पद्मावत - नागमती वियोग-खंडः व्याख्या भाग
पद्मावत - नागमती वियोग-खंडः व्याख्या भाग- प्रस्तावना (Introduction)
रत्नसेन के वियोग में
तड़पती नागमती की विवशता का तीसवें खंड में जायसी ने बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया
है। उसका शरीर सूखकर काँटे जैसा हो गया था और उसके मुख से सदैव पीउ-पीउ की ध्वनि
निकलती रहती थी। बारह मास के साथ नागमती की वर्ष के बारहों महीनों में कैसी कातर
दशा हो गई थी, इस तथ्य का जायसी ने बड़ा ही हृदयग्राही वर्णन किया है।
पद्मावत - नागमती वियोग-खंडः व्याख्या भाग
नागमती चितउर पथ हेरा पिउ जो गए फिरि शब्दार्थ संदर्भ-व्याख्या
नागमती चितउर पथ हेरा पिउ जो गए फिरि कीन्ह न फेरा।1।
नागरि नारि काहुं बस परा तेइं बिमोहि मोसौं चितु हरा |2 |
सुवा काल होइ लै गा पीऊ पिउ नहिं लेत लेत बरु जीऊ |3 |
भएउ नरायन बावन करा। राज करत बलि राजा छरा । 4 ।
करन बान लीन्हेउ कै छंदू । भारथ भएउ झिलमिल आनंदू | 5 ।
मानत भोग गोपीचंद भोगी। लै उपसवा जलंधर जोगी ।6।
लै कान्हहि भा अकरुर अलोपी कठिन बिछोउ जिओ किमि गोपी |7 |
सारस जोरी किमि हरी मारि गएउ किन खग्गि
झुरि झुरि पांजरि धनि भई बिरह कै लागी अग्नि ॥ 30 / 1
शब्दार्थ -
चितउर-चित्तौड़ ।
हेरा = देखने लगी।
फेरा = लौटना
नागरि=चतुर स्त्री
विमोही=मोहित करके ।
बस = वश में।
बावन करा= विष्णु का वामन अवतार द्वारा छल करना और राजा बलि को पाताल भेजना।
करन = राजा कर्ण।
भारथ=महाभारत।
झिलमिल= कवच ।
उपसवा = समीप ले गया।
अकरुर = अक्रूर, जो श्रीकृष्ण को गोकुल से मथुरा लिवा ले गए थे।
किमि = कैसे
पांजरि = पिंजर, हड्डियों का ढांचा
झुरि=सूखकर।
संदर्भ-
इससे पूर्ववर्ती
खण्डों में कवि ने रत्नसेन और पद्मावती संबधी वृत्तान्त का चित्रण किया है।
प्रस्तुत खण्ड में वह कथानक को चित्तौड़ की ओर मोड़ता है और विरहिणी नागमती की
विरहावस्था का वर्णन करता है।
व्याख्या -
कवि कहता है कि
उधर चित्तौड़ में नागमती रत्नसेन के प्रत्यागमन के मार्ग की ओर देखती हुई उसके
लौटने की प्रतीक्षा करती रहती थी और सोचती रहती थी कि मेरे प्रियतम यहां से एक बार
क्या गए कि उन्होंने लौटकर आने का नाम तक नहीं लिया है। ऐसा प्रतीत होता है कि वे
किसी चतुर नारी के वशीभूत हो गए हैं और उसने उनको मोहित करके, उनके हृदय को
मेरी ओर से अपहृत कर लिया है- उनके हृदय से मुझको भुलाकर, उनके हृदय में वह
स्वयं बस गई है। वह तोता (हीरामन ) मेरे लिए काल तुल्य बनकर मेरे प्रियतम को मुझसे
विलग करके अपने साथ लिया गया है। उस तोते को मेरे प्रियतम को नहीं ले जाना चाहिए
था चाहे उसके स्थान पर वह मेरी जान ले लेता। वह तोता तो मेरे प्रति उसी प्रकार छली
सिद्ध हुआ है, जैसे राजा बलि के साथ वामन ने छल किया था ( उनको स्वर्ग के
स्थान पर पाताल भेज दिया था। उसने इन्द्र की भांति छल करते हुए कर्ण से उसके अमोघ
वाणों को छलपूर्वक लेने के तुल्य मेरे पति को छलपूर्वक विमुक्त किया है और जैसे
महाभारत के युद्ध में कर्ण को संत्रस्त देखकर इन्द्र प्रसन्न हुआ था, वह भी उसी प्रकार
प्रसन्न हो रहा होगा। राजा गोपीचन्द्र राजसी वैभवों के उपभोग में निमग्न रहते थे, किन्तु जिस
प्रकार उनको जालधर योगी अपने साथ लिवा ले गए थे, उसी प्रकार राजसी भोगों
में लिप्त मेरे प्राणेश्वर को हीरामन लिवा ले गया है। वह तोता मेरे प्रियतम को
अपने साथ ले जाकर उसी प्रकार विलुप्त हो गया हैं, जैसे श्रीकृष्ण को अक्रूर
अपने साथ मथुरा ले गए थे और अब मुझ विरहिणी का जीवित रहना उसी प्रकार दुष्कर हो
गया है, जैसे कृष्ण के वियोग में गोपियों का जीवन दूभर हो गया था।
नागमती अंतर्विलाप - सा
करते हुए कहने लगी कि अरे तोते! तूने हमारी सारसों जैसी जोड़ी को भंग किया है, इससे अच्छा तो यह
रहता कि तू खड्ग द्वारा मेरी हत्या कर देता। अब तो मेरी काया में ऐसी विरहारिन
सुलगी रहती है कि उसमें जलकर मेरा शरीर झूर झूर हो उठा है। उसमें रंचमात्र भी
सत्त्व नहीं बचा है।
साहित्यिक सौन्दर्य -
1.
