भ्रमरगीत की तात्विक समीक्षा (Bhramargeet Tatkvik Samiksha)
भ्रमरगीत की तात्विक समीक्षा- प्रस्तावना
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसे सूरसागर का सार कहा है- “भ्रमरगीत सूरसागर के भीतर का एक सार रत्न है। " भ्रमरगीत की मीमांसा करते समय उसका काव्य-सौष्ठव सहज ही हमारी आँखों के सामने आ जाता है। सूरदास भक्त कवि हैं। भक्ति का भाव-भरा विस्तार उनके सूरसागर में भरा हुआ है। भ्रमरगीत उसका महत्त्वपूर्ण अंश है। सूरसागर में भागवत पुराण की तरह श्रीकृष्ण की भक्ति में उच्चता के साथ काव्य-कला का भी अद्भुत उत्कर्ष है । भागवत के प्रसंगों को सूरदास ने अपनी कवित्व शक्ति, मौलिक सूझबूझ और उत्तम अभिव्यंजना कला से और निखार दिया है। 'भ्रमरगीत प्रसंग उनकी कला का और परिष्कृत रूप है। इस प्रसंग के अनेक पक्षों पर विचार करने के पश्चात् उसके काव्य-सौन्दर्य का विवेचन निश्चय ही रोचक है।
काव्य की परख के दो मानदंड स्पष्ट हैं-काव्य का अनुभूति पक्ष और काव्य का अभिव्यक्ति पक्ष । अनुभूति पक्ष का सम्बन्ध वर्णित विषय है यानी क्या कहा गया है, इसका उत्तर देना अनुभूति पक्ष है और उस अनुभूति की कितनी कलापूर्ण अभिव्यक्ति की गई है इसका विवेचन अभिव्यक्ति पक्ष है। किसी रचना की काव्य सम्बन्धी मीमांसा के लिए प्रायः कुछ बिन्दु स्थिर होते हैं। उन्हीं के आधार पर काव्य का सही विवेचन हो सकता है। वे प्रायः निम्नलिखित हैं-वर्ण्य विषय, मर्मस्पर्शी स्थल कल्पना सौन्दर्य, प्राकृतिक सुषमा, रसाभिव्यक्ति, भाषा और काव्यरूप, अलंकार योजना, वियोजना लक्षणा शक्ति ।
इन्हीं बिंदुओं के आधार पर भ्रमरगीत का काव्य सौष्ठव दृष्टव्य है।
1 वर्ण्य विषय
‘भ्रमरगीत' का वर्ण्य उद्धव और गोपियों की कृष्ण विषयक चर्चा है। उद्धव के ज्ञान गर्व को चूर करने के लिए ही श्रीकृष्ण उन्हें गोपियों के पास भेजते हैं। वे अपने ज्ञान मार्ग का उपदेश गोपियों को देते हुए निर्गुण ब्रह्म को समझाने की चेष्टा करते हैं। कृष्ण प्रेम की उत्सुक गोपियाँ भ्रमर के माध्यम से उद्धव को सगुण ब्रह्म के समर्थन से भरी तर्कपूर्ण भावाभिव्यक्ति करती हैं। इसी को क्रम-क्रम करके सूरदास ने भावभीना विस्तार दिया है। वास्तविकता यह है कि भ्रमरगीत के माध्यम से सूरदास ने निर्गुण निराकार ब्रह्म का खंडन कराकर सगुण ब्रह्म का समर्थन प्रकट किया है। उद्धव पर गोपियों की विनय, ज्ञान पर प्रेम की विजय है। इस तरह सूरदास के भ्रमरगीत में तरह-तरह से गोपियों के प्रेम का प्रकटीकरण किया गया है। इसमें और कोई कथा नहीं चलती। इसके अनेक छन्दों में अनेक प्रकार के भावों की अभिव्यक्ति हुई है। यही भ्रमरगीत का वर्ण्य विषय है। इसको ही भ्रमरगीत का कथ्य भी कह सकते हैं। इसी को दूसरे शब्दों में अनुभूति पक्ष कहा गया है। इस सम्बन्ध में यह तथ्य अवेक्षणीय है कि कुछ विद्वान भ्रमरगीत प्रसंग में यह अनुभव करते हैं कि इसमें सूरदास ने एक ही प्रकार की भाषा में, एक ही प्रकार के गीत काव्य में, एक ही प्रकार की मधुर ब्रजभाषा में, एक ही प्रकार की अनुभूति की है। उसमें पुनरावृत्ति बहुत है।
