भ्रमरगीत- उद्धव के प्रति श्रीकृष्ण के वचन सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
भ्रमरगीत - सप्रसंग व्याख्या- प्रस्तावना (Bhramar Geet Introduction)
श्रीकृष्ण के द्वारका चले
जाने के पश्चात् कृष्ण गोप-गोपियों से अलग हो गए। द्वारका में उनके मित्र उद्धव
ज्ञानी हैं। वे कृष्ण से तर्क-वितर्क के आधार पर निर्गुण ब्रह्म के प्रति अपनी
आस्था व्यक्त करते हैं। कृष्ण सगुण की महत्ता समझाने हेतु उद्धव को गोकुल भेजते हैं।
उद्धव के जाने से पूर्व श्रीकृष्ण नंद एवं गोकुल वासियों के प्रति कुछ संदेश देते
हैं। उद्धव गोकुल पहुंचकर गोप-गोपियों को ज्ञान और योग की बातें समझाते हैं।
सूरदास ने गोपियों और उद्धव के वार्तालाप के लिए भ्रमर को माध्यम बनाया है।
गोपियाँ भ्रमर के माध्यम से उद्धव से तर्क-विर्तक करती हैं। और अंततः उद्धव
गोपियों के द्वारा सगुण के पक्ष में दिए गए अकाट्य तर्कों के सम्मुख नतमस्तक हो
जाते हैं।
भ्रमरगीत- उद्धव के प्रति श्रीकृष्ण के वचन
पहिले करि परनाम नंद सों समाचार सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
पहिले करि परनाम नंद सों समाचार सब दीजो
और वहाँ वृषभानु गोप सों जाय सकल सुधि लीजो ।
श्रीदामा आदिक सब ग्वालन मेरे हुतो भेटियो ।
सुख संदेश सुनाय हमारो गोपिन को दुख मेटियो
मंत्री इक बन बसन हमारे ताहि मिले सचु पाइयो ।
सावधान है मेरे हूतो ताही माथ नवाइयो ।
सुन्दर परम किसोर बयक्रम चंचल नयन विसाल ।
कर मुरली सिर मोर पंख पीतांबर उर बनमाल ।।
जरि डरियो तुम सघन बनन में ब्रजदेवी रखवार ।
वृन्दाबन सो बसत निरन्तर कबहूँ न होत नियार ।
उद्धव प्रति सब कही स्यामजू अपने मन की प्रीति ।
सूरदास किरपा करि पठए यहै सकल ब्रजरीति ॥1॥
शब्दार्थ-
परनाम= प्रणाम नमस्कार।
मेरे हुतो = मेरी तरफ से
सचु = सुख।
निरन्तर = सदैव, हमेशा
नियार = अलग।
किरपा = कृपा।
प्रसंग -
श्रीकृष्ण के
मथुरा चले जाने पर गोकुलवासी उनके वियोग में दुःखी हो गये। नन्द, यशोदा, ग्वाल और गोपियों, सभी को उनका विरह सताने
लगा। गोपियाँ कृष्ण से प्रेम करती थीं उनकी वेदना अपेक्षाकृत अधिक थी। उधर
श्रीकृष्ण को भी मथुरा में गोपियों की याद आती रहती थी। गोपियों के प्रेम का उन पर
प्रभाव था। कृष्ण के एक मित्र उद्धव थे। वे ज्ञान मार्ग के सिद्धान्तों के समर्थक
थे। श्रीकृष्ण जी ने उसके ज्ञान के गर्व को चूर करने के उद्देश्य से उन्हें गोकुल
भेजना चाहा। इससे एक तो गोपियों को ढांढ़स मिलेगा और दूसरे उद्धव के ज्ञान पर
प्रेम का प्रभाव होगा। इसलिए उन्होंने उद्धव को अपनी प्रेमी गोपियों के पास अपना
संदेश देकर भेजा। प्रसंगतः कुछ बातें नन्द आदि के लिए भी कहीं । प्रस्तुत पद में
कृष्ण उद्धव जी को समझाते हुए कह रहे हैं कि आपको गोकुल में जाकर क्या-क्या करना
है।
व्याख्या -
