मीरा मुक्तावली ( व्याख्या भाग ) | मीरा मुक्तावली शब्दार्थ व्याख्या | Meera Muktavali Explanation in Hindi - Part 01

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 मीरा मुक्तावली शब्दार्थ व्याख्या (Meera Muktavali  Explanation in Hindi )

मीरा मुक्तावली ( व्याख्या भाग ) | मीरा मुक्तावली शब्दार्थ व्याख्या | Meera Muktavali  Explanation in Hindi - Part 01


 

मीरा मुक्तावली प्रस्तावना

 

भक्तिकालीन कवियों में सूर, तुलसी के साथ मीराबाई का नाम भी विशेष महत्त्व रखता है। मीरा की काव्यकृति मीरा मुक्तावली सबसे अलग है। सामंती समाज व्यवस्था में मीरा का कृष्ण के प्रति प्रेम अनुपम है। मीरा का काव्य भी उनके प्रेम की तरह सहज, सरल है। यहाँ मीरा मुक्तावली के कुछ प्रमुख पदों को व्याख्या सहित प्रस्तुत किया जा रहा है।

 

मीरा मुक्तावली शब्दार्थ व्याख्या

मैं तो गिरधर के घर जाऊँ  शब्दार्थ व्याख्या

मैं तो गिरधर के घर जाऊँ ॥ टेक ॥ 

गिरधर म्हारो साँचो प्रीतम, देखत रूप लुभाऊँ ।

 रैण पड़े तब ही उठि जाऊँ, भोर गये उठि आऊँ ॥ 

रैण दिन बाके संग खेलूँ, ज्यूँ त्यूँ वाहि रिझाऊँ ॥ 

जो पहिरावै सोई पहिरूँ जो दे सोई खाऊँ 

मेरी उनकी प्रीत पुराणी, उण बिन पल न रहाऊँ ॥ 

जहाँ बैठावें तितही बैठूं बेचे तो बिक जाऊँ । 

मीरा के प्रभु गिरधर नागर, बार बार वलि जाऊँ ॥ 17

 

शब्दार्थ - 

म्हारो = हमारा, मेरा

सांचो = सच्चा, वास्तविक 

प्रीतम = प्रियतम प्यारा 

लुभाऊँ = मुग्ध हो जाती हूं। 

रैण= रात । 

भोर = सवेरा। 

रैणदिन= रात दिन 

बाके = उसके । 

वाहि = उसे 

रिझाऊँ = प्रसन्न करूँ 

दे = दे देवे। 

पल= एक क्षण भी 

रहाऊं = रह सकती हूं।

 

व्याख्या- 

मैं गिरधर श्रीकृष्ण के घर जाऊँगी। वह श्रीकृष्ण ही वास्तव में मेरा सच्चा प्रियजन है। उसकी रूप छटा को देखते ही मैं उस पर लुभा (मोहित हो जाती हूं। रात्रि के आते ही, (होते ही) मैं वहां से उठ जाती हूं और प्रातःकाल होते ही पुनः वहाँ पहुंच जाती हूं अथवा रात होते ही वहां पहुंच जाती हूं और प्रातः होते ही वहां से आ जाती हूं। रात-दिन उसी के साथ खेलती हूं, नित्यप्रति उसी की जीवन संगिनी बन गई हूं। जैसे भी बनेगा उसे प्रसन्न करूँगी । रिझाऊँगी। मेरा प्रियतम जो कुछ भी पहनने के लिए देगा, वही पहनूंगी और जो कुछ भी खाने के लिए देगा, वही खाऊँगी। मेरा तथा उनका परस्पर प्रेम बहुत पुराना है। उनके बिना मैं एक क्षण भी नहीं रह सकती। वह प्रियतम मुझे जहाँ बैठाएगा वहीं मैं बैठूंगी और यदि वह मुझे बेचना चाहे तो मैं बिक भी जाऊँगी। मीरा के प्रभु तो (स्वामी, प्रियतम ) गिरिधर नागर श्रीकृष्ण हैं। मीरा उन पर बार-बार बलिहारी जाती है।

 

