भ्रमरगीत-2 उद्धव का ब्रज में जाना ( भ्रमरगीत - सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या)
कोऊ आवत है तन स्याम सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
कोऊ आवत है तन स्याम ।
बैसेई पट वैसिय रथ बैठनि वैसिव है उर दाम
जैसी हुतिं उठि तैसिय दौरी, छांड़ि सकल गृहकाम ।
रोम पुलक, गदगद भइ तिहिछन सोचि अंग अभिराम ॥
इतनी कहत आय गए ऊधो, रही ठगी तिहि ठाम ।
सूरदास प्रभू क्यों ह्याँ आवै बँधे कुब्जा रस स्याम ॥ 13 ॥
शब्दार्थ -
वैसेइ = वैसे ही
दाम = माला
छन=क्षण
अभिराम = सुन्दर
ठाम = जगह, ठौर स्थान
कुब्जा-रस = कुब्जा के प्रेम ।
व्याख्या -
उद्धव को दूर से देखकर गोपियाँ कह रहीं हैं कि कोई कृष्ण की भाँति ही श्याम शरीर का आ रहा है। उसके वस्त्र वैसे ही हैं अर्थात् जिस प्रकार श्रीकृष्ण पीताम्बर को धारण किया करते थे वैसे ही इस नये आने वाले व्यक्ति ने (उद्धव ने वस्त्र धारण कर रखे हैं। वह रथ में उसी प्रकार से बैठा हुआ है। उसके गले में उसी प्रकार माला भी शोभा दे रही है। राह देखते ही गोपियों जैसी स्थिति में थीं वैसे ही उठ खड़ी हुई और अपने घर के सब कामों को छोड़कर दौड़ पड़ीं। उनके शरीर में रोंगटे खड़े हो गये, कंठ गद्गद हो गया और वे उस क्षण श्रीकृष्ण के सुन्दर अंगों का स्मरण करने लगीं। कहने का तात्पर्य यह है कि श्रीकृष्ण के रूप का स्मरण हो आया और वे प्रेम-विभोर हो गयीं। इसी बीच में उद्धवजी उनके पास तक पहुँच गये। उन्हें देखकर गोपियों ने उद्धव को श्रीकृष्ण समझ लिया था इसीलिए उनकी आतुरता और उत्सुकता बलवती हो गई थी, पर उद्धव हो देखकर वे स्तब्ध रह गयीं कि यह व्यक्ति तो कोई दूसरा ही आ निकला। सूरदास कहते हैं कि इसके पश्चात् गोपियाँ कृष्ण के प्रति उलाहनापूर्ण शब्द व्यक्त करने लगीं कि वे यहाँ क्यों आवेंगे वे तो कुब्जा के प्रेम में बँधे हुए हैं।
विशेष-
(1) इस पद में रोम पुलक के वर्णन द्वारा शृंगार रस के अयत्नज अनुभाव पुलक की स्थिति की अभिव्यक्ति की गयी है।
(2) उद्धव को देखकर कृष्ण की कल्पना पर पानी फिर जाने से गोपियों द्वारा जो कुब्जा को लक्ष्य करके व्यंग्य वचन कहे गये हैं वे स्वाभाविक और मनोवैज्ञानिक हैं।
है कोई वैसीई अनुहार सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
है कोई वैसीई अनुहार
मधुबन तें इत आवत, सखि री चितौ तु नयन निहारि ॥
माथे मुकुट, मनोहर कुण्डल, पीत बसन रुचिकारि ।
रथ पर बैठि कहत सारथि सों ब्रज तन बाहं पसारि ॥
जानति नाहिन पहिचानति हीं मन बीते जुग चारि।
सूरदास स्वामी के बिछुरे जैसे मीन बिन बारि ॥ 14 ॥
ओर। पसारि= फैलाकर । मनु मानो
शब्दार्थ
अनुहारि = बनावट
रुचि कारि=सुन्दर, रूचि
कारि=सुन्दर, रुचिर
ब्रज तन= ब्रज की ओर
व्याख्या -
जब उद्धव ब्रज में दिखायी पड़ जाते हैं तो एक गोपी दूसरी गोपी से कह रही है है सखि ! इस व्यक्ति की बनावट तो कुछ वैसे ही है अर्थात् इसे देखकर ऐसा लगता है जैसे यह श्रीकृष्ण हों क्योंकि इसके रूप-रंग की बनावट उन्हीं के समान लग रही है। हे सखि ! मधुबन से इधर की ओर आ रहा है तुम नेत्रों से अच्छी तरह देख तो लो। उसके माथे पर मुकुट है कानों में सुन्दर कुंडल शोभायमान हैं और सुन्दर पीला वस्त्र शोभा दे रहा है। वह श्रीकृष्ण जैसा लगने वाला व्यक्ति रथ पर बैठा हुआ है और अपने सारथी से ब्रज की ओर बाहं फैलाकर कुछ कह रहा है। मैं इसे जानती नहीं हूँ पर देखकर कुछ पहचान रही हूँ कि मानो इन्हें कभी चार युग पहले देखा था अर्थात् ऐसा लग रहा है कि इन्हें बहुत दिन पहले कभी देखा हो। (अत्यन्त साम्य के कारण कई बार ऐसा होता है कि किसी व्यक्ति को देखकर यह तो ख्याल आ जाता है कि इससे हमारा परिचय हैं, पर कब और कैसे तथा क्या परिचय है, यह स्मरण नहीं हो पाता, यही भाव गोपी द्वारा व्यक्त हो रहा है।) सूरदास कहते हैं कि गोपियों के स्वामी श्रीकृष्ण के बिछुड़ जाने पर उनकी दशा इस प्रकार हो रही है जिस तरह मछली की हालत बिना जल के होती है। कहने का भाव यह है कि गोपियां कृष्ण के विरह में अत्यन्त व्याकुल हैं।
देखा नंदद्वार रथ ठाढ़ो सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
देखा नंदद्वार रथ ठाढ़ो।
बहुरि सखी सुफलकसुत आयो पर्यो संदेह उर गाढ़ो ||
प्रान हमारे तबहिं गयो ले अब केहि कारन आयो ।
जानति हाँ अनुमान सखी री कृपा करन उठि धावो ॥
इतने अन्तर आय उपंगसुत तेहि छन दरसन दीन्हों ॥
तब पहिचानि सखा हरिजू को परम सुचित तन कीन्हों ।
तब परनाम कियो अति रुचि सों और सबहिं कर जोरे ।
सुनिवत रहे तैसेई देखे परम चतुर मति भोरे ॥
तुम्हरों दरसन पाय आपनी जन्म सफल करि जान्यो ।
सूर ऊधो सों मिलत भयो सुख ज्यों झख पायो पान्यो ॥ 15 ॥
शब्दार्थ -
बहुरि - फिर ।
सुफलकसुत-अक्रूरजी।
उपंगसुत = उद्धवजी
भोरे = भोले।
झख = मछली पान्यो पानी ।
व्याख्या -
उद्धवजी सबसे समीप आ गये हैं। उनका रथ नंद के दरवाजे पर आ गया है तब एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि देखो नंद के दरवाजे पर रथ खड़ा हुआ है। हे सखि ! हृदय में बड़ा भारी सन्देह हो रहा है फिर कहीं अक्रूर तो नहीं आ गया। (जिस समय श्रीकृष्ण को कंस ने बुलाया था तब अक्रूर ही रथ लेकर आये थे अब भी कोई रथ लेकर आया है अतः गोपियों को सन्देह हो रहा है) अक्रूर हमारे प्राण श्रीकृष्ण को तभी ले गया था, अब न मालूम किस कारण से यहाँ आया है। या हे सखि ! ऐसा लगता है कि वह अक्रूर हमारे ऊपर कृपा करने के लिए आया हैं। अर्थात् जिस प्रकार रथ लेकर पहले कृष्ण को यहां से गया था वैसे ही रथ लेकर अब कृष्ण को यहां छोड़ने आया है, यह भाव है। इसी बीच में उद्धवजी वहाँ आ गये और वे सबको दिखलाई देने लगे। जब गोपियों ने यह जान लिया कि वे श्रीकृष्ण के सखा हैं तो उनको बहुत संतोष हुआ। सबने बड़े प्रेम के साथ उनको प्रणाम किया और सबने उन्हें हाथ जोड़े। वे कहने लगीं कि आपको जैसा सुनते रहते थे आप वैसे ही परम चतुर बुद्धि वाले और भले हैं। आपका दर्शन पाकर तो हम अपने जन्म को सफल समझ रही हैं। सूरदास जी कहते हैं कि जब गोपियाँ उद्धव से मिलीं तो उन्हें ऐसा सुख प्राप्त हुआ जैसे कि मछली को पानी मिल गया हो। कहने का अर्थ यह है कि जिस प्रकार जल से रहित हुई मछली बेहद बेचैनी से छटपटाती रहती है उसी प्रकार गोपियाँ श्रीकृष्ण से प्रेम के लिए उत्सुक तड़प रही थीं। उद्धवजी, जो श्रीकृष्ण के मित्र हैं और उनका सन्देश लाये हैं, उन्हें मिले अपने प्रिय के प्रेम-वारि की आशा से मछली की भाँति ही सन्तोष प्राप्त हुआ।
विशेष- (1) ज्यों...... पान्यों में उपमा अलंकार है।
कहौं कहाँ तें आए हो सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
कहौं कहाँ तें आए हो
जानति हौं अनुमान मनो तुम जादवनाथ पठाए हो ॥
बैसोई बरन, बसन पुनि वैसेई, तन भूषन सजि ल्याए हौ
सरबसु लै तब संग सिधारे अब का पर पहिराए हौ ॥
सुनहु मधुप ! एकै मन सब को, सो तो वहाँ लै छाए हौ ।
मधुबन की मानिनी मनोहर तहँहि जाहु जहँ भाए ही ॥
अब यह कौन सयापन ब्रज पर का कारन उठि धाए हौ ।