सूरदास गोपियों के माध्यम से निर्गुण ब्रह्म का खंडन करके प्रेम मार्ग की प्रतिष्ठा करना चाहते हैं। गोपियाँ बार-बार अपनी बात कहती हैं, इसलिए भ्रमरगीत प्रसंग में पुनरावृत्ति या एकरसता कुछ लोगों को लगती है, पर ऐसी बहुत नहीं है। यदि ध्यान से देखा जाय तो भ्रमरगीत प्रसंग के पदों में चाहे बात वही घुमा-फिराकर कही गई हो पर अंतिम पंक्ति में सूरदास अवश्य ही नई बात कहते हैं। इसी तरह प्रत्येक पद की पहली पंक्ति नई उठान से आरंभ होती है। यह एकरसता वाली स्थिति नहीं है बल्कि वह स्थिति है जो ईख के गन्ने को खाने में होती है। एक बार छीलिए; फिर छीलिए, फिर छीलिए पर इच्छुदण्ड (गन्ना) अपना स्वाद देता ही रहता है। 'छिन्नश्छिन्न पुनरपिपुनः स्वादुमानिच्छुदण्डः” । इसी प्रकार सूर की अनुभूति का माधुर्य समझना चाहिए। कहना न होगा भक्ति का समावेश और उदात्त कवित्वपूर्ण अभिव्यक्ति इन दोनों के योग ने सूरदास के भ्रमरगीत को काव्यानुभूति की दृष्टि से प्रौढ़ता प्रदान कर दी हैं। इस काव्य में शृंगार रस का आद्योपान्त प्रवाह है इसलिए भी इसकी रसनीयता अपेक्षाकृत अधिक उत्तम प्रतीत होती है। यानी सूरदास के भ्रमरगीत प्रसंग का कथ्य शक्ति सम्पन्न है। वह ऐसी वाणी में रचित है कि सहसा रस चुंबिनी कोटि को पहुँच गया है।
2 मर्मस्पर्शिता
भ्रमरगीत प्रसंग में मर्म को छूने वाली अभिव्यंजनाएँ बहुत अधिक देखने में आती हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस दृष्टि से भ्रमरगीत की प्रशंसा करते हुए कहा है- “सूरसागर का सबसे मर्मस्पर्शी और वाग्वैग्ध्यपूर्ण अंश भ्रमरगीत है।" वैसे तो सारा ही भ्रमरगीत प्रसंग नारी के प्रति पुरुष की बेवफाई को प्रकट करने वाला शाश्वत सत्य होने के कारण मर्मस्पर्शी है पर इसके कुछ स्थल अधिक सराहनीय हैं। गोपियाँ अपनी स्थिति इस प्रकार समझाती हैं, जिस प्रकार कि कोई चिड़ीमार पहले पक्षियों को अनाज के कण खाने के लिए डाल देता है पर बाद में उन्हें जाल में फंसाकर उनके साथ बुरा बर्ताव करता है। श्रीकृष्ण ने इसी तरह पहले तो गोपियों के साथ प्रेम करके उन्हें लुभाया और फिर बाद में मथुरा जाकर उनको भुलाकर उनके साथ बुरा व्यवहार किया। इसलिए गोपियाँ कहती हैं
प्रीति कर दीन्हीं गरे छुरी
जैसे बधिक चुगाय कपट कन पाछे करत बुरी ॥
उन्हें यह लगता है कि प्रीति क्या मिली हमें तो मानो कोई जहरीली वस्तु ही प्रीति के साथ दे दी गई। यानी कृष्ण ने हमारे साथ बड़ा छल किया है-
ऊधो ! दीनी प्रीति दिनाई ।
बातनि सुहृद, करम कपटी के चले चोर की नाई ॥