पहले आप नन्द जी से प्रणाम कीजिए। नन्द एक तो श्रीकृष्ण के पिता हैं अतएव पूज्य हैं और दूसरे वहाँ के राजा हैं और सबसे अधिक प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। उन्हें प्रणाम करना स्वाभाविकता तथा औपचारिकता दोनों की दृष्टि से उपयुक्त है। उसके पश्चात् (प्रणाम के पश्चात् ) उन्हें सब समाचार दीजिये। सब समाचार से तात्पर्य यह है कि पहले तो यह बतलाना कि आप कौन हैं? उद्धव कृष्ण के सखा हैं, उनके अंतरंग मित्र हैं। दूसरे कृष्ण की व्यस्तता के कारण; राज्य कार्य की जटिलता आदि के कारण गोकुल आने की असमर्थता। तीसरे नन्द आदि की यह कठोरता की बात कि फिर उनकी सुधि ही न ली (कहियो नंद कठोर भए)। उसके पश्चात् वृषभान गोप के पास जाकर सबका समाचार लेना। वृषभान की राजी खुशी नंद के यहाँ से भी पूछकर प्राप्त हो सकती थी। परन्तु उनके यहाँ जाकर सुधि लेने को सूर ने रहस्य रखा है। वह रहस्य यह है कि वृषभानु की पुत्री राधा वहाँ मिलेगी। स्वाभाविक है कि वृषभानु के घर जाने पर राधा की स्थिति सुख-दुःख आदि की दशा तथा कृष्ण विरह के प्रभाव आदि की दशा का पता चला ही जाएगा। यही निहित भाव यहाँ प्रतीत होता है। श्रीदामा आदि जो ग्वाल हैं उनको मेरी ओर से भेंटना । यहाँ पर श्रीदामा का तो नाम ले दिया। आदिक में उनके वे सखा जानने चाहिए जिनका सूर ने उल्लेख “रैता, पैता, मना, मनसुखा” आदि नामों से किया है। इसके पश्चात् गोपियों की बारी आती है । गोपियों का हमारा सुख-संदेश सुनाकर उनके दुःख को दूर करना । गोपियाँ विरह व्यथित होंगी उन्हें जब यह पता चलेगा कि श्रीकृष्ण उनके प्रिय उनकी सतत स्मृति संजोये हुए हैं तो उन्हें सुख मिलेगा। विरही को जब यह पता चल जाता है कि उसका प्रिय भी उसकी याद में तड़प रहा है तो उसे बड़ा सुख मिलता है, कुछ संतोष प्राप्त होता है कि मेरी तरह वह भी जल रहा है। गोपियों के प्रसंग में राधा के लिए पूर्णतः संकेत करते हैं और उसे अपना मंत्री (नागरी प्रचारिणी सभा में प्रकाशित सूरसागर में मित्र पाठ हैं। मित्र से भी संकेत स्पष्टतः राधा के लिए ही है) कहते हुए उद्धव को समझाते हैं। पुनः गोकुल में आपको हमारा एक मंत्री (राधा) मिलेगा। उससे मिलकर आपको सुख मिलेगा। वहाँ का वातावरण देखकर आप आनन्दित होंगे। सावधान होकर मेरी ओर से आप उसे स्नेह और स्मरणवश माथा झुकाना। राधा का रूप वर्णन करते हुए कहते हैं वह परम सुन्दर है । वयक्रम के अनुसार किशोरावस्था है (शैशव बाल्य फिर किशोर आती है।) उनके नेत्र विशाल और चंचल हैं। हाथ में मुरली, सिर पर मोर पंख और गले में वनमाला है। आप घने वनों में डरना नहीं वहाँ पर ब्रजदेवी रखवाली करने वाली है फिर डर की कोई बात नहीं। यह सदैव वृन्दावन में रहती है उससे कभी भी अलग नहीं जाती । इस प्रकार श्रीकृष्ण जी ने उद्धव के प्रति अपने मन के प्रेम को कह दिया। सूरदास जी कहते हैं कि कृपा ब्रजवासियों को सुख देने के लिए उद्धव को भेज दिया। ब्रज में उनकी इस प्रकार की रीति रही है।
विशेष -
प्रस्तुत पद्य
में उस पंक्ति का अर्थ विचारणीय है जिसमें 'मंत्री' शब्द आया है। मंत्री से तात्पर्य राधा से है; राधा ही कृष्ण का वेश
बनाकर वहाँ रहती थी। राधा वस्तुतः कृष्ण की प्रतीक्षा करते हुए, उनके विरह में दग्ध हुई
कृष्णमय हो गई थी। वह कृष्ण का वेश बनाकर रहती थीं इसके दो कारण हैं। प्रथम तो यह
कि ब्रह्म के दो रूप माने गये हैं- रसरूप और ऐश्वर्य रूप। उद्धव ने कृष्ण को
ऐश्वर्य रूप में देखा है। श्रीकृष्ण रसरूप को प्रधानता देते हैं अतः 'ताहि मिले सचु पाइयों
कहते हैं और अपने अंश रूप दूसरे रूप-रसरूप का दर्शन उद्धव को गोकुल में ही कराते
हैं। ऐसी मान्यता कृष्ण भक्ति के समर्थकों की है क्योंकि वे राधा को कृष्ण का
अविभक्त अंग मानते हैं।