बावन करा- एक पौराणिक कथा के अनुसार राजा बलि महादानी थे और उन्होंने स्वर्ग का
राज्य प्राप्त करने की कामना से 99 यज्ञ पूर्ण कर लिए थे। यदि उनका एक यज्ञ और
निर्विघ्न पूरा हो जाता तो वे स्वर्ग के राजा बन जाते। देवताओं में इस तथ्य को
लेकर खलबली मच गई क्योंकि राजा बलि का दैत्य-कुल से सम्बन्ध था। देवों द्वारा
प्रार्थना किए जाने पर विष्णु ने वामन का रूप धारण करके राजा बलि से ढाई पग भूमि
की मांग की थी और राजा बलि द्वारा इस मांग को स्वीकार कर लेने पर एक कदम में आकाश, दूसरे में पाताल
को नाप लिया था। उनका तीसरा कदम सम्पूर्ण पृथ्वी से बढ़कर था अतः राजा बलि स्वयं
भी लेट गए थे कि आप मेरे शरीर को भी नापकर अपना कदम पूरा कीजिए। इस प्रकार विष्णु
ने राजा बलि के साथ छल करके बलि को पाताल का राजा बना दिया था। इस विषय में एक
कहावत भी प्रसिद्ध है।
“मन चाही ना होति है प्रभु चाही तत्काल
बलि चाहा था स्वर्ग को
भेज दिया पाताल ।”
2. करन बान लीन्हेउ कै
छंदू - महाभारत संबंधी एक प्रसंग के अनुसार सूर्य पुत्र कर्ण का जन्म दिव्य कवच और
कुंडलों के साथ हुआ था। इसके साथ ही उसके पास पांच अमोघ बाण भी थे जिनसे कर्ण
दुर्योधन की ओर से युद्ध करते हुए पांचों पांडव भ्राताओं को मारना चाहता था।
अर्जुन के पिता इन्द्र इस बात को सोचकर बड़े दुःखी थे और उन्होंने अंततः छल का
आश्रय लिया कि एक ब्राह्मण के वेश में कर्ण से उसके कवच-कुंडल और अमोघ बाणों को
दान के रूप में मांग लिया और महादानी कर्ण ने इन वस्तुओं को प्राणधिक मूल्यवान
होते हुए भी इन्द्र को सौंप दिया। दान के भार से इन्द्र का रथ जब आकाश की ओर नहीं
उड़ सका तो इन्द्र को एक अमोघ बाण कर्ण को देने के लिए विवश होना पड़ा। कर्ण
संतुष्ट था कि इस बाण से मैं अपने प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी अर्जुन की हत्या कर दूंगा, किन्तु श्रीकृष्ण
की चाल के कारण कर्ण को अपने इस अमोघ बाण को भी भीमसेन और हिडिम्बा के पुत्र
घटोत्कच पर छोड़ने को विवश होना पड़ा था और वह स्वयं अर्जुन के हाथों मारा गया था।
नागमती का अभिप्राय यह है कि मेरे पति का महत्व मेरे लिए उसी प्रकार प्राणाधिक था, जैसे कर्ण के लिए
उसके बाणों और कवच का था।
साहित्यिक सौन्दर्य- दृष्टांत और रूपक अलंकार ।
पिउ बियोग अस बाउर जीऊ शब्दार्थ संदर्भ-व्याख्या
पिउ बियोग अस बाउर जीऊ। पपिहा तस बोलै पिउ पीऊ । 1।
अधिक काम दगधै सो रामा हरि जिउ लै सो गएउ पिय नामा। 2|
बिरह बान तस लाग न डोली रकत पसीज भीजि तन चोली । 3 ।
सखि हिय हेरि हाथ मैन मारी। हहरि परान तजै अब नारी। 4 ।
खिन एक आव पेट मंह स्वांसा । खिनहि जाइ सब होइ निरासा । 5 ।
पौनु डोलावहिं सींचहिं चोला पहरक समुझि नारि मुख बोला। 6 |
प्रान पयान होत केई राखा को मिलाव चारित्र के भाखा । 7|
आह जो मारी बिरह की आगि उठी तेहि हांक ।
हंस जो रहा सरीर मंह
पांख जरे तन थाक ॥ 30/ 2॥
शब्दार्थ -
बाउर = बावला
तस=उस प्रकार
दगधै = जलाता।
रामा=स्त्री।
मैन = कामदेव
हहरि-हाथ छोड़कर।
खिन = क्षण
पहरक= एक पहर।
समुझि = होश में आकर
पयान=गमन
चात्रिक = चातकी ।
संदर्भ - नागमती की
वियोगावस्था का वर्णन किया गया है।
व्याख्या -
कवि कहता है
कि अपने प्राणेश्वर के वियोग में पद्मावती बावली-सी हो गई और उसके मुख से सदैव
पपीहे की भांति पिउ-पिउ की ध्वनि निकलती रहती थी उस रमणी को काम अत्यधिक प्रपीड़ित
करने लगा। हीरामन मानों उसके प्रियतम के रूप में उसके प्राणों को ही अपहृत कर ले
गया था। उसे ऐसा विरह-रूपी बाण लगा हुआ था कि वह हिल-डुल भी नहीं सकती थी और रक्त
के पसीजने के कारण उसकी चोली सदैव गीली रहती थी। उसको देखकर सखियां सोचने लगीं कि
अब यह नारी कामदेव द्वारा परास्त की जा चुकी है इस पर कामदेव ने विजय - प्राप्त कर
ली है और कांप-कांपकर अपने प्राण छोड़ देगी। उसे एक क्षण के लिए श्वास आता था और
उसके उदर में स्पन्दन होता था, किन्तु क्षण भर में ही वह श्वास निकल जाता था
जिससे उसकी समस्त सखियां निराश हो उठती थीं। उसको बेहोश हुई देखकर सखियां उस पर
पंखे से हवा करते हुए, उसकी चोली पर जल छिड़कने लगीं, तब कहीं जाकर एक
प्रहर के बाद नागमती कुछ सचेत हुई और यह समझते हुए कि मैं अपनी परेशान सखियों से
घिरी हुई हूं, उसके मुख से कुछ शब्द निकले। वह कहने लगी कि अपने
प्राणेश्वर के वियोग में मेरे उड़ते हुए प्राण-पखेरुओं को किसने और क्यों उड़ने से
रोक दिया है। अब मुझ चातकी का स्वप्रियतम रूपी मेघ से कौन सम्मिलन करायेगा ?