गोपियों के इस तरह के कथन हमारे मन को छू लेते हैं। जिन गोपियों का श्रीकृष्ण के साथ बाल्यकाल से प्रेम रहा है, उसे एकदम कैसे भुलाया जा सकता है। गोपियों के वचनों में जो सच्चाई है, यह प्रेममयी भाषा अपने आप बन जाती है और इसलिए हमारे हृदय को छू लेती है। कृष्ण के प्रति प्रेम को व्यंजित करते समय गोपियाँ कभी उलाहने देती हैं, कभी अपने वचनों की विदग्धता के द्वारा प्रेम प्रकट करती हैं। उन प्रसंगों में मार्मिकता है। राधा की विरह व्यथित दशा तो और भी अधिक हृदयद्रावक है। भ्रमरगीत प्रसंग में गोपियों के अधिकांश उद्गार मर्मस्पर्शी हैं। उनमें कोई न कोई हृदय को छूने वाली बात आ ही गई हैं एक बात और ध्यान देने योग्य है । एक स्थिति ऐसी होती हैं कि व्यक्ति जूझकर टूट जाता है। वह न चाहते हुए भी अपनी दृढ़ता छोड़ देता है। प्रेम की पगडंडी पर चलने वाली गोपियाँ अनेक यत्न करके उद्धव से अपने मनोभाव व्यक्त करती हैं। हारकर फिर वे यह कहती हैं कि कृष्ण किसी तरह ब्रज में आकर बसें । उन्होंने प्रेम-व्यवहार के बीच कृष्ण से अनेक कार्य कराये थे। वे सब सिने चित्र की भांति उनके मानस पटल में अंकित होते आते हैं और वे अत्यन्त भावभीने शब्दों में अपने सब कार्यों के लिए पश्चाताप करती हुई कृष्ण की खुशामद करती हैं। उनके ये प्रसंग मर्म को छूने वाले हैं-
फिर ब्रज बसहु गोकुल नाथ
बहुरि न तुमहिं जगाय पठवीं गोधनन के साथ।
बरजौं न माखन खात कबहूँ, देहौं देन लुटाय
कबहूँ न देहों उराहनो जसुमति के आगे जाय ॥
दौरि दाम न देहुँगी लकुटी न जसुमति पानि ।
चोरी न देहुँ उघारि, किए औगुन न कहिहीं आनि ॥
करिहौं न तुम सों मान हठ, हठिहौ न मांगत दान ।
कहिहौं न मृदु मुरली बजावन करन तुमसों गान ॥
कहिहौं न चरनन देन जावक गुहन बेनी फूल कहिहौं न
करन सिंगार बटतर, बसन, जमुना कूल ॥
भुज भूषनन युत कंध धरिकै रास नृत्य न कराउँ ।
हों संकेत- निकुंज बसिके दूति मुख न बुलाउँ ॥
इन सभी बातों में एक-एक प्रसंग समाया हुआ है और वह हृदय को छूने वाला है। भ्रमरगीत प्रसंग में यशोदा के वात्सल्य से सटे हुए उद्गार भी उसी तरह के मर्म को छूने वाले हैं। इस तरह का एक पद बहुत प्रसद्धि है-
यद्यपि मन समुझावत लोग
सूल होत नवनीत देखके मोहन के मुख जोग ।
3 कल्पना सौन्दर्य
सूरदास के काव्य में कल्पना का सौन्दर्य पग-पग पर मिलता है। 'सूरसागर' की रचना भागवत से प्रभाव ग्रहण करके कवि ने अपनी कल्पना की सहायता से अनेक नूतन चित्र उकेरे हैं। सूरसार का अति प्रसिद्ध और भावपूर्ण प्रसंग भ्रमरगीत है, इसलिए उसमें सूरदास की कल्पना का सौन्दर्य क्यों नहीं होगा। अकेले भ्रमरगीत प्रसंग का कल्पना- वैभव ही सूर की महत्ता को अच्छी प्रकार उजागर करने में समर्थ है। सूरदास ने भ्रमरगीत प्रसंग की वस्तु को अपनी कल्पना से नूतन बना दिया है। निर्गुण ब्रह्म का खंडन और उस पर प्रेममार्ग की विजय दिखलाने में कवि ने कल्पना का सहारा लिया है। यह दूसरी बात है कि कवि अपने परिवेश के प्रति इतना सजग है, जिसके कारण वह इस तरह की स्थापना इस काव्यांश में करना चाहता है।