विशिष्ट

इस पद में समर्पण की पराकाष्ठा है। रहस्यवादी काव्य की परम्परा के अनुसार पहली स्थिति के अनन्तर दूसरी स्थिति की अभिव्यंजना इसमें है परन्तु मीरा तो भक्तमयी हैं अतः इस पद में पुष्टिमार्गीय भक्तिपद्धति के अनुसार समर्पण की भावना प्रकट है। तथा तनुजा, वित्तजा और मनसा भक्ति की भावना भी अपने चरमोत्कर्ष के साथ व्यक्त है।

 

कबीर ने भी अपने पदों में राम बहुरिया होने का भाव व्यक्त किया है। एक स्थान पर तो उन्होंने अपने को राम 'कुत्ता ही मान लिया है। माया मोह की रस्सी मान ली है और स्वामी रस्सी से कुत्ते को जिधर खींचता है, कुत्ता उधर ही चलता जाता है। वैसी भावना भी यहां द्रष्टव्य है।

 

कबिरा कूता राम का मुतिया मेरा नाऊँ । 

गले में मेरे जेवरी जित खींचे तित जाऊँ ॥ 


सखि म्हारो सामरिया रगे  शब्दार्थ व्याख्या


सखि म्हारो सामरिया रगे, देखवाँ करों री ॥ टेक ॥ 

सांवरो उमरण सावंरो सुमरण, साँवरो ध्यान धरौँ री । 

ज्यों ज्यों चरण धराँ धरणी घर त्याँ त्याँ निरत कराँ री। 

मीरा रे प्रभु गिरधर नागर, कुँजा गैल फिराँ री ॥18

 

शब्दार्थ - 

सामरिया = सांवरिया, सांवरा, श्याम रंग का 

करां = करूँ । 

उमरण = चिन्तन । 

सुमरण = याद करना । 

धरां=धारण करूँ 

धरणी=पृथ्वी 

निरत-नृत्य, नाच 

लता=कुंजलता। 

गैला= साथ

फिराँ=फिरूँ

 

व्याख्या-

हे सखी! मैं तो अपने प्रियतम श्रीकृष्ण को नित्यप्रति देखा करूँगी। उन के दर्शनों के बिना किसी दिन भी नहीं रहती हूं। मेरे चिन्तन और स्मरण का विषय भी केवल श्रीकृष्ण ही हैं। उस श्यामवर्ण वाले श्रीकृष्ण का ध्यान ही धारण किये रहती हूं। श्रीकृष्ण जहां-जहां भी धरती पर अपने चरणों को रखते हैं। वहां-वहां ही मैं अपना नृत्य करती हूं। मेरे प्रभु तो गिरधर नागर श्रीकृष्ण हैं मैं उनके साथ ही लताकुंजों में साथ-साथ फिरूंगी उनके साथ ही रहती हूं। उनसे पृथक् कभी नहीं रहूंगी।

 

विशिष्ट - 

इस पद में कोई अलंकार नहीं है। पद की तीसरी पंक्ति में अनुप्रास अथवा उपमालंकार का अन्वेषण केवल भ्रान्ति है। '' अक्षर के बहु प्रयोग से यहां अनुप्रासलंकार नहीं माना जा सकता। क्योंकि यह तो मीरा की कथन-शैली है। इस प्रकार तो मीरा के सभी पदों में अनुप्रासलंकार मानना पड़ जाएगा।

 

माई री म्हा लियाँ गोविन्दाँ मोल  शब्दार्थ व्याख्या

माई री म्हा लियाँ गोविन्दाँ मोल ॥ टेक ॥ 

थें कह्याँ छारगे म्हाँ काँ चौड्डे लियाँ बजन्ताँ ढोल । 

थें कहाँ मुहोंघो म्हाँ कहाँ सस्तो, लिया री तराजाँह तोल । 

तण वाराँ म्हाँ जीवण वाराँ, वाराँ अमोलक मोल । 

मीरा कूँ प्रभु दरसण दीज्याँ, पूरव जन्म को कोल ॥ 19

 

शब्दार्थ - 

थें = तुम । 

कह्यां = कहती हो । 

छाणे = छिप कर 

म्हां का = मैं कहती हूं। 

चौड्डे= चौड़े, खुले आम सबके सामने । 

बजन्ता=बजाते हुए। 

ढोल=ढोल बजाकर, स्पष्ट रूप से

मुहोंघो =मंहगो, महंगा 

तराज़ाँ = तराजू में 

तन=शरीर। 

वारां= अर्पित करती हूं, न्योछावर करती हूं। 

अमोलक = मोल-अमूल्य मानकर 

पूरव-जन्म = पूर्वजन्म, पहला जन्म । 

कोल= कौन, वचन, वायदा, प्रतिज्ञा

 