"मंत्री' शब्द का राधा की ओर संकेत करने में दूसरा प्रबल तर्क स्वयं सूरदास के कथन द्वारा सामने आता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भ्रमरगीत के कुछ पद लिये हैं और कुछ पद नहीं लिए। उन अवशिष्ट पदों में से दो पदों में इस बात का वर्णन आता है कि उद्धव जी ने श्रीकृष्ण जी को यह बतलाया कि मैंने वहां आपके इसी रूप के दर्शन किये हैं। उदाहरण के लिए निम्नलिखित पंक्तियाँ पठनीय हैं-
ब्रज में एक अंचभौ देख्यौ ।
मोर मुकुट पीतांवर थारे, तुम गाइनि संग देख्यौ
गोप बाल संग धावत तुम्हरें तुम घर-घर प्रति जात ।
दूध दही अरु मही लै ढारत, चोरी माखन खात। (सूरसागर पद संख्या 4775)
इस तरह श्रीकृष्ण का वेश
बनाकर वैसा ही आचरण करने का सूर का वर्णन पढ़कर इसमें संदेह नहीं रह जाता कि राधा
ही श्रीकृष्ण जैसा रूप बनाकर रहती हैं। उन्हें मंत्री और मित्र दोनों शब्दों से
अभिव्यक्त किया जा सकता है।
कहियो नंद कठोर भए सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
कहियो नंद कठोर भए ।
हम दोउ बीरें डारि पर धेरै मानो थाती सेपि गए।
तनकतनक तैं तालि बड़े किए बहुतै सुख दिखराए ।
गौचारन को चलत हमारे पाछे कोसक धाए ।।
वसुदेव देवकी हमों कहत आपने जाए।
बहुरि विधाता जसुमतिजू के हमहिं न गोद खिलाए । ।
कौन काज यह राज, नगर को सब सुख सों सुख पाए ?
सूरदास व्रज समाधान करु आज काल्हि हम आए ॥ 2 ॥
शब्दार्थ -
बीरें = भाइयों को
पर घरै = दूसरे के घर मथुरा में
थाती = धरोतर
कोसक = कोस तक ही दूरी
समाधान = तसल्ली ।
व्याख्या -
आप कहना कि
नन्द जी कठोर हो गये हैं। कठोरता का कारण भी स्पष्ट करते हैं कि वे हम दोनों
भाइयों को (श्रीकृष्ण और बलराम को मथुरा में इस तरह छोड़कर चले गये जैसे कोई अपनी
धरोहर को वापस ) देकर निश्चिन्त होकर बैठ जाता है। बालकपन में उन्होंने हमें बहुत
से सुख दिये थे, हमारा पालन-पोषण
तभी से किया जब से कि हम बहुत छोटे थे और हमें उन्होंने इतना बड़ा किया। गोकुल में
रहते समय उनका इतना अधिक स्नेह था कि जब हम गौओं को चराने जाया करते थे तो एक-एक
कोस तक हमारे संग ही चले जाया करते थे। जब मथुरा में आने पर उनका वैसा स्नेह नहीं
है यहाँ पर वसुदेव और देवकी हमें अपना पुत्र बतलाते हैं, फिर हमें विधाता समझते
हैं और यशोदा जी के गोद खिलाये पुत्र के रूप में हमें यहां कोई नहीं समझता। यह नगर
का राज्य किस काम का है? अर्थात् नगर का
राज्य कुछ काम का नहीं है। हमने यहाँ के सुख से सुख पा लिया वस्तुतः इसमें सुख
नहीं है। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण ने उद्धव से कहा कि तुम ब्रजवासियों को
तसल्ली इस तरह से कर देना कि हम बस आजकल में ही आने वाले हैं। अर्थात् शीघ्र ही
गोकुल आने वाले हैं।
विशेष -
( 1 ) मर्म की दृष्टि से यह एक सुन्दर पद है।
(2) 'मानो थाती सौंपि
गये' में उत्प्रेक्षा
अलंकार है ।
तबहिं उपंगलुत आय गए सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
तबहिं उपंगलुत आय गए।
सखा सखा कछू अन्तर नाहीं भरि भरि अंक लऐ ॥
अति सुन्दर तन स्याम सरीखो देखत हरि पछिताने ।
ऐसे को वैसी बुधि होती ब्रज पठबै तब आने ॥
या आगे रस- काव्य प्रकासे जोग बचन प्रगटावै
सूर ज्ञान याके द्दढ़
हिरदय जुवतिन जोग सिखावै ॥ 3 ॥
शब्दार्थ
उपंगसुत = उद्धव
अंक = गोद
सरीखो=समान
हिरदय = दया
जोग = योग
व्याख्या -