सूरदास का काव्य मुक्तक काव्य है। मुक्तक काव्य में अलग-अलग तरह की अभिव्यंजनाएँ की जाती हैं। सूर इस कला में सिद्धहस्त हैं। भ्रमरगीत प्रसंग में इसलिए तरह-तरह की कल्पना से युक्त पद देखने में आते हैं। यों तो गोपियों के तरह-तरह के भाव व्यक्त हुए हैं उनकी प्रत्येक नई उठान में कार्य की कल्पना है फिर भी कुछ प्रसंग अधिक महत्त्व के कहे जा सकते हैं।
गोपियाँ कृष्ण के विरह में व्यथित हैं। उन्हें इस बात पर बड़ा आश्चर्य होता है कि श्रीकृष्ण वर्षा ऋतु में भी उनकी याद करके उनके पास नहीं आये। वे तरह-तरह की शंकाएँ करती हैं। उन्हें सन्देह होता कि जिस देश में कृष्ण हैं, क्या वहाँ बादल नहीं गरजते? या इन्द्र को ही भगवान ने वर्षा करने को मना कर दिया है या वर्षा के आगमन की सूचना देनेवाले मेढकों को सर्पों ने खा लिया। इस तरह की नाना कल्पनाएँ प्रदर्शित करने वाला पद निम्नलिखित है-
किधौं घन गरजन नहिं उन देसनि ।
किधी वहि इन्द हठहि हरि बरव्यौ दारदुर खाये सेसनि ॥
कियाँ वहि देख बकन मग छाड्यो, घर बृहति न प्रवेसनि ।
किधौं वह देस मोर चातक पिक, बाधक बधे विसेसनि ॥
किधौं वह देस बाल नहिं झूलति गावत गीत सहेसनि ।
पथिक न चलत सूर के प्रभु पै जासौं कहौं संदेसनि ॥ पद, 280
तरह-तरह की कल्पनाओं का सौन्दर्य भ्रमरगीत प्रसंग के और भी अनेक पदों में मिलता है। यहाँ पर सूरदास दृष्टकूट शैली का प्रयोग किया है, यहाँ जो चमत्कार है वह भी कार्य की कल्पना का ही है। 'हरि को तिलक हरि ! ने चित्त को दहत' तथा 'कहत कत परेदसी की बात' आदि पंक्तियों से आरंभ होने वाले पद इसी प्रकार की दृष्टकूट-शैली से युक्त हैं। यहाँ कल्पना का साम्राज्य हैं। इसी तरह जहाँ सूरदास ने अलंकृत वर्णन किया है, वहाँ पर भी कल्पना का सौन्दर्य देखने योग्य है। निस दिन बरसत नैन हमारे', 'लखियत कालिन्दी अतिकारी तथा अति मलीन वृषभानुकुमारी आदि पंक्तियों से आरंभ होने वाले पद अलंकृत पद हैं और उनमें कल्पना की सुन्दरता अलंकारों के प्रयोग के रूप में दिखलाई देती है। कल्पना सौन्दर्य का एक अनूठा उदाहरण यहाँ पर और दृष्टव्य है। गोपियाँ कृष्ण के विरह में दुखी हैं। वे काम से पीड़ित होने पर विचार करती हैं कि कामदेव हमें सता रहा है, हमारा वध किये दे रहा है। स्यात् कामदेव ने हमें अपना शत्रु शिव समझ लिया है क्योंकि शिवजी के पास गंगा भी हैं हमारी मोतियों की माला को कामदेव ने गंगा समझ लिया है। हमने तो श्रीकृष्ण के लिए सोलह श्रृंगार कर रखे हैं। आप भूल से शिव समझ रहे हैं। सरसता, सौन्दर्य और आपहुति के पुष्ट सूर की कल्पना का यह सब सौन्दर्य निम्नलिखित पद में ईक्षणीय है
सबन अवध सुन्दरी बधै जनि ।
मुक्तामाल अनंग! गंग नहिं, नवसत साजे अर्थ स्यामघन ॥
भाल तिलक उड्डुपति न होय यह, कबरित-ग्रंथि अहिपति न सहसफन ।
नहिं विभूति दाधिसुत न भाल जड़! यह मृगमद चंदन चर्चित तन ।
न मृग चर्म यह असित कंचुकी, देखि बिचारि कहाँ नंदी गन।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस बिनु बरबस काम करत हठ हम सन ॥
