पद्मावत
- गोरा-बादल युद्ध खंडः व्याख्या भागPadmvat Gora Badal Explanation in Hindi
पद्मावत - गोरा-बादल युद्ध खंडः प्रस्तावना (Introduction)
महाराजा
रत्नसेन दिल्ली सुल्तान द्वारा छल से बन्दी बना लिए गए। उन्हें कैद से छुड़ाने के
लिए गोरा और बादल ने आपस में परामर्श करके छल का प्रत्युत्तर छल से देने का निश्चय
किया। उन्होंने सोलह सौ पालकियाँ सज्जित करवाकर उनमें हथियारों से लैस योद्धा बिठा
दिए। एक पालकी में पद्मावती के नाम से सजाकर लोहार बैठा दिया गया और यह कहते हुए
दिल्ली की ओर चल पड़े कि रानी पद्मावती दिल्ली जा रही है। दिल्ली पहुँचकर उन्होंने
बन्दीगृह के रक्षक को दस लाख मुद्राएँ देकर अपनी ओर मिला लिया और उसके माध्यम से
सुल्तान को यह सन्देश पहुँचवाया कि पद्मावती आपके पास आने से पूर्व स्वपति से मिलकर
उसे दुर्ग की चाबियाँ सौंपने की आज्ञा चाहती है। सुल्तान की ओर से यह आज्ञा मिल
जाने पर लोहार ने राजा के बन्धन काट दिये और पूर्व-नियोजित कार्यक्रम के अनुसार
रत्नसेन बादल की संरक्षता में चित्तौड़ की ओर रवाना हो गया। उस षड्यंत्र का रहस्य
खुलने पर शाह की सेना ने रत्नसेन को बन्दी बनाने के लिए पीछा करना चाहा किन्तु
बादल का चाचा गोरा अपने साथियों के साथ उसे तब तक आगे बढ़ने से रोकता रहा जब तक कि
रत्नसेन चित्तौड़ नहीं पहुँच गया। अंततः गोरा वीरगति को प्राप्त हो गया।
पद्मावत गोरा-बादल युद्ध खण्ड सप्रसंग व्याख्या
मंते बैठे बादिल औ गोरा सो मत शब्दार्थ संदर्भ व्याख्या
मंते
बैठे बादिल औ गोरा सो मत कीज परै नहिं भोरा । 1
पुरुख न करहिं नारि मति कांची जस नौसाबैं कीन्ह न बांची
। 2
हाथ चढ़ा इसिकंदर बरी सकति
छांड़ि के मैं बंदि परी । 3
सजग जो नाहिं काह बर कांधा। बधिक हुते हस्ती गा बांधा । 4
देवन्ह चलि आई असि आंटी।
सुजन कंचन दुर्जन भा मांटी। 5
कंचन जुरै भए दस खंडा। फुटि न मिलै मांटी कर भंडा। 6 ।
जस तुरुकन्ह राजहिं छर
साजा तस हम साजि छड़ावहिं राजा । 7
पूरुख तहां करै छर जहं बर कीन्हें न आंट।
जहां
फूल तहां फूल होइ जहां कांट तहां कांट ॥ 53 / 1 ॥
शब्दार्थ
मते = सलाह करने के लिए
भोरा = मूल, धोखा।
कांची = कच्ची
इसिकंदर = सिकन्दर ।
हुते = होते हुए
गा बांधा = बन्दी बनाना।
आंटी = परम्परा
भंडा=बरतन
छर = छल
साजा = किया है।
आंट = पूरा
करना।
संदर्भ
-
प्रस्तुत पंक्तियां गोरा-बादल युद्ध खण्ड की आरंभिक पंक्तियां हैं। इससे
पूर्ववर्ती खण्ड में कवि इस तथ्य का वर्णन कर चुका है कि शाह अलाउद्दीन की कैद से
अपने पति को छुड़ाकर लाने का उत्तरदायित्व पद्मावती गोरा और बादल को सौंप चुकी ।
इन पंक्तियों में गोरा और बादल यह मंत्रणा करते दिखाए गए हैं कि चूंकि शाह
अलाउद्दीन द्वारा रत्नसेन को छलपूर्वक बन्दी बनाया गया था अतः हमें भी अलाउद्दीन
के साथ छल करते हुए राजा को कैद से छुड़ाना चाहिए।
व्याख्या
कविवर जायसी वर्णन करते हैं कि गोरा और बादल ने बैठकर मंत्रणा की। वे सोचने लगे कि
हमें कोई - ऐसी मंत्रणा (युक्ति) करनी चाहिए कि उसमें धोखा न खाना पड़े। पुरुषों
को ऐसी कच्ची बुद्धि नहीं रखनी चाहिए जैसी कच्ची बुद्धि स्त्रियों की हुआ करती है।
क्योंकि जिस प्रकार नौशावा ने कच्ची बुद्धि से काम लिया था उसके कारण वह बच नहीं
सकी थी। सिकन्दर उसके हाथ पड़ गया था। किन्तु उसकी कच्ची बुद्धि के कारण उसके
चंगुल से छूट ही नहीं गया था अपितु उसको सिकन्दर का बन्दी होना पड़ा था। यदि कोई
व्यक्ति असावधान हो तो उसके कंधों के बल का क्या लाभ है? - भाव यह है कि बलवान
व्यक्ति भी यदि सावधान नहीं रहता तो वह ताकत के होते हुए भी चक्कर में पड़ जाता
है। उदाहरण के लिए हाथी अत्यधिक बलवान होते हुए शिकारी द्वारा बन्धन ग्रस्त कर
लिया जाता है। इस प्रकार की बहुत-सी उक्तियां देवों से ही चली आई हैं कि सज्जन
सोने के समान होते हैं और दुर्जन मिट्टी के घड़े के समान। सोना अनेक टुकड़े होने पर
भी जुड़ जाता है किन्तु मिट्टी का घड़ा एक बार टूट जाने पर फिर नहीं जुड़ पाता।
जैसा तुर्की ने राजा के साथ छल किया है वैसा ही छल करके हमको राजा को उनके बन्धन
से छुड़ाना चाहिए।
पुरुष
उस स्थान पर छल किया करता है जहां उसकी शक्ति उसका साथ नहीं दिया करती। जहां पुष्प
हों वहां पुष्प बनकर रहना चाहिए और जहां कांटें हों वहां कांटा बनकर रहना चाहिए।
भाव यह है कि भले लोगों के साथ भला जबकि दुष्टों के साथ दुष्टतापूर्ण व्यवहार करना
चाहिए।
साहित्यिक
सौन्दर्य
1.
'नारि
मति कांची' से गोरा बादल का संकेत
पद्मावती के उस कथन से है जिसमें उसने
जोगिन बनकर बन्दी गृह से रत्नसेन को छुड़ा लाने की बात कही थी
"पिय जहं बन्दी जोगिन होइ धावौं,
हीं
होइ बंदि पियहि मोंकरावी ।"
पद्मावती, गोरा और बादल तीनों
प्राणियों द्वारा रत्नसेन को बन्धन से मुक्त कराने के उपाय के संदर्भ में गोरा
बादल को पद्मावती की यह मति कच्ची प्रतीत होती है वह स्वयं योगिनी के वेश में
दिल्ली जाए।
2.
जस
नौसावें कीन्ह न बांची- इस पंक्ति में उस अंतकथा का उल्लेख जिसका निजामीकृत
सिकन्दरनामा में उल्लेख
मिलता है। सिकन्दरनामा के अनुसार नौशावा बुर्द देश की अविवाहित रानी थी। वह उसके
यहां वेश बदलकर दूत के रूप गया था। रानी सिकन्दर को पहचान गई थी किन्तु इस प्रकार
पहचानकर भी सिकन्दर को छोड़ दिया था। बाद में सिकन्दर ने इस रानी पर अधिकार करके
उसको अपने अधीन मित्र बनाया था।
3. “हाथ चढ़ा बन्दी परी" इस पंक्ति का मूल तात्पर्य यह है कि जैसे
नौशावा ने हाथ पड़े सिकन्दर को छोड़ दिया था उसी प्रकार अलाउद्दीन भी दुर्ग में
आने पर रानी पद्मावती के कब्जे में आ गया था, किन्तु तब इसने उसको उसी प्रकार छोड़ दिया था या दुर्ग
में निकल जाने दिया था जैसे नौशावा ने सिकन्दर को निकल जाने दिया था।
4. बधिक
हुते हस्ती गा बांधा- डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने इस संदर्भ में निम्नांकित लोककथा
(पंचतंत्र के
आधार पर) दी है।
" किसी प्रदेश में बहुत से चूहे बिल बनाकर रहते थे। वहां से हाथियों का राजा झुंड के साथ पानी पीने के लिए निकला। बहुत से चूहे कुचल गए। जो बचे उन्होंने एक उपाय सोचा और जाकर हाथियों के राजा से कहा, आप हम पर दया कीजिए तो हम भी किसी दिन आपकी सेवा करेंगें ताल पर जाने के लिए कोई दूसरा मार्ग चुन लें। उसने यह बात मान ली। कभी एक राजा ने अपने बहेलिए को हाथी पकड़ने का आदेश दिया। उन्होंने हाथियों के राजा को झुंड के साथ पकड़ लिया और मोटे रस्सों से पेड़ से बांध दिया। तब हाथियों के राजा ने चूहों के पास समाचार भेज कर उन्हें बुलवाया और बन्धन से मुक्ति पाई।"
5. 'पुरुख बांची' में दृष्टांत अलंकार ।
6. 'सजग जो बांधा' में दृष्टांत अलंकार।
7. 'सुजन मांटी' में उपमा अलंकार
8. 'कंचन भंडा' में लोकोक्ति अलंकार
9. 'जस तुरुकन्ह राजा' में उदाहरण अलंकार।
10. दोहे में इस लोकोक्ति का प्रयोग किया गया है- Tit for tat अथवा जैसे को तैसा व्यवहार
करना चाहिए।
सोरह सौ चंडोल संवारे शब्दार्थ संदर्भ व्याख्या
सोरह
सौ चंडोल संवारे। कुंवर संजोइल के बैसारे 1
साजा पदुमावति क बेवानू बैठ लोहार न जाने भानू | 2 |
रचि बेवान तस साजि संवारा।
चहुँ दिसि चंवर करहिं सब ढारा | 3
साजि सबै चंडोल चलाए। सुरंग ओढ़ाए मोंति तिन्ह लाए। 4
मै संग गोरा बादिल बली।
कहत चले पदुमावति चली।5।
हीरा रतन पदारथ झूलहिं । देखि बेवान देवता भूलहि । 6 ।
सोरह सै संग चलीं सहेली।
कंवल न रहा औरु को बेली । 7 ।
रानी चली छड़ावै राजहिं आपु होइ तेहि ओल ।
बतिस सहस संग तुरिअ
खिंचावहि सोरह से चंडोल ॥ 11 / 2 ॥
शब्दार्थ-
चंडोल = एक प्रकार की पालकी जो हाथी के हौदे अथवा अंबारी के आकर की होती थी और उसको
चार आदमी उठाकर ले जाते थे।
संजोइल= सजाकर।
बैसारे= बिठाए।
बेवानू = विमान, रथ
न जाने भानू = इस बात
का रहस्य सूर्य भी नहीं जानता था।
तस= उस प्रकार का
ढारा = डुबाना।
सुरंग ओढ़ाइ=
लाल वस्त्रों से ढककर ।
बतिस सहस-बत्तीस हजार।
संदर्भ
-
गोरा और बादल को पद्मावती की यह युक्ति तो अच्छी नहीं लगी कि वह योगिनी के वेष
में जाकर राजा रत्नसेन को अलाउद्दीन के बंदीगृह से छुड़ा कर लाएं। हां उन्होंने यह
निश्चय किया कि जब अलाउद्दीन ने रत्नसेन को धोखे से बन्दी बनाया है तो हमें भी
उसके साथ धोखे का व्यवहार करना चाहिए। इस बात का निश्चय करके उन्होंने सोलह सौ
पालकियां सजाकर उनमें सरदारों को गुप्त रीति से बिठाया, तथा एक पालकी जिसमें लोहार
बैठा हुआ था,
उसके
विषय में यह प्रचार करते हुए कि इसमें बैठकर पद्मावती दिल्ली जा रही है, वे दिल्ली की ओर चल पड़े।
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने इसी तथ्य का वर्णन किया है।
व्याख्या
-
कवि जायसी कहते हैं कि सोलह सौ पालकियां सजाई गई और उनमें राजपूत सरदारों को
शस्त्रों से सज्जित करके बिठाया गया। पद्मावती के लिए भी एक विमान तैयार किया गया
और उसमें एक लोहार को इतनी गुप्त रीति से बिठाया गया कि स्वयं सूर्य को भी इस बात
की भनक नहीं मिल सकी कि उसमें लोहार बैठा है- भाव यह है कि जब सर्वज्ञ सूर्य को भी
इस भेद का ज्ञान न हो सका तो किसी अन्य व्यक्ति को इस तथ्य का ज्ञान होने का
प्रश्न नहीं उठता। वह विमान उसी प्रकार सज्जित किया गया था जैसा पद्मावती का
विमान सज्जित होना चाहिए और उस पर चारों ओर से चंवर ढाले जा रहे थे। इस प्रकार
पालकियों और विमान को सजाकर उन्हें दिल्ली की ओर रवाना कर दिया गया। उनके ऊपर लाल
पर्दे पड़े हुए थे और उन पर मोती टंके हुए थे। उन पालकियों और विमानों के साथ-साथ
गोरा और बादल चलने लगे और वे यह प्रचार करते जा रहे थे कि पद्मावती दिल्ली जा रही
है। पद्मावती के विमान में हीरा, मोती और उत्तम रत्न लटक रहे थे, जिनकी शोभा को देखकर देवता भी मोहित हो उठते थे। यह भी
प्रचार किया गया कि पद्मावती के साथ उसकी सोलह हजार सखियां भी जा रही हैं। जब
पद्मावती ही न रही तो फिर उसकी सखियां ही (चित्तौड़ में) रुककर क्या करतीं? जब कमल ही न रहा तो दूसरी
बेल या लताएं उस (फुलवाड़ी) में ठहरकर क्या करतीं?