उसी समय उद्धवजी वहाँ पर आ गए। दोनों मित्र-मित्र हैं दोनों में कुछ अन्तर नहीं है- शारीरिक साम्य भी है और आन्तरिक साम्य भी है। उन्होंने गोदी में भर लिया और गाढ़ आलिंगन किया, यह तात्पर्य है कि उद्धवजी का शरीर अत्यन्त सुन्दर था। वह श्रीकृष्ण जी जैसा ही था। यह देखकर श्रीकृष्ण जी मन में पश्चाताप करने लगे; दुखी होने लगे । दुःख इस बात का है कि ऐसे सुन्दर-तन उद्धव को, यदि इनका प्रेम और भक्ति में भी विश्वास होता तो कितना अच्छा रहता। पर ये उद्धव ऐसे हैं कि इनके आगे यदि रस की या काव्य की प्रेम-भक्ति सम्बन्धी बातें प्रकाशित करें तो भी यह योग की वाणी ही बोलते हैं। सूरदास कहते हैं कि इनके हृदय में ज्ञान ने दृढ़तापूर्वक स्थान जमा रखा है; यह दृढ़ ज्ञानी हैं। यह युवतियों को योग सिखाकर देखें? भाव यह है कि चाहे उद्धव के हृदय में ज्ञान के प्रति कितनी ही आस्था है पर यदि वह ब्रज में जाकर गोपियों को इसका उपदेश देंगे तो उनके प्रेम के समक्ष इन्हें मात ही खानी पड़ेगी।
विशेष -
सूरदास का अभिप्राय भ्रमरगीत के द्वारा निर्गुण पर सगुण की विजय दिखाना हैं। उसका आभास यहीं से मिलने लगता है।
हरि गोकुल की प्रीति चलाई सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
हरि गोकुल की प्रीति चलाई।
सुनहु उपंगसुत मोहिं न बिसरत ब्रजबासी सुखदाई ॥
यह चित होत जाँऊ मैं अबहीं, यहाँ नहीं मन लागत ।
गोप सुग्वाल गाय बन चारत अति दुख पायों त्यागत ।
कहें माखन चोरी? कहि जसुमति 'पूत जेंव' करि प्रेम ।
सूर स्याम के वचन सहित सुनि व्यापत आपन नेम ॥ 4 ॥
शब्दार्थ
विसरत = भूलना
जैव-खाना
सहित = प्रेम युक्त।
व्याख्या -
श्रीकृष्ण ने गोकुल के प्रेम का प्रसंग चलाया गोकुल की बातों को प्रेमपूर्वक याद किया। वे उद्धव से कहने लगे कि हे उद्धव ! सुनो, मुझे ब्रज की बातें नहीं भूलती हैं। ब्रजवासी अत्यन्त सुख देने वाले हैं, उनकी स्मृति सतत् होती रहती हैं। मेरे मन में ऐसा आता है कि मैं गोकुल को अभी चला जाऊँ यहाँ पर मथुरा के वातावरण में मन नहीं लगता है। गोकुल में गोप थे, श्रेष्ठ ग्वाले थे और वन में गायों को चराते थे। उन्हें त्यागते समय हमने अत्यन्त दुःख का अनुभव किया था। ब्रज में हम माखन चुराकर खाया करते थे; वह माखन चोरी अब यहाँ मथुरा में कहाँ है ? यशोदा वहाँ पर प्रेमपूर्वक कहा करती थी कि बेर खा लो। मथुरा में इस तरह कोई नहीं कहता। सूरदास कहते हैं कि
श्रीकृष्ण के प्रेमयुक्त वचनों को सुनकर भी उद्धव के मन में उनकी योग साधना के नियम योग के विभिन्न विधि-विधान व्याप्त हो रहे हैं। प्रेम का उद्धव पर कोई प्रभाव नहीं है यह भाव है।
जदुपति लख्यो तेहि मुसकात सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
जदुपति लख्यो तेहि मुसकात ।
कहत हम मन रही जोई सोइ भई यह बात ॥
बचन परगट करना लागे प्रेम कथा चलाय ।
सुनहु उद्धव मोहिं ब्रज की सुधि नहीं बिसराय ॥
रैनि सोवत चलत, जागत लगत नहिं मन आन ॥
नंद जसुमति नारि नर ब्रज जहां मेरो प्रान
कहत हरि, सुनि उपगसुत यह कहत ही रसरीति ।
सूर चित तें
टरति नाहीं राधिका की प्रीति ॥ 5 ॥
शब्दार्थ -
जदुपति = श्रीकृष्ण ने।
तेहि उसको, उद्धव को
बिसराव=भूलना।
आन=अन्य, दूसरी ओर ।
सुनि= सुन |
व्याख्या-
उद्धव
को श्रीकृष्ण ने मुस्कराते हुए देखा उन्हें देखकर स्वयं मुस्कुराने लगे। श्रीकृष्ण