व्याख्या -

हे सखी! मैंने तो गोविंद ( श्रीकृष्ण) को मोल ले लिया है। तू कहती है कि छिप कर मोल लिया है, परन्तु मैं कहती हूं कि मैंने सब के सामने प्रकट रूप से ढोल बजाकर (सबको सुना-दिखाकर) मोल लिया है। तुम कहती हो कि यह मोल लेना बहुत महंगा पड़ा है, पर मेरा कहना है कि मैंने सस्ते में ही ले लिया है क्योंकि तराजू में तोलकर ठीक ढंग से खरीदा है। मैं इस श्रीकृष्ण पर अपना शरीर और जीवन न्योछावर कर सकती हूं। मैं अमूल्य पदार्थ भी इस पर न्योछावर कर सकती हूं। मीरा कहती है कि उसे भगवान् दर्शन दें क्योंकि उसके प्रति भगवान् का पूर्वजन्म का दिया हुआ वचन है कि प्रति जन्म में उसे (मीरा को ) दर्शन देंगे।

 

विशिष्ट - 

यह उक्ति प्रसिद्ध है कि भगवान् ने गोपियों को अगले जन्म में दर्शन देने का वचन दिया था, मीरा भी उन गोपियों में प्रधान थी अतः वह उसी प्रतिज्ञा का स्मरण करके अपने प्रभु को भी प्रतिज्ञापूर्ति के लिए स्मरण दिलाती है।

 

नाभादास की भक्तमाल में भी इसी प्रकार का घटनासम्बद्ध संकेत मिलता है। 

सदरिस गोपिन प्रेम प्रकट कलयुगहिं दिखायो । 

निर अंकुस अतिनिडर, रसिक जन रसना गायो ॥

 

अलंकार - 

इस पद में प्रश्नोत्तरलंकार है। मीरा स्वयं ही सखी से उक्ति कह कर अपना उत्तर दे रही है। माई म्हाँ गोविंद लीनो मोल । 

कोई कहे सस्तो, कहे मुहोंघ, लीनों तराजू तोल 

कोई कहै घर में, कोई कहे वन में, राधा के संग किलोल ।


मीरा के प्रभु गिरधर नागर आवत शब्दार्थ व्याख्या


मीरा के प्रभु गिरधर नागर आवत प्रेम के मोल || 

म्हां गिरधर रंग राती सैयां म्हां ॥ टेक ॥ 

पंचरंग चोला पहरया सखी म्हां, झिरमिट खेलण जाती। 

वां झिरमिट मां मिल्यो सविंरो, देख्यां तन मन राती । 

जिण रो पियाँ परदेस बस्यां री लिख लिख भेज्यां पाती। 

म्हारा पिंया म्हारे हीयड़े वस्यां णा आवां णा जाती । 

मीरा के प्रभु गिरधर नागर, मग जोवां दिन राती ॥ 20

 

पाठान्तर- 

सखी री मैं तो गिरधर के रंग राती। 

पंचरंग मेरा चोला रंगा दे, मैं झुरमुट खेलन जाती 

झुरमुट में मेरा साई मिलेगा, खोल अडम्बर गाँती । 

पवन पानी दोनों ही जायेंगे, अटल रहे अविनासी । 

सुरत निरत का दिवला संजोलै, मनसा की कर बाती । 

प्रेम हरी को तेल बनाले, जगा करे दिन राती । 

जा के पिया परदेस बसत हैं, लिखि लिखि भेजें पाती। 

मेरे पिया मो माँहि बसत हैं कहुं न आती जाती। 

पीहर बसूँ न बसूँ सास घर, सतगुर शब्द संगाती । 

ना घर मेरा ना घर तेरा, मीरा हरि रंग राती।

 

शब्दार्थ-

रंग = रंग, प्रेम। 

पंचरंग = पाँच रंगों का, पाँच तत्त्वों का ( पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) । 