गोरा
और बादल यह कहते जाते थे कि रानी पद्मावती स्वयं को बन्धक रखकर राजा को छुड़ाने के
लिए जा रही है। वह अपने साथ बत्तीस हजार घोड़े और सोलह सौ चंडोल ले जा रही है।
साहित्यिक
सौन्दर्य -
1.
जायसी
ने चंडोल का स्त्रियों की बढ़िया सवारी के रूप में वर्णन किया है।
2. 'सुरंग ओढ़ाइ मोति तिन्ह लाए
के संदर्भ में डॉ. अग्रवाल ने स्पष्ट किया है कि "चंडोल के ऊपर कीमती ओहार
ओढ़ाने की प्रथा थी जिसमें मोतियों की झालरें लगी रहती थीं। चित्रावली में भी
वर्णन है।
"अपुरब एक ओहार सुहावा ।
बिबिध
भांति के आनि ओढ़ावा
झूलहिं चहुं दिसि झालर मोती
छिटकि रही जग जगमग जोती।"
3. 'बैठ लोहार.... भानू' में अतिशयोक्ति अलंकार।
4. 'हीरा ..... भूलहिं' में अतिशयोक्ति अलंकार ।
5. कंवल बेली' में रूपकातिशयोक्ति अलंकार
।
राजा बंदि जेहि की सौंपना गा गोरा शब्दार्थ संदर्भ व्याख्या
राजा बंदि जेहि की सौंपना गा गोरा ता पहं अगुमना 1
टका लाख दस दीन्ह अंकोरा बिनती
कीन्ह पाय गहि गोरा | 2 |
बिनवहु पातसाहि पहं जाई । अब रानी पद्मावति आई । 3 ।
बिनै करै आई हौं ढीली
चितउर की मो सिउं है कीली । 4
एक घरी जौं अग्यां पावौं। राजहिं सौंपि मंदिल कहं आवौं। 5 ।
बिनवहु पातसाहि के आगें।
एक बात दीजै मोहिं मांगे । 6 ।
हते रखवार आगें सुलतानी देखि अंकोर भए जस पानी। 7 ।
लीन्ह अंकोर हाथ जेई
जाकर जीव दीन्ह तेहि हांथ ।
जो वहु कहै सरै सो कीन्हे कनउड़ झार न मांथ ॥ 53/3
शब्दार्थ
-
अगुमना=आगे होकर
टका= टका नामक चांदी का रुपया जो उस काल में चला करता था।
अंकोरा=भेंट,
रिश्वत।
ढीली = दिल्ली।
कीली = पुराने ढंग के तालों में लगने वाली कीली या मेखनुमा चाबी ।
मंदिल=भवन।
आगें =अत्यंत क्रोधी ।
अंकोर = घूस
सरै सो कीन्हे = वह करते ही बनता है।
कनउड़ = कनौड़ा,
अहसानमन्द
संदर्भ
प्रस्तुत पंक्तियों में कविवर जायसी ने इस तथ्य का वर्णन किया है कि उन पालकियों
और विमान के आगे जाकर गोरा शाह अलाउद्दीन के रक्षकों से मिला और उनको दस लाख टके
की भेंट देकर यह प्रार्थना की कि आप शाह से जाकर यह निवेदन कीजिए कि चित्तौड़ के
दुर्ग की चाबी देने के लिए रानी पद्मावती महाराजा रत्नसेन से एकांत में भेंट करना
चाहती है।
व्याख्या
-
कवि मलिक मोहम्मद जायसी वर्णन करते हैं कि राजा रत्नसेन जिस बन्दीगृह में था, गोरा उस बन्दीगृह के मालिक
से मिला और उसको दस लाख टके की भेंट (रिश्वत) प्रदान की। यह भेंट देकर उसने उसके
चरण पकड़कर विनती की कि आप बादशाह के समीप जाकर यह निवेदन कीजिए की रानी पद्मावती
आ गई हैं और वह आपके सम्मुख यह प्रार्थना करती हैं कि मैं दिल्ली में आ पहुंची
हूं। हां, चित्तौड़ के दुर्ग की चाबी
मेरे पास है। यदि एक घड़ी के लिए आपकी आज्ञा मिल जाए तो मैं उस चाबी को रत्नसेन को
सौंपकर आपके महल में आ जाऊं। गोरा ने बन्दीगृह के रक्षक से मनुहार करते हुए कहा कि
मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप मुझको यह बात मांगे दीजिए अर्थात् मेरी
प्रार्थना स्वीकार करके शाह अलाउद्दीन से यह आज्ञा प्राप्त कर लीजिए कि रानी राजा
से घड़ी भर के लिए मिल सके। कवि जायसी कहते हैं कि शाह के रक्षक आग के बने हुए थे, किन्तु उस रिश्वत को देखकर
वे पानी हो गए।
रिश्वत
के दुष्प्रभाव का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि जिसने जिसके हाथ से रिश्वत ले ली
उसने उसके हाथ में अपने प्राण दे दिए समझना चाहिए- अभिप्राय यह है कि रिश्वत लेकर
व्यक्ति रिश्वत देने वाले के हाथों अपनी जान
बेच देता है। उससे वही करते बनता है जो रिश्वत देने वाला चाहता है। जो एहसान से
दबा हुआ हो वह एहसान करने वाले की गर्दन नहीं काट सकता। अभिप्राय यह है कि उससे
रिश्वत देने वाले का अहित करते नहीं बनता और वह उसकी इच्छापूर्ति के लिए विवश हो
जाता है।
साहित्यिक
सौन्दर्य -
1 .
रिश्वत
की दुष्प्रथा भेंट आदि के रूप में प्राचीन काल से ही प्रचलित रही है। कवि जायसी ने
प्रस्तुत पंक्तियों में अलाउद्दीन के पहरेदारों को रिश्वतखोर चित्रित किया है।
2. 'कनउड़ झार न माथ' में इस लोकोक्ति का प्रयोग
किया गया है कि जो जिसका दबैल है वह उसे हलाल नहीं
कर सकता।
3. प्रस्तुत पंक्तियों से
गोरा की कूटनीतिज्ञता पर भी प्रकाश पड़ता है। वैसे वह क्षत्रिय है किन्तु अपने
स्वार्थ की पूर्ति के लिए अलाउद्दीन के पहरेदारों के समक्ष गिड़गिड़ाना अनुचित नहीं समझता।
4. 'हते जस पानी में उपमा
अलंकार।
5. दोहे
में लोकोक्ति अलंकार ।
लोभ पाप कै नदी अंकोरा सत्तु शब्दार्थ संदर्भ व्याख्या
लोभ
पाप कै नदी अंकोरा सत्तु न रहै हाथ जस बोरा । 1
जहं अंकोर तहं नेगिन्ह राजू ठाकुर केर बिनासहिं काजू 2 |
भा जिउ घिउ रखवारन्ह केरा।
दरब लोभ चंडोल न हेरा। 3|
जाइ साहि आगें सिर नावा। ऐ जग सूर चांद चलि आवा। 4
औ जावंत संग नखत तराई।
सोरह से चंडोल सो आई । 5 ।
चितउर जेति राज के पूंजी ले सो आई पदुमावति कूंजी। 6 |
बिनति करे कर जोरें खरी लै
सौंपौं राजहिं एक घरी 7 ।
इहां
उहां के स्वामी दुहूं जगह मोहि आस
पहिलें दरस देखावहु तौ आवौं कबिलास ॥ 53/4 ॥
शब्दार्थ
सत्तु = सत्य, आचरण ।
अंकोर = भेंट करके, डूबकर
नेगिन्ह = सेवकों
ठाकुर केर = स्वामी का ।
बिनासहिं = बिगाड़ते हैं।
घिउ = घी पिघल जाना।
चांद चलि आवा=
पद्मावती रूपी चन्द्रमा आ गया है।
जावंत = जितनी
नखत तराई= नक्षत्रों और तारों रूपी
सखियां
जेति = जितनी
आस= आशा
कूंजी = चाबी
कविलास = स्वर्ग, महल।
संदर्भ
प्रस्तुत पंक्तियों में कविवर जायसी ने शाह अलाउद्दीन के रिश्वतखोर रक्षकों द्वारा
उससे जाकर यह - प्रार्थना करने का वर्णन किया है कि चन्द्रमा रूपी पद्मावती अपनी
नक्षत्र और तारों रूपी सखियों के साथ दिल्ली आ पहुंची है और एक घड़ी के लिए स्व
पति से मिलकर उसको दुर्ग की चाबियां सौंप देने की आज्ञा चाहती है।
व्याख्या-
कवि
कहता है लोभ और रिश्वत पाप की नदी है भाव यह है कि रिश्वत की नदी लोभ से उत्पन्न -
होकर पाप की ओर बहती है। इस नदी में कोई प्राणी जैसे ही अपना हाथ डुबाता है उसका
सत्याचरण खंडित हो जाता है। जहां घूस चलती है वहां नौकर-चाकरों का ही राज हो जाता
है और वे मालिक का कार्य बिगाड़ने लगते हैं रिश्वतखोर कर्मचारी विविध कार्यों को
रिश्वत लेने के आधार पर ही देखते हैं, उन्हें न्याय-अन्याय की चिन्ता नहीं रहती । बन्दीगृह के
रक्षकों का हृदय गोरा की भेंट (रिश्वत) पाकर घी की तरह पिघल गया। धन के लोभ के
वशीभूत होकर उन्होंने चंडोलों की तलाशी नहीं ली। उन्होंने बादशाह के सम्मुख जाकर
प्रणाम करते हुए कहा कि हे जगत् के सूर्य चन्द्रमा रूपी पद्मावती चलकर आपके समीप आ
पहुंची। उसके साथ बहुत-सी नक्षत्रों और तारों रूपी उसकी सखियां भी सोलह सौ चंडोलों
में दिल्ली आ पहुंची हैं। चित्तौड़ राज्य की जितनी पूंजी है, उस सरकारी खजाने की चाबी पद्मावती
के पास है। वह हाथ जोड़े खड़ी होकर आपसे प्रार्थना करती है कि यदि आपकी आज्ञा हो
तो मैं घड़ी भर के लिए राजा से मिलकर, चाबियों को स्व पति को सौंप आऊं ।
पद्मावती
के द्वारा प्रेषित प्रार्थना का वर्णन करते हुए बन्दीगृह का रक्षक आगे कहने लगा कि
हे सुल्तान ! पद्मावती ने निवेदन किया है कि जो मेरे लिए यहां अर्थात् पृथ्वी और
वहां के अर्थात् परलोक के स्वामी हैं और दोनों ही लोकों में मुझको जिनकी आशा थी, पहले मुझे उनके अर्थात्
मेरे पति के दर्शन करा दें तो फिर मैं आपके महल में आऊं। श्री शिरेफ साहब ने
यहां-वहां के स्वामी का अलाउद्दीन परक अर्थ लिया है जिसके अनुसार पद्मावती की
प्रार्थना का उन्होंने यह अभिप्राय ग्रहण किया है कि हे शाह! आप ही मेरे इस लोक
तथा परलोक के स्वामी हैं। आप मुझको मेरे पूर्व पति के एक बार दर्शन करा दीजिए
जिससे मैं उनको दुर्ग की चाबी सौंपकर शीघ्र ही आपके समीप आ सकूं।
साहित्यिक
सौन्दर्य
1. रिश्वत को लोभ और पाप की
नदी बताना सर्वथा उचित है।
2. रिश्वतखोर
कर्मचारियों द्वारा राज्यकार्य पहले से ही बिगाड़े जाते रहे हैं और अब भी बिगाड़े
जाते हैं। धन के लोभ में बहुत से कर्मचारी अपने देश के गुप्त रहस्य दूसरे देशों के
जासूसों को बता देते हैं। रिश्वतखोर कर्मचारियों वाले शासन में रहने वाले लोग उस
प्रकार की व्यवस्था के लिए शासन को ही दोष दिया करते हैं।
3. दोहे
में 'इहां उहां के स्वामी का
श्री शिरेफ साहब द्वारा अलाउद्दीन परक अर्थ करना उचित नहीं प्रतीत होता। उसकी संगति
इस दृष्टि से तो किन्हीं अंशों में बैठती है कि वह अलाउद्दीन को मूर्ख बनाने के
लिए इस प्रकार की बातें कह रही है (वास्तव में पद्मावती तो आई ही नहीं थी, ये बातें तो गोरा द्वारा
सुझाने पर कही गई थीं)। किन्तु एक हिन्दू रानी के मुख से इस प्रकार की बातें शोभा
नहीं देतीं, इसीलिए तो डॉ. वासुदेवशरण
