सूरदास के काव्य का कला-पक्ष
सूरदास के काव्य का कला-पक्ष
कला-पक्ष का अभिप्राय अभिव्यक्ति पक्ष से होता है। कवि ने जो कुछ अनुभव किया; उसे उसने कितने सुन्दर ढंग से अभिव्यक्त किया, यह कला-पक्ष का विषय है। साधारणतः कला-पक्ष में निम्नलिखित बातों पर विचार किया जा सकता है-
(i) भाषा (ii) चित्रमयता, (iii) अलंकार-योजना, (iv) छन्द, (v) शब्द-शक्तियाँ, (vi) गुण, (vii) मुहावरे और
(i) सूरदास के काव्य की भाषा
काव्य में भाषा का स्थान महत्त्वपूर्ण है। सूर ने अपने इष्टदेव कृष्ण की विहार-भूमि ब्रज की भाषा को ही अपने काव्य की भाषा बनाया है। सूर की भाषा में कोमलकान्त पदावली, भावानुकूल शब्द चयन, धाराप्रवाह, सजीवता, सप्राणता आदि मुख्य विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। सूर ने अपनी भाषा को विविध प्रकार के शब्दों द्वारा समृद्ध किया है। सूर की विशेषता यह है कि उन्होंने विदेशी शब्दों को भी देशी भाषा के रस में सिक्त कर, उन्हें काव्य-सौष्ठव बढ़ाने की क्षमता देकर प्रयुक्त किया है। नीचे विविध प्रकार के शब्दों के कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं
तत्सम शब्द -
- खगपति, अभिराम, पन्नग, मुकुलित, सायक, सत्वर, त्राहि-त्राहि, वसुधा, पिनाक, करम, दम्पती, निरालम्ब, भगिनी, नारिकेल, प्रतीत, कलेवर, कलत्र, चिबुक, जलज, परिवेश आदि ।
तद्भव शब्द-
- अनुभवत, कोखि, काठ, आखर, औसर, मोक्त, लिलार, तिप, जदपि, कोरा, जीभ, जलज, धरनी, खम्ब, भौन, बीता, मसान, मूसे आदि ।
ग्रामीण शब्द-
- टकटोरत, डहकावै, डाटे, ढोरत, धुकधुकी, मूड करतूति, दूकि आदि ।
अनुकरणात्मक शब्द-
- अनुकरणात्मक शब्दों की विशेषता यह है कि उनकी ध्वनि ही अर्थ को बहुत कुछ व्यक्त कर देती हैं। उदाहरणतः, किलकिलात, टनटनात, अरूरात, घहरानि, भहरात आदि।
विदेशी शब्द-
- सूर के काल में फारसी राजभाषा थी। अतः सूर ने फारसी शब्द अपनाने में हिचक नहीं की। सूरकाव्य में प्रयुक्त अरबी, फारसी के कुछ शब्द इस प्रकार हैं फारसी-आवाज, आब, चुगली, दरबार, दाग। अरबी- अगल, आखिर, आदमी, अरज, गरीब।
(ii) सूरदास के काव्य की चित्रमयता -
सूर की भाषा की एक विशेषता उसकी चित्रात्मकता है। वे जिस बात या घटना का वर्णन करते हैं, उसका एक चित्र- सा खड़ा कर देते हैं। सूर के काव्य में विविध प्रकार के चित्र मिलते हैं, जैसे रूप-चित्र, भाव-चित्र, स्वभाव-चित्र, संश्लिष्ट चित्र; यथा-
खेलत मैं को काकी गुसैयाँ
हरि हारे जीते श्रीदामा, बरबस हीं कत करत रिसैयाँ ॥
जाति-पाँति हमतें बड़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छैयाँ ।।
(iii) सूरदास के काव्य की अलंकार योजना-
सूरसागर में सभी अलंकारों के उदाहरण मिल जाते हैं। जहाँ एक ओर सूर सरल भाषा में भाव व्यक्त करने की क्षमता रखते हैं, वहीं दूसरी ओर भाषागत चमत्कार लाने के लिए अप्रस्तुत योजना का भी सफलतापूर्वक निर्वाह कर लेते हैं। सूर ने सांगरूपक का सबसे अधिक प्रयोग किया है। इसके अतिरिक्त सूरदास ने निम्नलिखित अलंकारों का भी प्रयोग किया है-
विरोधाभास, यथासंख्य, विभावना, अन्योक्ति, समासोक्ति, प्रतीप, सन्देह, प्रतिवस्तूपमा, वक्रोक्ति, भ्रान्तिमान्, श्लेष, अनुप्रास, व्यतिरेक, परिकर, पर्यायोक्ति, परिसंख्या, उत्प्रेक्षा और उपमा आदि । कुछ अलंकारों के उदाहरण देखे जा सकते हैं -
