तुलसीदास का काव्यात्मक योगदान
प्रस्तावना (Introduction)
गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी
काव्य-गगन के सर्वाधिक दैदीप्यमान नक्षत्र हैं। उनकी प्रतिभा और पाण्डित्य का
प्रभाव देश-काल की सीमा का अतिक्रमण का आज सर्वकालिक और सार्वभौम होकर सर्वत्र
व्याप्त हो गया है। उनकी काव्यकृतियाँ अपनी प्रभूत भावसामग्री, अनुपम अभिव्यक्ति
पद्धति, समृद्ध भाषाशैली, प्रचुर कल्पना-सृष्टि, अद्भुत
वस्तुविन्यास और उत्कृष्ट कला-कौशल के कारण हिन्दी काव्य में सर्वश्रेष्ठ समझी
जाती हैं।
तुलसीदास की लेखन कुशलता
तुलसी मूलतः भक्त और संत
कोटि के साधक थे। काव्य-रचना के मूल में भी उनकी आत्मोद्धार की प्रेरणा ही प्रधान
है। इस प्रकार कविता उनका साधन है और साध्य-रामभक्ति। इस साधन को तुलसी ने इतना
पूर्ण और समर्थ बना दिया है कि भक्ति और साहित्य के क्षेत्र में वे अद्वितीय बन गए
हैं।
अपनी रचना में तुलसी ने
प्रायः सभी रसों भावों का वर्णन किया है अपने भावों की विशद व्यंजना के लिए
उन्होंने उपमा, उत्प्रेक्षा आदि सहज अलंकारों को उनके नैसर्गिक रूप में ही
ग्रहण किया है। तुलसी के काव्य में उपमा और उत्पेक्षा का सहज-समीचीन प्रयोग
दर्शनीय है
सोभित छींट छटा निज ते तुलसी प्रभु सौहैं महाछवि छूटी।
मानौ मरक्कत सैल विसाल
में फैलि चली वर वीर बहुटी ॥
गोस्वामी जी ने भावों की
उत्कर्ष-व्यंजना में, वस्तुओं का अनुभव तीव्र करने में तथा
गुण-क्रिया आदि की अनुभूति को व्यापकता देने में सहायक रूप में भी अलंकारों का
यथास्थान प्रयोग किया है।
भाषा और शैली की दृष्टि
से भी तुलसी अप्रतिम हैं। अवधी और ब्रजभाषा दोनों पर समर्थ अधिकार उनकी रचनाओं से
स्पष्ट है। विनम्रतावश उन्होंने अपनी भाषा को 'गँवारू' अवश्य कहा है
परन्तु वास्तविकता यह है कि अवधी भाषा का जैसा प्रांजल, परिमार्जित और
प्रवाहपूर्ण प्रयोग उन्होंने किया है, वैसा उनके पूर्ववर्ती
अथवा परवर्ती किसी कवि द्वारा संभव नहीं हुआ है। ब्रजभाषा के शब्दों का नैसर्गिक
प्रयोग भी उन्हें सिद्ध था। उनकी सहज ब्रजभाषा देखकर उनके अवधवासी और काशीवासी
होने में आश्चर्य होता है। ब्रजभाषा के सहज प्रयोग का एक उदाहरण दर्शनीय है
राम सों बड़ो है कौन मो सों कौन छोटो ।
राम सों खरो है कौन मो
सों कौन खोटो ॥
तुलसी ने शब्द-शक्तियों
का भी साधिकार और समीचीन प्रयोग किया है। अभिधा का सुन्दर प्रयोग तो सर्वत्र हुआ
ही है, लक्षणा और व्यंजना का भी सहज प्रयोग हुआ है-
सुनि विलाप सुखहु दुःख लागा। धीरज हू कर धीरज भागा।
यहाँ लक्षणा का और
सेवत तोहि सुलभ फल चारि वरदायिनि त्रिपुरारि पियारी
में व्यंजना के प्रयोग से
भावाभिव्यक्ति और विषय-विकास को सहयोग मिला है।
भावानुरूप नैसर्गिक छवि
को छन्दों में समा देने में प्राप्त सफलता में गोस्वामी जी छन्दविधायक कवि सिद्ध
होते हैं। 'मानस' के सोपानों के प्रारम्भ और अंत में तुलसी ने