चोला = कुर्त्ता, शरीर 

पहरया=पहना।

झिरमिट = एक खेल, जिसमें व्यक्ति अपने को लम्बे कपड़े में ऐसे लपेट लेता है कि दूसरा शीघ्रता से पहचान न सके। यहाँ तात्पर्य है कि कर्मानुसार योनि से प्राप्त शरीर 

राती = अनुरक्त, मुग्ध 

पाती = पत्र

पिया = प्रिय 

मग= मार्ग, रास्ता। 

जोवाँ = देखती हूं।

 

व्याख्या-

हे सखि! मैं श्रीकृष्ण के रंग में रंगी हुई हूं। उन में ही पूर्णरूप से अनुरक्त हूं। मैं पंच रंगा चोला पहनकर झिरमिट का खेल खेलने जाती हूं। तात्पर्य यहाँ यह है कि अपने पाँच तत्वों से बने कर्मानुसार प्राप्त इस शरीर से भगवान को प्राप्त करने के लिए माया से आधृत होने के कारण एक खेल को खेल रही हूं। वास्तविकता मैं जानती हूं। इस झिरमिट के खेल में मुझे श्रीकृष्ण के दर्शन प्राप्त हो गये। उन्हें देखकर मैं शरीर और मन से उन पर अनुरक्त हो गयी। जिन नारियों का पति परदेश में रहता है। वे तो पत्र लिख लिखकर संदेश भेजती हैं; परन्तु मेरा प्रियतम तो मेरे हृदय में ही रहता है। इसलिए मैं कहीं आती-जाती नहीं, मुझे पत्र लिखने की आवश्यकता नहीं है। मीरा के स्वामी (प्रभु) तो गिरधर नागर श्रीकृष्ण हैं जिनके लिए वह दिन रात रास्ता देखती रहती हैं। प्रतीक्षा करती रहती है।

 

विशिष्ट - 

इस पद में "पंचरंग चोला" तथा "झिरमिट" शब्द का प्रयोग किया गया है जो निर्गुणी सन्तों के सम्प्रदाय के शब्द हैं। इन प्रतीकों का प्रयोग मीरा ने अपने युग के सन्तों के प्रभाव वश किया है। अन्यथा शरीर को चोला कहना तथा पंचरंगी चोला कहना भक्ति क्षेत्र की एक सामान्य परम्परा का बोधक है। 


अलंकार - 

"पंचरंग चोला" पदों में श्लेष का प्रयोग है। कुर्त्ता तथा शरीर दोनों पक्षों में इन पदों का अर्थ जा सकता है। पंचरंग से भी पाँच तत्त्वों एवं पाँच रंगों से रंग गया चोला अर्थ लिया जा सकता है। पाँच तत्त्व के अतिरिक्त लोभ, क्रोध, शोक, हर्ष और मोह पाँच विकारों से युक्त शरीर का अर्थ भी लिया जा सकता है इस पद का पाठान्तर भी मिलता है जो राजस्थानी भाषा मिश्रित है। अन्य भाषाओं के अन्तर से भी पाठान्तर मिलते हैं।


बड़े घर ताला लागां री शब्दार्थ व्याख्या

बड़े घर ताला लागां री, पुरवला पुन्न जगांवाँ री । 

झीलरयां री कामणा म्हाँरों डाबरां कुण जावाँरी 

गंगा जमणा काम णा म्हारे, म्हां जावां दरियां वांरी ।

 हेल्या मेल्या कामणा म्हारे, पेठ्या मिल सरदारां री 

कामदारौँ सूँ काम णा म्हारे, जावाँ जाव म्हा दरवारों री। 

काय कधीर सँ काम णा म्हारे, चड़स्यां यणरी सारयां री

सोणा रूपां सू काम णा म्हारे म्हारे हीरां रो बीपारों री। 

भाग म्हारो जाग्यां रे, रतणाकर म्हारी सीरया री। 

अम्रत प्यालो छाँड्याँ रे, कुण पीवाँ कड़वां नीरा री। 

भगत गणा प्रभु परचा पावां, जावां गजतां दूरयाँ री। 

मीरा रे प्रभु गिरधर नागर, मणरथ करस्यां पूरयां री ।

 