अतः यह स्पष्ट है कि सूरदास के भ्रमरगीत प्रसंग में कवि की कल्पना का सौन्दर्य अनेक प्रकार से प्रस्फुटित होता हुआ दिखलाई देता है। यह प्रसंग आदि की गंभीरता के साथ-साथ उच्च कोटि के कवित्व से पूर्ण है। इसलिए इसमें कल्पना का अधिक सौन्दर्य मिलता है।
प्राकृतिक सुषमा
सूरदास के भ्रमरगीत काव्य में ब्रज के गोकुल गाँव का वातावरण उभरकर आया है। ग्राम प्रदेश में प्रकृति का पूरा प्रसार होता है। श्रीकृष्ण का गोकुल गाँव की प्रकृति के साथ घनिष्ठ साथ रहा है। सूरदास ने जो भावाभिव्यक्ति की है उसमें प्रकृति का समावेश हो जाना सर्वथा स्वाभाविक था । भ्रमरगीत का सम्बन्ध सीधे रूप में कृष्ण की ब्रज की लीलाओं से है। अतः इस काव्य में प्राकृतिक सुषमा का प्रशंसित रूप देखने को मिलता है। हिन्दी साहित्य में प्रकृति वर्णन की अनेक शैलियाँ प्रसिद्ध हैं- ( 1 ) आलम्बन रूप में (2) उद्दीपन रूप में ( 3 ) मानवीकरण के रूप में (4) प्रतीकात्मक रूप में (5) अलंकार विधान के रूप में (6) पृष्ठभूमि के रूप में ( 7 ) बिम्ब प्रतिबिम्ब रूप में (8) उपदेशिका रूप में (9) दूती के रूप में (10) रहस्यात्मक रूप में ( 11 ) संवेदना के रूप में भ्रमरगीत प्रसंग में इनमें से कई प्रकार का वर्णन देखने में आता है। कवि की कला प्रकृति की शैलियों की विविधता में नहीं है। उनका वैशिष्ट्य प्राकृतिक सुषमा के अंकन में है। उन्होंने ब्रज के वन, नदी, पर्वत, लता, पुष्प, कुंज, कछार आदि के साथ सर्वथा सुलभ सूर्य, चन्द्र रात्रि, जल चन्दन आदि अनेक चीजों का भावपूर्ण वर्णन किया है।
भ्रमरगीत प्रसंग में श्रीकृष्ण के विरह में व्यथित गोपियों के प्रेम भरे उद्गार हैं। वे कृष्ण के संयोग के समय की स्मृति करती हैं। संयोग के समय की सुखद चीजें वियोग में दुखद हो जाती हैं। गोपियाँ कृष्ण के वियोग का प्रभाव प्रकृति पर भी मानती हैं। मधुवन को जब हरा-भरा देखा तो उसे लज्जित करते हुए कहती हैं-
“मधुवन, तुम कत रहत रहे ।
विरह वियोग स्याम सुन्दर के ढाठे क्यों न जरे ॥ "
गोपियों को श्रीकृष्ण के बिना प्रकृति की सभी वस्तुएँ दुखद लगती हैं। सूरदास ने उसका बड़ा सुन्दर वर्णन किया है
बिनु गोपाल बैरिन भई कुञ्ज ।
तब ये लता लगति अति सीतल अब भईं विषम ज्वाल की पुंज ॥
वृथा बहति जमुना, खग बोलत, वृथा कमल फूलै अलि गुंजैं।
पवन पानि घनसार संजीवनि दधि सुत किरन भानु भई मुंजै ॥
ए, ऊधो, कहियो माधव सों विरह कदन करि मारत लुंजें ।
सूरदास प्रभु को मग जोवत अँखियाँ भई बरन ज्यों गुजें ॥ -पद, 85
प्रकृति वर्णन की शैली की दृष्टि से यहाँ प्रकृति का उद्दीपन रूप में वर्णन है। उसमें अधिक कला इस बात में है कि कवि ने ब्रज की उस प्राकृतिक शोभा की व्यंजना कर दी है जिसका ब्रज की भूमि पर सर्वतो व्याप्त प्रसार है । सूरदास ने विभिन्न ऋतुओं के अनुसार भी प्रकृति सम्बन्धी सुन्दरता व्यंजित की है, उसमें वर्षा की प्रमुखता रही है। सूरदास ने प्रकृति के एक-एक पदार्थ को लेकर भी भावाभिव्यक्ति की है चाहे वह उद्दीपन रूप में ही आई है।