अपने में सोचते हैं कि हम जो कुछ उद्भव की आस्था ज्ञान के विषय में सोचते थे वही
बात रही। वे फिर उद्धव के सामने वचन प्रकट करने लगे और ब्रजवासियों के प्रेम की
कथा कहने लगे। हे उद्धव ! सुनो, ब्रज की याद को मुझसे भुलाया नहीं जाता। मेरा मन रात्रि में, सोते समय, चलते समय, जागते समय किसी अन्य
स्थान पर नहीं लगता है। मेरे प्राण वहीं पर पड़े रहते हैं जहां नन्द, यशोदा, वहां के अन्य नर और
नारियां हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे उद्धव सुनो, प्रेम की रीति यही हैं जो मैं तुमसे कहता हूँ
सूरदास कहते हैं कि मेरे वित्त से राधिका का प्रेम थोड़ी देर के लिए भी नहीं टलता
है अर्थात् श्रीकृष्ण को हर समय राधा का स्मरण होता रहता है।
विशेष-
इस अवतरण में
प्रेम के स्वरूप की ओर दृष्टिपात किया गया है। प्रिय का ध्यान थोड़े समय के लिए भी
प्रेमी के चित्त से दूर नहीं हटता ।
सखा ! सुनो मेरी इक बात सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
सखा ! सुनो मेरी इक बात ।
वह लतागन संग गोपन सुधि करत पछितात ॥
कहाँ वह वृषभानुतनया परम सुन्दर गात।
सुरति आए रासरस की अधिक जिय अकुलात ॥
सदा हित यह रहत नाहीं सकल मिथ्या जात ।
सूर प्रभू यह सुनौं मोसों एक ही
सौं नात ॥ 6 ॥
शब्दार्थ -
लतागन = लतागण, बहुत सी लताओं का समूह।
वृषभानुतनया = वृषाभानु की पुत्री, राधा।
व्याख्या -
हे सखा ! उद्धव मेरी एक बात सुनो। जब मैं
ब्रज की उन लताओं की याद करता हूँ, उन लताओं के साथ गोपियों का सामंजस्य होने के कारण गोपियों
को याद करता हूँ तो बहुत पछताता हूँ। पछताना इसलिए कि उन्हें छोड़कर यहाँ मथुरा
में उनके सुख से वंचित होने को कहाँ चला आया। फिर यहाँ वह परम सुन्दर शरीर वाली
वृषभानु की पुत्री राधा कहाँ है? जिस समय रास के आनन्द की याद आती है तो मन और भी अधिक
व्याकुल होता हैं। इसीलिए कहा गया है- 'सब रस को निरयास रास रस कहिए सोई'। श्रीकृष्ण की ये बातें
सुनकर उद्धव कहते हैं कि संसार के ये सम्बन्ध नहीं रहते। इस संसार में सभी वस्तुएँ
मिथ्या हैं। केवल एक ब्रह्म ही सत्य है। सूरदास कहते हैं कि उद्धव भी श्रीकृष्ण को
समझाते हैं कि आप मुझसे यह सिद्धान्त समझ लो कि केवल एक परमेश्वर से ही नाता रखना
चाहिए। आपको गोपी, गोप आदि की
स्मृति नहीं करनी चाहिए, यही मूल भाव है।
विशेष -
(1) प्रस्तुत पद में सूरदास
का भ्रमरगीत-प्रसंग में वर्णित उद्धव का ज्ञानमार्ग का लगाव स्पष्ट होता है (2) ब्रह्म सत्य है और संसार
मिथ्या है वह ज्ञानमार्ग का सिद्धान्त शंकराचार्य के अद्वैतवाद का समर्थक है
जिसमें कि वे 'ब्रह्म सत्यं
जगन्मिथ्या' का उद्घोष करते
है। सूरदास वल्लभाचार्य के सिद्धान्तों के अनुयायी हैं फलतः वे शुद्धाद्वैतवादी
हैं। उनके इसी मत की विशेषता यहाँ सिद्ध होती है।
उद्धव ! यह मन निश्चय जानो सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
उद्धव ! यह मन निश्चय जानो।
मन क्रम बच मैं तुम्हें पठावत ब्रज को तुरत पलानो ॥
पूरन ब्रह्म, सकल अविनासी ताके तुम ही ज्ञाता ।
रेख, न रूप, जाति कुल नाहीं जाके नहिं पितु माता ॥
यह मत दे गोपिन कहँ आबहु बिरह नदी में भासति ।
सूर तुरत यह जाय कहौ
तुम ब्रह्म बिना नहिं आसति ॥ 7 ॥
शब्दार्थ-
निस्चय =निश्चय ।