शब्दार्थ - 

ताला लागाँ = सम्बन्ध हो गया। लगन लग गई। परस्पर आकर्षण हो गया। 

पुरबला - पहला

पुन्न= पुण्य । 

झीलऱ्या = झील से 

डाबरा = छोटा तालाब 

कुण-क्यों, कौन 

जावा = जावें । 

दरियाव = समुद्र । 

हेल्या मेल्या, हेली मेली = सम्बन्ध 

कामदारां= कर्मचारी, प्रबन्धक 

जाव=जाऊँगी। 

दरबारा में = स्वामी या मालिक के दरबार में । 

काथ = कांच । 

कथीर = रांगा 

सारयाँ = लोहे पर 

हीरा री = हीरों का 

बीपार = व्यापार 

रतणाकर = रत्नाकर, सागर । 

सीरयाँ =सम्बन्ध से, निकट से मेल से 

अम्रत = अमृत। 

कड़वां = कड़वा 

नीरा= नीर, पानी 

परचा = परिचय। 

पावां= पाया, प्राप्त किया। 

दूरयाँ = दूर। 

मणरथ= मनोरथ, इच्छा।

 

व्याख्या 

मीरा कहती है कि बड़े घर में ताला लग गया है। एक अर्थ तो यह कि अब भगवान् के घर से सम्बन्ध - हो गया है। दूसरा यह कि लौकिक रूप से राजगृह में मेरे लिये ताला लग गया है। राजगृह से सम्बन्ध छूट गया है और भगवान् के पक्ष में यह कि उस बड़े घर से मेरा सम्बन्ध हो गया है। मेरे पहले जन्म में किए हुए पुण्यों का उदय हो गया है। झील से मेरा कोई काम नहीं; सम्बन्ध नहीं, तब छोटे तालाब पर कौन जावे। गंगा-यमुना से भी मेरा कोई सम्बन्ध नहीं। मैं तो सागर की ओर जाती हूं। तात्पर्य यह कि सागर के समान अनन्त शक्ति वाले से मेरा सम्बन्ध नहीं है। मेरा कर्मचारियों, अधिकारियों अथवा प्रबन्धकों से कोई काम नहीं। मैं तो सीधी दरबार में ही जाती हूं। मेरा सीधा सम्बन्ध भगवान् श्रीकृष्ण से है। अतः दरबारियों के पास जाने की आवश्यकता ही नही। कांच और रांगे से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। मैं तो लोहे की घन पर चढ़ चुकी हूं। तपकर पार उतर चुकी हूं। मेरा सोना-चाँदी से भी कुछ सम्बन्ध नहीं है। मैं तो हीरे का व्यापर करती हूं। मेरा तो अब भाग्य जाग गया है। मेरा सम्बन्ध अब रत्नाकर से है। क्योंकि रत्नाकर के पास सब कुछ होता है। वहाँ सोने चाँदी का कुछ मूल्य नहीं रहता। अमृत का प्याला छोड़कर कड़वा पानी कौन पीएगा। भक्त लोगों के द्वारा मैंने भगवान का परिचय प्राप्त कर लिया है। अतः तुच्छ, नीच व्यक्तियों से अब मैं दूर ही रहती हूं। मीरा के प्रभु तो गिरधर नागर श्रीकृष्ण हैं जो कि उसके मन की सब इच्छाओं को ' पूरा करेंगे।

 

तुलना -

सूरदास ने भी लौकिक आधार पर इष्टदेव के सामने अन्य पदार्थों को तुच्छ ठहराया था। 


सूरदास - 

जिन मधुकर अम्बुज रस चाख्यो क्यों करील फल खावै। 

सूरदास प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै।

 

अलंकार -

इस पद में परिसंख्यालंकार है । क्योंकि सब स्थानों से वृत्ति हटाकर केवल श्रीकृष्णाश्रित कर दी गई है । अतः परिसंख्यालंकार है ।

 

विशिष्ट -

इस पद में मीरा ने राजगृह तथा लोक व्यवहार वर्णन के माध्यम से भक्ति भावना की अभिव्यक्ति की है। राजगृह में कर्मचारियों एवं अधिकारियों की अपेक्षा राजदरबार में सीधा पहुँचना लाभकारी है तथा लोक व्यवहार में हीरों का व्यापारी होना श्रेष्ठ है। निम्न स्थिति पर रहना किसी भी दशा में उचित नहीं। अतः मीरा ने भी सभी को त्याग कर भगवान् श्रीकृष्ण का ही आश्रय ले लिया है। उसके दरबार में जाने के बाद किसी अन्य से सम्बन्ध रखने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती।