सूर जहाँ लौं स्यामगात हैं जानि भले करि पाए हौ ॥1॥
शब्दार्थ -
भूषण = आभूषण।
संजि-सजाकर।
एकै = एक।
मधुवन = एक बन-मथुरा में
सयानप = चतुरता
जानि भले करि पाये हौ = भली-भाँति समझ लिए गये हो।
व्याख्या -
उद्धवजी को देखकर कोई सखी उनसे पूछती है कि आप यह तो बतलाएँ कि आप कहाँ से आये हैं। मैं अनुमान लगाकर यह जान सकती हूँ कि आपको यादवनाथ श्रीकृष्ण जी ने यहाँ पर भेजा है। आपका रंग भी वैसा ही है जैसा श्रीकृष्ण जी का था। फिर आपके वस्त्र भी उसी प्रकार के हैं। आपके शरीर-भर के आभूषण भी उसी प्रकार के हैं। आप हमारा सर्वस्व लेकर पहले ही यहाँ से चले गये हो। अब आप किसे ले जाने के लिए आये हो। हे मधुप ! सुनो हम सब का एक मन श्रीकृष्ण थे (सबके मन श्रीकृष्ण के वश में थे और सबके मन उनके समीप ही रहते थे) उन्हें लेकर तो मथुरा में रख लिया है। आपके यहाँ मथुरा में सुन्दर मानिनी स्त्रियाँ हैं आप वहीं पर जाओ, आपको वहाँ का रहना ही अच्छा लगता है। समझ में नहीं आता कि यह आपकी कौन-सी चतुराई है। न मालूम किस कारण से आप ब्रज की ओर आ गये हो। सूरदास जी कहते हैं कि जहाँ तक काले शरीर वाले हैं वे सब भली-भाँति समझ लिए गये हैं।
विशेष-
(1) इस पद की अन्तिम पंक्ति का व्यंग्य दृष्टव्य है। श्याम वालों को अच्छी तरह से भर पाया है इससे व्यंग्यार्थ यह है कि श्याम गात वाले सब धोखा देने वाले होते हैं। श्रीकृष्ण श्याम गात हैं वे सबको छोड़कर चले गये । अक्रूर जी श्याम गात हैं वे श्रीकृष्ण को यहाँ से लेकर चले गये। मधुप भी ऐसे ही होते हैं।
(2) 'मधुप' शब्द का सम्बोधन भ्रमरगीत प्रसंग की सार्थकता सिद्ध करने के लिए उपयुक्त है।
ऊधो को उपदेस सुनी किन कान सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
ऊधो को उपदेस सुनी किन कान है।
सुन्दर श्याम सुजान पठायो मान दे । ध्रुव ॥
कोउ आयो उत ताय जतै नंदसुवन सिधारे
बहै बेनु-धुनि होय मनो, आए नंद प्यारे ॥
धाईं सब गलगाजि के ऊधो देखे जाय ।
लै आई ब्रजराज पै हो, आनद उर न समाय ॥
अरघ आरती, तिलक, दूध, दधि माथे दीन्हीं ।
कंचन कलस भराए आनि परिकरमा कीन्हीं ॥
गोप भी आंगन भई मिलि बैठे यादवजात ।
जलझारी आगे धरी, हौं बूझति हरि कुसलात ॥
कुसलछेम बसुदेव, कुसल देवी कुबजाऊ ॥
कुसल छेम अक्रूर कुसल नीके बलदाऊ ।
पूछि कुसल गोपाल को रहीं सकज गहि पाय ।
प्रेम मगन ऊधो, हो देखत ब्रस को भाय ॥
मन-मन ऊधो भए, कहै यह न बूझिय गोपालहिं ।
ब्रज को हेतु बिसारि जोग सिखवत ब्रजबालहिं ॥
पाती बांचि न आवई रहे नयन जल पूरि
देखि प्रेम गोपिन को, हो ज्ञान-गरब गयौ दूरि । ।
तब इत उत बहराय नीर नयनन मैं सोख्यों ।
ठानी कथा प्रबोध बोलि सब गुरू समोख्यो ॥
जो ब्रज मुनिवर ध्यावहीं पर पावहिं नहिं पार ।
सो व्रत सीखो गोपिका, हो छांड़ि विषम विस्तार ॥
सुनि ऊधो के बचन रहीं नीचे करि तारे ।
मनो सुधा सौं सींचि आनि विषज्वाला जारे ॥
हम अबला कह जानहीं जोग जुगुति की रीति ।
नंदनंदन व्रत छांड़ि कै हो, को लिखि पूजै भीति ?
अबिगत, अगह, अपार, आदि अवगत है सोई ।
आदि निरंजन नाम ताहि रंजैं सब कोई ॥
नैन नासिका अग्र है तहाँ ब्रह्म को बास ।
अविनासी बिनसे नहीं, हो सहज ज्योति परकास ॥
घर लागें औधूरि कहे मन कहा बँधावै ?
अपनो घर परिहरे कहीं को घरहि बतावै ?
मूरख जादवजात है, हो, हमहिं सिखावत जोग ।
हमको भूली कहत हैं, हो हम भूलीं किधौं लोग?
गोपि तैं भयो अंध ताहि दुहु लोचन ऐसे ।
ज्ञाननैन जो अंध ताहि सूझै धौं कैसे ?
बूझे निगम बोलाइ कै, कहै वेद समुझाय
आदि अंत जाके नहीं, हो कौन पिता को माय?
चरन नहीं, भुज नहीं, कहीं ऊखल किन बांधो ।
नैन नासिका मुख नहीं चोरि दधि कौने खांधो ?
कौन खिलायो गोद में, किन कहै तोतरे बैन?
ऊधो ताकौ न्याव है, हो, जाहि न सूझै नैन ॥
हम बूझति सतभाव न्याब तुम्हरे मुख साँचो ।
प्रेम-नेम रसकथा कहौ कंचन की कांचो ॥
जो कोउ पावै सीस दै ताको कीजै नेम ॥
मधुप हमारी तौं कहौ, हो जोग भलो किधौं प्रेम ।
प्रेम प्रेम सों होय प्रेम सों पारहि जैए
प्रेम बंध्यो संसार, प्रेम परमारथ पैए ॥
एकै निहचै प्रेम को, जीवन- मुक्ति रसाल ।
सांचो तिहकै प्रेम की, हो, जो मिलिहैं नंदलाल ।।
सुनि गोपिन को प्रेम नेम ऊधो को भूल्यो
गावत गुन गोपाल फिरत कुंजन में फूल्यो |
छन गोपिन के पग धरै, धन्य तिहारौं नेम ।
धाय धाय द्रुम भेंटही हो ऊधो छाके प्रेम ॥
धनि गोपी, धनि गोप, धन्य सुरभी बनचारी ।
धन्य धन्य ! सो भूमि जहाँ बिहरे बनवारी ।।
उपदेसन आयो हुतो मोहिं भयो उपदेस ।
ऊधो जदुपति पै गए, हो, किए गोप को बेस ॥
भूल्यो, जदुपति नाम, कहत गोपाल गोसाईं ।
एक बार ब्रज जाहु देहु गोपिन दिखराई ॥
गोकुल को सुख छांड़ि के कहाँ बसे हो आय ।
कृपावंत हरि जानि कै हो ऊधो पकरे पाय ॥
देखत ब्रज को प्रेम नेम कछु नाहिन भावै ।
उमड्यो नयननि नीर बात कछु कहत न आवै ॥
सूर स्याम भूतल गिरे, रहे नयन जल छाय ।
पोंछि पीतपट सों कह्यो, आए जोग सिखाय? ॥ 17 ॥
शब्दार्थ -
उततायें = वहाँ से, उधर की ओर से।
गलगाजि कै=आनंदित होकर।
यादवजात = यहाँ पर उद्धव से तात्पर्य है ।
भाय = भाव
बूझिय= समझ में आना ।
गोपालहिं = श्रीकृष्ण की।
समोख्यो = सहेज कर कहा।
तारे = आंख के तारे, पुतली ।
भीति = दीवार
घर लागै = घर पर आ लगना, ठिकाने लगना
औधूरी= घूमकर
खाँधो = खाया।
नेम= नियम,
योग= साधना ।
काँचो = काँच।
छाके= छक जाना, अघा जाना।
व्याख्या -
एक सखी कहती है कि उद्धव के उपदेश को ध्यान से क्यों नहीं सुनती हो । इन्हें तो सुन्दर सुजान श्रीकृष्ण जी ने सम्मानपूर्वक यहां पर भेजा है। कोई उधर से आया है जिधर की ओर नंद के पुत्र श्रीकृष्ण जी गये थे। श्रीकृष्ण की वंशी जैसी ही ध्वनि हो रही है ऐसा मालूम पड़ता है कि नंद के प्यारे पुत्र श्रीकृष्ण भी आये हों । (यह सुनते ही) सभी सखियाँ आनन्दित होकर दौड़ पड़ीं और उन्होंने उद्धव को जाकर देखा। वे उन्हें अपने साथ लिए ब्रज के राजा नंद के पास ले आयीं। उनके हृदय में आनन्द समा नहीं रहा था। उन्होंने उद्धव जी को अर्घ्य दिया, उनकी आरती उतारी और दूध तथा दधि का माथे पर तिलक किया। सोने के कलशों को भरकर लायीं और उनकी परिक्रमा की । गोपों की आंगन में भीड़ लग गयी। उद्धवजी उनसे मिलकर बैठ गये। उनके आगे जल का बर्तन (सुराही) रख दिया गया फिर सबने श्रीकृष्ण की कुशलता पूछी । वसुदेव की कुशल-क्षेम तथा कुब्जा की कुशलता भी पूछी। इसी तरह अक्रूर तथा बलराम की भी कुशलक्षेम पूछी। श्रीकृष्ण के समस्त सम्बन्धियों सहित कुशल पूछकर सभी गोपियाँ गद्गद् हो गयीं और उन्होंने उद्धव के पैर पकड़ लिए। ब्रज की गोपियों के इस तरह के उत्कट प्रेम भाव को देखकर उद्धव भी प्रेममग्न हो गये । उद्धवजी अपने मन में कहने लगे कि गोपाल श्रीकृष्ण की यह बात समझ में नहीं आती कि उन्होंने ब्रज के ऐसे प्रेम को भुलाकर मुझे ब्रज की स्त्रियों को योग सिखाने के लिए क्यों भेज दिया है। गोपियों की यह दशा थी कि उनसे पत्री भी पढ़ी नहीं जा रही थी क्योंकि उनके नेत्र हर्ष के आँसुओं से व्याप्त हो रहे थे। गोपियों के इस प्रकार के प्रेम को देखकर उद्धव का ज्ञान का गर्व दूर हो गया। इस इधर-उधर की बात करके उनके मन को बहलाया और उनके (या अपने नेत्रों के जल को सुखाया। उसके पश्चात् सबको ज्ञान देने के लिए गुरु की तरह सहेज कर रखी कथा को उन्होंने कहना प्रारम्भ किया।