रूपक - हमारे हरि हारिल की लकड़ी
उपमा एवं उत्प्रेक्षा - कदली दल सी पीठि मनोहर, सो जनु उलटि दई
रूपकातिशयोक्ति
अद्भुत एक अनुपम बाग।
जुगल कमल पर गजबर क्रीड़ति, तापर सिंह करत अनुराग ॥
अतिशयोक्ति
सीतलचन्द अगिनि सम लागत, कहिए धीर कौन विधि धरिबौ ।
अन्योक्ति
मधुकर पीतवदन केहि हेंत ।
जनु अन्तर मुख पांडु रोग भयौ, जुबतिन जो दुःख देत ॥
(iv) सूरदास के काव्य में छन्द-
सूर के काव्य में छन्द-वैविध्य है। सूर के काव्य में पिंगलशास्त्रीय छन्दों की अपेक्षा संगीतशास्त्रीय राग-रागनियाँ ही अधिक हैं। उन्होंने जितनी राग-रागनियों का प्रयोग किया है उनमें से बहुत-सी राग-रागनियों का तो अभी तक नामकरण भी नहीं हो पाया है। सूर ने 'पद' का अधिक प्रयोग किया है।
(v)सूरदास के काव्य में शब्द - शक्तियाँ -
सूर ने तीनों प्रकार की शब्द-शक्तियों अभिधा, लक्षणा और व्यंजना का सफल प्रयोग किया है। सूर का काव्य लक्षणा शक्ति के लिए बहुत प्रसिद्ध है। कहावतों के प्रयोग में लक्षणा शक्ति का सौन्दर्य सबसे अधिक निखरता है। लक्षणा शक्ति के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं
(1) दाख छाड़ि के कटुक निबौरी को अपने मुख खेहै।
(2) मधुबन तुम क्यौं रहत हरे
सूर के काव्य में व्यंजना शक्ति के भी पर्याप्त स्थल हैं; जैसे
(1) बिलगि जनि मानौ ऊधौ कारे।
वह मथुरा काजर की ओबरि, जे आवें ते कारे।।
(2) प्रकृति जोइ जोके अंग परी ।
स्वान-पूँछ कोटिक जा लागै सूधि न काहु करी ।।
(3) नन्द ब्रज लीजै ठोकि बजाइ ।
(vi) गुण
काव्य के प्रमुख गुण तीन माने गए हैं-माधुर्य, ओज और प्रसाद। 'साहित्य-लहरी' और 'सूरसागर' के दृष्टकूट पदों को छोड़कर प्रायः सर्वत्र सूर-काव्य में माधुर्य गुण का बाहुल्य है। ओजगुण अपेक्षाकृत कम ही है; यथा
(1) किलकत कान्ह घुटुरुवन आवत ।
मनिमय कनक नन्द के आँगन, मुख प्रतिबिम्ब पकरिबे धावत ।।
(2) साँवरेहि बरजति क्यौ जु नहीं ।
कहा करौं दिन प्रति की बातें, नाहिंन परतिं सही ।।
(vii) सूरदास के काव्य में मुहावरे और लोकोक्तियाँ-
सूरकाव्य में प्रयुक्त लोकोक्तियाँ व मुहावरे भाषा की रूढ़ता के माध्यम न होकर सशक्त अभिव्यंजना के प्रसाधन हैं। उनसे सूर के भाषा समृद्धि, उनके सामाजिक अनुभव व सामाजिक पर्यवेक्षण का ज्ञान होता है। सूर ने लोकोक्तियों और मुहावरों का बड़ा सफल प्रयोग किया है। कुछ उदाहरण नीचे दिए जा रहे हैं
मुहावरे -
( 1 ) ........ बकती कहा बाँसुरी कहि कहि ।
(2) ..आँख धूरि की दीन्हीं ।
(3) ... जिय उमगत ।
(4) ... तारे गिनत ।
लोकोक्ति -
( 1 ) जाहि लगै सोई पै जाने ।
(2) अपने स्वारथ के सब कोऊ ।
( 3 ) कथा कहत मासी के आगे, जानत नानी नानन ।
(4) जाके हाथ पेड़ फल ताको ।
इस प्रकार भाव और कला पक्ष दोनों दृष्टियों से सूर का काव्य समृद्ध है शृंगार और वात्सल्य के तो वे सम्राट हैं। भक्ति, दर्शन, वाग्वैदग्ध्य और प्रकृति-चित्रण में भी वे अनूठे हैं । भाषा के सैद्धान्तिक ( शब्द भण्डार व मुहावरे ) और व्यावहारिक (गुण, शब्द- शक्ति) पक्षों की दृष्टि से भी उनका काव्य सफल है.
उनकी प्रशंसा करते हुए आलोचकों ने यहाँ तक कह दिया है
तत्त्व-तत्त्व सूरा कही, तुलसी कही अनूठी ।
बची खुची कबिरा कही, और कही सो जूठी ॥