अग्रवाल ने इनका सम्बन्ध राजा रत्नसेन के साथ स्थापित किया है। हमारी धारणा यह है
कि गोरा द्वारा सुझाई गई बातों का संबंध यदि अलाउद्दीन से भी जोड़ लिया जाए तो
अनुचित नहीं है इसके साथ ही यह तथ्य भी विस्मृत नहीं करना चाहिए कि
यह
उक्ति षड्यंत्र का अंश है, अतः
"Everything is fair in love and war"
की
उक्ति के अनुसार इनका संबंध अलाउद्दीन से जोड़ना ही संगत है।
4. 'लोभ पाप.... अंकोरा' में रूपक अलंकार ।
5. "भा जिउ केरा' में उपमा अलंकार ।
6. 'ऐ जग 'आवा' में रूपकातिशयोक्ति अलंकार।
7. दोहे में वृत्यानुप्रास अलंकार ।
अग्यां भई जाउ एक घरी अग्यां भई जाउ एक घरी
अग्यां
भई जाउ एक घरी । छूछि जो घरी फेरि बिधि भरी । 1 ।
चलि बेवान राजा पहं आवा संग चंडोल जगत गा छावा |2|
पदमावति
मिस हुत जो लोहारू । निकसि काटि बंदि कीन्ह जोहारू । 3 ।
उठेउ कोपि जब छूटेउ राजा
चढ़ा तुरंग सिंघ अस गाजा 4
गोरा बादल खांडा काढ़े। निकसि कुंवर चढ़ि चढ़ि भए ठाढ़े। 5
तीख तुरंग गंगन सिर लागा।
केहु जुगुति को टेकै बागा | 6 |
जौं जिउ ऊपर खरग संभारा। मरनिहार सो सहसन्हि मारा। 7|
भई पुकार साहि सौं ससियर
नखत सो नाहिं ।
छर के गहन गरासा गहन गरासे जाहिं ॥ 53/5 ॥
शब्दार्थ
-
अग्यां= आज्ञा
छूछि = निस्सार, व्यर्थ
मिस = बहाने से
हुत = था।
काटि = बंदि बन्धन काटकर । |
जोहारू = प्रणाम |
सिंघ अस = शेर की भांति ।
गाजा = गर्जना का
काढ़े = निकाल लिए।
जुगुति=युक्ति, उपाय ।
बागा = लगाम ।
मरनिहार = करने
वाले ने
सहसन्हि = सहस्त्रों को।
ससियर = चन्द्रमा
नखत = नक्षत्र
छर कै = छल करके।
गरासा=ग्रसा
संदर्भ
-
प्रस्तुत पंक्तियों में जायसी ने इस तथ्य का वर्णन किया है कि शाह अलाउद्दीन ने
अपने रिश्वतखोर अधिकारी की प्रार्थना सुनकर यह आज्ञा प्रदान कर दी की पद्मावती एक
घड़ी के लिए स्व- पति से मिल कर उसको चाबी दे सकती है। यह आज्ञा मिलने पर विमान
में बैठे लोहार ने राजा की हथकड़ियां और बेड़ियां काट डालीं।
व्याख्या
-
कवि कहता है कि शाह अलाउद्दीन की ओर से यह आज्ञा दे दी गई कि जाओ एक घड़ी के लिए
राजा से मिल आओ। इस प्रकार जो घड़ी रीति या निस्सार थी वह शाह की आज्ञा द्वारा फिर
से भर गई भाव यह है कि उस एक घड़ी का अत्यधिक महत्त्व था इस आज्ञा को पाकर वह
विमान जिसमें पद्मावती के रूप में एक लोहार बैठा हुआ था राजा रत्नसेन के समीप लाया
गया और उस विमान के साथ-साथ वे चंडोल भी लाए गए जिनके विषय में यह कहा गया था कि
उसमें पद्मावती की सखियां बैठी हुई हैं। कवि कहता है कि उस विमान में पद्मावती के
बहाने से जो लोहार बैठा हुआ था, उसने विमान में से निकल कर राजा रत्नसेन की हथकड़ी और बेड़ियां काट
दीं और राजा को प्रणाम किया। कवि कहता है कि बन्धनमुक्त होने पर राजा रत्नसेन
क्रोध करते हुए उठ कर खड़ा हो गया और वह घोड़े पर सवार होकर सिंह के समान गर्जना
करने लगा। गोरा और बादल ने भी अपने-अपने खांडे निकाल लिए तथा चंडोलों से निकल निकल
कर सभी सामंत या कुमार भी अश्वों पर सवार हो गए। तीव्रगामी अश्वों के सिर आकाश को
छूने लगे। किस उपाय द्वारा और कैसे कोई उनको बाग पकड़कर रोक सकता था? भाव यह है कि वे घोड़े
इतने बलशाली और तेज थे कि लगाम कसने का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था और वे
आकाश की ओर उड़े जा रहे थे। जब कोई योद्धा अपने जीवन का मोह त्यागकर तलवार संभालता
है तो वह मरते हुए भी हजारों को मार जाता है। कवि की इस उक्ति का संकेत इस तथ्य की
ओर है कि गोरा और बादल के साथ आए हुए वे कुमार अपने मन में मरण व्रत लेकर आए थे।
उन्होंने अपने प्राणों की बाजी लगाने का निश्चय कर रखा था। यही कारण है कि उनमें
से एक-एक योद्धा मुस्लिम सेना के हजारों सैनिकों के तुल्य था ।
राजा
रत्नसेन और उसके सैनिकों को इस प्रकार सज्जित होते देखकर चारों ओर यह पुकार मच गई
कि विमान और चंडोलों में पद्मावती रूपी चन्द्रमा तथा तारिकाओं रूपी उसकी सखियां
नहीं आई हैं,
अपितु
जिनको हमने छलपूर्वक ग्रहण में ग्रसा था अर्थात् रत्नसेन को छलपूर्वक बन्दी बनाया
था वे अब हमको ग्रहण लगाकर अर्थात् छल द्वारा उल्लू बनाकर जा रहे हैं अथवा सूर्य
रूप शाह अलाउद्दीन को छल से ग्रहण ने ग्रस लिया है और राजपूत छल द्वारा बन्दी
रत्नसेन को छुड़ाए लिए जा रहे हैं।
साहित्यिक
सौन्दर्य -
1.
गोरा
और बादल द्वारा छल का जवाब छल से देने में अच्छी सूझबूझ दिखाई जाती है। 2. 'मरनिहार सो सहसन्हि मारा' के द्वारा जायसी ने इस
तथ्य की ओर संकेत कर दिया है कि गोरा और बादल के साथ आए योद्धा सामान्य योद्धा
नहीं थे अपितु उन सहस्त्र भटों जैसे थे, जिनमें से एक-एक योद्धा हजारों वीरों के समान होता है।
3. राजा
रत्नसेन के बन्दीगृह से छूटते समय सिंह की भांति गरजने की कल्पना प्रसंग की
भयंकरता की दृष्टि से उचित नहीं प्रतीत होती क्योंकि उसे छलपूर्वक बन्धन मुक्त
कराया गया था। फिर भी शत्रु की राजधानी में रत्नसेन की सिंह गर्जना उसके अप्रतिम
वीरत्व की परिचायक है।
4. 'छंछि भरी' में वृत्यानुप्रास अलंकार
5. 'चढ़ा..... गाजा' में उपमा अलंकार ।
6. 'तीख लागा' में अतिशयोक्ति अलंकार ।
7. दोहे
में रूपकातिशयोक्ति अलंकार ।
8. अन्तिम
पंक्ति में वृत्यानुप्रास अलंकार
लै राजहिं चितउर कहं चले शब्दार्थ संदर्भ व्याख्या
लै
राजहिं चितउर कहं चले। छूटेउ मिरिंग सिंघ कलमले । 1 |
चढ़ा साहि चढ़ि लागि गोहारी। कटक
असूझ पारि जग कारी । 2 ।
फिरि बादिल गोरा सौं कहा। गहन छूट पुनि जाइहि गहा। 3।
चहुँ दिसि आइ अलोपत भानू । अब यह
गोइ इहै मैदानू 4 |
तूं अब राजहिं ले चलु गोरा हौं अब उलटि जुरौं भा जोरा। 5 ।
दहुं चौगान तुरुक कस
खेला। होइ खेलार रन जुरौं अकेला | 6 |
तब पावौं बादिल अस नाऊं। जीति मैदान गोइ लै जाऊं। 7 ।
आजु खरग चौगान गहि करौं
सीस रन गोइ ।
खेलौं सौंहं साहि सों हाल जगत महं होई ॥ 53 / 6 ॥
शब्दार्थ
-
मिरिंग = हिरण।
कलमले = कुलबुलाए, खलबली मची।
गोहारी = पुकार।
कटक=दल।
यहुं असूझ=जहां कुछ समझ में न आए
या दिखाई न दे।
छूटेउ मिरिंग = डॉ. अग्रवाल के शब्दों में असंख्य तुर्कों के बीच में
राजा मृग के समान असहाय था। उसके छूटते ही बड़े-बड़े तीसमारखां तुर्कों में खलबली
पड़ गई अथवा मृग जाति का एक हाथी जिसकी आंखें बड़ी-बड़ी होती हैं। राजा रूपी हाथी
के छूटने से तुर्क रूपी शेरों में खलबली पड़ गई।
गहा = पकड़ा।
अलोपत = लुप्त करते
हुए।
गोइ = छिप लेगा।
जुरौं भा जोरा = संग्राम करूंगा।
खेलार = खिलाड़ी।
चौगान = एक
खेल विशेष
गोइ= गेंद।
हाल= गोल करने का स्थान।
संदर्भ
प्रस्तुत पंक्तियों में इस तथ्य का वर्णन किया गया है कि यह ज्ञात होने पर कि गोरा
और बादल छलपूर्वक राजा रत्नसेन को बन्दीगृह से छुड़ा कर लिए जा रहे हैं, सुल्तान की सेना उसको पुनः
बन्दी बनाने के लिए निकल पड़ी।
व्याख्या-
कवि
कहता है कि गोरा-बादल और उनके साथी राजा रत्नसेन को बन्धनमुक्त करके, उसको साथ लेकर चित्तौड़ की
ओर चल पड़े। रत्नसेन रूपी मृग के दूर जाने पर सिंह रूपी अलाउद्दीन कुलबुलाने लगा
अथवा रत्नसेन रूपी मृग जाति के हाथी के छूटने पर तुर्क रूपी शेरों में खलबली मच
गई। सेना को तैयार होने का आदेश देते हुए स्वयं शाह भी आक्रमण के लिए तैयार हो
गया। उसकी असंख्य सेना के कारण सारे संसार में अंधकार व्याप्त हो गया। अभिप्राय यह
है कि उसकी असंख्य सेना के चलने के कारण उड़ी हुई धूल ने आकाश को अन्धकारपूर्ण कर
दिया। तब घूमकर गोरा बादल के समीप आकर कहने लगा कि हम स्वामी को जैसे-तैसे ग्रहण
रूपी सुल्तान की कैद से छुड़ाकर लाए थे जबकि वह ग्रहण अब पुनः लगना चाहता है-
भाव
यह है कि सुल्तान राजा को पुनः बन्दी बनाना चाहता है। सूर्य रूप अलाउद्दीन हमें
घेरता चला आ रहा है। अब यह मेरा सिर ही मेरे लिए गेंद के तुल्य होगा जबकि यह युद्ध
क्षेत्र मेरे लिए खेल का मैदान होगा। हे गोरा तू यहां से राजा को सुरक्षित
चित्तौड़ की ओर ले जा, जबकि अब मैं पीछे की ओर लौट कर शाह की सेना से भिडूंगा अब मुझे यह
देखना है कि तुर्क सैनिक और उनका बादशाह युद्ध-रूपी चौगान को किस प्रकार खेलते
हैं। मैं खिलाड़ी बनकर शाह अलाउद्दीन से संग्राम में अकेला भिडूंगा- भाव यह है कि
मुझे युद्ध रूपी चौगान में शाह अलाउद्दीन को परास्त करना है।
गोरा
बादल को समझाते हुए आगे कहने लगा कि आज मैं तलवार रूपी चौगान का बल्ला हाथ में
लेकर युद्ध क्षेत्र में शत्रु के सिर की गेंद बनाऊंगा। मैं शाह अलाउद्दीन के सामने
पड़कर उसके साथ युद्ध-रूपी चौगान खेलूंगा, तभी संसार में हलचल मचेगी मेरी कीर्ति छाएगी। मैं इस
संसार को हाल बनाना चाहता हूं- भाव यह है कि जैसे हाल में गेंद जाने पर खिलाड़ी की
प्रशंसा होती है उसी प्रकार में भी शीश रूपी गेंद को हाल में पहुंचा कर अर्थात्
उसको काटकर कीर्ति प्राप्त करूंगा।
साहित्यिक
सौन्दर्य -
1.