हे गोपियों! जिस व्रत का मुनि लोग ध्यान धरने पर भी पार नहीं पाते उस व्रत को तुम मुझसे सीखो और इन सांसारिक विषय-भोगों के विस्तार को छोड़ दो। उद्धव के वचनों को सुनकर गोपियों ने अपनी आँखों की पुतलियाँ नीचे की ओर झुका लीं मानो पहले अमृत से सींचकर बढ़ाई हुई बेलों को लाकर विषम की अग्नि में जला दिया गया हो। कहने का भाव यह है कि श्रीकृष्ण के प्रेम से बढ़े हुए गोपियों के हृदय को इस प्रकार के व्रत की बात सुनकर बहुत दुख हुआ। वे उद्धवजी से अत्यंत सरलता और स्वाभाविकता के साथ कहने लगीं कि हम स्त्रियाँ भला योग की मुक्तियों के मार्ग को क्या जानें? श्रीकृष्ण के व्रत को छोड़कर दीवार पर लिखकर योग- व्रत साधना को कौन पूरा करे। अर्थात् हम तो श्रीकृष्ण के अनुराग को जानती हैं। योगी लोग जो दीवार पर चित्र बनाकर या कोई बिन्दु लगाकर जो चित्त एकाग्र करते हैं उसे हम क्या जानें? जो ब्रह्म अविगत है ( न जाना जाने वाला है) अगह हैं (न पकड़ा जाने वाला है), अपार है (जिसका पार नहीं पाया जा सकता) वही जान लेना कैसे संभव है? जिसका नाम आदि निरंजन है अर्थात् माया-रहित है उसे ही सब योगी ध्यान लगाकर देखते हैं। नेत्र और नासिका के अग्र भाग पर जिसे त्रिकुटी कहा जाता है, वहां पर ब्रह्म का निवास है। वह अविनाशी है, कभी नष्ट नहीं होती वह ज्योति स्वरूप हैं और स्वाभाविक रूप से ही स्वयं प्रकाशित है ऐसा ज्ञानियों का मत है। पर आप यह सोचकर तो देखिए कि मन तो इधर-उधर घूम-फिरकर अपने ठिकाने पर स्वयं ही आकर लगता है। मन को भला बाँध कौन सकता है। और अपने घर को छोड़ देने पर बताइए फिर हमें कौन अपने घर को बतलाकर ला सकेगा। ( कहने का तात्पर्य यह है कि हमारा मन श्रीकृष्ण से लगा हुआ है। वह यदि कहीं घूमेगा भी तो फिर वहीं आ जाएगा। ऐसी दशा में हम श्रीकृष्ण के प्रेम से अपने मन को हटाकर भुलावे में नहीं पड़ना चाहतीं।) ये उद्धव मूर्ख हैं जो हम जैसी कृष्णानुरागी गोपियों को योग की साधना सिखाते हैं। वे हम को भूली हुई कहते हैं। गोपियों की ओर से तो उद्धव आप अंधे हो गये हो अर्थात् गोपियों की ओर से आपने आँखे बन्द कर ली हैं। न मालूम आपके ये दोनों नेत्र कैसे हैं। हे उद्धव ! आप तो ज्ञान के गर्व में अंधे हो । भला आपको सही-सही मार्ग कैसे सूझ सकता है। कभी तो आप शास्त्र का प्रणाम देते हैं, सभी वेदों के अनुसार ज्ञान की बातें समझाते हैं परन्तु हम पूछती हैं ब्रह्म को आप आदि और अंत-रहित कहते हो उसका कौन पिता है? और कौन माता? यदि आप कहते हैं कि उनके चरण नहीं हैं, कभी वेदों के अनुसार ज्ञान की बातें समझाते हैं परन्तु हम पूछती हैं ब्रह्म को आप आदि और अंत-रहित कहते हो उसका कौन पिता है? और कौन माता? यदि आप कहते हैं कि उनके चरण नहीं हैं, भुजाएँ नहीं हैं तो बताइए यशोदा ने ऊखल से किसको बांधा था। यदि उनके नेत्र, नासिका और मुख नहीं तो दधि चुराकर किसने खाया था । यशोदा ने किसको गोद में खिलाया था? किसने अपनी बाल लीला करते हुए गोकुल में तोतले वचन बोले थे? हे उद्धव, ये बातें उसे ठीक लग सकती हैं जिसे नेत्रों से कुछ दिखाई ही न देता हो। अच्छा हम सच्ची-सच्ची बात आप से पूछती हैं और जो तुम अपने मुख से कहोगे उसे ही हम सच्चा फैसला न्यायसंगत मानेंगी। आप ही बतलाइए कि योग के नियम अच्छे या प्रेम की रस कथा अच्छी, इसमें से कौन-सी चीज कंचन है और कौन-सी कांच अर्थात् प्रेम और योग में कौन श्रेष्ठ है। योग-सायन तो उसके लिए करनी चाहिए जिसे कोई सिर देकर भी प्राप्त कर सके अर्थात् अनेक यौगिक कष्टों के सहन करने के पश्चात् भी ब्रह्म की प्राप्ति संभव नहीं है। हे उद्धव ! आप को हमारी कसम है ठीक-ठीक कहना, भला योग की साधना श्रेष्ठ है या प्रेम का मार्ग? प्रेम से प्रेम होता है और प्रेम से इस संसार से पार जाया जा सकता है। (इसका भाव यह है कि यदि आप सामान्यः किसी से प्रेम करोगे तो उसके प्रेम की प्राप्ति कर सकोगे और यदि यही प्रेम ईश्वर से होगा, तो संसार सागर से पार हो जाओगे) संसार प्रेम के बन्धन में ही बंधा हुआ है। प्रेम से ही परमार्थ को प्राप्ति किया जा सकता है। इसी से तो नारद ने ईश्वर की भक्ति का स्वरूप बतलाते हुए अपने भक्ति सूत्र में कहा है- 'सा त्वमस्मिन् परम प्रेम रूपा' यह निश्चित है। एकमात्र निश्चत है कि प्रेम के द्वारा सुन्दर जीवनमुक्ति की प्राप्ति हो सकती है पर यदि किसी को प्रेम का सच्चा निश्चय है तो वह तभी समझिए जब कि वह प्रेम द्वारा श्रीकृष्ण की प्राप्ति करे। भाव यह है कि प्रेम करने की वास्तविकता यह है कि उसके द्वारा श्रीकृष्ण की प्राप्ति का प्रयत्न हो ।
गोपियों के प्रेम की बातें सुनकर उद्धवजी अपनी योग साधना की बातों को भूल गये। वे श्रीकृष्ण के गुण गाते हुए ब्रज के कुंजों में आनन्द से मस्त हुए घूमने लगे। क्षण-भर में ही वे गोपियों के पैर पकड़ लेते और कहते कि तुम्हारा प्रेम धन्य है। कभी वे दौड़कर वृक्षों से लिपट जाते। इस तरह उद्धवजी प्रेम से छककर अपनी सुध-बुध खो बैठे हैं। वे कहने लगे कि ब्रज की गोपियाँ धन्य हैं, यहां के गोप धन्य हैं और वे वन में चरने वाली गौएं भी यहां की धन्य हैं। यह ब्रज की भूमि धन्य है, जहाँ पर श्रीकृष्ण जी ने विहार किया था। यहां पर घूम-फिरकर आनन्द किया था। मैं ब्रज की युवतियों को ज्ञान-मार्ग का उपदेश देने के लिए आया था परन्तु मुझे स्वयं यहां आकर उपदेश प्राप्त हुआ; प्रेम-मार्ग का उपदेश मैंने गोपियों से सीख लिया है।
इसके पश्चात् उद्धव जी श्रीकृष्ण के पास गये। वे ब्रज से प्रेम की शिक्षा लेकर आये थे, तद्नुसार आत्मविभोर हुए गोप का वेश धारण करके उनसे मिले और पहले जो 'जदुपति' आदि सम्बोधन से उन्हें पुकराते थे उनका त्याग करके उन संबोधनों को अपनाया जिन्हें गोप-गोपियां कहा करती थीं। फलतः श्रीकृष्ण जी को उन्होंने 'गोपाल और गोसाई' कहा । हे गोपाल ! आप एक बार ब्रज में जाओ और गोपियों को अपने दर्शन दे आओ। आप गोकुल के इस प्रकार के सुख को छोड़कर कहां आकर बस गये हो? उद्धव भी जानते थे कि श्रीकृष्ण, कृपा करने वाले हैं अतः वे अपने अपराध से लज्जित हुए और उनके चरणों में गिर पड़े। अपराध यह था कि उन्हें ज्ञान का गर्व था और प्रेम को तुच्छ समझते थे)। वे कहने लगे कि श्रीकृष्ण जी ब्रज के प्रेम को देखकर अब योग-साधना की बातें कुछ भी अच्छी नहीं लगतीं। उनके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे और गद्गद कंठ होने से मुख से वचन नहीं निकल रहे थे। सूरदास कहते हैं कि इस अवस्था को प्राप्त हुए उद्धव श्रीकृष्णजी के सामने पृथ्वी पर गिर पड़े। जल उनके नेत्रों में छाया हुआ था; बराबर आँसुओं की घरा यह रही थी श्रीकृष्ण जी ने पीत पट से उनके आसुओं को पोंछा और उनसे कहा कि गोपियों को योग मार्ग की साधना सिखा आये?