कवि कहता है कि विरहिणी
नागमती ने जब आह भरी तो उसकी आह के साथ-साथ आग निकलने लगी। उस विरहाग्नि के कारण
नागमती के शरीर में जीव रूपी जो हंस विद्यमान था उसके पंख जल उठे जिससे वह उड़
नहीं सका उसका आत्मा रूपी हंस पंख जल जाने के कारण उड़ने में असमर्थ होकर उसके शरीर
में ही रह गया। साहित्यिक सौन्दर्य उत्प्रेक्षा, रूपक और उपमा अलंकार । -
पाट महादेइ हिएं न हारू
समुझि जीउ चित चेतु संभारू । 1 । भंवर कंवल संग होइ न परावा। संवरि नेह मालति पंह
आवा। 21 पीउ सेवाति सौं जैस पिरीती। टेकु पियास बांधु जिय थीती। 3 धरती जैस गंगन
के नेहा पलटि भरै बरखा रितु मेहा 4 । पुनि बसंत रितु आव नवेली सो रस सो मधुकर सो
बेली ।5। जनिअस जीउ करसि तूं नारी दहि तरिवर पुनि उठहिं संभारी। 6 । दिन दस जल
सूखा का नंसा । पुनि सोइ सरवर सोई हंसा । 7 । मिलहिं जो बिछुरै साजना गहि गहि भेंट
गहंत । तपनि मिरगिसिरा जे सहहिं अद्रा ते पलुहंत ॥ 30/3॥
शब्दार्थ -
पाट महादेई = महारानी की पदवी वाली पटरानी
चेतु संभारू = होश सम्हाला
परावा= दूसरा
संवरि नेह = प्रेम का स्मरण करके
सेवाति= स्वाति नक्षत्र
पिरीती प्रेम
टेकु = आश्रम
थीति = स्थिति ।
पियास = पिपासा, प्रियतम की आशा
जिय थीती = जीवन रूपी धरोहर
नेहा= प्रेम।
मेहा= वर्षा
जनि = नहीं।
सरवर = सरोवर
दहि = जलकर।
गहंत = ग्रहण करना ।
मिरगिसिरा=मृगशिरा नामक नक्षत्र
अद्रा = आर्द्रा नामक नक्षत्र
पलुहंत = पल्लवित, हरे-भरे ।
नंसा=नाश।
संदर्भ -
नागमती की विरह
अनुभूतियों का वर्णन किया गया है।
व्याख्या -
नागमती को
समाश्वासन देते हुए उसकी सखियां कहने लगीं कि हे रानी। आप इस प्रकार हिम्मत मत
हारिए अपितु हृदय में सोच-विचार कर अपने चैतन्य की रक्षा कीजिए अर्थात् अपने होश-
हवास मत खोइये। हे महारानी ! आप यह विश्वास रखिए कि जिस प्रकार भ्रमर कमल के समीप
जाकर भी अंततः मालती के प्रेम का स्मरण करके उसके समीप लौट आता है उसी प्रकार आपके
प्राणेश्वर भी पद्मावती-रूपी कमल के पास जाकर भी अंततः आपके समीप लौट आएंगे।
सुप्राणेश्वर रूपी स्वाति नक्षत्र के प्रति आपका जैसा दृढ़ प्रेम-भाव है, उसको ध्यान में
रखते हुए अपनी काम-पिपासा को वशवर्तिनी रखिए, और प्रियतम के लौटने की
आशा का सहारा लेकर अपने हृदय में धैर्य धारण रखिए। जिस प्रकार पृथ्वी आकाश के
प्रेम भाव में निमग्न रहती है तो आकाश उसको वर्षा ऋतु में जल से ओत-प्रोत कर देता
है उस पर स्नेह की वर्षा करता है, उसी प्रकार तुम भी अंततः स्व पति का स्नेह
प्राप्त करोगी। इसी प्रकार तुम्हारे जीवन में पुनः वही वसन्त ऋतु आएगी, जिसमें समस्त
प्रकार के सुख भोग, होंगे, और तुम्हारे पति-रूप
भ्रमर द्वारा लता-रूप तुम्हारा मकरन्द पान किया जाएगा। हे महारानी! आप अपना हृदय
इस प्रकार क्यों दुखी और खट्टा कर रही हैं। आप यह सोचकर धैर्य क्यों नहीं धरा
करतीं कि ग्रीष्म ऋतु में दग्ध हुए वृक्ष वसन्त ऋतु के आगमन से पुनः हरे हो उठते
हैं- उनमें नयी नयी कोंपल फूट पड़ती हैं। यदि दस दिवस तक जल सूख भी जाता है, अर्थात् यदि आपका
स्व पति से कुछ दिनों के लिए मिलन नहीं भी हो पाता है, तो क्या हुआ, क्योंकि बाद में
तो वही सरोवर और वे ही हंस होंगे अर्थात् तुम्हारा मिलन होकर ही रहेगा।
हे महारानी आप इस तथ्य को
भी विस्मृत मत कीजिए कि वियोग के पश्चात् मिलन की आशा बहुत अधिक बढ़ जाया करती है
और बिछुड़े हुए पति बड़े ही उल्लासपूर्वक मिलते और आलिंगन करते हैं- वे ही आर्द्रा
