भ्रमरगीत- कुब्जा के वचन उद्धव के प्रति
भ्रमरगीत- कुब्जा के वचन उद्धव के प्रति
सुनियो एक संदेसो ऊथो गोकुल सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
सुनियो एक संदेसो ऊथो गोकुल को जात |
ता पाछे तुम कहियो उनसों एक हमारी बात ॥
माता-पिता को हेत जानि के कान्ह मधुपुरी आए।
नाहिंन स्याम तिहारे प्रीतम, ना जसुदा के जाए ॥
समुझी बुझी अपने मन में तुम जो कहा भलो कीन्हों।
कह बालक, तुम मत्त ग्वालिनी सबै आप बस कीन्हों ।।
और जसोदा माखन का बहुतक त्रास दिखाई।
तुमहिं सबै मिलि दाँवरि दीन्हीं रंच दया नहिं आई ।।
अरु वृषभानसुता जो कीन्हों सो तुम सब जिय जानो ।
यही लाज तजी ब्रज मोहन अब काहै दुख मानो ॥
सूरदास यह सुनि सुनि बातें स्याम रहे सिर नाई ।
इत कुब्जा उत प्रेम ग्वालिनी कहन न कछु बनिआई ॥ 12 ॥
शब्दार्थ
हुतु = प्रेम
नाहिन = न तो नहीं
मत्त = मतवाली
त्रास = दुःख
दावरि = रस्सी
रच = जरा सी तनिक भी।
जिमि=जी में, मन में
वृषभानसुता = वृषभानु की पुत्री, राधा ।
प्रसंग -
प्रस्तुत पद में कुब्जा भी उद्धव के हाथ गोपियों के पास सन्देश भेजती है। उसके कथन में असूया का भाव है जैसे गोपियों के कथन में आगे चलकर कुब्जा के प्रति असूया का भाव व्यंग्य से व्यक्त हुआ है। कुब्जा कंस की दासी थी। वह शरीर से कुबड़ी थी। श्रीकृष्ण के स्पर्श के उसका कुबड़ापन दूर हो गया, वह एक सुन्दर स्त्री बन गयी। तभी से वह श्रीकृष्ण की सेवा में रहने लगी। उसको जब यह पता चला कि उद्धवजी गोपियों के पास जा रहे हैं तो वह भी अपना संदेश उन्हें देने लगी। इस भाव का समर्थन सूरसागर की निम्नलिखित पंक्तियों से होता है -
कुविजा सुन्यो जात व्रज ऊधी महलाहिं तियो बुलाई।
अपने कर पाती लिखि राधेहिं, गोपिन सहित बड़ाई ।।
इस तरह के चुने हुए पदों में से प्रस्तुत पद हैं जिनमें कुब्जा उद्धव को संदेश देती हुई कह रही है
व्याख्या -
हे उद्धव ! तुम ब्रज को जा रहे हो अतः वहाँ के लिए मेरा भी एक सन्देश सुनते जाओ। जब आप अपना सन्देश दे लें तो उसके बाद एक हमारी बात भी गोपियों से कहना। वह यह कि श्रीकृष्ण अपने माता-पिता देवकी और वसुदेव का प्रेम देखकर मथुरा आये हैं। न तो वे गोपियों के प्रियतम हैं और न यशोदा के पुत्र हैं। तुम सब अपने मन में ही सोच-समझ लो कि तुमने श्रीकृष्ण के गोकुल में रहने पर उनके साथ क्या भला किया था। कहाँ तो छोटी-सी आयु के श्रीकृष्ण और कहाँ तुम मतवाली खालिने आप सबने उन्हें अपने वश में कर लिया था। यशोदा ने तो मक्खन के कारण उन्हें बहुत ही दुख दिया था। तुम सबने श्रीकृष्ण को बांधने के लिए रस्सी दी थी उस समय तुमको उस पर तनिक भी दया नहीं आयी? वृषभानु की पुत्री राधा ने जो कुछ किया है वह तो तुम सब अपने मन में अच्छी तरह जानती ही हो। इसी शर्म के मारे तो श्रीकृष्ण जी ने ब्रज को छोड़ दिया। अब आप दुख क्यों महसूस करती हो? आपकी करतूतों से ही तो श्रीकृष्ण गोकुल को छोड़कर मथुरा आए हैं। सूरदास कहते हैं कि कुब्जा की इस तरह की बातें सुन-सुन कर श्रीकृष्ण सिर झुकाए हुए स्थिर थे क्योंकि इधर तो उनके प्रेम की पात्र कुब्जा थी और उधर उनके प्रेम की संगिनी गोपियाँ थीं अतः उनसे कुछ बात नहीं बन रही थी कि क्या कहें और क्या न कहें?