मीरा लागो रंग हरी शब्दार्थ व्याख्या

मीरा लागो रंग हरी, और न रंग अंटक परी ॥ टेक ॥ 

चूड़ी म्हांरे तिलक अरु माला सील वरत सिणगारो । 

और सिंगार म्हारे दाय न आवैं, यों गुर ग्यान हमारो 

कोई निन्दो कोई बिन्दो म्हें तो, गुण गोविन्दे का गास्यां । 

जिण मारग म्हाँरा साध पधारे, उन मारग म्हे जास्याँ । 

चोरी न करस्यां जिव न सतास्यां कांई करसी म्हारों कोई । 

गज से उतर के खर नहीं चढ़स्यां ये तो बात न होई ॥ 21

 

पाठान्तर - 

एक अन्य पाठ में पारिवारिक जनों का व्यवहार भी मीरा ने प्रस्तुत किया है। जो निम्नलिखित पद में व्यक्त है।

 

मीरा रंग लायो नांम हरी और रंग अटंकि परी । 

गिरिधर साजस्याँ सखी ये न होस्या मोह्यो गिरधारी 

जेठ बहू का नाती नहीं छै, राणा थे सेवक म्हें स्वामी । 

चूड़ो देवड़ो तिलक जपमाला, सील बरत सो भारी । 

चोरी करों नहीं जीव सतावां कोई करै लो म्हारो कोई। 

गज चढ़ खर न चढ़ा हो राणा ये तो बात सरी । 

गिरधर धनी गोविंद कडूं वो साधसन्त म्हारा अरी 

थें थाके म्हें म्हां के हो राणा जी यूं कहै मीरा खरी । 


शब्दार्थ - 

रंगहरी = हरि, श्रीकृष्ण का रंग। श्रीकृष्ण के रंग में लीन, हरा रंग 

अंटक = बाधा, रुकावट। 

चूड़ी= चूड़ियाँ 

सील बरत= शील एवं व्रत 

आचार= व्यवहार 

सिणगारो = शृंगार 

दाय= पसन्द, अनुकूल। 

गुरग्यान= गुरु ज्ञान, गुरु का दिया हुआ ज्ञान 

निन्दो = निन्दा करो। 

विन्दो = वन्दना करो, प्रशंसा करो। 

गास्याँ = गाऊँगी। 

मारग = मार्ग, रास्ता

म्हाँरा = हमारा। 

जास्याँ = जाऊँगी। 

जिव= जीव, प्राणी 

सतास्याँ = सताऊँगी। 

गज= हाथी 

खर= गधा 

चढ़स्याँ = चढूँगी।

 

व्याख्या - 

मीरा कहती है कि उसे श्रीकृष्ण का रंग लग गया है। अब और रंग बाधा नहीं पहुंचा सकते। और किसी का रंग मीरा पर प्रभाव नहीं जमा सकता। श्रीकृष्ण के प्रेम को छोड़कर मीरा अन्य किसी देवता से प्रेम नहीं कर सकती। मेरा शृंगार चूड़ियाँ, तिलक, माला तथा आचार-व्यवहार के अनुसार व्रतादि रखना है। गुरु ने मुझे यह ज्ञान दिया है इसलिये और किसी प्रकार का शृंगार मुझे पसन्द नहीं आता है। चाहे कोई मेरी निन्दा करे अथवा प्रशंसा करे, मुझे तो श्रीकृष्ण के गुणों का ही गान करना है। जिस रास्ते से हमारे साधुजन चलेंगे। उसी मार्ग से ही मुझे भी जाना है।

 

मैं न तो चोरी करती हूं, न ही प्राणियों को सताती हूं। हाथी से उतरकर कोई भी गधे पर नहीं चढ़ता है। यदि कोई ऐसा करता है तो यह अच्छी बात नहीं होगी। मीरा के कहने का अभिप्राय यह है कि मैं एक बार कृष्ण को अपना लेने के अनन्तर उनसे विमुख नहीं होऊँगी। उस मार्ग से विचलित न होऊँगी ।

 