नक्षत्र की घोर वर्षा में पल्लवित पुष्पित हुआ करते हैं उन्हीं पर पति-प्रेम की
घोर वर्षा हुआ करती है।
साहित्यिक सौन्दर्य -
रूपक अर्थान्तरन्यास और उपमा अलंकार ।
चढ़ा असाढ़ गंगन घन गाजा साजा शब्दार्थ संदर्भ-व्याख्या
चढ़ा असाढ़ गंगन घन गाजा साजा बिरह दुंद दल बाजा । 1 ।
धूम स्वाम धीरे व धाए सेत भुजा बगु-पांति देखाए । 2 ।
खरग बीज चमक चहुं ओरा। बुद बान बरिसै घन घोरा । 3 ।
अद्रा लाग बीज भुई लेई मोहि पिय बिनु को आदर देई 141
ओनै घटा आई चहुं फेरी कंत उबारु मदन हौ घरी 151
दादुर मोर कोकिता पीऊ करहिं बेझ घूट रहे न जीऊ|6|
पुख नछत्र सिर ऊपर आवा हौं बिनु नादं मंदिर को छावा। 7।
जिन्ह घर कंता ते सुखी तिन्ह गारौ तिन्ह गर्ब ।
कंत पियारा बाहिरें हम सुख भूला सर्व ॥ 30 / 4 ॥
शब्दार्थ
गाजा-गरजने लगे
दुद-युद्ध
धूम-धुंए के रंग के
धीरे-श्येत
बुजा-ध्वजा
बीज - बिजली।
ओनै = झुक आई, उमड़ उठी।
फेरी = ओर
उबारु = रक्षा करो।
दादुर = मेढ़क ।
बेझ = वेध, निशाना लगाना।
नांह = पति
मन्दिर = भवन
गारौं = गौरव । "
संदर्भ -
नागमती की विरहावस्था का वर्णन किया गया है।
व्याख्या-
आषाढ़ का महीना आया तो आकाश में बादलों की गर्जन होने लगी, जो नागमती को ऐसी प्रतीत हुई कि विरह ने युद्ध की तैयारी की है और उसकी सेना ने कूंच का नगाड़ा बजाया है घुमेले, काले और भूरे रंग के बादल आकाश में दौड़ने लगे और उनमें उड़ती हुई बगुलों की पंक्तियां उनकी ध्वजाओं जैसी प्रतीत होने लगीं। खड्ग रूपी बिजली चारों ओर चमकने लगी और वर्षा की बूंद रूपी बाणों की घनघोर वर्षा होने लगी। आर्द्रा नक्षत्र के लगते ही बिजली चमककर भूमि को छूने लगी। नागमती सोचने लगी कि ऐसे विरहोत्तेजक वातावरण में प्रियतम की अनुपस्थिति में मुझको कीन समादर देगा अर्थात् मेरी कुछ भी पूछ नहीं रही है जबकि पति के यहां होने पर ऐसे उन्मादक वातावरण में वे अवश्य ही काम के लिए मेरी मनुहार करते। चारों ओर उमड़ी हुई घटाएं पृथ्वी पर झुकी-सी प्रतीत होती हैं, जिन्हें देखकर मेरी कामोत्तेजना और भी अधिक बढ़ उठी है। हे प्राणनाथ! आप शीघ्र ही आकर मेरी रक्षा कीजिए क्योंकि मुझको कामदेव की सेना ने घेरा हुआ है। मेंढक, मयूर और कोयल के शब्द तो मुझे ऐसे प्रतीत होते हैं मानो मेरे हृदय को बेधे डाल रहे हैं, और मेरे प्राण निकले जा रहे हैं। अब तो पुष्प नक्षत्र सिर पर आ गया है जो इस बात का द्योतक है कि और अधिक वर्षा होगी। मेरे तो पति भी यहां नहीं हैं अतः मेरे भवन पर छप्पर कौन छवाएगा।
स्व-प्रियतम की स्मृति में निमग्न होते हुए नागमती रुदन करने लगी कि हे प्राणेश्वर जिन स्त्रियों के पति उनके घर में हैं वे गर्व और गौरव की भावना से अभिभूत हैं, जबकि आपके परदेश में होने के कारण मेरा पति-प्रेम संबंधी गर्व और गौरव तो मिट्टी में मिल ही गया है, मैं अपने समस्त प्रकार के सुखों को भी भूल चुकी हूं।
साहित्यिक सौन्दर्य -
1. जायसी के वियोग वर्णन की यह विशेषता कही जाएगी कि उनकी नागमती अपने रानीपन को भूलकर किसी सामान्य नारी की भांति यह कहकर विषादमग्न हो उठती है कि इस घोर वर्षा काल में, पति की अनुपस्थिति में मेरे भवन पर कौन छप्पर डालेगा।
2. सांगरूपक अलंकार।
सावन बरिस मेह अति पानी शब्दार्थ संदर्भ-व्याख्या
सावन बरिस मेह अति पानी । भरनि भरई हौं बिरह झुरानी । 1 ।
लागु पुनर्बसु पीउ न देखा। भै बाउरि कहं कंत सरेखा । 2 ।
रकत क आंसु परे भुई टूटी। रेंगि चली जनु बीर बहूटी। 3 ।