विविध वृत्तों में संस्कृत श्लोकों का प्रयोग किया है। शेष ग्रंथ की रचना चौपाई और
दोहे छन्दों में हुई है। कहीं-कहीं सोरठे का भी प्रयोग हुआ है। दोहों और चौपाइयों
के बीच कहीं-कहीं हरिगीतिका छन्द की छटा भी देखने को मिल जाती है। 'कवितावली' में सवैया, मनहरण, घनाक्षरी, छप्पय और झूलना
आदि छन्दों का तथा 'वैराग्यसन्दीपनी' में दोहा, सोरठा और चौपाई
का प्रयोग हुआ है। कवि के विषयोपयुक्त छन्दों के सफल प्रयोग को देखकर इन छन्दों पर
उसके अधिकार का सहज ज्ञान हो जाता है।
इस प्रकार तुलसी की लेखन
कुशलता सचमुच की अप्रतिम और स्पृहणीय है। हरिऔध की यह उक्ति सर्वथा उपयुक्त ही है
कविता करके तुलसी न लसे, कविता लसी पा
तुलसी की कला ।
तुलसीदास का काव्यात्मक योगदान
तुलसी मुख्य रूप से
प्रबंधकाव्य-प्रणेता महाकवि हैं, परन्तु उनकी प्रतिभा का क्षेत्र सीमित नहीं है।
काव्य के प्रसाधन और समस्य आवश्यक उपकरण जुटाने-सँवारने में उन्हें अपूर्व सफलता
मिली है। प्रबंधकाव्य की मूलभित्ति कथा या वस्तु है। कथा का यथोचित विन्यास कवि की
सफलता का निर्णायक तत्त्व होता है। महाकाव्य की व्यापक परिभाषा के अन्तर्गत अन्य
तत्त्व हैं-चरित्र-चित्रण, रस-निरूपण, प्रकृति-वर्णन, मर्यादा स्थापन, लोक-संरक्षण, आद्योपान्त
आकर्षण । तुलसी के 'मानस' में इन सभी तत्वों की
परिपूर्णता मिलती है।
कथा- कौशल की दृष्टि से 'रामचरितमानस' इतना पुष्ट है कि
उसका प्रचार-प्रसार उसके मूलाधार ग्रंथों से भी अधिक है। इस ग्रंथ में कवि का
ध्यान मुख्य रूप से राम पर रहा है और उसी के आश्रय से रस की पुष्टि हुई है। तुलसी
के 'मानस' की कथावस्तु इतनी सुसज्जित और सन्तुलित रही है
कि वह राम-महिमा के विस्तार के साथ जन साधारण का अतुलनीय मनोरंजन करने में अपार
आकर्षण जुटाने में तथा अमित कल्याण साधन करने में समर्थ हुई है।
तुलसी मूलतः भक्त थे। गंभीर चिन्तक एवं प्रकाण्ड पण्डित होते हुए भी उनका वास्तविक रूप भक्त का था । उनकी भक्ति दास-भाव की थी, जिसमें अनन्य अनुराग होते हुए भी स्वामी के प्रति संभ्रम का भाव था। श्रद्धाव की अनिवार्य स्थित को बनाए रखने के कारण तुलसी की रामभक्ति में सात्त्विकता बनी रही, कलुषता नहीं आने पायी भक्त के रूप में भी उनका उल्लेखनीय योगदान समन्वय - भावना और उदारता है। भक्ति को गौरव देते हुए भी उन्होंने स्वातन्त्र्योत्तरकाल में आकर तुलसी - विषयक नई-नई सामग्री प्रकाश में आयी, नई-नई स्थापनायें हुई। यहाँ तक कि उनको 'हिन्दू समाज के पथभ्रष्टक' जैसे नाम दिए गए। कहना न होगा कि दोनों ही पक्ष 'अतिकर और एकांगी' हैं। सत्य तथ्य को पहचानने, सामान्य पाठक की शंकाओं - जिज्ञासाओं का समाधान करने, तटस्थ निर्लिप्त होकर निष्कर्ष स्थापित करने तथा उससे अधिक वास्तविकता को स्थापित करने के लिए 'तुलसी और उनके साहित्य' का निष्पक्ष मूल्यांकन आवश्यक? है ।