विशिष्ट-

इस पद में अभिधा शक्ति का सशक्त प्रयोग है । परन्तु अन्तिम पंक्ति में लक्षण द्वारा मीरा ने अपनी मनोवृत्ति प्रकट की है कि वह भक्ति मार्ग से किसी प्रकार अपना पाँव पीछे न हटाएगी। 1. अन्तिम पंक्ति में दृष्टांत अलंकार हैं।

 

आवो सहेल्या रली करौँ हेपर घर गवण निवारि शब्दार्थ व्याख्या

आवो सहेल्या रली करौँ हे, पर घर गवण निवारि । 

झूठा माणिक मोतिया री, झूठी जगमग जोती । 

झूठा सब आभूषण री, सांची पिया जी री पोति । 

झूठा पाठ पटवर रे, झूठा दिखणी चीर । 

सांची पियाजी री गूदड़ी, जामे निरमल रहैं सरीर । 

छप्पन भोग बुहाइ दे हे, इन भोगनि में दाग । 

लूण अलूणो ही भलो हे, अपने पिया जी को साग । 

देखि विराणे निवांण कूं हे, क्यूँ उपजावै खीज 

कालर अपणो ही भलो हे, जामे निपजै चीज । 

छैल विराणो लाख को हे, अपणो काज न होई 

ताके संग सीधारता है, भला न कहसी कोइ 

वर हीणों अपणों भलो हे, कोढ़ी कुष्टी कीइ 

जा के संग सीधारता है, भला कहै सब लोइ । 

अविनासी सुं बालवाँ है, जिनसूं सांचो प्रीत । 

मीरा कूं प्रभु मिल्या हे, एही भगति की रीत ॥ 27

 

शब्दार्थ-

सहेल्यिा=सखियों, सहेलियों। 

रली करां = मिलकर खेलें, केलि करें, आनन्द मनाएँ । 

पर घर = दूसरों के घर। 

गवण=जाना। 

निवारि = छोड़ कर, रोककर 

माणिक = मणियाँ। 

जगमग = जगमगाती, चमकीली । 

जोती= ज्योति, चमक, रोशनी। 

आभूषण = आभूषण, गहने । 

साँची = सच्ची । 

पिया जी री = प्रियतम की। 

पोति-माला, नाम लेना । 

पाटपटम्बर = रेशमी कपड़े

दिखणी= दक्षिण क्षेत्रीया । 

चीर वस्त्र । 

साँची = सच्ची है। 

गुदड़ी = साधारण वस्त्र फटे पुराने वस्त्र । 

निरमल= पवित्र । 

छप्पन भोग = छप्पन प्रकार के खाद्य पदार्थ । 

बुहाइ दे = बहा दें, फेंक दे। 

भोगानि में=भोग योग्य व्यंजनों, पदार्थों में। 

दाग=दोष, कालिमा, धब्बा । 

लूण-नमकवाला। 

अलूणा = बिना नमक के 

विराणै = विराने, पराये । 

निवण=नीची उपजाऊ भूमि 

उपजावें = पैदा करें। 

खीज = क्रोध, मन के बुरा मानने की जलन, द्वेष, डाह । 

कालर= ऐसी भूमि जो बहुत कम उपजाऊ हो । 

निपजै = उत्पन्न होती है। 

चीज = पदार्थ, अच्छे अन्न, अच्छी वस्तु । 

छैल= सुन्दर । 

विराणी= पराया, दूसरा 

लाख को = लाख का बहुमूल्य 

सिधारतां = जाने पर 

हीणो=हीन तुच्छ, साधारण 

वर=पति, स्वामी। 

लोइ =लोग। 

सूँ=समान, सहर्ष 

वालेमा = वल्लभ, प्रियतम। 

ऐहो = ऐसी

 