सखिन्ह रचा पिउ संग हिंडोला । हरियर भुइं कुसुंभि तन चोला । 4 ।
हिय हिंडोल जस डोलै मोरा । बिरह झुलावै देइ झंकोरा 151
बाट असूझ अथाह गंभीरा जिउ बाउर भा भवै भंभीरा। 6 ।
जग जल बूड़ि जहां लगि ताकी मोर नाव खेवक बिनु थाकी । 7 ।
परबत समुंद अगम बिच बन बेहड़ घन ढंख |
किमि करि भेटौं कंत तोहि ना मोहि पावं न पंख ॥30/5॥
शब्दार्थ-
अति पानी=अत्यधिक
भरनि=मूसलाधार वृष्टि।
पुनर्वसु = नक्षत्र, विशेष।
बाउरि= बावली।
सरेखा =समान ।
रकत = रुधिर ।
असूझ = जहां कुछ दिखाई न दे।
ताकी = देखना।
खेवक = मल्लाह ।
बूड़ि= डूबना ।
ढंख= ढाक ।
किमि करि-किस प्रकार ।
बेहड़ = कठिन ।
संदर्भ-
बारहमास वर्णन
में नागमती की विरहावस्था का वर्णन किया गया है।
व्याख्या-
बारहमास-वर्णन
के अंतर्गत विरहिणी नागमती की विरहावस्था का वर्णन करते हुए जायसी कहते हैं कि
सावन के महीने में जोरदार वर्षा होने लगी। एक ओर तो मूसलाधार वृष्टि हो रही थी
जबकि बेचारी नागमती विरहाग्नि में झुलसती जा रही थी। नागमती सोचने लगी कि पुनर्वसु
नामक नक्षत्र लग गया है किन्तु मैं अब तक स्व पति के दर्शन प्राप्त करने में असफल
रही हूं। यह सोच-सोचकर मैं बावली हो चुकी हूं कि न जाने मेरे चतुर प्रियतम कहां रह
रहे हैं- अथवा यह कि प्रियतम के समान और कौन सुखदायक हो सकता है। मेरे नेत्रों से
रक्त के आंसू भूमि पर टूट-टूटकर गिरते रहते हैं, जो ऐसे प्रतीत होते हैं, मानो बीर
बहूटियां रेंग रही हों। मेरी सखियों ने अपने-अपने प्रियतमों के साथ हिंडोले डाले
हुए हैं। वसुन्धरा पर चारों ओर हरितिमा छाई हुई है जबकि उन्होंने भी कुसुम्भी रंग
के चोले धारण किए हुए हैं। सखियों को अपने प्रियतमों के साथ हिंडोलों पर झूलते
देखकर मेरा हृदय भी विरह-भाव के हिंडोले पर झूमने लगता है और विरह मुझको झोंटे और
झंकोरे देता हुआ इस झूले पर झुला रहा है। झंकझोर झंकझोर कर झुला रहा है। झूलने
वाले को ठीक प्रकार से झोंटे न देकर इस प्रकार के झोंटे देना कि वह झूले से गिर
जाए झकोरे देना कहलाता है। मुझे अपने पति से सम्मिलन का मार्ग बड़ा ही असूझ, अथाह और अत्यधिक
गंभीर लग रहा है और मेरा हृदय बावला होकर भंभीरी की भांति घूम रहा है। जहां तक भी
पृथ्वी दिखाई पड़ती है, वह जल में डूबी हुई है। ऐसे घनघोर वर्षा काल में
जहां चारों ओर पानी-ही-पानी दृष्टिगत होता है मेरी जीवन रूपी नौका को पार लगाने
वाला मल्लाह, पति के अभाव में और कौन हो सकता है।
स्व-प्रियतम को संबोधित
करती हुई नागमती कहने लगी कि हे प्राणनाथ मेरे और तुम्हारे मध्य अनेक अगम्य पर्वत
और समुद्र तथा बीहड़ वनों और सघन ढाक के वनों का अन्तराल (दूरी) है। मैं आपसे कैसे
आकर मिलूं क्योंकि न तो मेरे पैर ही हैं और न पंख ही हैं जिनकी सहायता से मैं
उड़कर आपसे आ मिलूं।
साहित्यिक सौन्दर्य -
1. दोहे में व्यक्त विरह-भाव बड़ा ही मार्मिक और करुणोत्तेजक है।
2. 'भरनि ...........................झुरानो' में विरोधाभास अलंकार ।
3. 'रेंगि ........................... बहूटी' में उत्प्रेक्षा अलंकार ।
4. 'हिय ........................... मोरा' में उपमा अलंकार
5. मोर ...........................'थाकी' में रूपक अलंकार।
भर भादौं दूभर अति भारी शब्दार्थ संदर्भ-व्याख्या
भर भादौं दूभर अति भारी। कैसें भरौं रैनि अंधियारी । 1 |
मंदिल सून पिय अनतै बसा सेज नाग भै धे धै डसा |2 |
रहीं अकेलि गहें एक पाटी नैन पसारि मरौं हिय फाटी । 3 ।