पठावत = भेजता हूँ। पलानो जाना, प्रस्थान करना।
भासति = डूबती है।
आसित= मुक्ति ।
व्याख्या -
श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि हे उद्धव ! आप अपने मन में यह निश्चत कर लो कि मैं मन, वचन और कर्म से तुम्हें ब्रज को भेज रहा हूँ। अतः आप वहाँ के लिए तुरन्त ही प्रस्थान कर दीजिए। कहने का भाव यह है कि यदि मेरे मन में आपको ब्रज भेजने का भाव न होता और मैं आपको ब्रज भेजता तो आप कुछ ढील भी कर सकते थे। ऐसे ही वचन या कर्म की किसी प्रकार की कमी के रहते हुए तो आप जाने से सोच-विचार कर सकते थे; विलम्ब कर सकते थे पर तीनों बातों के रहने से मेरी भावना की उत्कटता को देखकर आपको तुरन्त जाना चाहिए। आप ज्ञानी हैं।
आप ब्रह्म को यह जानते हैं कि वह पूर्ण है, अखण्ड है और अविनाशी है। उस ब्रह्म की न तो कोई रूप-रेखा हैं, न जाति है, न कुल है और न जिसके माता-पिता हैं अर्थात् ब्रह्म एक और अद्वितीय है। इस प्रकार का ज्ञान मार्ग का उपदेश आप गोपियों को भी दे आओ। वे मेरे विरह-रूपी नदी में डूब रही हैं अर्थात् मेरे विरह से बहुत दुःखी हैं। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण जी कहने लगे कि उद्धवजी, आप गोपियों से यह जाकर कह दो कि इस प्रकार के ब्रह्म के बिना मुक्ति नहीं। अर्थात् हे गोपियो ! यदि आप मुक्ति चाहती हैं तो निगुर्ण ब्रह्म को अपना लो।
विशेष -.
प्रस्तुत पद में
श्रीकृष्ण के वचनों में व्यंग्य भरा है। पहले तो मन, वचन और कर्म की बात कहकर अपनी सफाई देते हैं
इससे लगता है कि उनके मन में कुछ बात और थी और वस्तुतः थी भी। दूसरे उद्धव के
ज्ञान के ऊपर व्यंग्य है 'ताके तुम हो
ज्ञाता' कहकर जो आदर
श्रीकृष्ण ने यहाँ व्यक्त किया है उसकी पोल उद्धव के मथुरा लौटने पर खुलती है।
वस्तुतः उनके ज्ञान की हंसी उड़ाने की ओर सूर का व्यंग्य समझा जा सकता है।
उद्धव ! बेगि ही ब्रज जाहु सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
उद्धव ! बेगि ही ब्रज जाहु
सुरति संदेस सुनाय मेटो बल्लभिन को दाहु ॥
काम पावक तूलमय तन बिरह स्वाय समीर ।
भसम नाहिंन होन पाबत लोचनन के नीर ॥
अंजो लौं यदि भाँति है है कछुक सजग सरीर
इते पर विनु समाधाने क्यों धरै तिय धीर ॥
कहौं कहा बनाय तुमसों सखा साधु प्रवीन
सूर
सुमति विचारिए क्यों जियै जल बिनु मीन ॥ 8 ॥
शब्दार्थ -
सुरति = प्रेम का ।
बल्लभिन = प्यारियों का, प्रियतमाओं का।
दाहु = दुख
पावक = अग्नि।
अजौंलौं = आजतक ।
मीन = मछली
व्याख्या -
श्रीकृष्ण
उद्धव से कहते हैं कि हे उद्धव ! आप शीघ्र ही ब्रज को चले जाओ। हमारा प्रेम का
संदेश सुनाकर प्यारी गोपियों के दुख को दूर करो अर्थात् गोपियों को जब यह संदेश
मिलेगा कि श्रीकृष्ण ने उन्हें स्मरण किया है तो उनके हृदय, जो वियोग दुःख से दग्ध हो
रहे हैं, सान्त्वना
प्राप्त करेंगे। काम-रूपी अग्नि में तूल (रुई) के समान उनके शरीर जल रहे हैं। उस
पर विरह के श्वासों की समीर चल रही है परन्तु उनके शरीर नेत्रों से बहने वाले
आँसुओं के जल के कारण भस्म नहीं हो पा रहे हैं। तात्पर्य यह है कि श्रीकृष्ण के
अभाव में गोपियों के मन में काम की अग्नि लग रही है और इस कारण विरह की श्वासें चल
रही हैं ऐसी स्थिति में उन्हें जलकर भस्म हो जाना चाहिए था, पर आंसुओं का जल मानों
भस्म होने से रोक रहा है ( रोने से दुःख हल्का हो जाता है)। आज तक उनका शरीर इसी