व्याख्या-

हे सहेलियो! आओ, दूसरे के घर जाना छोड़ कर आनन्द करें। श्रीकृष्ण को ही अपना एकमात्र आश्रय मानकर प्रसन्नता से रहें। इस संसार में मिलने वाले मणियाँ और मोती भी झूठे हैं और इनकी जगमगाहट भी झूठी है। तात्पर्य यह कि संसार में जो पदार्थ बहुत आकर्षण वाले हैं वे भी सब झूठे हैं। नष्ट होने वाले हैं। गहने भी सब झूठे हैं। इनमें भी कोई सार नहीं है। नारियों का गहनों की ओर आकृष्ट होना भी सारहीन है। केवल प्रियतम का प्रेम ही सच्चा है। पहने जाने वाले रेशमी वस्त्र भी झूठे हैं। (राजाओं के घरों में रेशमी वस्त्र पहनने का रिवाज था ही, मीरा ने उन वस्त्रों की ओर संकेत किया है कि यह आडम्बर दिखावे से भरे वस्त्र पहनना भी बेकार है) दक्षिण क्षेत्र में बने हुए वस्त्र भी व्यर्थ हैं। दक्षिणी रेशमी साड़ियाँ इत्यादि पहनावे या दक्षिणी रेशमी कपड़े भी निस्सार हैं। प्रियतम रेशमी साड़ियाँ इत्यादि पहनावे या दक्षिणी रेशमी कपड़े भी निस्सार हैं। प्रियतम की गुदड़ी ही अच्छी है। जिसमें सारा शरीर पापों से छूटा रहता है, पवित्र रहता है। इन छप्पन प्रकार के खाद्य पदार्थों को त्याग दो। इनसे तो कलंक लगने की सम्भावना है। अपने प्रियतम का दिया हुआ नमक वाला या नमक रहित सागपात (व्यंजन) खाने में ही भला है, दूसरों की उपजाऊ भूमि को देखकर अपने में क्यों ईर्ष्या-द्वेष पैदा करती हो। अपनी अनुपजाऊ भूमि भी अच्छी है जिसमें तुम्हारे काम योग्य पदार्थ तो उत्पन्न होते ही हैं। दूसरे की सुन्दर वस्तु चाहे लाखों रुपयों की भी क्यों न हो। वह अपने काम की नहीं है। (यहाँ छैल शब्द विवेच्य है। श्री परशुराम चतुर्वेदी ने छैला शब्द का अर्थ रसिक व्यक्ति दिया हुआ है, वह अशुद्ध है क्योंकि छैल शब्द, पंजाबी भाषा का है, जिसका अर्थ सुन्दर है, यह विशेषण पद है। संज्ञा नहीं) उसके साथ चलने पर कोई भला नहीं कहता। (लगता है कि दूसरी पंक्ति के कारण ही छैल शब्द का अर्थ रसिक युवा कर दिया है ताकि दूसरी पंक्ति का अर्थ यह ठीक बैठ जाए कि उस रसिक युवक के साथ जाने पर कोई भी भला नहीं कहेगा परन्तु वास्तव में यह अर्थ है कि अत्यन्त भड़कीले (बने-ठने) रूप से जाने वाले को कोई भला नहीं कहता है। यहाँ छैल का तात्पर्य अपने को अत्यन्त भड़कीला और चंचल बनाने से है। रसिक युवा अर्थ किसी भी दशा में ग्राह्य नहीं है। हाँ ! छैल से छैला अर्थ ले लिया जाए, जो कि सम्भव है तब होगा कि दूसरे का रसिक पति चाहे कितना ही अमूल्य हो, लाखों का हो, परन्तु उससे अपना काम नहीं चलता। उस छैला (भड़कीले व्यक्तित्व वाले व्यक्ति) के साथ चलने पर भला नहीं होगा। जग हँसाई ही होगी अपना पति चाहे हीन, कोड़ी भी क्यों न हो, वह ही अच्छा है। उसके साथ चलने पर सब लोग अच्छा ही कहेंगे। कोई बुराई न कहेगा। अतः अपना प्रियतम अविनाशी भगवान को ही मानना उचित है। जिनसे हमारी सच्ची प्रीति है। मीरा कहती हैं कि उसे भगवान् (स्वामी-पति) मिल गया है। अतः यही भक्ति की रीति ठीक है।

 

विशिष्ट - 

इस पद में सांसारिक पदार्थों की असारता के साथ ही लोक व्यवहार की पद्धति का वर्णन भी है। यहाँ लौकिक पदार्थों के ग्रहण या अग्रहण की नीति दिखाई गई है। अलंकार - इस पद में परिसंख्यालंकार है क्योंकि सब पदार्थों से हटा कर भक्ति में ही मन को लीन किया गया है।

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