विशेष-
(1) यहां भ्रमरगीत प्रसंग का संक्षेप में वर्णन हुआ है।
(2) यह स्पष्ट है कि सूरदास ने ज्ञान-मार्ग पर प्रेम मार्ग की विजय दिखलाने के लिए इस प्रसंग की निबन्धना की है।
(3) प्रेम की तन्मयता की स्थिति का यह सुन्दर उदाहरण है।
हमसों कहत कौन की बातें सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
हमसों कहत कौन की बातें ?
सुनि ऊधो ! हम समुझत नाहीं फिरि पूछति हैं तातें ॥
को नृप भयो कंस किन मार्यो को वसुद्यौ सुत आहि ?
यहाँ हमारे परम मनोहर जीवतु हैं मुख चाहि ॥
दिनप्रति जात सहज गोचारन गोप सखा लै संग ।
बासरगत रजनी मुख आवत करत नयन गति पंग ॥
व्यापक पूरन अबिनासी, को विधि वेद अपार ?
वृथा बकवाद करत हौ या ब्रज नंदकुमार ॥ 18 ॥
शब्दार्थ-
वसुद्यौ- सुत = वसुदेव का पुत्र
आहि = है।
जीवतु = जीवित
चाहि = देखकर।
बासर गत = दिन के चले जाने पर।
रजनी मुख = संध्या
पंग = स्तब्ध
व्याख्या-
उद्धव ने गोपियों के सामने अपने ज्ञान-मार्ग का उपदेश दिया जो उनकी समझ में नहीं आया। अतः वे उद्धव से कहती हैं हे उद्धव जी ! आप हमसे किसकी बातें कह रहे हो? हे उद्धव ! हम आपकी इन बातों को (जो बातें व ज्ञान, योग आदि की कहकर निर्गुण ब्रह्म की उपासना के विषय में कह रहे थे) हम नहीं समझती हैं, इसीलिए आपसे पुनः पूछना चाहती हैं। कौन राज हो गया? कंस जैसे दृष्ट को किसने मार दिया और कौन वासुदेव का पुत्र हैं? हम उस व्यक्ति को नहीं जानतीं जिसके विषय में ये बातें आपने कही हैं। हमारे परम सुन्दर श्रीकृष्ण हैं और हम उन्हीं का मुख देखकर जीवित रहती हैं। वे श्रीकृष्ण प्रतिदिन स्वाभाविक रूप से अपने सखा ग्वालों के साथ गौएं चराने के लिए जाते हैं। समस्त दिन को गौ चराने में बिताकर वे संध्या के समय घर आते हैं और हमारे नेत्रों की गति को स्तब्ध कर देते हैं। अर्थात् जब श्रीकृष्ण भी गाय चराकर लौटते हैं तो हम निर्निमेष होकर उन्हें देखती हैं। आप जिस सर्वव्यापक पूर्ण और अविनाशी ब्रह्म की बातें करते हैं वह कौन हैं? वह कौन है जिसे वेद भी अपार कहते हैं । अर्थात् वेद भी जिसका भेद नहीं जानते, वह ब्रह्म कौन है? सूरदास कहते हैं कि गोपियाँ कहने लगीं कि आप बेकार की बकवास कर रहे हो इस ब्रज में तो श्रीकृष्ण नंद के पुत्र हैं। कहने का आशय यह है कि गोपियों के मन में नंद के पुत्र श्रीकृष्ण का वास है, वे ही उनके सर्वस्व हैं। उद्धव की निराकार ब्रह्म की बातें उनकी समझ में ही नहीं आती हैं। अतः वे उद्धव से ऐसे अटपटे प्रश्न करती हैं।
विशेष -
निर्गुण ब्रह्म के समक्ष गोपियों के हृदय-पक्ष का प्रधान तर्क अत्यन्त मधुर और रोचक है।
तू अलि! कासों कहत बनाय ? सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
तू अलि! कासों कहत बनाय ?
बिन समुझे हम फिरि बूझति हैं एक बार कहौ गाय ॥
किन मैं गबन कीन्हों सकटनि चढ़ि सुफलीकसुत के संग।
किन वै रजक लुटाइ बिबिध पट पहिरे अपने अंग?
किन हति चाप निदरि गज मार्यो कि वै मल्ल मथि जाने ?
उग्रसेन बसुदेव देवकी किन वैं निगड़ हठि भाने?
तू काकी है करत प्रशंसा, कौने घोष पठायो ?
किन मातुल बधि लयो जगत जस कौन मधुपुरी छायो ?
माथे मोरमुकुट वनगुंजा, मुख मुरली धुनि बाजै
सूरदास जसोदानंदन गोकुल कह न बिराजै ॥ 19 ॥
शब्दार्थ-
अलि = भौंरा, उद्धव ।
कासों = किससे।
गाय =समझाकर, गाकर ।
सकटनि = रथ पर,
रजक = = धोबी, कंस के धोबी ।
मथि जाने = पछाड़े
बिगड़ = बेड़ी
आने = तोड़ता ।
घोस = अहीरों की बस्ती ।
व्याख्या-
उद्भव की ज्ञान-मार्ग की बातें गोपियों को अच्छी नहीं लगती हैं। वे उत्तेजित होकर भौरे के माध्यम से उद्धव से पूछती हैं कि हे अलि! तुम ये ज्ञान की समझ में न आने वाली बातें किसके सामने बना-बनाकर कह रहे हो। हमारी समझ में ये बातें नहीं आतीं, अतः हम आपसे फिर पूछ रही हैं। एक बार फिर हमें समझाकर इन बातों को कहो। वह कौन है जिसने सुफलकसुत अक्रूर के साथ रथ पर चढ़कर मथुरा को गमन किया था। वह कौन है जिसने कंस के धोबियों के कपड़ों की लूट करा दी थी और शरीर पर तरह-तरह के वस्त्र धारण किये थे? और किसके हाथों (कुबलयापीड़ नामक हाथी) मारा था तथा किसने उन मल्लों को ( चाणूर, मुष्टिक आदि को पछाड़ा था? उग्रसेन, वासुदेव और देवकी की बेड़ियों को किसने काटा था। गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि कृष्ण तो वस्तुतः हमारे आराध्य हैं जिन्होंने उपर्युक्त सब कार्य किये हैं, पर आप किसकी प्रशंसा कर रहे हैं? आपको इस अहीरों की बस्ती में किसने भेजा है ! क्या आप नहीं जानते कि वह कौन है जिसने अपने मामा कंस का वध करके जगत को उसके कष्टों और अत्याचारों से बचाकर यहाँ पर यश प्राप्त किया है और मथुरा में विराजमान है। श्रीकृष्ण के मस्तक पर मोर मुकुट सुशोभित होता है, गले में वैजयन्ती माला धारण किए रहते हैं, मुख से मुरली की मधुर ध्वनि का गान करते रहते हैं। सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार का रूप धारण करने वाले भगवान कृष्ण बतलाओ कहाँ पर विराजमान नहीं हैं? कहने का भाव यह है कि हमारे श्रीकृष्ण ही सर्वव्याप्त हैं, वे ही हमारे ब्रह्म हैं; ईश्वर हैं। हम उन्हीं का ध्यान कर सकती हैं, उसके अतिरिक्त और कोई ब्रह्म हमें मान्य नहीं
हम तो नंदघोष की बासी सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
हम तो नंदघोष की बासी ।
नाम गोपाल, जाति कुल गोपहिं, गोप गोपाल उपासी ॥
गिरिवरधारी, गोधनचारी, वृन्दावन अभिलाषी ॥
राजा नंद, जसोदा रानी, जलधि नदी जमुना सी ॥
प्रान हमारे परम मनोहर कमलनयन सुखरासी ।
सूरदास प्रभु कहौं कहाँ लौ अष्ट महासिधि दासी ॥20॥
शब्दार्थ -
घोष = ग्वालों का गाँव।
गोधन चारी = गौओं को चराने वाले।
उपासी = उपासिका ।
जलधि = समुद्र ।
व्याख्या-
गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हम तो नंद बाबा की बस्ती में रहने वाली हैं। हमारा नाम गोपाल है। क्योंकि गौओं का पालन करती हैं। हमारी जाति और कुल गोपों का ही है। हम गोपाल श्रीकृष्ण की इसी नाते से उपासिका हैं। वे भी गौओं के पालन करने वाले हैं। हम उनकी अभिलाषा करती हैं जिन्होंने गोवर्धन पर्वत को धारण किया था, जो गौओं को चराया करते थे और वृन्दावन में विहार करते थे। हमारा अपना छोटा-सा राज्य अलग ही है। जिसके राजा नंद हैं, यशोदा उनकी रानी हैं और यमुना नदी सीमा को निर्धारित करने वाला समुद्र है। हमारे प्राण वे श्रीकृष्ण हैं जिनके कमल के समान नेत्र हैं और वो अत्यन्त सुन्दर हैं। वे सब सुखों की खान हैं। सूरदास कहते हैं कि गोपियाँ उद्धव से कहने लगीं कि हमारे सुख के सामने अष्ट महा सिद्धियां भी दासी हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि श्रीकृष्ण के साथ प्राप्त सुख के आगे सब कुछ तुच्छ है।