गोइ
लै जाऊ- गेंद को विपक्षी खिलाड़ियों से बचाकर हाल पर गोल करने के स्थान हाल- चौगान
के मैदान के दोनों ओर बने गुमटीनुमा खम्भे, जिनके बीच में से गेंद निकलने पर गोल हुआ स्वीकार किया
जाता था।
2. 'हाल जगत महं होइ' के विषय में डॉ. 'अग्रवाल ने यह टिप्पणी दी है- “इसका यह भी संकेत है कि मेरे इस खेल
का हाल या अन्तिम छोर यह संसार होगा। मुझे अपने मस्तक रूपी गेंद से उसके पार तक
खेलना है।"
3. चौगान चौगान के खेल के विषय में डॉ. राजपाल शर्मा ने अपने 'हिन्दी वीर काव्य' में 'सामाजिक जीवन की अभिव्यक्ति' शीर्षक शोध प्रबन्ध में
निम्नांकित विवरण दिया है।
"कवि केशव-प्रदत्त विवरण से मध्यकाल में चौगान के अधोलिखित स्वरूप पर
प्रकाश पड़ता है- खेल के मैदान की लम्बाई सवा कोस होती थी। केशव के अनुसार इसके
दोनों सिरों पर हाल बने होते थे जबकि भूषण ने उन्हें मीनारों की संज्ञा प्रदान की
है। ब्लौखमैन ने आईन-ए-अकबरी का अनुवाद करते हुए हालों को क्रीड़ा क्षेत्र के
सिरों पर लगे हुए दो-दो खम्भों का द्योतक बताया है, जिसके बीच में गेंद निकाल देने पर
गोल हो जाता था। प्रतीत होता है कि भूषण ने मुस्लिम शैली पर बने हुए हालों को ही
मिनारें कहकर अभिहित किया है, जो कदाचित हालों के लिए उस समय दूसरा प्रचलित शब्द था।
विभिन्न
रंगों की (केशव ने काली, पीली, नीली और हरे रंग की छड़ियों का उल्लेख किया है) छड़ियां (हाकी स्टिक
जैसी) लिए हुए अश्वारोही खिलाड़ी दो दलों में विभक्त हो जाते थे। गेंद जिस किसी
खिलाड़ी की पहुंच में आ जाती थी वही उसे छड़ी मार कर हाल (गोल) की ओर ले जाने की
चेष्टा करता था। जबकि विपक्षी उसके प्रयास को विफल करते हुए गेंद को दूसरी ओर ले
जाने की चेष्टा करते थे। इस खेल की तीव्र गति के कारण अश्व और सवार सम्भवतः शीघ्र
ही थकान अनुभव करने लगते थे, अतः प्रति बीस मिनट के पश्चात् दो पुराने खिलाड़ियों का स्थान नवीन
खिलाड़ी ग्रहण कर लेते थे। यह पता अवश्य चलता है कि चौगान में दस से अधिक खिलाड़ी
नहीं होते थे ।
4. 'छुटेउ.... कलमले' में रूपक अलंकार ।
5. चहुं
भानू' में रूपकातिशयोक्ति
अलंकार।
6. 'अब मैदानू' में रूपक अलंकार । 7. 'दहुं खेला' में रूपक अलंकार ।
8. दोहे
में सांगरूपक ।
तब
अंकम दै गोरा मिला। तूं राजहिं ले चलु बादिला |1 |
पिता मरै जो सारें साथें मींचु न देइ पूत के मांथे। |2|
मैं अब आउ भरी औ भूंजी का
पछितांउ आइ जौं पूजी । 3 |
बहुतन्ह मारि मरौं जौं जूझी। ताकहं जनि रोवहु मन बूझी ।4|
कुंवर सहस संग गोरैं लीन्हें। औरु बीर संग बादिल दीन्हें |5 |
गोरहि समदि बादिला गाजा । चला लीन्ह आगे के राजा |6|
गोरा उलटि खेत भा ठाढ़ा पुरुखन्ह देखि चाउ मन बाढ़ा।7|
आउ
कटक सुलतानी गंगन छपा मसि मांझ ।
परत आव जग कारी होत आव दिन सांझ ॥ 55 / 7 ॥
शब्दार्थ
-
अंकम = आलिङ्गन करके
सारे = रक्षा करना।
साथे-साथ वालों की
मीचु = मृत्यु |
भरी = पूरी की।
भूजी=भोगा |
जूझी=युद्ध करते हुए।
जनि=नहीं।
बूझी = समझ कर
समदि = बिदा करके ।
पुरुखन्ह = पूर्वज को (गोरा बूढ़ा था अतः चितौड़
के वीरों का पुरखा ही था)
संदर्भ
प्रस्तुत पंक्तियों में कविवर जायसी ने इस तथ्य
का वर्णन किया है कि गोरा ने गले मिलकर बादल को राजा
के साथ चित्तौड़ जाने के लिए विदा कर दिया और स्वयं शाह अलाउद्दीन की सेना का सामना
करने के लिए रुक
गया।
व्याख्या
जायसी वर्णन करते हैं कि तदन्तर गोरा ने बादल को अपने गले से लगाकर कहा कि हे
बादल! तू तो राजा को लेकर चित्तौड़ चला जा । सार्थ की रक्षा करते हुए पिता चाहे
मारा जाए, किन्तु वह पुत्र के मस्तक
पर संकट नहीं आने देता (इस पंक्ति का अभिप्राय यह है कि गोरा चाचा होने के कारण यह
नहीं चाहता है कि उसके जीवित रहते हुए उसके भतीजे बादल का बाल भी बांका हो, इसीलिए वह हठ करके बादल को
चित्तौड़ भेजना चाहता है)। मैंने अब अपनी पूरी आयु प्राप्त कर ली है और अनेक
प्रकार के भोग भी भोग लिए हैं, अतः यदि मेरी आयु समाप्त भी हो जाती है अर्थात् यदि मैं युद्ध में
मारा भी जाता हूं तो भी पश्चाताप की कोई बात नहीं है। यदि मैं युद्ध में मारा भी
जाऊंगा तो भी अपार तुर्क सैनिकों को मार कर मरूंगा- यह सोचकर तुम मेरे लिए अपने मन
में विलाप मत करना।
कवि
कहता है कि गोरा ने बादल को इस प्रकार समझा-बुझाकर अपने साथ एक हजार सैनिक रख लिए
तथा अन्य वीरों को बादल के साथ कर दिया। गोरा के साथ अन्तिम भेंट करके बादल गर्जने
लगा और राजा को अपने आगे करके चित्तौड़ की ओर चल पड़ा। गोरा पीछे की ओर लौटकर शाह
अलाउद्दीन की सेना के सम्मुख अड़ गया। उसे देखकर वीर पुरुषों के हृदय में युद्ध का
चौगुना उत्साह बढ़ गया
शाह
अलाउद्दीन की सेना की विशालता का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि उसके चलने से उड़ी
धूल के कारण आकाश अंधकार से ढक गया। संसार में काली घटा घिरी आ रही थी और दिन में
ही संध्या होती जा रही थी। इस प्रकार का अन्धकार छाता जा रहा था जैसे संध्या के
समय हुआ करता है।
साहित्यिक
सौन्दर्य
1. पिता मरै- मांथे के संदर्भ
में इस तथ्य का परिज्ञान आवश्यक है कि गोरा और बादल का संबंध चाचा और भतीजे का है।
2. दोहे
में अतिशयोक्ति अलंकार।
होइ मैदान परी अब गोई शब्दार्थ संदर्भ व्याख्या
होइ
मैदान परी अब गोई । खेल हाल दहुं काकरि होई । 1 ।
जोबन तुरै सो रानी चली जीति अति खेल सयानी |2 |
लट चौगान गोइ कुच साजी ।
हिम मैदान चली लै बाजी | 3 |
हाल सो करै गोइ लै बाढ़ा। कूरी दुहूं बीच के काढ़ा । 4 |
भए पहार दुवौ वै कूरी।
दिस्टि नियर पहुंचत सुठि दूरी | 5 |
ठाढ़ बान अस जानसुं दोऊ । सालहिं हिए कि काढ़े कोऊ । 6 ।
सालहिं तेहि न जासु हियं
ठाढ़े। सालहिं तासु चहै ओन्ह काढ़े । 7 ।
मुहमद खेल पिरेम का घरी कठिन चौगान ।
सीस न दीजै गोई
जौं हाल न होइ मैदान ॥ 53/8
शब्दार्थ
गोई = गेंदाला
हल = गेंद को कुड़ियों के बीच से निकाल देना, गोल, जीत, आनंद हुन जाने।
काकरि = किसका
जोबन तुरे = यौवन रूपी घोड़ा
चौगान = चौगान नामक खेलने की छड़ी
कूरी-फारसी हाल के लिए यह
संस्कृत परम्परा का शब्द था।
नियर = समीप
सुठि = दूरी बहुत दूर
अस= समान
बान = बाण, धुनकी मूठ ।
घरी= खेल की एक
पाली का सम
सालहिं = कष्ट देता है।
संदर्भ
प्रस्तुत पंक्तियों में मलिक मोहम्मद जायसी ने ऐसी श्लिष्ट शब्दावली का प्रयोग
किया है कि इन पंक्तियों के चौगान खेलपरक, शृंगार परक तथा युद्ध परक तीन अर्थ निकलते हैं। इन तीनों
अर्थों के लिए हम डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के ऋणी हैं, जिन्होंने इन पंक्तियों के
निम्नांकित प्रकार के अर्थ दिए हैं
चौगानपरक अर्थ-
1. अब गेंद मैदान में आकर पड़ी है।
खेल में न जाने हाल किसका होगा (विजय किसकी रहेगी)
?
2. जीवन में भरी वह रानी
तुरंग पर चढ़ी है। खेल में अति सयानी वह जीतकर चली है या जीतने के लिए खेल आरम्भ
किया है)।
3. वक्षस्थल
पर लोटती हुई,
लट
चौगान के खेल का बल्ला है। गेंद कुच के समान सजाई है। वह रानी उमंग से
मैदान में बाजी लेने चली है।
4. जो गेंद लेकर बढ़ता है और उसे दोनों खम्भों के बीच से निकालता है, वही हाल करता है। उसी की विजय होती है .
5. खेल
के मैदान के अन्त में बनी दोनों कूरियां पहाड़ के समान हो गईं जो देखने में पास
लगती थीं पर वहां तक
पहुंचने में दूर थीं।
6. वे दोनों कूरियां बाण की तरह खड़ी थीं। वे खिलाड़ियों का हृदय व्यथित
कर रही थीं कि कोई उनके बीच से गेंद निकाल कर दिखाए।
7. वे
कूरी रूप बाण जिसके हृदय पर हैं उसे नहीं सालते, उसका हृदय सालते हैं जो उनके बीच
से गेंद निकालना चाहता है।
8. ( मुहम्मद) यह खेल प्रेम से मिलकर खेलने का है। चौगान के खेल की एक
घड़ी की अवधि बड़ी कठिन होती है।
9. जब
तक गेंद के साथ सार भी न दिया जाए, मैदान में जीत नहीं होती।
अपने उपर्युक्त अर्थ की
निष्पत्ति के लिए डॉ. अग्रवाल ने इन पंक्तियों में प्रयुक्त शब्दों के चौगान परक
अर्थ इस प्रकार दिए हैं-
1. मैदान
-
वह खेली हुई भूमि जहां चौगान किया जाता है। अबुलफ़ज़ल ने भी इसी शब्द का प्रयोग
किया है। चौगान का खेल हिन्दू युग में वाजिवा झाली विनोद कहा जाता था। इसमें दोनों
दलों में आठ-आठ खिलाड़ी होते थे। हाल करे तोरणद्वय, चौगान या मैदान को वाह्याली हेंगुर
या डंडे को गेद्दिका (या गेडिका) गेंद को कन्दुक कहा गया है। लकड़ी के गोले पर
चमड़ा मढ़कर इसकी गेंद बनाई जाती थी। डंडा चमड़े से मढ़ा जाता था। वह अग्रभाग में
मढ़े हुए बेंत से बनता था और छह फुट लम्बा होता था । गोई गेंद फारुसी गूथ, इसके लिए प्राचीन शब्द
गोटा और कंदुक थे । हाल चौगान के मैदान के अन्त में दोनों ओर दो गुमटनुमा खंभे, आजकल की भाषा में गोल उनके
बीच से गेंद मारकर निकालने पर बाजी होती थी। उन्हीं का भारतीय नाम कूरी था। गोल
होना-खेल में जीत होना । हाल करना (पृ. 4 ) = गोल करना । लारेन्स विनयन कृत कोर्ट पेन्टर्स आव दी
ग्रांड मुगल्स पुस्तक के पृष्ठ 18 के सामने फलक 7 पर छपे शाहजादी हुमा गूयबाजी करदन' चित्र में राजकुमारी घोड़े
पर चढ़कर सिरे पर मुड़ी हुई लकड़ी से गेंद छीनती हुई चौगान खेल रही है। मैदान के
दोनों सिरों पर गूमटनुमा दो-दो खम्भे हैं जिनमें से बाईं ओर के दोनों साफ हैं, दाहिनी ओर का एक कुछ टूटा
हुआ चित्र में बचा है। सूर ने भी चौगान के प्रसंग में मैदान, गोइ, और हाल का उल्लेख किया है।
2. चौगान
चौगान के खेल का डंडा या बल्ला भी चौगान कहलाता था। अंग्रेजी पोलो स्टिक लट चौगान
- छाती पर झूलती हुई लट की भांति मुड़ा हुआ बल्ला। दो अलक भुंवगिनी तेहि पर लोटा
हेंगुरि एक खेल दुई गोटा। वहां चौगान के बल्ले को हेंगुरि कहा गया है और उसकी
तुलना रोमावली तक झूमती हुई लट से की गई है। 5721 2 में अलक को अंकुश कहा गया है। बाजी (1) बाजी = खेल-खेल में अपनी
बारी (2) घोड़ा-रानी अपना घोड़ा
मैदान में दौड़ाने लगी। हिय-हृदय से उत्साहपूर्वक ।
3. हाल
सो करै
दे. पं. 1, हाल करना, हाल जीतना, हाल होना, ये तीनों प्रयोग प्राचीन साहित्य में मिलते हैं, जो अब गोल शब्द के साथ
प्रचलित हैं। कूरी-फारसी हाल के लिए यह संस्कृत परम्परा का शब्द था। पछाहीं बोली
में कूड़ी शब्द हाल या गोल के अर्थ में अभी तक प्रचलित है।
4. भए
पहार -
दोनों कूरियों तक गेंद पहुंचना अति दुस्साध्य हो गया। पहार=अति कठिन कार्य, दुष्कर कार्य । दिस्टि
नियर पहुंचत सुठिरी - अबुलफ़ज़ल ने चौगान के मैदान की नाप का उल्लेख नहीं किया।
बदायूनी के अनुसार अकबर ने आगरा के पास नगरचीं नामक स्थान में चौड़ाई 200 गज (हाकी के मैदान से
तिगुनी) होती है। दोनों ओर की कूरियां एक-दूसरे से 250 गज की दूरी पर रहती हैं।
5. ठाढ़
बान अस-बान -
शब्द के यहां दो अर्थ हैं- बाण और धुनने की मुठिया कूरी या हाल की
गुमटियां मैदान में बाण-सी चुभी हुई लगती हैं। शृंगार पक्ष में दोनों स्तन बाण या
मुठिया के समान हैं।
6. घरी
माताप्रसाद जी ने इसका पाठ 'खरी' किया है। अर्थ की दृष्टि 'खरी' पाठ समीचीन है और वही मूल ज्ञात होता है। आईन के अनुसार चौगान के खेल
में प्रत्येक दो खिलाड़ी एक घड़ी (24 मिनट) तक खेलकर हट जाते थे और दूसरे खिलाड़ी उनकी जगह ले
लेते थे। इस समय प्रत्येक खिलाड़ी आठ से दस मिनट तक खेल कर बदल जाता
है। चौगान - अबुलफजल ने इस खेल का विशेष वर्णन दिया है। बादशाह को इस खेल का बहुत
शौक है। यह खेल मैदान में खेला जाता है। इसमें एक साथ दस खिलाड़ी से अधिक नहीं
होते, किन्तु और बहुत से खिलाड़ी
तैयार बैठे रहते हैं। जब एक घड़ी बीत जाती है तो दो खिलाड़ी सुस्ताने चले जाते हैं
और उनकी जगह दो नए खिलाड़ी आ जाते हैं। चौगान के बल्ले से गेंद को मारते हुए मैदान
के बीच के हाल की ओर ले जाते हैं। खेल के इस ढंग को हिन्दी में 'रोल' कहते हैं। दूसरा ढंग 'बेला' कहलाता है।
शृंगारपरक अर्थ -
डॉ. अग्रवाल ने इन पंक्तियों का निम्नांकित शृंगारपरक अर्थ दिया है 1. हृदयरूपी मैदान में
कुच-रूपी गेंद पड़ी थी। काम-क्रीड़ा में आज हाल (विभिन्न कामदशाएं) किसका होगा
अथवा, हाल का आनन्द का अनुभव
किसे प्राप्त होगा ?