जैसे
चन्द्रमा को देखकर - "हर को तिलक हरि चित को दहत",
बादल को देखकर “बरु ये बदराऊ बरसन आये",
कोयल को देखकर - "जो तूने कुहू उड़ माहि"
मोर को देखकर - "हमारे माई मोरउ बैर परे"
प्राकृतिक सुषमा की छटा अलंकार विधान के रूप में सूर ने खूब की है। जहाँ लम्बे रूपक हैं वहाँ पर और जहाँ तरह-तरह की उपमाएँ ही हैं वहाँ पर तो प्रकृति का सहारा लिया ही है, सामान्य कथनों में भी प्रकृति का उपमान रूप में प्रयोग हुआ है। इस तरह प्रकृति का अलंकार रूप में- "सवन अवध सुन्दरी बधै जनि,” टेक वाले पद में अच्छी प्रकार देखा जा सकता है। सूरदास आलम्बन रूप में, दूती रूप में, मानवीकरण के रूप में भी प्रकृति का वर्णन किया है। उनकी अनुभूति की यह विशेषता है कि चाहे किसी रूप में आई है, प्रकृति अपनी सुषमा विकीर्ण करती हुई ही आई है।
4 रसाभिव्यक्ति
सूरदास रस सिद्ध कवि हैं। वात्सल्य और श्रृंगार रस के वर्णन में वे अद्वितीय हैं। इसलिए उन्हें वात्सल्य और शृंगार रस का सम्राट कहा जाता है। भ्रमरगीत प्रसंग में सूरदास ने कृष्ण के प्रति गोपियों के विरहोद्गारों की मार्मिक अभिव्यंजना की है। उसमें यशोदा के कथनों से वियोग वात्सल्य रस की निष्पत्ति होती है। इस प्रसंग का मुख्य रस शृंगार रस है । शृंगार रस का भी वियोग पक्ष भ्रमरगीत प्रसंग में आया है। यहाँ शृंगार रस के आलम्बन श्रीकृष्ण हैं । उद्धव की चिट्ठी जिसमें ज्ञानमार्ग का उपदेश गोपियों के विरह को उद्दीप्त कर देता है। उनके हृदय से तरह-तरह के उद्गार निकलते हैं। सूरदास ने उनका विस्तार के साथ वर्णन किया है। वे सभी प्रसंग शृंगार रस के विरह वर्णन के हैं। कहीं-कहीं कृष्ण को भी शृंगार रस के आश्रय के रूप में वर्णित किया गया है पर ऐसा कुछ ही पदों में है। वियोग शृंगार रस की अभिव्यक्ति गोपियों के अनेक भावों में होती है। यहाँ पर कुछ उदाहरण ध्यान देने योग्य हैं। उद्धव श्रीकृष्ण की चिट्ठी लाते हैं। अपने प्रिय की वस्तु पाकर और अतीत के साहचर्य सम्बन्ध का स्मरण करके गोपियाँ प्रेम विभोर हो जाती हैं। सूरदास ने इसका वर्णन इस प्रकार किया है
निरखत अंक स्याम सुन्दर के बार-बार लावति छाती ।
लोचन जल कागद- मसि मिलिकै है गई स्याम स्याम की पाती ।
यहाँ पर श्रीकृष्ण आलम्बन हैं। उनकी चिट्ठी उद्दीपन है। उसको बार-बार छाती से लगाना अनुभाव है। आँसू है। और स्मृति संचारी भाव है। रति स्थायी भाव है रस के सभी अवयव भी यहाँ पर हैं और यहाँ अनुभाव है। सात्त्विक श्रृंगार रस की पूर्ण निव्यत्ति हुई है।
गोपियों का श्रीकृष्ण से बाल्यकाल से अनुराग है। जिसे छोड़ना किसी प्रकार भी संभव नहीं है। श्रीकृष्ण का रूप और उनका चरित उनके लिए सदैव मनोहर उद्दीपक बना हुआ है। इसीलिए वे उद्धव के उपदेश की उपेक्षा करके श्रीकृष्ण का ही स्मरण करती हैं। इस तरह भाव निम्नलिखित पद में आये हैं और वे वियोग श्रृंगार रस के हैं
लरिकाई को प्रेम, कहो अलि कैसे करिकै छूटत?