विशेष
महासिद्धियों की गणना इस प्रकार है- (1) अणिमा, (2) महिमा (3) लघिमा (4) गरिमा (5) प्राप्ति, ( 6 ) प्राकाम्य, (7) ईशित्व, ( 8 ) वसित्व ।
गोकुल सबै गोपाल-उपासी गोकुल सबै गोपाल-उपासी
गोकुल सबै गोपाल-उपासी।
जोग अंग साधत जे ऊधो ते सब बसत ईसपुर कासी ॥
यद्यपि हरि हम तजि अनाथ करि तदपि रहति चरननि रसरासी
अपनी सीतलताहि न छोड़त यद्यपि है सति राहु-गरासी ॥
का अपराध जोग लिखि पठवत प्रेमभजन तजि करत उदासी।
सूरदास ऐसी को बिरहिन माँगती मुक्ति तजे गुनरासी ॥ 21 ॥
शब्दार्थ -
उपासी = उपासना करने वाली, उपासिका
ईसपुर = ईश्वर का नगर, महादेव का पुर
रस= रासी आनन्द से लिप्त, आनन्द से पगी हुई।
व्याख्या-
गोपियों कह रही हैं। हे उद्धव, इस गोकुल में तो सब गोपाल श्रीकृष्ण की उपासना करने वाले व्यक्ति रहते हैं। जो व्यक्ति योग को सांगोपाङ्ग धारण करते हैं वे सब महादेव की नगरी काशी में रहते हैं। (यह इसलिए कहा गया है कि काशी उस समय निर्गुण ब्रह्म की उपासना का केन्द्र था ) यद्यपि श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने पर हम अनाथ हो गई हैं; उन्होंने हमें छोड़कर अनाथ कर दिया फिर भी हम उनके चरणों के आनन्द में पगी रहतीं हैं अर्थात् इस स्थिति में भी हम उनके चरणों का ही ध्यान करती हैं! उदाहरण देकर गोपियां समझाती हैं कि यद्यपि चन्द्रमा को राहु ग्रस लेता है परंतु वह अपनी शीतलता के स्वभाव को नहीं छोड़ता । अर्थात् हमें श्रीकृष्ण के विरह का दुख सहना पड़ रहा है परन्तु हम उनके प्रति अपने माधुर्य भाव को नहीं छोड़ सकतीं। ऐसा हमने क्या अपराध किया है श्रीकृष्ण हमारे लिए योग की ही बातें लिखकर भेजते हैं। वे हमें प्रेम के मार्ग से अलग कर विरक्त क्यों बनाना चाहते हैं। सूरदास कहते हैं जो गुणराशि श्रीकृष्ण को त्याग कर मुक्ति की इच्छा करे अर्थात् निर्गुण ब्रह्म की उपासना से प्राप्त मुक्ति दे, वह हमारे सामने कुछ नहीं है, हमें तो अपना प्रेममार्ग ही ईष्ट है।
विशेष-
(1) अपनी शीतलता हि न छांडति यद्यपि है ससि राहु गरासी इस पंक्ति की प्रतीक योजना दृष्टव्य है। राशि और राहु के प्रतीकों से गोपियां अपनी विरह व्यथा की तुलना करती हैं
(2) यह स्पष्ट होता है कि व्रजवासी आध्यात्मिक साधना के योग-पक्ष को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते ।
( 3 ) इस पद से प्रतीत होता है कि जिस व्यक्ति के प्रति विरह है यदि उस व्यक्ति की प्राप्ति न हो तो प्रेम की तृप्ति नहीं हो सकती।
गोकुल सबै गोपाल-उपासी सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
जीवन मुँहचाही को नीको।
दरस परस दिनरात करति हैं कान्ह पियारे पीको ॥
नयनन मूँदि-मूँदि किन देखौ वंध्यो ज्ञान पोथी को ।
आछे सुन्दर स्याम मनोहर और जगत सब फीको ॥
सुनौ जोग को का लै कीजै यहाँ ज्यान है जीको ।
खटी मही नहीं रुचि मानै सूर खवैया घी को ॥ 22 ॥
शब्दार्थ-
मुँहचाही = चहेती
परस = स्पर्श
ज्ञान पोथी को = पुस्तकों का ज्ञान।
आछे = अच्छे ।
ज्यान = हानि
मही = मट्ठा।
व्याख्या -
गोपियाँ उद्धव से वार्तालाप करते हुए कुब्जा पर व्यंग्य कसते हुए कहती हैं कि वस्तुतः जीवन तो श्रीकृष्ण की इस चहेती कुब्जा का ही अच्छा है। श्रीकृष्ण जो उसके पास ही तो रहते हैं अतः वह उनका नित्य दर्शन करती है फिर उनकी सेवा में रहती है अतः उसे उनके स्पर्श करने का भी अवसर मिलता है। जो प्रिय श्रीकृष्ण का दर्शन और स्पर्श करे उसके जीवन का कहना ही क्या? आप जो यह कहते हैं कि ज्ञान-योग की साधना द्वारा नैनों को मूंद कर, ध्यान लगाकर ईश्वर का दर्शन करो। यह कैसे सम्भव हो सकता है? इस तरह का ज्ञान केवल पुस्तकीय ज्ञान है अर्थात् इस तरह के ध्यान से ईश्वर-प्राप्ति नहीं हो सकती। हमारे श्रीकृष्ण जी परम सुन्दर हैं, अति मनोहर हैं। उनके सामने हमें समस्त संसार फीका लगता है। हे उद्धव ! सुनो, हम योग को लेकर करें क्या? क्योंकि योग की साधना करने से हमें श्रीकृष्ण की हानि होती है अथवा यों कह सकते हैं कि कृष्ण के बिना हमारे प्राण निकले जा रहे हैं। ऐसे में हम गोपियाँ योग का ध्यान कैसे करें। सूरदास जी कहते हैं गोपियां कहने लगीं कि जो घी को खाने वाला है वह खट्टे मट्ठे से कैसे तृप्त हो सकता है? कहने का भाव यह है कि गोपियों ने श्रीकृष्ण के सुन्दर रूप का पान किया है वह निर्गुण ब्रह्म के नीरस उपदेश से कैसे संतुष्ट हो सकती हैं।
विशेष -
(1) “खाटी मही नहीं रुचि मानै 'सूर' खवैया घी को इस पंक्ति में अर्थान्तरन्यास अलंकार है ।
(2) दरस् पर दिन रात् करति में अनुप्रास अलंकार है ।
(3) प्रस्तुत पद में गोपियों का कुब्जा के प्रति व्यंग्य एकदम स्वाभाविक है।
आयो घोष बड़ो व्योपारी सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
आयो घोष बड़ो व्योपारी
लादि खेप गुन ज्ञान जोग की ब्रज में आय उतारी ॥
फाटक देकर हाटक मांगत भोरै निपट सु धारी।
धुर ही तैं खोटो खायो है लयो फिर त सिर भारी ॥
इनके कहे कौन डहकावैं ऐसी कौन अजानी ।
अपनो दूध छांड़ि को पीवें खार कूप को पानी ॥
ऊधो जाहु सवार यहाँ तें बेगि गहरु जनि लावी ।
मुंहमांग्यों पैही सूरज प्रभु साहुहि आनि दिखावी ॥25॥
शब्दार्थ
घोष = ग्वालों का गाँव
खेप = बोझा
फाटक = फटकन
हाटक = सोना
धारी = धारण करके समझकर
गहरु = देर
धुर ही तें = प्रारम्भ से ही
डहकावै ठगी में आना।
सवार = सवेरे ।
व्याख्या-
गोपियाँ उद्धव को लक्ष्य करके व्यंग्य करती हैं। वह उद्धव को ज्ञान-योग रूपी सस्ते माल बेचने वाला व्यापारी कहकर आपस में बातें करती हैं कि हमारे इस ग्वालों के गाँव में एक बड़ा व्यापारी आया है। वह व्यापार के लिए ज्ञान और योग का बहुत बड़ा बोझा लाया है और उस सब सामान को उसने ब्रज़ में लाकर उतार दिया यह व्यापारी सस्ता सौदा बड़े दामों में बेचना चाहता है। उसके पास केवल फटकन ही हैं पर वह उसे सोने के मूल्य में देना चाहता है। कहने का आशय यह है कि उद्धव के ज्ञान-योग की बातें गोपियों की दृष्टि में अत्यन्त उपेक्षणीय हैं और उसके मूल्य में वह उनसे श्रीकृष्ण से प्रेम को भूल जाने को कहता है। अर्थात् किसी ने इसकी ज्ञान की बातों को आदर नहीं दिया है। इसीलिए वह अपने सिर पर भारी बोझा उठाकर उसे लिए फिरता है। (यहां पर गोपियों के कथन में अत्यन्त स्वाभाविकता है। उसी बेचने वाले का बोझा अधिक बचा रहता है जिसके सौदे की बिक्री नहीं होती है; उद्धव के ज्ञान योग का ऐसा ही सौदा है। इस व्यापारी के कहने से कौन उगायी खा सकता है। ब्रज में ऐसा कोई अज्ञानी नहीं है। अर्थात् ब्रज की स्त्रियां निर्गुण ब्रह्म को स्वीकार करने को प्रस्तुत नहीं है भला ऐसा कौन है जो अपने दूध को छोड़कर खारे कुएं के पानी को पीने में रुचि रखेगा। (यहाँ पर श्रीकृष्ण जी मधुर दुब्ध हैं और निर्गुण ब्रह्म खारे कुएं का पानी) हे उद्धव ! तुम यहां से शीघ्र ही सवेरे चले जाओ, देर न करो। सूरदास कहते हैं कि गोपियाँ उनसे कहती हैं कि यदि आप साहुकार (श्रीकृष्ण) को लाकर हमें दर्शन करा दें तो आप मुँहमाँगा पुरस्कार प्राप्त करेंगे।