2. वह
रानी यौवन के तुरंग पर चढ़ी हुई काम-क्रीड़ा में अति चतुर विजय के लिए चली।
3. उसकी
एक लट चौगान के बल्ले के समान झूम रही थी। दोनों कुच गेंद के समान थे। वह हृदय
रूपी मैदान में
बाजी खेलने चली (कामदशा करने चली) 4. जो कुच रूपी गेंद से आरंभ करता है और इन दोनों कूरियों
को बीच में करके खींचता है वही हाल (आनन्द) करता है।
5. वे
दोनों स्तन पर्वत की चोटियों के समान थे। वे दृष्टि के निकट किन्तु हाथ की पहुंच
के दूर थे। दोनों स्तन धुनकी की मुठिया की भांति उठे थे।
6. कामातुरों
के हृदय में कसक उत्पन्न करते थे कि कोई उनको खींचे। 7. जिसके हृदय पर वे स्तन थे
उसे तो न सालते थे, पर उसे व्यथित कर रहे थे, जो उन्हें भींचना चाहता था।
8. मुहम्मद
प्रेम की क्रीड़ा घड़ी भर के लिए भी चौगान की भांति कठिन है।
9. इस
मार्ग में जब तक गेंद के समान सिर भी न दिया जाए आनन्द के स्थान में असली सुख नहीं
मिलता।
10. इस पद में जायसी ने चौगान
और गेंद के खेल को शृंगार या प्रेम का रूपक मानकर कल्पना की है। कवि ने इस कथानक
में आध्यात्म प्रेम का ही वर्णन किया है।
युद्धपरक
अर्थ
1. युद्ध
के लिए मैदान में रानी गुप्त रीति से उतरी थी। रण में हलचल किसके साथ रहेगी। 2. यौवन में भरी हुई वह घोड़े
पर सवार थी। खेलने में चतुर वह जीत कर जा रही थी।
3. वह
अपना घोड़ा लिए हुए रणक्षेत्र में आयी। उसके लिए चौगान का खेल जाता रहा, उसने कुचों की शोभा छिपाली।
4. जो
योद्धा उसके सिर को गेंद की तरह लेकर बढ़ता है और दोनों दलों के बीच से उसको निकाल
ले जाता है वही जंग में हाल (हलचल या यश) करता है।
5. रण
क्षेत्र में वे दोनों एक दूसरे के लिए चट्टान के समान हो गए। देखने में पास-पास थे
पर अंत तक पहुंचते हुए अतिदूर तक विस्तृत थे।
6. दोनों
ऐसे जान पड़ते थे कि बाण (गोले) तैयार हों। कोई भी यदि उन बाणों को खींचकर छोड़
देगा तो वे हृदय सालने लगेंगे।
7. जिस
वीर के पास वे बाण थे वे उसको नहीं सालते थे। पर जिसका लक्ष्य करके उन्हें खींचा
जाता था, उसे सालते
थे।
8. (मुहम्मद) प्रेम का खेल खेलो। चौगान-रूपी युद्ध की तो एक घड़ी भी कठिन
है।
9. जब
तक गोलों की तरह सिर भी न दिया जाय, रणभूमि में हलचल नहीं होती ( यश नहीं मिलता )
10. पूरी चौपाइयों में श्लेष अलंकार ।
11. पूरी पंक्तियों में सांगरूपक ।
12. 'सालहिं काढ़े में विरोधाभास अलंकार ।
फिरि आगें गोरैं तब हांका खेलौं शब्दार्थ संदर्भ व्याख्या
फिरि
आगें गोरैं तब हांका खेलौं आजु करौं रन साका। 1 |
हीँ खेलौं धौलागिरि गोरा टरौं न टारा बाग न मोरा |2 |
सोहिल जैस इंद्र उपराहीं ।
मेघ घटा मोहि देखि बिलाहीं । 3 |
सहसौं सीसु सेस सरि लेखौं सहसौं नैन इंद्र भा देखौं ।4।
चारिउ भुजा चतुर्भुज आजू । कंस न
रहा औरु को राजू । 5 |
होइ भीवं आजु रन गाजा पाछें घालि दंगवै राजा 6 |
होइ हनिवंत जमकातरि ढाहौं
। आजु स्यामि संकरें निरबाहौं । 7 ।
होइ नल नील आजु हौं देउं समुंद महं मेंड़।
कटक साहि कर टेकौं होइ
सुमेरु रन बेंड़ ॥ 53 / 9 ॥
शब्दार्थ
-
फिरि-घूमकर,
लौटकर
हांका = गर्जना की।
साका = विशेष पराक्रम
सोहिल = अगस्त्य तारा।
इन्द्र उपराही = वर्षा
समाप्त हो जाती है।
बिलाहीं = छिप जाऊंगा।
साहसौं = हजारों
सेस = शेषनाग
सरि लेखीं = समान
दिखाई दूंगा
चतुर्भुज=भुजाओं वाले विष्णु का रूप भीवं भीमसेन।
दंगवै = दंगव या
दुंगपति नामक राजा ।
स्यामि= स्वामी को।
सैकरें = संकट से
निरबाहो = निर्वाह करूंगा, छुटकारा दिलाऊंगा।
मेंड़-रोक
लगाना।
बेंड़-आड़ा डंडा ।
संदर्भ
प्रस्तुत पंक्तियों में जायसी ने शाह अलाउद्दीन की सेना का सामना करते समय वीर
गोरा की दर्पोक्तियों का वर्णन किया है।
व्याख्या
-
कवि जायसी वर्णन करते हैं कि तदन्तर अर्थात् बादल को चित्तौड़ की ओर रवाना करके
गोरा ने पीछे की ओर मुड़कर अर्थात् शाह अलाउद्दीन की सेना का सामना करते हुए
वीरगर्जना करके कहा कि मैं आज युद्ध-स्थल मेंसाका का खेल दिखाऊंगा अर्थात् विशेष
पराक्रम प्रदर्शित करूंगा। आज मैं युद्धस्थल में हिमालय की भांति अडिग होकर युद्ध
का खेल खेलूंगा और किसी के भी द्वारा हटाने की चेष्टा करने पर पीछे की ओर नहीं
हटूंगा और अपने अश्व की बाग को नहीं मोडूंगा अर्थात् मेरा घोड़ा आगे ही बढ़ता
जाएगा वह पीछे की ओर नहीं हटेगा। मैं सोहिल के समान अर्थात् अगस्त्य तारे की भांति
वृष्टि के देवता इन्द्र के ऊपर रहूँगा। मुझको देखकर ही शत्रु की मेघों के समान
सेनाएं पीछे हट जाएंगी। अब मैं स्वयं को युद्धस्थल में हजार फण वाले शेषनाग के
तुल्य समझंगा अर्थात् अपने एक नहीं अपितु हजार शीश समझंगा और दो नेत्रों के स्थान
पर इन्द्र के हजार नेत्रों की भांति शत्रु की सेना को देखूंगा। आज मैं स्वयं को
चतुर्भुज विष्णु के समान समझंगा। शाह अलाउद्दीन को अपनी वीरता पर अभिमान है किन्तु
उसको यह नहीं भूलना चाहिए कि जब बलशाली कंस का ही अस्तित्व नहीं रहा है तो अन्य
किसी के जीवित बचने का प्रश्न ही नहीं उठता। आज मैं कुन्ती पुत्र भीमसेन की भांति
राजा दंग को पीछे रखकर युद्ध करने की भांति, राजा रत्नसेन को अपने पीछे रखते हुए युद्ध करूंगा। मैं
हनुमान के रूप में अहिरावनपुरी में लगी हुई जमकातरों को ढहा दूंगा और अपने स्वामी
को संकट से पार लगाऊंगा।
युद्धस्थल
में वीर गर्जना करते हुए गोरा आगे कहने लगा कि मैं आज नल-नील बनकर युद्धरूपी सागर
में मेंड़ (दीवार) बांध दूंगा और सुमेरु पर्वत के रूप में अडिग रहकर शाह की सेना को
रोक लूंगा।
साहित्यिक सौन्दर्य -
वीर गोरा की दर्पोक्तियों से संबंधित इन
पंक्तियों में जायसी ने अनेक अंतर्कथाओं का उल्लेख
किया है, जिनमें से मुख्य ये हैं
1. भीमसेन
द्वारा राजा दंग की रक्षा किया जाना।
2. इन्द्र के समान हजार आंखों से देखना ।
3. हनुमान
की भांति अहिरावण के दुर्ग में लगी जमकातरों को तोड़कर स्वामी की रक्षा करना ।
4. नल और नील द्वारा समुद्र
पर मेंड़ या पुल बनाना।
इन
चारों अंतर्कथाओं को संक्षेप में आगे दिया जा रहा है।
1. भीम
और दंग -
यद्यपि डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने विभिन्न शब्दों के पाठ-शोधन तथा
प्राचीन आख्यानों को देने में भागीरथ प्रयत्न किया है तो भी उनके ज्ञान की भी
सीमाएं रही हैं। उदाहरण के लिए वे प्रस्तुत पंक्तियों में
आए भीवं और दंगवे राजा का ठीक अर्थ नहीं समझ पाए हैं और उन्होंने इस पंक्ति का यह
अर्थ दिया है
"ट्रंगपति राजा को पीछे डालकर मैं भीम बनकर आज रण में गरजूंगा।”
उन्होंने जो शब्दार्थ और टिप्पणियां दी हैं उनमें भीव को उन्होंने गुजरात के राजा
भीमदेव द्वितीय चालुक्य का वाचक बताते हुए कहा है भीम (1173-1241 ) ने मोहम्मदगोरी के
चित्तौड़ पर आक्रमण के समय वहां के राजा की सहायता की थी और गोरी की सेना को
परास्त किया था। दंगवै-दंगपति-दंगवै ।
इस
संदर्भ में डॉ. राजपाल शर्मा की 15-1-77 के दैनिक हिन्दुस्तान में 'लोकवाणी' शीर्षक के अंतर्गत छपी
शोधात्मक टिप्पणी को उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं किया जा सकता। जिससे इस संबंध
में नई सूचनाएं मिलती हैं
“जायसी
ने पद्मावत में कुंती पुत्र भीम द्वारा पाटन-नरेश दंग को शरण प्रदान करके उसकी
रक्षा में श्रीकृष्ण सहित 33 करोड़ देवों से युद्ध करने की लोककथा का अनेक बार उल्लेख किया है और
युद्ध में अहुंठो (साढ़े तीन ) वज्र एकत्र होते दिखाए हैं। आचार्य शुक्ल की जायसी
ग्रंथावली में इन शब्दों के शुद्ध पाठ नहीं मिलते। उसमें अहुठौ का पाठ आठौ है जबकि
दंगल को उन्होंने 'डूंगवै' मानकर उसका टीका किया है। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने इन शब्दों के
शुद्ध पाठ तो दिए हैं किन्तु दंगव और भीव के अर्थों में उन्होंने खींचातानी की है।
दंगवै को उन्होंने संस्कृत में ढ़ंगपति से जोड़ते हुए उसका अर्थ दुर्गपति या राजा
किया है जबकि भीवं का संबंध उन्होंने गुजरात नरेश भोलो भीम' स्वीकार करते हुए भोलो भीम
द्वारा किसी चित्तौड़ नरेश की रक्षा में युद्ध करने का अभिप्राय ग्रहण किया है। इस
पंक्ति का परवर्ती टीकाकारों ने जैसे डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत (पद्मावत का
शास्त्रीय भाष्य) तथा डॉ. विजयेन्द्र स्नातक (काव्य पारिजात नामक काव्य संकलन की
पाद टिप्पणियों) ने डॉ. अग्रवाल की ही भांति अर्थों की उद्धरणा कर दी है।
वास्तव
में जायसी ने इस संदर्भ में उस लोक कथा का आश्रय लिया है जो अवध में डंगव-पर्व और
ब्रज प्रदेश में
'दंगलीला' के नाम से प्रचलित रही है।
दंगलीला के अनुसार तिलोत्तमा नामक अप्सरा को दुर्वासा ने यह शाप दिया था
कि वह घोड़ी बन जाए और उसकी शाप से मुक्ति तभी हो सकेगी जब साढ़े तीन वज्र एकत्र
हो जाएंगे। घोड़ी बनी
तिलोत्तमा को राजा दंग ने पकड़ लिया था और श्रीकृष्ण की ओर से युद्ध की चुनौती
मिलने पर उसको द्रौपदी की
प्रेरणा से भीम ने शरण प्रदान की थी। पांडव और कौरव सेना का श्रीकृष्ण सहित तैंतिस
कोटि देवों से जो युद्ध हुआ
था। उसमें श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र और भीमसेन की गदा जब आकाश में आपस में टकराए
तो उन्हें हनुमान ने
छुड़ाने की चेष्टा की थी। चक्र, गदा और हनुमान ये तीनों वज्र आकाश से नीचे गिरते हुए (हनुमान ने उनको
अपनी भुजाओं
में भर रखा था ) जब श्रीकृष्ण ने अपनी अर्द्ध वज्र-तुल्य जंघा पर संभाले थे, तो साढ़े तीन बज्र एकत्र
हो जाने के
कारण अप्सरा शापमुक्त होकर स्वर्ग की ओर उड़ गई थी।
2. इन्द्र
की हजार आंखें –
एक पौराणिक अनुमान के अनुसार इन्द्र को गौतम-पत्नी अहिल्या के साथ
संभोग करने के कारण गौतम मुनि ने सहस्र-भग हो जाने का शाप दिया था किन्तु इन्द्र
के द्वारा बहुत अनुनय-विनय करने पर सहस्र-भगों के स्थान पर सहस्र नेत्र हो जाने की
छूट दे दी थी।
3. राम
और लक्ष्मण को लंका से उसका पुत्र 'अहिरावण' चुराकर पातालपुरी ले गया था। उसके दुर्ग में जमकातर लगी
होने के कारण राम-लक्ष्मण को वहां से छुड़ाकर लाना असंभव सा था किन्तु हनुमान ने
उसको तोड़कर अपने स्वामियों का उद्धार किया था। तुलसीदास के शब्दों में -
"पैठि पताल तोरि जमकातर,
अहिरावण
के भुजा उखारे।"
4. सोहिल
बिलाही' में दृष्टांत अलंकार
5. 'सहसौं देखों' में रूपक अलंकार ।
6. ही
होई राजा' में रूपक अलंकार ।
17. दोहे में रूपक अलंकार।
ओनै घटा चहुँ दिसि तहि आई शब्दार्थ संदर्भ व्याख्या
ओनै
घटा चहुँ दिसि तहि आई। चमकहिं खरग बान झरि लाई । 1 ।
डोलै नाहिं देव जस आदी पहुंचे
तुरुक बादि कहं बादी |2 |
हाथन्ह गहे खरग हिरवानी चमकहिं सेल बीज की बानी। 3।
सजे बान जानहुं ओइ गाजा। बासुकि
डरै सीस जनि बाजा । 4 ।
नेजा
उठा डरा मन इंदू। आइ न बाज जानि कै हिंदू | 5 |
गोरे साथ लीन्ह सब साथी। जनु मैमंत सुंड बिनु हाथी । 6 ।
सब मिलि पहिलि उठौनी
कीन्ही। आवत अनी हांकि सब लीन्ही । 7 ।
रुंड मुंड सब टूटहिं सिउ बकतर औ कुंडि ।
तुरिउ होहिं
बिनु कांधे हस्ति होहिं बिनु सुंडि 53 / 10 ॥
शब्दार्थ-
ओने = झुक गई।
आदी = आरंभ में
कहं वादी = युद्ध करने के लिए
हिरवानी = हेरात की बनी
तलवार
सेल= पूर्ण लोहे का बना बरछा या भाला।
बीज की बानी = बिजली की तरह।
नेजा=भाला।
इंदू=इन्द्र |
मैमंत=
मस्त हाथी
उठौनी कीन्ही = धावा बोला।