कहा कहौं ब्रजनाथ चरित अब अन्तरगति यों लूटत ॥
चंचल चाल मनोहर चितवनि, वह मुसुकानि मंदधुनि गावति ।
नटवर भेस नंद नन्दन को यह विनोद गृह बन ते आवत ॥
चरन कमल की सपथ करति हौं यह संदेस मोहि विष सम लागत ।
सूरदास मोहि निमिष न विसरत मोहन मूरति सोवत जागत ॥ -पद 34
गोपियों का श्रीकृष्ण से कितना अधिक अनुराग है, वह सुर की अनेक उक्तियों से अच्छी प्रकार व्यंजित हो जाता है। उनके कथनों में वियोग की ऐसी मार्मिक अभिव्यंजना वियोग श्रृंगार के उदाहरणों में सरलता से गिन सकते हैं ।
वे कभी हमरे हरि हारिल की लकरी, कहकर, कभी 'उपमा नैनन एक गही, कहकर, “सबन अबध सुन्दरी बधै जनि" कहकर कभी "यह तो कान्ह केलि की भूखी” कहकर कभी हम हमें नंन्दनंदन को गारो' कहकर यानी सहस प्रकार से अपने मन की व्यथा को व्यक्त करती हैं। इस तरह के अनेक कथनों में से यह यहाँ पर अवेक्षणीय है-
निस दिन बरसत नैन हमारे ।
सदा रहत पावस ऋतु हम पै जब से स्याम सिधारे ॥
दृग अंजन लागत नहिं कबहूँ, दूर कपोल भये कारे।
कंचुकि नहिंसूखत सुन सजनी, उर बिच बहत पनारे ॥
सूरदास प्रभु अम्बु बढ्यो, गोकुल लेहु उबारे ।
कँह लौं कहौ स्याम घन सुन्दर, बिकल होत अति मारे॥ - पद 316
भ्रमरगीत प्रसंग में वियोग की अभिव्यक्ति को कवि ने अनेक प्रकार से परिकल्पित किया है। गोपियाँ विभिन्न ऋतुओं के अनुसार अपने वियोग दुख की अभिव्यक्ति करती हैं। प्रकृति के पदार्थों को देखकर वियोग के भावों की वृद्धि का वर्णन करती हैं। कभी कामदेव के सताने की शिकायत करती हैं। अपने विभिन्न अंगों की जैसे मन की आंखों की व्याकुलता का वर्णन करती हैं। अतीत की अनेक स्मृतियाँ उनके हृदय पटल पर सिने चित्र की भाँति आती है। वे अपने कायो के लिए अनुताप प्रकट करती हैं। कृष्ण से तरह-तरह के व्यंग्य और उपालम्भों से युक्त शब्दावली में शिकवा करती हैं। संदेश भेजने का भी कथन करती हैं। जब बहुत कह लेती हैं तो आत्मीयता से भरे शब्द भी प्रकट करती हैं। इन सभी तरह की अभिव्यंजनाओं में शृंगार रस की धारा बहती है। इनके इतने अधिक भावविस्तार को देखकर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है
" वियोग की जितनी अन्तर्दशाएं हो सकती हैं, जितने ढंगों से उन दशाओं का साहित्य में वर्णन हुआ है या सामान्यतः हो सकता है, वे सब इसके भीतर मौजूद हैं।"
सूरदास को वात्सल्य एवं शृंगार रस का सम्राट कहा जाता है।
गोपियों के वियोग के भावों में सबसे अधिक सरस और हृदयस्पर्शी गोपियों की कृष्ण के प्रति अभि- आस्था है। उनका कृष्ण से जो सम्बन्ध रहा है उसके बल पर वे बड़े विश्वास के साथ व्यक्त करती हैं कि चाहे कृष्ण लाखों विवाह कर ले या फिर एक छोड़ दस कुब्जाओं को रख लें, रहेंगे वे अन्ततः हमारे ही
ब्याहो लाख धरो दस कूबरि अंतहि कान्ह हमारे
शृंगार रस की अभिव्यक्ति की परख रस के विभिन्न अवयवों की निबंधना से भी की जाती है। विभाव के अन्तर्गत आलम्बन तो श्रीकृष्ण हैं । उद्दीपन के दो प्रकार होते हैं- आलंबनगत और आलम्बन बाह्य आलम्बनगत उद्दीपन का आख्यान भ्रमरगीत में इसीलिए नहीं है क्योंकि श्रीकृष्ण सामने नहीं हैं। केवल मात्र उनकी चिट्ठी है। आलम्बन बाह्य में कवि ने कहीं तो ऋतुओं के अनुसार उद्दीपन की अभिव्यक्ति की हैं। उनमें वर्षा ऋतु सबसे प्रमुख है जैसे, कारी घटा देखि बादर की नयन नीर भर आये, ब्रजतैं द्वै ऋतु, पै न गई, आदि पदों में वर्षा, से गोपियों से विरह के उद्दीप्त होने का वर्णन है। ब्रज की प्रकृति लता, कुंज यमुना के उद्दीपन आदि को बिनु गोपाल वैरिन भई कुंजैं, पद में अच्छी प्रकार व्यक्त किया गया है। बादल, कोयल, पपीहा, मोर, चन्द्रमा, आदि को लेकर सूर ने अलग-अलग विरह - उद्दीपक वर्णन प्रस्तुत किये हैं। कहीं कहीं त्यौहारों के समय का बड़ा मर्मभरा उद्दीपक चित्र सूर ने खींचा है। जैसे-
आवत दिवारी बिल खाय ब्रजवारी कहै, अबकै हमारे गाँव गोधन पुजै है को ?
