अनुवाद का स्वरूप (Format of translation)
अनुवाद का स्वरूप (Format of translation )
अनुवाद विज्ञान अथवा कला :
- अनुवाद कार्य सारी दुनिया में होता रहा है । अतः यह प्रश्न वैश्विक है कि यह कार्य विज्ञान है अथवा कला ? यहाँ विज्ञान और कला के संबंध में एक धारणा स्पष्ट कर लें ।
- किसी कार्य में विज्ञान की तरह वैज्ञानिक शैली का अनुसरण करते हैं तो वह विज्ञान है । इसमें प्रयोगशाला में या अन्य विधि से परिणामों की प्रत्यक्ष जांच संभव होनी चाहिए । इसमें भावों का प्रभाव अथवा भावुकता प्रधान शैली न हो, वरन तथ्य प्रधान शैली या वस्तुनिष्ठता को महत्व दिया जाये । कर्ता गौण हो जाता है । कार्य के अनुसार गति होती है । अतः इसमें किसी शैली के वेरियेशन की कोई जगह । नहीं रहती । 2+2= 4 की तरह अनुवाद का रास्ता सीधा होगा कहीं विकल्प का संशय नहीं । अथवा सौन्दर्यशील चेतना के कारण अलंकरण प्रधान न हो कर विषयानुसार निर्णय, निष्पक्ष सत्य का कथन होगा । अभिभूत होने जैसी पक्षधरता को स्थान नहीं होगा । विकल्पों या वैज्ञानिक रूप में नियंत्रण होता है। मशीन प्रयोग कर उसका समाधान होता है । 'ग्रे ओटिंगर' मानते हैं कि अनुवाद एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है मशीन प्रयोग कर सफल अनुवाद की दिशा में बहुत प्रगति की है । यहाँ मानव मस्तिष्क की बजाय मशीन ब्रेन स्थानापन्न भाषा प्रस्तुत करने की दिशा में प्रयत्नशील है । उसमें पूरी सफलता न मिलना उसे अवैज्ञानिक नहीं कह सकते । आज नहीं तो कल, भाषाई घटकों की पहचान कर एक-दूसरी भाषा में लाना ले जाना वैसे ही हो जायगा जैसे अब बोला हुआ पाठ टाइप होने लगा है । अथवा एक विधि में टाइप सर्वत्र सम रूप में उपलब्ध है (जैसे युनीकोड में प्रयास जारी है) विश्व विज्ञान में प्रगति कर अनुवाद प्रक्रिया की सारी जटिलता सुलझाने में लगा है ।
- कुछ हैं जो अनुवाद कर्म में कलात्मक सूक्ष्मताओं के कारण उसे 'कला' कहते हैं । यहाँ सर्जक कलाकार की तरह अनुवादक दूसरे भाषा क्षेत्र में नया रूप देता है । यह बात ज्यादातर कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास आदि के अनुवाद पर लागू होती है । इन सृजनात्मक कृतियों के अनुवाद में विषय, भाषा, शैली, अनुगूंज आदि भाषा से इतर बातें उसे महत्व रखती हैं उनके अनुवाद में अनुवादक की सृजन क्षमता ही उपयोगी होगी । शब्द दर शब्द या वाक्य दर वाक्य समान सांचों का अनुवाद संभव नहीं होगा । अगर कर भी लें तो वह नई प्राणवंत रचना नहीं बन पाती । इसीलिए 'राबर्ट फ्रास्ट' का यह कथन महत्वपूर्ण है - साहित्यिक कृति की अपनी एक विशेषता होती है । अनुवाद में उसे बनाये रख पाना सहज नहीं रह पाता । बहुत सारा अंश भाषा में लिपटा होने के कारण अनानूदित रह जाता है । यह छूटा ही कविता है गोपीनाथ महांति के 'परजा' (उड़िया) उपन्यास में परजा जीवन के पर्व-त्यौहार, वन-पर्वत जीवन की अनुभूतियाँ और व्यवहृत सामग्री बहुत कुछ अंग्रेजी में अनूदित नहीं हो पाई । आलोचकों का मानना है कि वह अंश भी उपन्यास के प्राणों का अंश है। अतः वहाँ कला के स्तर पर अनुवाद आंशिक संभव हुआ है। वैज्ञानिक रूप में उसे छान कर काफी अंश अंग्रेजी में प्रस्तुत कर भाषाई कलात्मकता से उसकी भरपाई कर दी गई । इसमें वह कृति पाठक-आलोचक के लिए ग्रहणीय बन गई । इस प्रकार यह अंग्रेजी की जीवंत कृति कलात्मक मानों पर भी खरी उतरी है । पाठक को छूटे हुए पर कोई अफसोस नहीं रहा । अनुवादक ने कला सापेक्ष पुनः सृजन का कार्य खूब चतुराई से किया है। । इससे संप्रेषण के मुद्दे पर वह ग्रंथ अत्यंत महत्वपूर्ण बन गया । पाठ की संरचना और बनावट को अनुवाद के एकदम भिन्न क्षेत्र होने के कारण एक नयी आधारभूत संरचना और बुनावट प्रस्तुत करने की क्षमता का परिचय दिया है। शैली का मुद्दा भी सहजता से सुलझाया इस प्रकार अनुवाद कला के दायरे में सही उतरता है । अगर कहीं