चमकि बीज घन गरजि तरासा। बिरह काल होइ जीउ गरासा । 4|
बरिसै मघा झंकोरि झंकोरी। मोर दुइ नैन चुवहिं जसि ओरी ।5।
पुरबा लाग पुहुमि जल पूरी आक जवास भई हौं झूरी |6|
धनि सूखी भर भादौं माहां। अबहूं आइ न सींचति नाहीं 7 ।
जल थल भरे अपूरि सब गंगन धरति मिलि एक ।
धनि जोबन औगाह मंह दे बूड़त पिय टेक ॥ 30/6
शब्दार्थ-
दूभर = कठिन ।
रैनि= रात्रि
मंदिल = भवन
अनतै अन्यत्र
तरासा= त्रस्त करता है।
ओरी = छप्पर के सिरे से टपकती बूंद
पुहुमि = पृथ्वी
मधा और पुरवा= नक्षत्रों के नाम हैं।
नाहां = पति
औगाह = अवगाह, अगाव, जल ।
सन्दर्भ : वर्षा ऋतु में नागमती अपने प्राणनाथ का स्मरण कर रही है।
व्याख्या
विरहिणी नागमती के लिए भाद्र माह की झर की
लड़ी अर्थात् निरन्तर वर्षा अतीव कष्टकर सिद्ध हो - रही है। वह इस चिन्ता में
दुःखी है कि इस महीने की अंधेरी रात्रियों को मैं कैसे व्यतीत करूं। मेरा गृह
सुनसान है क्योंकि मेरे पति कहीं अन्यत्र रह रहे हैं। पति के वियोग के कारण मेरी
शैया मुझ पर नागिन बन कर बार-बार काटने दौड़ती-सी प्रतीत होती है हे प्राणनाथ
तुम्हारी अनुपस्थिति में मैं अपनी चारपाई अथवा पलंग की पाटी पकड़े पड़ी रहती हूं।
आपके आने की प्रतीक्षा में मेरे नेत्र फटे के फटे रह जाते हैं जबकि मेरा हृदय
टुकड़े-टुकड़े हो उठता है। बार-बार बिजली चमकती है जबकि बादल अपनी गर्जना से मुझे
त्रस्त करते हैं। विरह तो काल रूप होकर मेरे जीवन को हड़पना चाहता है। मघा नक्षत्र
में घनघोर वर्षा हो रही है- वर्षा के झोंके पर झोंके आते रहते हैं और मेरे नेत्रों
से भी आसुंओं की ऐसी झड़ी लगी रहती है, मानों ओलती टपक रही हो
(वर्षा के उपरान्त छप्परों के सिरों से जो बूंदें टपकती रहती हैं उन्हें अलीगढ़ के
समीपवर्ती भागों में ओलवाती कहते हैं) मघा नक्षत्र के बाद पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र
लग गया है, जिसमें और भी अधिक वर्षा होने के कारण पृथ्वी जल से
परिपूर्ण हो उठी है मेरा शरीर विरहाग्नि में उसी प्रकार सूखा जा रहा है जैसे वर्षा
काल में आक और जवासा सूख जाते हैं। हे नाथ आपकी स्त्री भरे भादों के महीने में
सूखती जा रही है आप अब भी आकर इसको सींचते क्यों नहीं हो इसे अपनी उपस्थिति रूपी
जल से सूखने से बचा लीजिए।
हे प्राणेश्वर भर भादों
के महीने में इतनी घनघोर वर्षा हुई कि चारों ओर जल ही दिखाई पड़ता है तथा पृथ्वी
और आकाश मिलकर एक हो गए हैं। आपकी प्रियतमा यौवन-रूपी अगाध जल में डूबती जा रही है, आप इस डूबती को
शीघ्र ही आकर सहारा क्यों नहीं देते।
साहित्यिक सौन्दर्य
1. वर्षा ऋतु में आक और जयासे के पत्रहीन हो जाने का अर्थात् सूखने का वर्णन - गोस्वामी तुलसीदास ने भी किया है।
“ अर्क जवास पात बिन
भयऊ।"
2. पुनरुक्ति, विरोधाभास अलंकार।
लाग कुआर नीर जग घटा शब्दार्थ संदर्भ-व्याख्या
लाग कुआर नीर जग घटा। अबहुं आउ पिउ परभुमि लटा । 1 ।
तोहि देखे पिउ पलहै काया। उतरा चित्त फेरि करु माया। 2 ।
उए अगस्ति हस्ति घन गाजा तुरै पलानि चढ़े रन राजा । 3 ।
चित्रा मिंत मीन घर आवा। कोकिल पीउ पुकारत पावा । 4।
स्वाति बुंद चातिक मुख
परे । सीप समुंद्र मोंति लै भरे । 5 ।
भए अवगास कास बने फूले। कतं न फिरे बिदेसहि भूले । 7 ।
बिरह हस्ति तन सालै खाइ करै तन चूर।
बेगि आइ पिय बाजहु गाजहु होइ सदूर | 30 / 7 ॥
शब्दार्थ
परभुमि = दूसरे देश में
लटा=अनुरक्त ।
पलुहै= पुष्पित।
माया=दया।