तरह झुलसते-झुलसते कुछ सजग बना हुआ होगा इतने पर भी यदि कोई समाधान न किया गया, तो वे (गोपियाँ) धैर्य
धारण किस प्रकार करती हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं, हे उद्धव ! मैं तुम से और अधिक बातें बनाकर क्या कहूँ? आप जैसा मित्र और चतुर
सज्जन कौन हो सकता है। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण जी उद्धव से कहने लगे कि आप
अपने विचार से कोई युक्ति निकाल लीजिए, जिससे वे गोपियां भी जल के बिना मछली की तरह व्याकुल होकर
मर रही हैं। पुनः जीवन प्राप्त कर सकें। कहने का भाव यह है कि मेरे रूप-रूपी जल के
बिना वे गोपियाँ धैर्य धारण कर सकें उन्हें इस तरह आप समझा आएँ। बिना जल के मछली
का जीवन असंभव है ।
विशेष-
'काम पावक तूलमय तन....नीर' में रूपक अलंकार है।
(2) दुःख की चरम सीमा पर
पहुँचने पर जो स्थिति हुआ करती है वैसी स्थिति का वर्णन यहाँ पर हुआ है।
पथिक संदेसों कहियो जाय सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
पथिक संदेसों कहियो जाय ।
आवैंगे हम दोनों भैया, मैया जनि अकुलाय ॥
याको विलग बहुत हम मान्यो जो कहि पठयो धाय ।
कहँ लौं कीर्ति मानिए तुम्हरी बड़ो कियो पय प्याय ॥
कहियो जाय नदं बावा सों अरु गहि पकय पाय
दोरु दुखी होन नहिं पावहिं धूमरि धौरी गाय ॥
यद्यपि मथुरा बिभव बहुत हैं तुम बिनु कछु न सुहाय ।
सूरदास ब्रजवासी लोगनि भेंटत हृदय जुड़ाय ॥ 9 ॥
शब्दार्थ-
पथिक= राहगीर, यहाँ पर उद्धव के लिए सम्बोधन है।
जनि =मत, न ।
बिलगु = बुरा ।
धाय = दाई, दूध पिलाने वाली, बच्चे का पालन-पोषण करने वाली।
धूमरि-काली।
धौरी = सफेद
विभव - वैभव, ऐश्वर्य, हृदय
जुड़ाय = हृदय प्रसन्न होना ।
व्याख्या -
श्रीकृष्ण
उद्धवजी से कहते हैं कि पथिक (ब्रज की राह पर जाने वाले राहगीर) आप गोकुल में जाकर
यशोदाजी - हमारी माता से यह संदेश कह देना कि हम दोनों भाई (श्रीकृष्ण और बलराम )
शीघ्र ही आयेंगे, माता तुम व्याकुल
न हो। हमने इस बात का बड़ा बुरा माना है जो आपने हमारे पास यह कहलाकर भेजा था कि
मैं तो तुम्हारी पालन-पोषण करने वाली धाय के समान हूँ । (संदेसों देवकी सों कहियो, हौं तो धाय तिहारे सुत की
कृपा करत ही रहियो) । हम आपके यश का गान कहाँ तक करें, आपने दूध पिला-पिलाकर
हमें इतना बड़ा कर दिया। हे उद्धव, आप नंद बाबा के हमारी ओर से चरण छूना और उनसे यह कहना कि
काली और सफेद गायें दुःखी न होने पावें, इसका वे ध्यान रखें। यद्यपि मथुरा में वैभव बहुत है परन्तु
तुम्हारे बिना वह वैभव हमें अच्छा नहीं लगता। यहाँ की कोई भी वस्तु हमें नहीं भाती
है। सूरदास कहते हैं कि ब्रज के रहने वाले लोगों से मिलकर हृदय प्रसन्न हो जाता
है।
नीके रहियो जसुमति मैया सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
नीके रहियो जसुमति मैया
आवैंगे दिन चारि पाँच में हम हलधर दोउ भैया ॥
जा दिन में हम तुमतें बिछुरे काहु न को 'कन्हैया' ।
कबहूँ प्रात न कियो कलेवा, सांझ न पीन्हों छैया ॥
बंसी बेनु सँभारि राखियो और अबेर सबेरो ।
मति ले जाय चुराय राधिका कछुक खिलौनो मेरो ॥
कहियो जाय नंद बाबा सों निपट निठुर जिय कीन्हो ।
सूर स्याम पहुँचाय मधुपुरी मधुरि संदेस न लीन्हों ॥ 10 ॥
शब्दार्थ-
नीके-अच्छी तरह
पीन्ही = पी