अनी = सेना।
हांकि लीन्ही= ग्वाले की तरह उनको
पीछे से मार-मारकर बढ़ाया।
रुंड-धड़।
मुंड= कटा हुआ सिर।
सिउं = साथ।
बकतर= लोहे की
कड़ियों का बना कवच ।
कुंडि
सिर की रक्षा के लिए पहना जाने वाला शिरस्त्राण जो आजकल के हेलमेट जैसा होता था ।
तुरिअ = घोड़ा । संदर्भ - प्रस्तुत पंक्तियों में जायसी ने गोरा की वीरता का वर्णन
करते हुए यह दिखाया है कि गोरा ने अपने सैनिकों की टुकड़ी के साथ शाह अलाउद्दीन की
सेना पर धावा बोलकर उसे तितर-बितर कर डाला था ।
व्याख्या
-
कविवर जायसी कहते हैं कि शाह अलाउद्दीन की घटा की भांति उमड़ी हुई सेना चारों
दिशाओं में फैलती हुई चली आ रही थी। उस सेना के खड्ग चमक रहे थे जबकि बाणों की
झड़ी लगी हुई थी। जिस प्रकार देवता राक्षसों के सम्मुख विचलित नहीं हुए थे उसी
प्रकार गोरा भी विचलित नहीं हुआ और उससे युद्ध करने के लिए तुर्क सेना वहां आ
पहुंची। अथवा डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के शब्दों में " गोरा आदी नामक जिन की
भांति आगे था ( जायसी में आदी शब्द दो अर्थों में आया है। (1) बिल्कुल, एकदम, नितान्त (614)। मता न जानसि बालक आदी ।
(2) आदी नामक विशिष्ट पहलवान
या वीर जिसे अमीर हम्जा ने वश में किया था। उनके हाथों में हेरात के बने खड्ग
विद्यमान थे और उनके हाथों में लगे हुए सेल बिजली की तरह चमक रहे थे। उन्होंने जो
बाण सजा रखे थे वे इस प्रकार गर्जना कर रहे थे कि उनसे बासुकि नाग को यह भय प्रतीत
हो रहा था कि कहीं वे उसके शीश में न आ लगे । जब शाह अलाउद्दीन के सैनिकों ने नेजा
उठाए तो उन्हें देखकर इन्द्र भयभीत हो उठा। उसे भय था कि कहीं मुझको हिन्दू समझकर
तुर्क सैनिक इन नेजाओं को मेरे सिर में न बजा दें। गोरा ने अपने साथ अपने सभी
साथियों को ले लिया जो बिना सूंड वाले हाथियों की भांति मस्त हो रहे थे। उन सभी ने
पहले ही मिलकर शाह अलाउद्दीन की सेना पर धावा बोल दिया और शाह अलाउद्दीन की सेना
को पीछे की ओर खदेड़ दिया। दोनों सेनाओं में जो भयंकर युद्ध होने लगा उसमें
योद्धाओं के बख्तर और शिरस्त्राणों के सहित उनके धड़ और शीश
कट-कट कर गिरने लगे। इतना भयंकर युद्ध होने लगा कि घोड़े बिना कंधों के और हाथी
बिना सूंडों के होने लगे ।
साहित्यिक सौन्दर्य -
1. प्रस्तुत पंक्तियों में जायसी ने
तत्कालीन युद्धों में प्रयुक्त होने वाले विविध अस्त्र-शस्त्रों का उल्लेख किया
है। इनमें से हम बान शब्द के विषय में डॉ. राजपाल शर्मा के शोध ग्रंथ हिन्दी वीर
काव्य में सामाजिक जीवन की अभिव्यक्ति' में बान संबंधी यह विवरण देना चाहते हैं जो इस संदर्भ
में एक नये अर्थ का उद्घाटन करता है।
“कुहुक
या बान- कवि सूदन ने कुहुक या बान के चलाने के समय कुह- कुह का शब्द होने के
साथ-साथ दिशाओं में चकाचौंध फैला जाना निश्चित किया है, तथा कवि जान ने उससे हाथी
की पाखर में आग लग जाने का उल्लेख किया है, जिससे स्पष्ट होता है कि कुहुक-बान एक प्रकार का
आग्नेयास्त्र होता था हमें छत्र प्रकाश में दी गई यह टिप्पणी उपयुक्त प्रतीत होती
है कि बान एक प्रकार का मिट्टी का नल होता था जिसकी लंबाई बीस इंच के लगभग और
व्यास लगभग तीन इंच होता था। इसमें बारूद भरकर मिट्टी की डाट लगा दी जाती थी और
बारूद से पलीता लगा रहता था। इसके साथ बांस की सात-आठ फुट लम्बी छड़ भी लगी रहती
थी जो बान चलाते समय फाड़ दी जाती थी। पलीते के द्वारा आग के पहुंचते ही यह बान
शत्रु सेना में गिरकर चक्कर काटने लगता था। बांस की फटी हुई छड़ भी उसी के वेग से
घूमती थी। जिसकी मार बड़ी घातक होती थी। इन बाणों के उड़ते समय उनसे कुह-कुह शब्द
निकलता था । विलियम इरविन ने भी कुहुक-बान को राकेट बताते हुए मत व्यक्त किया है
कि उनसे संहार तो अधिक नहीं होता था किन्तु शत्रु सेना में बड़ी अव्यवस्था फैल
जाती थी, क्योंकि उनसे हाथी घोड़े
बहक (बिदक) उठते थे।"
'सजे
बान जानहुं ओइ गाजा । बासुकि डरै सीस जनु बाजा।' बान का डॉ. शर्मा द्वारा प्रदत्त
विवरण ही समीचीन हैं।
2. सेल
- यह पूर्णतया लोहे का बना बरछा या भाला होता था। आल्हा खंड की निम्नांकित पंक्ति
से यह बड़ा वजनी सिद्ध होता है सोलह
मन को सेल सनीचर सो कडिया ने दियो चलाय ।
3. 'औने ...... लाई' में सांगरूपक अलंकार
4. 'डोलै आदी' में उपमा अलंकार 5. 'चमकहिं बानी' में उपमा अलंकार
6. 'सजे बान...... बाजा' में उत्प्रेक्षा अलंकार ।
7. 'नेजा ....... हिंदू' में अतिशयोक्ति अलंकार ।
8. गोरे
हाथी' में उत्प्रेक्षा अलंकार।
ओनवत आव सैन सुलतानी जानहुं शब्दार्थ संदर्भ व्याख्या
ओनवत
आव सैन सुलतानी जानहुं पुरवाई अतिवानी । 1 ।
लोहैं सैन सूझ सब कारी । तिल एक कतहुं न सूझ उघारी 2
खरग पोलाद निरंग सब काढ़े।
हरे बिज्जु अस चमकहिं ठाढ़े | 3
कनक बानि गजबेलि सो नांगी। जानहुं काल करहिं जिउ मांगी। 4 ।
जनु जमकात करहिं सब भवां
जिउ लै चहहिं सरंग उपसवो। 5 ।
सेल सांप जनु चाहहिं डसा । लेहिं काढ़ि जिउ मुख बिख बसा। 6 ।
तिन्ह सामुहं गोरा रन
कोपा अंगद सरिस पाउ रन रोपा। 7 |
सुपुरुस भागि न जानै भएं भीर भुइँ लेइ ।
असि बर गहें दुहूं करस्यामि
काज जिउ देइ ॥ 53
/ 11 ॥
शब्दार्थ-
ओनवत=उमड़ती, झुकती ।
अतिवानी = बहुत
जोरदार
सूझ = दिखाई देती थी ।
उघारी = प्रकाश ।
निरंग=म्यान से।
गजबेलि = एक प्रकार
का लोहा ।
पोलाद = फौलाद ।
बिज्जु - बिजली ।
जिउ मांगी-जान मांगना ।
भवां=चक्कर
काटना।
उपसवां = समीप पहुंचना ।
मुख बिख बसा = नोकें विष में बुझी हुई हैं।
असि=
तलवार
बर = श्रेष्ठ ।
सरिस = समान
स्यामि काज = स्वामी के लिए।
संदर्भ-
प्रस्तुत
पंक्तियों में कवि ने शाह अलाउद्दीन की उमड़ती हुई चली आने वाली सेना और उसके
शस्त्रास्त्रों का
वर्णन किया है।
व्याख्या-
जायसी
कहते हैं कि शाह अलाउद्दीन की सेना उमड़ती चल रही थी, मानो प्रचंड पुरुवा हवा के
साथ मेघमालाएं उड़ती चली आ रही थीं। उन सैनिकों के पास जो शस्त्रास्त्र थे और लोहे
के बने हुए जो कवच धारण कर रखे थे उसके कारण वह सेना काली दिखाई पड़ती थी और तिलभर
भी स्थान ऐसा नहीं था जहां वह उघाड़ी दिखाई देती हो अर्थात् जहां अंधकार के स्थान
पर प्रकाश दिखाई देता हो। सभी ने निरंग फौलाद की तलवारें म्यानों से निकाल रखी
थीं। म्यान से निकली हुई तलवारें हरे रंग की बिजली के समान चमक रही थी। गजबेल लोहे
की बनी हुई उन नंगी तलवारों में सोने जैसी चमक थी। ऐसा प्रतीत होता था मानो काल उन
तलवारों के रूप में अपने हाथ फैलाकर लोगों की जान मांग रहा हो युद्धस्थल में जो
अनेक जमकातें घूम रही थीं वे ऐसी प्रतीत होती थी। मानों प्राण लेकर स्वर्ग जाना
चाहती थीं। सांप के समान प्रतीत होने वाले सेल मानो इसने के लिए तत्पर थे। उनके
मुहं पर विष लगा हुआ था। अर्थात् उनकी नोकें विष से बुझाई हुई थीं। जिससे वे
तुरन्त ही प्राण हर लेते थे। कविवर जायसी कहते हैं कि इस प्रकार के शस्त्रों से
सज्जित सेना के सम्मुख वीर गोरा क्रुद्ध होकर अड़ गया। उसने युद्धस्थल में अपना
पैर अंगद के समान जमा दिया अर्थात् जिस प्रकार रावण की सीमा में अंगद द्वारा जमाए
हुए पैर को कोई रावण-योद्धा डिगा नहीं सकता था, उसी प्रकार शाह अलाउद्दीन की सेना उसको युद्धस्थल से
डिगा नहीं पा रही थी ।
कवि
जायसी कहते हैं कि सच्चे वीर पुरुष युद्ध से भागना नहीं जानते। संकट के समय वह
युद्धस्थल में खेल सम्भाल लेता है- संकट के समय युद्धस्थल में अडिग रहता है। सच्चा
वीर अपने स्वामी का कार्य सिद्ध करते हुए अपने दोनों हाथों में तलवार लेकर अपने
प्राण न्यौछावर कर देता है।
साहित्यिक
सौन्दर्य –
गजबेलि के विषय में डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल की यह टिप्पणी अवलोकनीय है एक
प्रकार का ताप दिया हुआ लोहा पुराने सिकलीगारों के अनुसार लोहा पांच प्रकार का
बताया जाता था
1. सकेला
कच्चा और पक्का लोहा मिला हुआ, वह तलवार जो नरम और कड़े लोहे के मेल से बनाई जाए।
2. खेड़ी
- सकेले से उतराकर मुलायम लोहा।
3. नानपारचा
खेड़ी से मिलता हुआ लोहा ।
4. गजबेल -फौलाद
से कुछ नरम लोहा
5. फौलाद
– अत्यंत उत्तम तपाया हुआ लोहा । गजबेल और फौलाद में इतना ही अंतर है कि फौलाद का
जौहर बड़ा और साफ होता है गजबेल का जौहर छोटा और अस्पष्ट होता है। गजबेल नाम
संभवतः इसलिए पड़ा कि इस लोहे से हाथी की सिक्कड़ या जंजीर बनाई जाती थी।
6. 'ओनवंत..... अतिवानी' में उत्प्रेक्षा अलंकार ।
7. 'लोह...................उधारी' में अतिशयोक्ति अलंकार ।
8. 'हरे.................... ठाटे' में उपमा अलंकार
9. 'जानहुँ .....मांगी' में उत्प्रेक्षा अलंकार
10. 'जनु..........उपसवां' में उत्प्रेक्षा अलंकार
11. 'सेल सांप ड सा' में उत्प्रेक्षा अलंकार ।
भै बगमेल सेल घन घोरा औ गज पेल शब्दार्थ संदर्भ व्याख्या
भै
बगमेल सेल घन घोरा औ गज पेल अकेल सो गोरा |1 |
सहस कुंवर सहसहुं सत बांधा। भार पहार जूझि कहं कांधा | 2 |
लागे मरै गोरा के आगे बाग
न मुरै घाव मुख लागें |3|
जैस पतंग आगि घाँस तेहीं एक मुए दोसर जिउ देहीं |4|
टूटहिं सीस अधर घर मारे।
लोटहिं कंध कबंध निनारे |5।
कोई परहिं रुहिर होइ राते कोइ घायल घूमहिं जस मांते ।6।
कोई खुर खेह गए झरि भोगी। झसम
चढ़ाइ परे जनु जोगी। 7।
घरी
एक भा भारथ भा असवारन्ह मेल
जूझि कुंवर सब बीते गोरा रहा अकेला || 53 / 12 ॥
शब्दार्थ
बगमेल = मिलाकर घोड़ों का पंक्तियों में चलना
मुएं =मरने पर
निनारे=अलग-अलग
रुहिर =
रुधिर ।
खेह = धूल
जनु जोगी = मानो जोगी हों।
दोसर = दूसरा बंध
संदर्भ-
प्रस्तुत
पंक्तियों में कविवर जायसी ने गोरा के साथी सैनिकों के भयंकर युद्ध का वर्णन किया
है जिसमें वे सभी योद्धा मारे जाते हैं और गोरा अकेला शेष बचता है।
व्याख्या
-
कवि कहता है कि शाह अलाउद्दीन की ओर से घुड़सवार सेना ने एक साथ धावा बोलते हुए
सेलों का प्रहार किया जबकि इधर से गोरा ने भी अपना हाथी ठेल दिया अर्थात् शत्रु
सेना की ओर बढ़ा दिया। उसके साथ कुल एक हजार सैनिक थे किन्तु उन सभी ने सत बांधा
हुआ था अर्थात् अपने स्वामी पर प्राण न्यौछावर करने का प्रण ले रखा था। उनके कंधों
पर शाही सेना से युद्ध करने का पहाड़ सा बोझ विद्यमान था। वे योद्धा गोरा के आगे
बढ़कर अपने प्राण देने लगे शाही सेना से युद्ध करते हुए मारे जाने लगे उनके मुख पर
घाव लग जाने की दशा में भी उनके घोड़ों की बागें नहीं मुड़ती थीं- अर्थात्
उन्होंने युद्ध स्थल से पलायन नहीं किया था। वे युद्ध की आग में पतिंगों की भांति
घुसकर युद्ध कर रहे थे और एक के मारे जाने पर तुरन्त ही दूसरा आगे बढ़कर अपने
प्राण दे रहा था। जब इन वीरों के सिर कटकर अलग गिर जाते थे तब भी उनके धड़ शत्रुओं
से युद्ध करते रहते थे और तदन्तर उनके सिर और धड़ भूमि पर लोटने लगते थे। उनमें से
कोई खून से लथपथ होकर गिर जाते थे जबकि दूसरे घायल होकर मतवालों के समान घूमने
लगते थे। कोई-कोई योद्धा घोड़ों की रासों से लगी धूल फिर से लग जाने के कारण भस्म
लगाए योगी से प्रतीत हो रहे थे।
कवि
जायसी कहते हैं कि एक घड़ी तक भयंकर युद्ध होता रहा। सवारों के मध्य बगमेल भिड़न्त
हुई। इस युद्ध में गोरा के पास के जितने भी वीर थे वे सब एक-एक करके मारे गए और
गोरा अकेला रह गया।
साहित्यिक
सौन्दर्य -
1.