विशेष
प्रस्तुत पद के द्वारा यह स्पष्ट होता है कि गोकुल की गोपियों को निर्गुण ब्रह्म के उपदेश में रच-मात्र भी रुचि नहीं इसीलिए वे उद्धव को नाना प्रकार से फटकारती हैं। प्रस्तुत पद भी उद्धव के लिए फटकार ही समझना चाहिए। योग के समक्ष भक्ति की श्रेष्ठता दृष्टव्य है
जोग ठगौंरी ब्रज न बिकै है सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
जोग ठगौंरी ब्रज न बिकै है।
यह व्योपार तिहातो ऊधो ! ऐसोई फिर जैहे ॥
जापे से आए ही मधुकर ताके उर न समैहै।
दाख छांड़ि के कटुक निबौरी को अपने मुख खेहै?
मूरी के पातन के केना की मुक्ताहल देहै।
सूरदास प्रभु गुनहिं छांडि कै को निर्गुन निरबैहै ? ॥24॥
शब्दार्थ-
ठगोरी = धोखा देने वाली वस्तु ।
केना = वह अन्न जो बदले में दिया जाता है
व्याख्या -
उद्धव ब्रज में योग का संदेश लेकर आए हैं। वह गोपियों को निर्गुण ब्रह्म का उपदेश देकर कृष्ण को भुलाने के लिए कहते हैं परन्तु गोपियां अपने मार्ग से तनिक भी नहीं हटतीं वे उद्धव से कहती हैं कि तुम्हारा यह धोखा देने वाला योग ब्रज में नहीं बिकेगा अर्थात् तुम अपने योग के उपदेश से ब्रज-नारियों को ठग नहीं सकते। हे उद्धव ! तुम्हारा यह योग का व्यापार जो तुम बहुत चतुराई से यहां लाये हो ऐसे वापस चला जाएगा क्योंकि जिन गोपियों के लिए तुम इसे लाए हो उनके हृदय में इसके लिए स्थान नहीं है अथवा वे इस योग को अपनाने में असमर्थ हैं हे मधुकर तुम्हीं बताओ, ऐसा कौन मूर्ख होगा जो मीठे अंगूरों को छोड़कर कड़वी निंबोरी को खाए (यहां गोपियाँ श्रीकृष्ण को अंगूर तथा निर्गुण ब्रह्म को निंबौरी बताकर उद्धव को मानो कह रही हैं कि निर्गुण ब्रह्म को अपनाना हमारे बस की बात नहीं है) अपनी बात पर बल देने के लिए तथा निर्गुण की तुच्छता प्रदर्शित करने के लिए वे फिर कहती हैं कि मूली के पत्तों के बदले में कौन मोती दे सकता है अर्थात् कृष्ण का ध्यान छोड़कर हम निर्गुण को कैसे अपना सकती हैं। सूरदास कहते हैं, गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि गुण रूप श्रीकृष्ण को छोड़कर हम निर्गुण से कैसे निर्वाह कर सकती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि निर्गुण हमारे किसी काम का नहीं है।
विशेष -
(1) दाख छांड़ि के कटुक निंबौरी में दाख और निंबौरी में रूपकातिशयोक्ति अलंकार है ।
(2) गुन और निर्गुण में श्लेषण अलंकार है ।
आये जोग सिखावन पांडे सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
आये जोग सिखावन पांडे ।
परमारथी पुराननि लादि ज्यौं बनजारे टांढ़े ॥
हमरी गति पति कमलनयन की जोग सिखै ते रांड़े
कहौ, मधुप, कैसे समायेंगे एक म्यान दो खाँड़े ॥
कहु षटपद, कैसे खैयतु है हाथिन के संग गांड़े ।
काकी भूख गई बयारि भखि बिना दूध घृत मांड़े ॥
काहे का झाला लै मिलवत, कौन चोर तुम डांड़े ।
सूरदास तीनों नहिं उपजत धनिया धान कुम्हांडे ॥ 25 ॥
शब्दार्थ -
टांड़े = बनजारों के बैलों का समूह।
झाला लै मिलवत = बेकार की बातें करना ।
कुम्हाड़े = काशीफल ।
व्याख्या-
गोपियाँ उद्धव और उसके योग पर व्यंग्य करती हुई आपस में कहती हैं कि उद्धव पंडाजी बन कर ब्रज में योग सिखाने आये हैं । इन्होंने अध्यात्मवादी पुराणों का इतना बोझ उठा रखा है जैसे बनजारे व्यापारी बैलों के समूह पर साल लाद कर व्यापार करने जाते हैं। एक व्यापारी की भांति ही उद्धव यहाँ ब्रज में योग का व्यापार करने आए हैं। गोपियां कहती हैं कि हे उद्धव ! योग तो तुम उन्हें सिखाओ या वे नारियाँ योग सीखें जिनके पति न हों। हम योग नहीं सीख सकतीं क्योंकि हमारे पति और सहारे तो कमलनयन श्रीकृष्ण हैं ही। जब तक वे हमारे सहारे हैं, हम किसी अन्य का ध्यान नहीं कर सकतीं। हे मधुकर! तुम्हीं कहो कि एक म्यान में दो तलवारें कैसे समा सकती हैं। अर्थात् हमारे एक ही हृदय में श्रीकृष्ण और निर्गुण ब्रह्म ये दोनों कैसे रह सकते हैं। हम कृष्ण का ध्यान करने के साथ-साथ निर्गुण को नहीं भज सकतीं। हे भौरे ! कहो कि क्या कोई व्यक्ति हाथी के संग गन्ने खाने की बराबरी कर सकता है अर्थात् जिस प्रकार यह असम्भव हैं कि हाथी के संग कोई गन्ने नहीं खा सकता उसी प्रकार हम निर्गुण ब्रह्म की उपासना न करके कोई अनहोनी बात नहीं कर रहीं। कोई भूखा व्यक्ति घी, दूध, चावल आदि न खाकर केवल हवा का पान करके भूख नहीं मिटा सकता। उसी प्रकार निराकार, निर्गुण का ध्यान कर हम तृप्त नहीं हो सकतीं (यहाँ निर्गुण को हवा की तरह बताया गया है क्योंकि वह निराकार ही तो है)। गोपियाँ कहती हैं कि तुम क्यों व्यर्थ की बकवास कर रहे हो और किसको दंड दे रहे अर्थात् तुम व्यर्थ में अपने उपदेशों द्वारा हमें कष्ट दे रहे हो । जो चोर हो उसे दंड दो। हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो हमें दण्ड दे रहे हो। सूरदास कहते हैं कि गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि जिस प्रकार धनिया, धान और काशीफल ये तीनों एक ही स्थान पर नहीं उपज सकते उसी प्रकार एक हृदय में योग, प्रेम और साधना इकट्ठे नहीं रह सकते।
विशेष -
( 1 ) परमारथी ...टाँड़े में उपमा अलंकार है ।
(2) एक म्यान में दो खांड़े में लोकोक्ति अलंकार हैं।
(3) ' कुम्हाड़े' शब्द का प्रयोग विचारणीय है। कुम्हड़ा काशीफल को कहते हैं । तुलसीदास ने भी इसका प्रयोग करते हुए लिखा है
“इहाँ कुम्हड़ बतिया कोंउ नाहीं जो तर्जनी देखि मर जाही।”
ए अलि! कहा जोग में नीको सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
ए अलि! कहा जोग में नीको।
जति रसरीति नंदनंदन की सिखवत निर्गुन फीको ॥
देखत सुनत नाहिं कछु स्रवननि, ज्योति - ज्योति करि ध्यावत ।
सुन्दरस्याम दयालु कृपानिधि कैसे हौ बिसरावत ?