उए = निकलने पर ।
हस्ति=हाथी।
तुरै=घोड़ा ।
पलानि = भाग गए।
अवगास = स्थान, मैदान
सालै = कष्ट देता है।
बाजहु = गरजो ।
सदूर = सिंह |
संदर्भ-
कुवार के महीने में विरहिणी नागमती की हृदयगत भावनाओं की अभिव्यक्ति हुई है।
व्याख्या -
कवि
वर्णन करता है कि अब कुवार का महीना लग गया और जगत से पानी की मात्रा कुछ कम हो गई
तो विरहिणी नागमती कातर स्वर में याचना करने लगी कि अरे मेरे परदेशी प्रियतम ! तुम
अब भी लौट आओ। हे प्राणेश्वर ! मेरा यह सूखकर अस्थिपंजर मात्र शरीर आपको देखकर ही
पुनः हरा-भरा हो उठेगा। आपका मेरी ओर से इस प्रकार मन क्यों फिर गया है, आप मुझ पर पुनः
अनुकम्पा कीजिए। अगस्त्य तारे के उदय होने पर हस्ति नक्षत्र मेघ गर्जन करने लगा है
अथवा मेघरूपी हाथी गर्जने लगे हैं और राजाओं ने अपने अश्वों पर सवार होकर युद्धों
की तैयारी कर दी हैं- भाव यह है कि अब तो आने-जाने के मार्ग खुल गए हैं, अतः यदि आप वर्षा
के जल के कारण नहीं आ पा रहे थे तो अब तो आ जाइए। हे प्राणेश्वर अब तो चित्रा
नक्षत्र का स्वामी (मित्र) चन्द्रमा मीन राशि में आ गया है तथा कोयल भी पिउ-पिउ
पुकारती हुई अपने स्वामी को पुकारती हुई उसको प्राप्त कर चुकी है- भाव यह है कि जब
चित्रा का सम्मिलन चन्द्रमा से और कोयल का सम्मिलन अपने प्रियतम से हो चुका है तो
फिर आप भी मुझसे आकर क्यों नहीं मिलते। यही नहीं चातक के मुख में भी स्वाति
नक्षत्र की बूंदे पड़ गई हैं और सीपी का मुख भी स्वाति नक्षत्र की बूंदे पड़ने के
कारण मोती से भर गया है। पुराने सरोवरों को याद करते हुए वे हंस पुनः उन सरोवरों
में लौट आए हैं जो वर्षाकाल में उनको छोड़ गए थे। सारस के जोड़े कुलेलें करने लगे
हैं जबकि खंजन पक्षियों के भी जोड़े दिखाई पड़ने लगे हैं। जब सभी ओर मिलन की
व्याप्ति है तो फिर आप भी आकर मुझसे क्यों नहीं मिलते हो। सभी ओर मैदानों में कास
के वन फूल उठे हैं, फिर भी न जाने मेरे पति विदेश में रहते हुए
मुझको भूलकर अभी तक क्यों नहीं लौटे हैं।
हे प्राणनाथ! विरह-रूपी
हाथी मेरे शरीर को चूर-चूर करके कष्ट दे रहा है। आप शीघ्र ही शार्दूल के रूप में
मेरे समीप आकर गर्जना क्यों नहीं करते, जिससे मुझे विरह-रूपी
हाथी से छुटकारा मिल सके शार्दूल रूपी आपके आते ही विरह-रूपी हाथी डरकर पलायन कर
जाएगा।
साहित्यिक सौन्दर्य - सांगरूपक अलंकार ।
कातिक सरद चंद उजियारी शब्दार्थ संदर्भ-व्याख्या
कातिक सरद चंद उजियारी। जग सीतल हौं बिरहैं जारी । 1 ।
चौदह करा कीन्ह परगासू। जानहूं जरें सब धरति अकासू 2 ।
तन मन सेज करै अगिडाहू सब कहं चांद मोहिं होइ राहू | 3
चहूं खंड लागै अंधियारा जौं घर नाहिंन कंत पियारा । 4 ।
अबहुं निठुर आव एंहि बारा। परब देवारी होइ संसारा । 5 ।
सखि झूमक गावहिं अंग मोरी हौं झूरौं बिछुरी जेहि जोरी। 6 ।
जेहि घर पिउ सो मुनिवरा पूजा। मो कहं बिरह सवति दुख दूजा 7 ।
सखि मानहिं तेवहार सब गाइ देवारी खेलि ।
हौं का खेलौं कंत बिनु
तेहिं रही छार सिर मेलि ॥ 30/8 ॥
शब्दार्थ
जारी = जलना
करा = कला।
अकासू = आकाश
परगासू = प्रकाश
अगिडाहू=अग्निदाह
नाहिन = नहीं है।
झूमक = एक गीत विशेष
अंग मोरी = अंगों को मोड़कर।
बिछुरी = बिछुड़ी।
सवति = सौत।
मानहिं = मानती है।
छार सिर मेलि= सिर में धूल डाल रही हूं।
संदर्भ-नागमती के विरह का वर्णन किया गया है।
व्याख्या-
कार्तिक के
महीने में दिवाली के त्यौहार पर नागमती की विरह व्यथा के और भी बढ़ जाने का वर्णन