खंडों
द्वारा युद्ध करने का आल्हाखंड में इस प्रकार उल्लेख किया है "कटि-कटि मुंड
पर धरती पर उठि उठि खंड करें तलवारि।"
2. सत
बांधने का अभिप्राय यह प्रतिज्ञा करने से है कि हम अंतिम श्वास रहने तक शत्रु का
मुकाबला करेंगे।
3. 'भार कांधा' में रूपक अलंकार ।
4. 'जैस देहीं' में दृष्टांत अलंकार ।
5. 'कोई खुर 'जोगी' में उत्प्रेक्षा अलंकार
गोरें देख साथ सब जूझा शब्दार्थ संदर्भ व्याख्या
गोरें
देख साथ सब जूझा। आपन काल नियर भा बूझा। 1 |
कोपि सिंघ सामुहं रन मेला | लाखन्ह सौं नहिं मुरै
अकेला । 2 ।
लई हांकि हस्तिन्ह के
ठटा। जैसें सिंघ बिडारै घटा। 3 |
जेहि सिर देइ कोपि करवारू सिउं घोरा टूटै असवारू |4|
टूटहिं कंध कबंध निनारे
मांठ मंजीठ जानु रन डारे 151
खेल फागु सेंदुर छिरिआवै। चांचर खेलि आगि रन धावै ।6।
हस्ती घोर आइ जो दूका उठै देह
तिन्ह रुहिर भभूका। 7।
भै
अग्यां सुलतानी बेगि करहु एहि हाथ।
रतन जात है आगें लिए पदारथ साथ ॥ 53/13||
शब्दार्थ
-
साथ-साथी।
विनियर = समीप
सामुहं = सामने
मुरै=मुड़ता था।
ठटा = समूह।
बिडारै = विदीर्ण कर देता है।
करबारू = तलवार ।
सिउं = सहित
असवारू = घुड़सवार
मांठ= मटका
छिरिआवै = छिड़कना
दूका झुका।
भभूका-लपट।
बेगि = शीघ्र
तिन्ह=उनके
रुहिर= रुधिर ।
संदर्भ
-
प्रस्तुत पंक्तियों में अकेले गोरा द्वारा ही शाह सेना में खलबली मचा देने का
वर्णन किया गया है।
व्याख्या -
कवि कहता है कि जब गोरा ने यह देखा कि उसके सभी साथी
युद्ध में मारे जा चुके हैं तो उसको अपनी अंतिम घड़ी समीप दिखाई देने लगी। वह बीर
सिंह क्रुद्ध होते हुए शत्रु सेना के सम्मुख युद्ध में पिल पड़ा। वह अकेला होते
हुए भी शाही सेना के लाखों योद्धाओं द्वारा पीछे नहीं हटाया जा पा रहा था। उसने
हाथियों के झुंड को अपने सामने इस प्रकार हांक लिया जैसे कि सिंह हाथियों की घटा
अर्थात् समूह को विदीर्ण कर तितर-बितर कर डालता है। वह क्रोध करके जिस किसी भी
योद्धा के सिर पर अपनी तलवार का प्रहार करता था वह घुड़सवार अपने घोड़े के साथ कट
मरता था। उसके रूंड और मुंड कटकर पृथक् हो जाते थे और ऐसा प्रतीत होता था मानों
युद्धस्थल में मंजीठ के मटके लुढ़काए हुए हैं। वह युद्धस्थल में फाग खेलकर सिंदूर
(गुलाल) छिड़कता प्रतीत हो रहा था, अथवा चांचर खेलकर युद्धरूपी आग की ओर दौड़ रहा था। हाथी
अथवा घोड़ा जो भी उसकी ओर आ झुकता था उसी के शरीर से इस प्रकार रक्त की फुहार
निकलने लगती थी जैसे आग की लपटें निकला करती हैं। कवि कहता है कि गोरा के इस
प्रकार भयंकर रीति से युद्ध करने से शाही आज्ञा हुई कि जैसे बने तैसे इसको शीघ्र
ही कब्जे में करना चाहिए क्योंकि आगे-आगे रत्नसेन पद्मावती रूपी पदार्थ को साथ
लेकर चित्तौड़ की ओर चला जा रहा है।
साहित्यिक
सौन्दर्य -
1.
कवि
ने युद्ध की होली के साथ अच्छी तुलना की है।
2. 'लई ........घ.टा' में दृष्टांत अलंकार ।
3. 'जोहि..... असवारू' में अतिशयोक्ति अलंकार ।
4. मांठ..... डारे' में उत्प्रेक्षा अलंकार ।
5. खेल ..... रन धावें' में रूपक अलंकार।
6. दोहे
में रूपकातिशयोक्ति ।
सबहि कटक मिलि गोरा छेंका शब्दार्थ संदर्भ व्याख्या
सबहि
कटक मिलि गोरा छेंका। गुंजर सिंघ जाइ नहिं टेका। 1
जेहिं दिसि उठे सोइ जनु खाबा पलटि
सिंघ तेहिं टायन्ह आवा 2 ।
तुरुक बोलावहिं बोलहिं बाहां। गोरें मींचु धरा मन माहां 3 |
मुए पुनि जूझि जाज जगदेऊ।
जियत न रहा जगत महं केऊ । 4 ।
जनि जानहु गोरा सो अकेला। सिंघ की मोंछ हाथ को मेला ।5।
सिंघ जियत नहिं आपु धरावा । मुएं
पार कोई घिसियावा | 6 |
करै सिंघ हठि सौंही डीठी। जब लगि जिओ देह नहिं पीठी। 7 ।
रतनसेनि तुम्ह बांधा मसि
गोरा के गात।
जब
लगि रुहरि न धोवीं तब लगि होउं न रात ॥ 55/14 |
शब्दार्थ
-
छका = घेर लिया।
गुंजर = गरजता हुआ।
टायन्ह-जगह
मींचु = मृत्यु
केउं = कोई भी ।
जनि=नहीं।
धरावा
= पकड़ा जाना ।
घिसियावा = घसीटता
डीठी = दृष्टि ।
मुएं = मर जाने पर
मसि = कालौंच, कलंक ।
संदर्भ
प्रस्तुत पंक्तियों में शाह अलाउद्दीन की सेना द्वारा घेर लिए जाने पर वीर गोरा की
इस वीर दपक्ति का चित्रण किया गया है कि तुर्कों द्वारा राजा रत्नसेन को बन्दी
बनाए जाने का कलंक गोरा को लगा हुआ है। जिसको वह अपना रक्त बहाकर अर्थात् अपने
प्राण देकर धो डालना चाहता है।
व्याख्या
-
कवि वर्णन करता है कि शाह अलाउद्दीन की पूरी सेना ने मिलकर गोरा को घेर लिया, किन्तु वह गरजता हुआ सिंह
किसी के भी रोके नहीं रुक पा रहा था। वह जिस किसी भी दिशा की ओर उठ खड़ा होता था
मानो उस दिशा को खा डालता था और लौटकर पुनः अपने स्थान पर आ जाता था। तुर्क उसको
ललकारते थे तो उनकी ललकार का उत्तर वह अपनी भुजाओं से देता था। उसने समझ लिया था
कि अब मेरा अन्तिम समय निकट आ पहुंचा है। वह सोचने लगा कि इस संसार में आकर कौन
रहता है क्योंकि जाज और जगदेव जैसे योद्धा भी युद्ध में मर चुके हैं, अतः संसार में कोई जीवित
नहीं रहता है। उस गोरा को अकेला नहीं समझना चाहिए क्योंकि इतना साहस किसको होता है
कि वह सिंह की मूंछों को हाथ लगाए भाव यह है कि जिस प्रकार कोई शेर की मूंछों को
छूने का साहस नहीं कर सकता। उसी प्रकार तुर्क सैनिकों में से भी किसी की हिम्मत
उसके समीप पहुंचने की नहीं पड़ रही थी। जब तक सिंह जीवित रहता है उसको कोई पकड़
नहीं सकता। हां मृत्यु हो जाने की दशा में जिसकी भी इच्छा हो वही उसको खींचे फिर
सकता है। शेर तो जब तक जीवित रहता है वह हठपूर्वक नजर से नजर मिलाता है-सामने की
ओर ही देखता है तथा कभी पीठ नहीं दिखाता। तुर्क सेना को ललकारते हुए गोरा कहने लगा
कि अरे तुर्कों तुमने मेरे स्वामी राजा रत्नसेन को बन्दी बनाया था, उसका कलंक मेरे शरीर को
लगा हुआ है- अर्थात् मेरे लिए यह कलंक की ही बात थी कि मेरे जीवित रहते हुए मेरे
स्वामी को बन्दी बना लिया गया था। जब तक इस कलंक को मैं अपने खून से नहीं धो देता
तब तक मेरा मुख उज्ज्वल नहीं हो सकता।
साहित्यिक
सौन्दर्य
1. जगदेव के विषय में डॉ.
वासुदेवशरण अग्रवाल ने श्री मैथिलीशरण गुप्त के साक्ष्य पर परिशिष्ट में जो लम्बी
कहानी दी है,
उसका
रूप यह है.