सुनि रसाल मुरली -सुर की धुनि सोइ कौतुक रस भूलें ।
अपनी भुजा ग्रीव पर मेलैं गोपिन के सुख फूलैं ॥
लोककानि कुल को भ्रम प्रभु मिलि -मिलि कै घर बन खेली।
अब तुम सूर खवावन आए जोग जहर की बेली ॥ 26 ॥
शब्दार्थ-
नीको = अच्छा
रस रीति = प्रेम की रीति
खेली = कुछ न समझा।
ग्रीव = गर्दन।
बेली = बेल।
व्याख्या
हे भ्रमर तुम्हारे योग में ऐसी कौन-सी अच्छी बात है? आप हमें श्रीकृष्ण के प्रेम के मार्ग को छोड़कर निर्गुण ब्रह्म के नीरस उपदेश की शिक्षा क्यों देते हो? आप जिस निर्गुण ब्रह्म के ध्यान करने की बात कहते हो उन्हें न तो देखा ही जा सकता हैं और न उसको बोलते हुए ही सुन सकते हैं। केवल यह ध्यान कर सकते हैं कि वह ज्योति है या वह ज्योतिस्वरूप है। ऐसे निर्गुण ब्रह्म को लेकर हम अपने सुन्दर और परम दयालु श्रीकृष्ण को कैसे भूल जायं ? वे तो दया के समुद्र हैं उन्हें कैसे भुलाया जा सकता है। हम उनकी मुरली के सुन्दर स्वरों को सुनकर उस ध्वनि के कौतुक में ही अपने को भूल जाती हैं। फिर श्रीकृष्ण जी अपनी भुजा को हमारे गले में डाल देते हैं। इस तरह गोपियों के सुख की सीमा का कथन भी नहीं किया जा सकता। लोक की लाज और कुल की लाज को हमने कुछ भी नहीं समझा। श्रीकृष्ण के साथ मिलकर वन में रास रचा कर हमने लोकलाज तथा कुल की मर्यादा को समाप्त कर दिया। है। इस प्रकार अपना सर्वस्व न्योछावर करके प्रेम में पली गोपियों को आप योग की विषैली बेल खिलाने आए हो । प्रेममयी गोपियों के लिए योग का उपदेश विषैले विष के समान घातक और कष्टप्रद प्रतीत होता है।
हमरे कौन जोग व्रत साधे ? सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
हमरे कौन जोग व्रत साधे ?
मृगत्वच, भस्म अधरि, जटा को को इतना अवराधै ।
जाकी कहूँ थाह नहिं पैए अगम, अपार, अगाधै।
गिरिधर ताल छबीले मुख पर इते बांध को बांध?
आसन पवन बिभूति मृगछाला ध्याननि को अवराधै ?
सूरदास मानिक परिहरि कै राख गांठ को बाँधै ? ॥ 27 ॥
शब्दार्थ-
मृगत्वच = मृगछाला।
अधरि = साधुओं की वह लकड़ी जिसका सहारा लेकर वे प्रायः बैठते हैं।
अगाध= बहुत गहरा
बांध = बंधन, आडम्बर।
पवन = प्राणायाम
मानिक = माणिक्य हीरा । ।
व्याख्या -
गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव ! हमारे यहाँ योग व्रत की साधना कौन करे? योग-साधना करते समय बहुत-सी वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है। मृगछाला, भस्म, अधारि और जटाओं की आवश्यकता उनमें से मुख्य है, गोपियों कहती हैं कि इतनी वस्तुओं की आराधना कीन करें। फिर इतने प्रपंच के बाद यदि ईश्वर की प्राप्ति हो जाए तब भी ठीक है। पर आपका योगमार्ग से प्राप्त ब्रह्म तो ऐसा ही है कि उसकी कहीं थाह भी नहीं पायी जा सकती। वह अगम्य है, अपार है और अगाध है। ऐसे ब्रह्म को प्राप्त करना कैसे संभव है? हमें तो श्रीकृष्ण की प्राप्ति अभीष्ट है। उन गिरधरलाल के सुन्दर मुख की प्राप्ति के लिए किसी आडम्बर की भी आवश्यकता नहीं है। अर्थात् श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिए प्राणायाम, भस्म मृगछाला, अधारि आदि प्रपंचों की आवश्यकता भी नहीं हैं और हमें चाहिए भी नहीं तब हम आपके इस प्रपंच में क्यों पड़ें? आसन, प्राणायाम, भस्म और मृगछाला सहित कौन उस ब्रह्म का ध्यान करे? सूरदास कहते हैं कि हीरा को छोड़कर ऐसा कौन है जो राख को गाँठ में बाँधेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे श्रीकृष्ण हर दृष्टि से हीरे के समान श्रेष्ठ और मूल्यवान हैं और उसके समक्ष निर्गुण ब्रह्म राख के समान हेय और मूल्यहीन है। ऐसी स्थिति में हम निर्गुण ब्रह्म के उपदेश की स्वीकृति रंचमात्र भी नहीं है।
विशेष -
(1) अष्टांग योग के आठ साधन हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि । इनके ही कुछ साधनों की ओर प्रस्तुत पद में संकेत किया गया है।
( 2 ) ज्ञान मार्ग के खण्डन का तर्क बेहद सरलता के साथ प्रस्तुत किया गया है। 1
हम तो दुहूं भाँति फल पायो सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
हम तो दुहूं भाँति फल पायो ।
जो ब्रजनाथ मिलें तो नीको, नातरु जग जस गायो ॥
कहँ वै गोकुल की गोपी सब वरनहीन लघुजाती
कहँ वै कमला के स्वामी संग मिलि बैठीं इक पाती ॥
निगमध्यान मुनिज्ञान अगोचर, ते भए घोषनिवासी ।
ता ऊपर अब सांच कहो घौं मुक्ति कौन की दासी ?
जोग-कथा, पा लागी ऊधो, ना कडु वारंवार
सूर स्याम तजि और भजै जो ताकी जनमी छार ॥ 28 ॥
शब्दार्थ-
नातरु = नहीं तो।
कमला के स्वामी = लक्ष्मी के स्वामी, विष्णु
पाती == पंक्ति पड़ना।
छार = धूल, भस्म । ।
पालगों = पैर
व्याख्या -
योगमार्ग को हर दृष्टि से हेय बतला कर श्रीकृष्ण के विरह में ही जलते रहने में अपनी आस्था दिखलाते हुए गोपियाँ कहती हैं कि श्रीकृष्ण का ध्यान करने से हमें दोनों प्रकार से उत्तम फल मिलेगा। यदि श्रीकृष्ण मिल जायेंगे तो हमारा वियोग में जलना सार्थक होगा क्योंकि प्रिय की प्राप्ति पर विरह की समाप्ति हो जाती है। यदि श्रीकृष्ण न मिले तो संसार में श्रीकृष्ण को अपना सर्वस्व समर्पित करने के यश की भागी तो रहेंगी ही। हमारा तो सौभाग्य है कि इतने बड़े व्यक्ति से हमें स्नेह करने का अवसर मिला। नहीं तो कहाँ हम गोपियां जो गोकुल के छोटे से गांव में रहती हैं। हमारा वर्ण भी कोई बहुत उत्तम नहीं है। हमारी जाति घोष है वह भी कोई बड़ी नहीं है । और कहाँ वे लक्ष्मी के स्वामी, विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण भगवान, हम उनके साथ मिलकर बैठी हैं। जिस परमेश्वर का वेद भी ध्यान करते हैं, जिनको मुनि भी अपने ज्ञान के द्वारा अगोचर कहते हैं ऐसे श्रीकृष्ण गोपों के गांव में आकर रहने लगे थे। हमारा तो ऐसे व्यक्ति के संसर्ग में सौभाग्य रहा है। ऐसे ऊंचे प्रिय के लिए विरह-व्यथित होने में भी सौभाग्य है। अतः हमें श्रीकृष्ण के न मिलने का भी दुःख नहीं है, हम इसी विरह में प्रसन्न हैं। हमारे यहाँ उस निर्गुण ब्रह्म से प्राप्त होने वाली मुक्ति की कौन चाहत करता है? हे उद्धव ! हम आपके पैरों पड़ती हैं आप इस योग की कथा को बार-बार न कहो। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियों कहने लगीं कि जो श्रीकृष्ण को तजकर और किसी को भजे उसका जन्म निरर्थक माना जाएगा। (जननी छार का अर्थ यह भी किया जाता है कि उसकी माता धूल के समान तुच्छ है क्योंकि उसने ऐसी संतान को जन्म दिया जो श्रीकृष्ण के अलावा किसी और का भजन करती है।)
विशेष- इस पद में दैन्य भाव की प्रधानता है।
पूरनता इन नयन न पूरी सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
पूरनता इन नयन न पूरी
तुम जो कहत श्रवननि सुनि समुझत, ये याही दुख मरति विसरी ।
हरि अन्तर्यामी सब जानत बुद्धि विचारता वचन समूरी।
वै रस रूप रतन सागर निधि क्यों मनि पाय खवावत धूरी ॥