छैया = धारोष्ण, दुग्ध, थन से दूध पीना
निपट= बिल्कुल।
मधुपुरी = मथुरा।
बहुरि = फिर
व्याख्या-
श्रीकृष्ण उद्धव से कहते हैं कि आप यशोदा मैया से जाकर कहना कि वे अच्छी तरह से रहें अर्थात् हमारे वियोग में व्यथित न हों। हम दोनों भाई ( मैं और बलराम ) चार-पाँच दिनों में आवेंगे। जिस दिन से हम आपसे बिछुड़े हैं तब से किसी ने भी हमें 'कन्हैया' नहीं कहा। अर्थात् माता-पिता जैसा स्वाभाविक प्यार भरा सम्बोधन मथुरा के राजवैभव में संभव नहीं है। न यहाँ मथुरा में हमें प्रातःकाल ही मक्खन और छाछ आदि का कलेवा मिला और न शाम के समय गायों के थन की धार से निकलने वाला दूध पिया। आप मेरी वंशी को संभाल कर रखना तथा अबेरी-सबेरी किसी समय कहीं राधिका आकर मेरा कोई खिलौना न चुरा ले जाय इसका भी ध्यान रखना। नंद बाबा से भी जाकर कहना कि आपने तो अपना हृदय बिल्कुल कठोर कर लिया। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण कहने लगे कि नंद बाबा ने हमें मथुरा पहुँचाकर फिर हमारी कोई खबर - सुधि नहीं ली ।
विशेष -
(1) प्रस्तुत पंक्तियों से स्पष्ट होता है कि श्रीकृष्ण को यशोदा की स्मृति खटकती है।
(2) इस पद में मनोवैज्ञानिक स्पर्श के साथ-साथ किशोरावस्था में बाल्यावस्था के खोये हुए पदचिह्न हैं।
(3) 'कन्हैया' शब्द द्वारा माता-पिता द्वारा प्रयुक्त सम्बोधन से मार्मिकता का स्पष्ट आभास है।
उद्धव मन अभिलाष बढ़ायो सप्रसंग शब्दार्थ व्याख्या
उद्धव मन अभिलाष बढ़ायो ।
जदुपति जोग जानि जिय सांचो नयन अकास चढ़ायो ॥
नारिन पै मोको पठवत हौ कहत सिखावन जोग ।
मन ही मन सब करत प्रशंसा है मिथ्या सुख भोग ॥
आयसु मानि लियो सिर ऊपर प्रभु आज्ञा परमान
सूरदास प्रभु पठवत गोकुल मैं क्यों कहौं कि आन ॥ 11 ॥
शब्दार्थ -
जोग = योग
आयुश = आज्ञा
परमान = प्रमाण
पठवत = भेजते हैं।
आन = अन्य, अन्य कुछ ।
व्याख्या-
श्रीकृष्ण की
बातों को सुनकर उद्धव सोचने लगे कि श्रीकृष्ण योग मार्ग पर विश्वास करने लगे हैं।
अतः वे अपने मन में बहुत प्रसन्न हुए। वे तरह-तरह की इच्छाएं करने लगे। जब उन्हें यह
ध्यान आया कि श्रीकृष्ण ने योग को सच्चा समझ लिया है तो उनके नेत्र आकाश में चढ़
गये, अर्थात् उनकी
दृष्टि बहुत ऊंची हो गयी,
उन्हें भोग
वास्तव गर्व हो गया। श्रीकृष्ण मुझे स्त्रियों के पास योग सिखाने के लिए भेजते हैं, अच्छा है स्त्रियों को
समझाने में क्या लगता है। उद्धव अपने मन ही मन फूल रहे हैं, वे आत्मा प्रशंसा से
व्याप्त होकर सोच रहे हैं कि संसार के सुख में ही मिथ्या हैं तभी तो श्रीकृष्ण पर
योग का प्रभाव पड़ा है। उन्होंने श्रीकृष्ण की आज्ञा को मानकर सिर माथे पर लिया।
प्रभु की आज्ञा ही प्रमाण है अर्थात् तब प्रभु आज्ञा दे तब सोचने-समझने की
आवश्यकता नहीं होती। सूरदास कहते हैं कि उद्धव जी सोचने लगे कि जब श्रीकृष्ण ही
मुझे गोकुल को भेज रहे हैं तो मैं कुछ और दूसरी बात क्यों कहूँ। कहने का तात्पर्य
यह है कि श्रीकृष्ण की आज्ञा के सामने मुझे और दूसरी बात नहीं सोचनी चाहिए।
विशेष -
(1) सूरदास नाना भांति के वर्णन करते हुए यत्र-तत्र 'हरि', 'प्रभु', 'श्याम' आदि शब्दों के द्वारा भगवान का स्मरण करते जाते हैं। इसका कारण सर्वत्र उनकी भक्ति भावना व्याप्ति है।
(2) इस पद से उद्धव के ज्ञान के गर्व का और भी स्पष्ट लक्षण दृष्टिगत होता है।