारने का
प्रयत्न नहीं किया। उनकी काव्य-प्रतिभा के कारण स्वभावतः ही उसमें रमणीयता आ गई
है। कबीर की विशेषता अपने रूपकों के लिए प्रसिद्ध है। कबीर के रूपक मौलिकता लिए
हुए हैं-
नैनों की कर कोठरी, पुतली पलंग बिछाय ।
पलकों की चिक डारिकै, पिय को लिया रिझाय ॥
कबीर के रूपकों के
सम्बन्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 'हिन्दी साहित्य के इतिहास' में लिखा है-
“उन्होंने हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद के कुछ सांकेतिक शब्दों (चन्द, सूर, नाद, बिन्दु, अमृत, पौधा, चुवा आदि) को
लेकर अद्भुत रूपक बाँधे हैं, जो सामान्य जनता की बुद्धि पर पूरा आतंक जमाते
हैं।"
सन्त कबीर ने उलटबाँसियों
में मुख्यतया विरोधालंकार - विरोधाभास, विभावना, विशेषोक्ति
असंगति आदि अलंकारों का प्रयोग किया है। इनके अतिरिक्त कबीर के काव्य में
उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास, काव्यलिंग, दृष्टान्त
अलंकारों की भी कमी नहीं है। कबीर ने अन्योक्तियों का प्रयोग भी बड़े सुन्दर ढंग
से किया है; यथा आदि
"काहे री नलिनी तू कुम्हिलानी
तेरे ही नाल सरोवर पानी ॥
"
इस प्रकार कबीर के काव्य
में अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग दृष्टिगोचर होता है ।
छन्द-विधान
- कबीर का समस्त काव्य मुक्तक रचना है। कबीर के काव्य में गेय पदों की प्रधानता है। कबीर ने अनेक छन्दों का प्रयोग किया है, परन्तु उनमें साखी, सबद और रमैनी प्रमुख हैं। कबीर ने साखियों का सर्वाधिक प्रयोग किया है। साखी दोहों से मिलती-जुलती है। साखी का अर्थ है- साक्ष्य का साक्षात् अनुभव । साखी का प्रयोग कबीर से पहले भी होता आ रहा था। कबीर ने स्वयं कहा है 'पद गाए मन हरसिया, साषी कह्या आनन्द ।' साखी और दोहे के अन्तर को स्पष्ट करते हुए पं. परशुराम चतुर्वेदी ने लिखा है- “साखियों की रचना प्रायः दोहा नामक छन्द से ही की गई पाई जाती है, किन्तु कबीर साहब की सभी साखियाँ केवल इसी रूप में नहीं दिखतीं। इसमें न केवल सोरठे मिलते हैं, अपितु इनमें दोहा, चौपाई, हरिपद तथा छप्पय जैसे छन्दों के भी उदाहरण मिल जाते हैं।” इसके अतिरिक्त कबीर ने चैती, कहरवा, चाँचर, हिंडोला, बसन्त होली आदि छन्दों का भी प्रयोग किया है।
कबीर का महत्त्व -
साहित्यकार अपने युग का प्रतिनिधि होता है। कबीर एक असाधारण व्यक्तित्व लेकर जनता
के समक्ष आए। कबीर युगद्रष्टा और क्रान्तिद्रष्टा महात्मा थे। हजारीप्रसाद
द्विवेदी ने कबीर के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में लिखा है- "हिन्दी - साहित्य
के हजारों वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई कवि उत्पन्न नहीं
हुआ। महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वन्द्वी जानता है-तुलसीदास
।" कबीर स्वतन्त्र प्रवृत्ति के कलाकार थे। वे सन्त पहले थे और कवि बाद में ।
सन्त कबीर अपनी आत्मा के अनुचर थे। उन्होंने अपने सिद्धान्तों को जनभाषा में ही
लोगों तक पहुँचाया। कबीर के समय तक भाषा कोई स्थायी रूप ग्रहण नहीं कर सकी थी।
उसमें निखार आ रहा था। निर्गुण धारा के साहित्य में काव्य सिद्धान्तों का पालन
करने वाली प्रवृत्ति दृष्टिगोचर नहीं होती । कबीर ने सर्वप्रथम भाषा को साहित्यकला
का जामा पहनाया। बाद में वही भाषा परिष्कृत और परिमार्जित होकर साहित्य का माध्यम
बन गई। कबीर धार्मिक आडम्बर और मिथ्या अन्धविश्वासों का कड़ा विरोध करके अपने सन्त
मत के सिद्धान्तों को जन-भाषा में ही जनता के सामने लाए।