कहं मुनिध्यान कहां ब्रज युवती! कैसे जात कुलिस करि चूरी ॥
रहु रे कुटिल चपल मधु लम्पट कितब संदेश कहत कटु कूरी।
देखु प्रगट सरिता, सागर सर, सीतल सुभग स्वाद रुचि रूरी।
सूर स्वाति जल बसै जिय चातक चित लागत सब झूरी ॥ 29 ॥
शब्दार्थ
विसूरी = बेचैन होकर
समूरी = मूल सहित आद्योपान्त
कितव = धूर्त
कूरी = निष्ठुर
रूरी = अच्छा
झूरो = नीरस, व्यर्थ शुष्क
व्याख्या -
उद्धव ने गोपियों को कृष्ण के पूर्ण ब्रह्म होने का उपदेश दिया था। अतः उन्हें उनके उस अन्तर्यामी रूप को समझ लेना चाहिए। इस पर गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि श्रीकृष्ण पूर्ण हैं, यह बात हमारे नेत्रों से बैठती नहीं है अर्थात् नेत्रों की तृप्ति श्रीकृष्ण की पूर्णता के उपदेश से नहीं होती। आप जो निर्गुण ब्रह्म-विषयक चर्चा करते हैं उसे हम कानों से सुनकर तो समझती हैं पर इससे आँखों की तृप्ति नहीं हो पाती और ये आँखें इसी दुःख में बिलख-बिलख कर मरती हैं। आप यह कहते हैं कि श्रीकृष्ण अन्तर्यामी हैं और इसी रूप में सब जानते हैं परन्तु हम अपनी बुद्धि से विचार करती हैं, उस पर समूल (आद्योपान्त) दृष्टिपात करती हैं, तो हमको वे रस-रूप में ही प्रतीत होते हैं। वे हमारे लिए समुद्र से निकली निधि के समान अमूल्य रत्न हैं । ऐसे श्रीकृष्ण रूपी दिव्य मणि को जिन्होंने प्राप्त किया है उन्हें निर्गुण ब्रह्म की धूल क्यों खिलाते हो। गोपियाँ उद्धव पर खीजते हुए भ्रमर के बहाने से उन्हें डांटती हुई कहती हैं कि कुटिल ! रस के लोभी ! भौरें चुप रह! तू बहुत धूर्त है इसी में तो कटु और निष्ठुर संदेश कह रहा है । सोचकर तो देखो कहाँ मुनियों द्वारा अभ्यस्त ध्यान और कहाँ ब्रज की स्त्रियाँ ? भला कहीं कुलिश को पीस चूर-चूर किया जा सकता है? अर्थात् जैसे वज्र को पीसकर चूर-चूर कर देना अत्यन्त असम्भव है वैसे ही हमारा योग आदि में व्यवहृत ध्यान लगाना असम्भव है। आप स्पष्ट रूप से चातक के प्रेम को देखिए, वह अपने सामने नदी, समुद्र और तालाब के शीतल, सुन्दर, अच्छे स्वाद से पूर्ण जल को प्रत्यक्ष देख रहा होता है परन्तु उसके लिए ये सब जल नीरस हैं क्योंकि चातक का मन तो एकमात्र स्वाति के जल में ही बसा हुआ होता है। कहने का भाव यह है कि जिस प्रकार चातक निष्ठा के साथ अपने प्रेम का पालन करता है उसी प्रकार हम गोपियां जो एकमात्र श्रीकृष्ण में अनुरक्त हैं, निष्ठा के साथ केवल उन्हीं का ध्यान करती हैं; वे ही हमारे द्वारा अभीप्सित हैं और निर्गुण ब्रह्म हमारे लिए सर्वथा उपेक्षणीय है।
विशेष -
(1) प्रेम के आदर्श के लिए चातक को उपमान रूप में प्रस्तुत करना बहुत प्रसिद्ध है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी चातक के प्रेम का अनेक स्थलों पर आख्यान किया है। एक उदाहरण देखिए-
बध्यो बधिक पर्यो पुन्य जल उलट उठायी चोंच
तुलसी चातक प्रेम पर मरतेहु लगी न सोंच ॥
सूरदास की गोपियों ने, चातक के उदाहरण द्वारा प्रस्तुत इस पद में, अपने प्रेम की अनन्यता तथा श्रीकृष्ण के प्रति निष्ठा का उदाहरण प्रस्तुत किया है।
(2) इस पद में छेकानुप्रास अनेक स्थलों पर है और वृत्यनुप्रास भी दृष्टव्य है- (क) स्रवननि सुनि समुझत, (ख) रस रूप रतन, (ग) सरिता सागर सर सीतल सुभग ।
हमतें हरि कबहूँ न उदास सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
हमतें हरि कबहूँ न उदास ।
राति खबाय पिबाय अधररस सो क्यौं बिसरत ब्रज को बास ॥
तुमसों प्रेमकथा को कहिबो मनहुँ काटिबों घास
बहिरौ तान स्वाद कह जानै, गूंगो बात मिठास ॥
सुनु री सखी, बहुरि फिरि ऐहैं वे सुर बिबिध बिलास ।
सूरदास ऊधों अब हमको भयो तेरहौं मास ॥ 30 ॥
शब्दार्थ -
उदास = उदासीन ।
बिसरत = भूलना।
ऐहैं = आवेंगे।
भयो तरहों मास = बहुत समय व्यतीत हो गया ।
व्याख्या -
गोपियों को श्रीकृष्ण के प्रेम पर विश्वास है। वे उद्धव से कहती हैं कि हमसे श्रीकृष्ण जी कभी भी उदासीन नहीं हो सकते। ( अतः आपका यह तर्क कि श्रीकृष्ण को इधर आने का अवकाश नहीं है, ठीक नहीं है ।) जिस स्थान पर हमने उन्हें खिलाया है और अधररस का पान कराया है ऐसा ब्रज का स्थान भला कहीं वे भुला सकेंगे? गोपियाँ उद्धव को इन प्रेम-प्रसंगों के वर्णन करने के उपयुक्त पात्र ही नहीं समझतीं। वे शुष्क ज्ञान के ज्ञाता हैं। अतः वे कहती हैं कि हे उद्धव! आपके समक्ष प्रेम-कथा का कहना तो मानों घास काटना है (व्यर्थ परिश्रम करना है)। भला कहीं बहरा व्यक्ति संगीत के मधुर स्वर को जान सकता है? अथवा गूँगा व्यक्ति भला कहीं मीठी बातों के आनन्द की अभिव्यक्ति कर सकता है? (नहीं! अर्थात् बहरे के आगे गाने का कोई प्रभाव नहीं हो सकता और गूंगे के साथ मीठा वार्तालाप नहीं हो सकता; एक सुनेगा नहीं दूसरा बोलेगा नहीं, उसी प्रकार तुम्हारे सामने प्रेम की चर्चा करना व्यर्थ है ।) गोपियाँ एक-दूसरे से कहती है कि हे सखी हमारे अतीत के वे सुख और विलास के दिन फिर भी आयेंगे । सूरदास कहते हैं कि गोपियां कहने लगीं कि अब तो हमको प्रतीक्षा करते-करते तेरहवाँ महीना लग गया अर्थात् प्रतीक्षा करते-करते बहुत समय व्यतीत हो गया अब तो इसका अन्त होगा ही ।
विशेष -
प्रस्तुत पद में सूरदास ने विभिन्न मुहावरों का उपयोग करके अपनी भाषा की रोचकता को बढ़ा दिया है । 'काटिबों घास' और 'भयो तेरहों मास' ऐसे ही कथन हैं। (2) .. मनहुँ काटिबो घास' में उत्प्रेक्षा अलंकार है । (3) .. विरह में अवधि अत्यन्त दीर्घ लगती है, इस स्वाभाविक स्थिति का दर्शन इस पद में पठनीय है।
भ्रमरगीत सारांश (Summary Bhramargeet)
सगुण भक्तिधारा के भक्त कवि सूरदास की काव्य साधना के केंद्र में श्रीकृष्ण की अनन्य भक्ति ही अभीष्ट रही । सूरदास के संपूर्ण काव्य में लोकपक्ष विस्तृत रूप में उजागर हुआ है। द्वारकाधीश श्रीकृष्ण के स्थान पर गोकुलवासी कन्हैया का गोप रूप ही सूर को अधिक प्रिय है ।
सगुण भक्तिधारा के भक्त कवि सूरदास श्रीकृष्ण भक्ति के अनन्य उपासक हैं। सूरसागर में 'भ्रमरगीत प्रसंग' के माध्यम से सूरदास ने ईश्वर के सगुण रूप की प्रतिष्ठा की है। सूर गोपियों के माध्यम से भक्ति हेतु आधार अथवा अवलंब के पक्ष में तर्क देते हैं । रूपहीन निर्गुण भक्ति सूर के सम्मुख राज, क्षार के समान अर्थहीन है । भ्रमरगीत प्रसंग में ब्रज की गंवार गोपियाँ ज्ञानी उद्धव को प्रेम का पाठ पढ़ाती हैं वह चतुर हैं । उद्धव की ज्ञान व योग साधना की बातों को वह हेय, तुच्छ बताकर नकार देती हैं। यही नहीं वे उद्धव को प्रेम का मार्ग अपनाने की बात करती | वे उद्धव से कहती हैं कि आप अभी प्रेम मार्ग के नए पथिक हैं। प्रिय के प्रेम में डूबने के पश्चात् जिस आनंद का अनुभव होता है वह अभी आपको पता ही नहीं सूरदास ने भ्रमरगीत के माध्यम से सहज सुलभ सर्वजन ग्राहय भक्ति को महत्त्व दिया है।