धार
(उज्जैन) के परमार राजा उदयादित्य सो रहे थे। उनकी दो रानियों के दो पुत्र हुए-
पहले बड़ी रानी के और कुछ समय पश्चात् छोटी रानी के हां बड़ी रानी की दासी ने सोते
हुए राजा को जगाना उचित न समझा था अतः उन्हें छोटी रानी के पुत्र होने की सूचना
पहले मिली और छोटी रानी का पुत्र ही उत्तराधिकारी बनाया गया। उसी रानी के पुत्र का
नाम जगदेव या जगदेव था।
जगदेव
को छोटी रानी ने ईर्ष्यावश अपने राज्य से भी निकलवा दिया और वह पाटन के सिंहराज जस
सिंह के सामन्त के रूप में उनके आश्रय में रहने लगा। जगदेव ने अपनी तपस्या से
दुर्गा को प्रसन्न करके यह वरदान प्राप्त कर लिया था कि वह जब चाहेगा तब उसकी
सहायता करेगी। इस वरदान का लाभ उठाने का अवसर भी आ पहुंचा। हुआ यह कि सिंहराज की
छोटी रानी पर शिव का एक भैरव आसक्त होकर उससे रमण के लिए आया करता था ।
सुहागरात्रि को सिंहराज जैसे ही इस रानी के महल में गए उस भैरव ने राजा को परास्त
करके पलंग के नीचे दबा दिया और रानी के साथ रमण किया। यह क्रिया नित्यप्रति चलने
लगी। राजा सिंहराज ने दरबार में आना छोड़ दिया तो जगदेव उनके महल में पहुँचा। बहुत
पूछने पर सिंहराज ने जगदेव को सारी बात बतायी तो दुर्गा के वरदान का लाभ उठाते हुए
जगदेव ने उस भैरव को मार भगाया।
उस
भैरव ने जाकर रोते हुए देवी से प्रार्थना की कि जब तक मैं जगदेव कि सिर की गेंद
बनाकर न खेलूंगा तब तक मुझको शान्ति न मिलेगी। उसकी इच्छा पूर्ति के लिए देवी ने
चारिणी के रूप में जगदेव से उसका शीश मांगा। जगदेव ने अपना शीश काट दिया और उसकी
पतिव्रता रानी ने उसको थाल में रखकर उस चारिणी को सौंप दिया। हां अंततः उसके धड़
में से पुनः शीश निकल आया था और जगदेव जीवित हो गया था।
सरजा बीर सिंघ चढ़ि गाजा आइ शब्दार्थ संदर्भ व्याख्या
सरजा
बीर सिंघ चढ़ि गाजा आइ सौहं गोरा के बाजा ।1।
पहलवान सो बखाना बली। मदति मीर हमजा और अली |2 |
मदति अयूब सीस चढ़ि कोपे।
राम लखन जिन्ह नाउं अलोपे 13 |
और ताया सालार सो आए। जिन्ह कौरी पंडौ बंदि पाए ।4।
लिंधर देव धरा जिन्ह आदी और को
माल बादि कहं बादी 15 |
पहुंचा आइ सिंघ असवारू। जहां सिंघ गोरा बरियारू |6 |
मारेसि सांगि पेट महं धंसी
काढ़ेसि हुमुकि आंति भुई खसी ।7।
भांट कहा धनि गोरा तू भोरा रन राउ ।
आंति
सति करि कांधे तुरै देत है पाउ158/15 ।।
शब्दार्थ-
सौह-सामने ।
बलिमदति = बलवान
अलोपे = मिटा
दिया।
कौरों पड़ी = कौरव पाण्डव।
बरियारू = बलशाली
सांगि= सांग नामक एक लोहे
का हथियार।
हुमुकि = जोर लगाकर
भोरा राउ = भोल भीमदेव नामक चालुक्य राजा
सैंति
कर = इकट्ठी करके ।
संदर्भ
प्रस्तुत पंक्तियों में जायसी ने इस तथ्य का वर्णन किया है कि वीर गोरा का तुर्क
सेना का अन्य कोई योद्धा तो मुकाबला नहीं कर रहा था, किन्तु वीर सरजा ने उस पर सांग का
ऐसा प्रहार किया कि उसकी आंतें बाहर निकल आई। फिर भी गोरा ने हार नहीं मानी और वह
अपनी आंतों को एक हाथ से इकट्ठी करके पुनः घोड़े पर सवार हो गया।
व्याख्या
-
कवि कहता है कि वीर सरजा जो सिंह पर सवार होकर गरजता था, गोरा के सामने आकर उससे
भिड़ गया। वह अत्यधिक बलशाली और पहलवान कहा जाता था। उसको अमीर हमजा और अली की मदद
भी मिली हुई थी। उसकी मदद के लिए अयूब सिर पर चढ़ा हुआ क्रुद्ध जान पड़ता था। भाव
यह है कि अत्यधिक क्रुद्ध अयूब भी उसकी मदद के लिए निकट ही था। वह इतना अधिक बलवान
था कि उसने राम और लक्ष्मण का यश भी फीका कर दिया था। सरजा की सहायता के लिए वह
ताया सालार भी आया हुआ था जिसने कौरव और पांडव जैसे वीरों को अपने बंधन में डाल
लिया था। जिसने लिंधउर देव और आदी जैसे वीरों को पकड़ कर वश में कर लिया था । वीर
सरजा इतना अधिक बलवान था कि और कौन ऐसा योद्धा था जो उसके जोड़ का स्वीकार किया जा
सकता था। सिंह पर सवार होकर सरजा वहां आ पहुंचा जहां पर सिंह के समान वीर गोरा
विद्यमान था। उसने आते ही गोरा पर सांग का प्रहार किया जो उसके पेट में फंस गई
तदन्तर उसने जोर लगाकर सांग को खींच लिया जिससे गोरा की आतें निकलकर धरती पर आ
गिरीं।
युद्धस्थल
में गोरा के पराक्रम को देखने वाले भाट ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा कि हे गोरा !
तू धन्य है। 1
तू
युद्ध स्थल में भोला भीम के समान है। क्योंकि तू अपनी आतों को समेटकर और उनको अपने
कन्धे पर डाल कर घोड़े पर सवार हो रहा है।
साहित्यिक
सौन्दर्य -
इन पंक्तियों में आए वीरों के विषय में डॉ. अग्रवाल ने निम्नांकित
टिप्पणियां दी हैं
1. मीर
हमजा मीर हमजा मुहम्मद साहब के चाचा थे, जिनकी वीरता की बहुत-सी कल्पित कहानियां पीछे जोड़ी गई।
(शुक्लजी), सोलहवीं शती में दास्तान
अमीर हमजा की बड़ी प्रसिद्धि थी। अकबर ने इस पर आश्रित चौदह सौ चित्र कपड़े पर
बनवाए थे जिसमें सौ से ऊपर अभी तक बच गए हैं।
2. अली
- मुहम्मद साहब के चचाजात भाई और दामाद, मुसलमानों के चौथे खलीफा थे। ये वीरता के उपमान हैं।
इन्हें शेरे शरज : अर्थात् कुपित सिंह कहा जाता है।
3. अयूब
- बाइबिल में इन्हें जॉब कहा गया है (हिब्र इयोब) शैतान ने सन्देह किया और उसे
इनकी परीक्षा " लेने की अनुमति मिली। हजरत अयूब पर अनेक विपत्तियां आईं, सम्पत्ति नष्ट हो गई, शरीर भी व्याधिग्रस्त हो
गया। पर उन्होंने ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव न छोड़ा। अन्त में उनके दिन
बहुरे ।
4. लिंधर देव-लंधौर देव नामक
एक कल्पित हिन्दू राजा जिसे अमीर हमजा ने जीतकर अपना मित्र बनाया था।
अमीर हमजा दास्तान में यह बड़े डील डौल का और बड़ा भारी वीर कहा गया है।
5. आदी - लिंधउर देव के समान
आदी भी अमीर हमजा का एक बली सैनिक था जिसके चरित्र का वर्णन दास्तान अमीर हमजा में
मिलता है। जैसे लिंधउर देव वारंगल के हिन्दू राजा प्रतापरुद्र देव थे, वैसे ही बहुत संभव है कि
आदी भी चित्तौड़ के विक्रमादित्य उपाधि धारी हिन्दू राजा के आधार पर कल्पित कर
लिया गया हो। अलोपे में अत्युक्ति अलंकार।
6. 'राम लखन
7. 'ओ ताया पाए' में अत्युक्ति अलंकार।
8. 'जहां सिंह बरियारू' में रूपक अलंकार
9. अंतिम
पंक्तियों में वृत्यानुप्रास अलंकार
कहेसि अंत अब भा भुइ परना शब्दार्थ संदर्भ व्याख्या
कहेसि
अंत अब भा भुइ परना। अंत सो तंत खेह सिर भरना । 1 ।
कहि कै गरराज सिंघ अस धावा सरजा
सारदूर पहं आवा। 2
सरजैं कीन्ह सांगि सौं घाऊ परा खरग जनु परा निहाऊ 3
बज्र सांगि ओ बज्र के
डांडा उठी आगि सिर बाजत खांडा | 4
जानहुं बजर बजर सौं बाजा सब हीं कहा परी अब गाजा । 5 ।
दोसर खरग कुंड पर
दीन्हा। सरजै धरि ओड़न पर लीन्हा । 6
तीसर खरग कंध पर लावा कांध गुरुज हत घाव न आवा। 7|
अस गौरैं हठि मारा उठी बजर
की आगि ।
कोइ
न नियरें आवै सिंघ सदूरहि लागि ॥ 58/16 ॥
शब्दार्थ
-
भुइ परना=मरकर जमीन पर गिरता है।
तंत=तत्व ।
खेह = धूल
सारदूर = महासिंह ।
निहाऊ =
लोहे का घन ।
डांडा-डंडा
खांडा= तलवार ।
बजर = बज्र
गाजा = बिजली
ओढ़न = ढाल
गुरूज= गुर्ज, गदा
नियरें=समीप ।
संदर्भ
-
प्रस्तुत पंक्तियों के कवि ने वीर गोरा द्वारा सरजा पर भयंकर प्रहार करने का
वर्णन किया है।
व्याख्या
-
कवि कहता है कि गोरा ने अपने मन में विचार कर लिया कि अब तो मुझको मर कर पृथ्वी
पर गिरना ही है। जीवन का अन्तिम तत्व ही यह है कि वह अंततः मिट्टी में मिल जाता
है। इस प्रकार कहकर गोरा ने गर्जना करते हुए सिंह की तरह धावा बोला और वहां आ
पहुंचा जहां सरजा रूपी महासिंह विद्यमान था। उसने सरजा पर सांग का प्रहार किया।
उसका खड्ग सरजा के इस प्रकार लगा जैसे लोहे का घन बज उठा हो भाव यह है कि जैसे घन
की चोट भयंकर होती है उसी प्रकार गोरा ने भयंकर रूप में सांग का प्रहार किया था।
वह सांग फौलाद की बनी हुई थी और उसका डंडा भी फौलाद का बना हुआ था। सरजा के शीश पर
गोरा का खांडा लगा तो उससे आग की चिनगारियां छिटकने लगीं। ऐसा प्रतीत होता था मानो
बज्र से बज्र टकरा रहा है और सभी यह कहने लगे कि अब गाज गिरने वाली है। उसने अपने
खड्ग का दूसरा प्रहार सरजा की कुंडी (सिर पर घरे लौह-कवच) पर किया, इस प्रहार को सरजा ने अपनी
ढाल पर संभाल लिया अर्थात् इस प्रहार को ढाल पर लेते हुए उस प्रहार को बचा लिया।
गोरा ने अपने खड्ग का तीसरा प्रहार सरजा के कन्धे पर किया। चूंकि सरजा के कंधे पर
गुर्ज था अतः उसको फर्क नहीं आया।
कविवर
जायसी कहते हैं कि गोरा सरजा पर हठपूर्वक बड़े जोर-जोर से प्रहार कर रहा था। ये
प्रहार इतने प्रचण्ड थे
कि उनसे वज्र की जैसी आग उत्पन्न हो रही थी। सिंह रूपी गोरा और शार्दूल रूपी सरजा
के समीप आने का कोई भी योद्धा साहस नहीं कर पा रहा था।
साहित्यिक
सौन्दर्य
1. मरते हुए गोरा की अप्रतिम
वीरता का अच्छा वर्णन है। -
2. कहि
कै..... धावा' में उपमा अलंकार ।
3. 'सरजा .....आवा' में रूपक अलंकार ।
4. 'परा...... निहाऊ' में उत्प्रेक्षा अलंकार
5. 'जानहुं .....गाजा' में उत्प्रेक्षा अलंकार ।
6. दोहे
में रूपक अलंकार ।
तब सरजा गरजा बरिवंडा शब्दार्थ संदर्भ व्याख्या
तब
सरजा गरजा बरिवंडा । जानहुँ सेर केर भुअडंडा । 1 ।
कोपि गुरुज मेलेसि तस बाजा ।
जनहुँ परी परबत सिर गाजा । 2 ।
ठाठर टूट टूट सिर तासू । सिउं सुमेरु जनु टूट अकासू । 3 ।
धमकि उठा सब सरग पतारू।
फिरि गै डीठि भवां संसारू । 4।
भा परलौ सबहूं अस जाना । काढ़ा खरग सरग नियराना । 5 ।
तस मारेसि सिउं घोरैं
काटा। धरती फाटि सेस फन फाटा | 6 |
अति जौं सिंघ बरिअ होइ आई सारदूर सौं कवनि बड़ाई ।7।
गोरा परा खेत महं सिर पहुंचावा
बान
बादिल लै गा राजहिं लै चितउर नियरान ॥ 53 / 17 ॥
शब्दार्थ-
बरिवंडा=बलशाली।
भुअडंडा = भुजदंड।
मेलेसि= मारा।
ठाठर=ठठरी, अस्थि-पंजर
रसरग= आकाश ।
डीठि = दृष्टि |
भवां = चकित
परलौ = प्रलय
नियराना = समीप पहुंचा।
सिउं = सहित।
बरिअ= बलवान ।
कवनि = कौन-सी बान - टेक, प्रतिज्ञा ।
संदर्भ -
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने सरजा के हाथों अंततः वीर गोरा के मारे जाने का वर्णन किया है।
व्याख्या -
कवि जायसी कहते हैं कि तब अर्थात् गोरा द्वारा एक के पश्चात् एक प्रहार किए जाने पर बलशाली सरजा गरज उठा। उसके भुजदंड शेर के समान बलशाली थे। उसने क्रुद्ध होकर गोरा पर गुर्ज का प्रहार किया। वह गुर्ज गोरा के इस प्रकार लगा जैसे पर्वत पर गाज (बिजली) गिरी हो। उस गुर्ज की मार से गोरा के सिर के साथ-साथ उसका अस्थिपंजर भी टूट गया। ऐसा प्रतीत होता था जैसे सुमेरु पर्वत के साथ आकाश भी टूट पड़ा हो ।