शृंगार रस के अनुभावों का भी बहुत आधिक्य भ्रमरगीत प्रसंग में मिलता है। ज्ञानमार्ग के उपदेश को सुनकर गोपियों के प्रेम भरे तर्क यत्नज अनुभाव में आयेंगे और ये इतने अधिक हैं कि उनकी गणना भी नहीं की जा सकती। सात्त्विक भावों में अश्रु का वर्णन बहुत देखने में आता है- "निस दिन बरसत नैन हमारे और शखि इन नैनन ते घन हारे' आदि पदों में आंसुओं का वर्णन है। इस तरह का सूरदास का निम्नलिखित पद ध्यान देने योग्य है। कवि राधा की विरह-दशा का वर्णन करते हुए कहता है। यहाँ विभिन्न अनुभावों के साथ दैन्य चिता आदि संचारी भाव भी आ गये हैं।"
अति मलीन वृषभानु कुमारी।
हरि समजल अंतर तनु भी जता लालच न धुआवति सारी ॥
अधोमुख रहति उरध नहिं चितवति ज्यों गथ हारे थकित जुआरी ।
छूटे चिहुर बदन कुम्हिलाने ज्यों मलिनी हिमकर की मारी ॥
हरि संदेश सुनि सहज मृतक भई इक विरहिनि दूजै अलि जारी ।
सूर स्याम विनु यों जीवति है ब्रज बनिता सब स्याम दुलारी ॥ - पद 100
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सूरदास ने भ्रमरगीत प्रसंग में वियोग श्रृंगार रस की सांगोपांग अभिव्यक्ति की है। कवि ने बार-बार विरह के इतने उद्गार व्यक्त किये हैं कि उनमें से रस प्रक्रिया की सारी सामग्री ढूँढ निकालना आसान काम है । वियोग की एकादश अवस्थाएँ बतलाई गई हैं- अभिलाषा, चिन्ता, स्मरण, गुण कथन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जड़ता, मूर्छा, मरण । ये सभी भ्रमरगीत प्रसंग में मिल जाते हैं। ये सब बातें सूरदास के प्रभावपूर्ण अनुभूति कौशल को प्रकट करनेवाली हैं। तभी तो उनके बारे में कहा है
किधौं सूर को सर लग्यौ, किधौं सूर की पीर ।
किधौं सूर को पद लग्यौ, तन मन धुनत सरीर ॥
भ्रमरगीत की तात्विक समीक्षा- सारांश (Summary)
‘भ्रमरगीत' का वर्ण्य उद्धव और गोपियों की कृष्ण विषयक चर्चा है। उद्धव के ज्ञान गर्व को चूर करने के लिए ही श्रीकृष्ण उन्हें गोपियों के पास भेजते हैं। वे अपने ज्ञान मार्ग का उपदेश गोपियों को देते हुए निर्गुण ब्रह्म को समझाने की चेष्टा करते हैं। कृष्ण प्रेम की उत्सुक गोपियाँ भ्रमर के माध्यम से उद्धव को सगुण ब्रह्म के समर्थन से भरी तर्कपूर्ण भावाभिव्यक्ति करती हैं ।
भ्रमरगीत प्रसंग में मर्म को छूने वाली अभिव्यंजनाएँ बहुत अधिक देखने में आती हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस दृष्टि से भ्रमरगीत की प्रशंसा करते हुए कहा है- “सूरसागर का सबसे मर्मस्पर्शी और वाग्वैग्ध्यपूर्ण अंश भ्रमरगीत है।” सूरदास के काव्य में कल्पना का सौन्दर्य पग-पग पर मिलता है। 'सूरसागर' की रचना भागवत से प्रभाव ग्रहण करके कवि ने अपनी कल्पना की सहायता से अनेक नूतन चित्र उकेरे हैं। सूरसागर का अति प्रसिद्ध और भावपूर्ण प्रसंग भ्रमरगीत है, इसलिए उसमें सूरदास की कल्पना का सौन्दर्य क्यों नहीं होगा। अकेले भ्रमरगीत प्रसंग का कल्पना-वैभव ही सूर की महत्ता को अच्छी प्रकार उजागर करने में समर्थ है।
सूरदास रस सिद्ध कवि हैं। वात्सल्य और शृंगार रस के वर्णन में वे अद्वितीय हैं। इसलिए उन्हें वात्सल्य और शृंगार रस का सम्राट कहा जाता है। भ्रमरगीत प्रसंग में सूरदास ने कृष्ण के प्रति गोपियों के विरहोद्गारों की मार्मिक अभिव्यंजना की है।