कुछ छूटा है तो अनुवाद के पाठक का उससे कभी साबका नहीं पड़ेगा और वह जो प्राप्त हुआ उसीके आनन्द में संतुष्ट है । उसे मूल की वह पुनः संरचित कृति मूल का आनन्द प्रदान करती है । यहाँ उसे किसी पुरातत्वविद या वनवासी अध्येता की तरह अध्ययन नहीं करना उनके संप्रेष्य अंश से रूबरू होकर वह संतुष्ट हो जाता है । यही अनुवाद कला का क्षेत्र है । यहाँ पर 'छूटना या जोड़ना' पाप नहीं माना जाता । यह 'ललित कला' के दायरे में आकर कितना अभिव्यक्त, कितना संकेतित ऐसे प्रतिशत का हिसाब नहीं रह जाता । यहाँ मूल एकक और अनूदित कृति एकक रूप में सामने रहती हैं । दोनों की अपनी स्वायत्तता, स्वायंभुवता अनुवादक के अपने आधार से बनती है । जैसे मूल कलाकार सर्जन करता है, जीवनानुभवों को एक कृति का रूप देता है, उसी प्रकार अनुवादक इन अनुभवों का आत्मीय बन कर इन्हें अपना बनाकर फिर सृजन रूप देता है इन्हीं में भाषा, भाव, छंद, शैली, संकेत अर्थछवि आदि उभरती गढ़ी जाती है उसकी सृजन प्रतिभा के बल पर यह नई कृति प्रस्तुत होती है । यहीं उसकी कला की परख होती है ।
यहाँ एक शब्द "Flowering" के अनुवाद को लें। कामिल बुल्के इसे 'फूल आना' लिखते हैं ।
हजारी प्रसाद द्विवेदी इसे 'पुष्पन' कहते हैं परंतु अज्ञेय ने 'कुसुमन' कहा ।
तीनों सही हैं पर अज्ञेय में इसका पुनर्नृजन है ।
- लेकिन आलोचक दोनों मतो से संतुष्ट नहीं हैं न अनुवाद पूरी तरह वैज्ञानिक हो सकता है और न यह कलात्मकता के बिना संभव है । ज्ञान-विज्ञान का विषय हो अथवा सूचना सामग्री, सब को भाषा में ले कर ही अनुवाद किया जाता है । कुछ विषय वैज्ञानिक साधना से भाव निर्धारित होने एवं अर्थ भी निर्धारित (तकनीकी शब्दावली की तरह.. ) होने के कारण रूपांतरण संभव है फिर भी कहीं कहीं कलागत सूक्ष्मता को जोड़े बिना सही स्तर प्राप्त नहीं होगा । उसी प्रकार सृजनात्मक कृति में वैज्ञानिक विकोडीकरण बिना यह सही रूप में अनूदित नहीं होगी । विषय कहीं का कहीं चला जायेगा यहाँ मशीन जितनी दक्षता लागू न हो परंतु अनुवादक को आटोनोमी देकर अराजक स्थिति भी नहीं बना सकते कुछ निर्धारित सीमाओं, नियमों में काम करना होगा । यहाँ पर अनुवादक को 'शिल्प' की ओर ले जाते हैं इसमें उपयोगी कला (Functional Art) कहते हैं । यह ललित कला मात्र नहीं । वरन बेहतर रूप में 'चारु कला' कहते हैं इसकी शिक्षा दी जाती है इसका अनुवादक अभ्यास भी करता है तब अपना स्तर बना पाता है। इसी दौरान अनुवादक का सौन्दर्य बोध विकसित होता जाता है । जैसे तुलसीदास कहते हैं - 'बालकपन में राम कथा सुनी । तब मैं रहेउ अचेत' और फिर बड़े हो जाने, अध्ययन, शिक्षण और अभ्यास के बाद 'रामचरित मानस' रची जाती है ।
- इस प्रकार कह सकते हैं - अनुवाद संश्लिष्ट और जटिल प्रक्रिया है । उसके विभिन्न चरणों पर अनुवादक विभिन्न भूमिका निभाता है । साहित्यकार की सर्जनात्मक प्रतिभा, वैज्ञानिक की तर्कणा शक्ति और उपयोगी कला पायी जाने वाली शिल्पगत दक्षता आदि सभी गुणों की अपेक्षा करते हैं । (अनुवाद विज्ञान की भूमिका : के. के. गोस्वामी) परंतु विषय भिन्न होने पर इन तीनों भिन्न-भिन्न क्षमताओं का प्रयोग भिन्न रूप में होता है । फिट जिराल्ड और हरिबाबू कंसल के कार्यों में अंतर इस बात को स्पष्ट कर देता है अर्थात् अनुवाद वह सामग्री के अनुसार भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में (कला विज्ञान - शिल्प) भिन्न आकार धारण करती है ।
अनुवाद का स्वरूप सारांश :
यहाँ संक्षेप में हमने 'अनुवाद' की परिभाषा पर विचार किया है । इसमें विभिन्न विद्वानों एवं कृतियों का उदाहरण देकर स्पष्ट किया । 'कला-विज्ञान और शिल्प' वाली बात लेकर अनुवाद कार्य पर चर्चा की गई है । ललित साहित्य का अनुवाद और वैज्ञानिक तकनीकी सामग्री के अनुवाद में भिन्नता पर चर्चा की गई है। मशीनी अनुवाद के लाभ और सीमाओं पर संकेत किया गया है ।