हुए कवि कहता है कार्तिक के महीने में शरद चन्द्र की उज्ज्वलता अर्थात् चांदनी
व्याप्त रहने लगी। विरहाकुल करते नागमती सोचती है कि एक ओर तो समस्त जगत में
शीतलता परिव्याप्त है जबकि मैं विरह अग्नि में झुलसी जा रही हूँ। चन्द्रमा अपनी
चौदह-कलाओं से युक्त होकर चमक रहा है, किन्तु मुझे ऐसी अनुभूति
होती है मानो चन्द्रमा की चांदनी में पृथ्वी और आकाश दग्ध हो रहे हैं। मेरे शरीर, अंतर्मन और शैया
सभी में अग्निदाह-सा प्रतीत होता है। सारे संसार को ही चन्द्रमा की सुशीतलता
आनन्दकर है जबकि मुझको राहू के समान कष्टकर सिद्ध हो रही है। मुझे तो चारों ही
खड़ों में अंधकार छाया लगता है, क्योंकि मेरे प्राणेश्वर गृह में विद्यमान नहीं
हैं। अरे निष्ठुर प्रियतम! तुम अब भी एक बार लौटकर आ जाओ। क्योंकि सम्पूर्ण जगत्
में दिवाली का त्यौहार मनाया जा रहा है। मेरी समस्त सखियां अपने अंगों को मरोड़ती
हुई उल्लासपूर्वक झूमक गा रही हैं, क्योंकि मेरी जोड़ी
बिछुड़ी होने के कारण, प्रियतम से विछोह के कारण में आनन्दित होने के
स्थान पर विरह में झुलसती झुरती रहती हूं जिन नारियों के गृह में उनके पति हैं वे
मुनियों की पूजा कर रही हैं जबकि मेरे अंतर्मन में दुहरे कष्ट साल रहे हैं- एक ओर
तो मुझको प्रियतम से बिछोह का दुःख मारे डालता है। जबकि उसके साथ ही सपत्नी ( सौत)
का दुःख तो मुझे मारे ही डाल रहा है।
मेरी समस्त सखियां (तथा अन्य नारियां) हंसते-खेलते हुए दिवाली का त्यौहार मना रही हैं, जबकि अपने प्रियतम के अभाव में मैं इस प्रकार की खुशियां कैसे मना सकती हूं, अतः अपने सिर में धूल डाल रही हूं मेरा दुःख पराकाष्टा को पहुँचा हुआ है क्योंकि तभी व्यक्ति ऐसा आचरण करता है।
साहित्यिक सौन्दर्य- उत्प्रेक्षा और उपमा अलंकार।
अगहन देवस घटा निसि बाढ़ी शब्दार्थ संदर्भ-व्याख्या
अगहन देवस घटा निसि बाढ़ी। दूभर दुख सो जाइ किमि काढ़ी ।1|
अब धनि देवस बिरह भा राती। जरै बिरह ज्यों दीपक बाती । 2 ।
कांपा हिया जनावा सीऊ। तौ पै जाइ होइ संग पीऊ । 3 ।
घर घर चीर रचा सब काहूं । मोर रूप रंग ले गा नाहूं | 4 |
पलटि न बहुरा गा जो बिछोई। अबहूं फिरै, फिर रंग सोई ।5।
सियरि अगिनि बिरहिनि हिय जारा सुलगि लगि दगधे मै छारा |6|
यह दुख दगध न जानै कंतू । जोबन जरम करै भसमंतू । 7 ।
पिय सौं कहेहू संदेसरा ऐ भंवरा ऐ काग।
सो धनि बिरहें जरि गई तेहिक धुआं हम लाग ॥ 30/ 9 ॥
शब्दार्थ-
दूभर = कठिन ।
किमि = कैसे
काढ़ी = निकालना, दूर करना।
देवस= दिन
हिया = हृदय
पीऊ = पति ।
पलटि न बहुरा = लौटकर नहीं आया।
सियरि=ठंडी।
सीऊ=सीत।
बहुरा = लौटा।
संदर्भ -
नागमती की विरहाकुल मनोव्यथा का वर्णन किया गया है।
व्याख्या -
अगहन के महीने में जब दिन
छोटे और रातें लम्बी हो गई तो विरहिनी नागमती की व्यथा और भी अधिक बढ़ गई क्योंकि
वह समझ नहीं पाती थी कि पति के विछोह के असह्य दुःख को कैसे दूर किया जाए लम्बी
रातों का काटना उसके लिए और भी अधिक कष्टकर हो गया था। अब तो विरह के कारण नागमती
को दिवस भी रात्रि जैसा कष्ट कर प्रतीत होता था और वह वियोग में दीपक की वर्तिका
की तरह तिल-तिल करके जलती रहती थी। शीत के कारण उसका हृदय विकंपित रहने लगा था और
यह कम्प तभी दूर हो सकता था जबकि उसके प्राणेश्वर उसके समीप होते। प्रत्येक घर में
नारियों ने शरद काल के अनुरूप नए-नए वस्त्रों की रचना कर ली थी, किन्तु नागमती
ऐसा भी नहीं कर सकी क्योंकि वह सोचती थी कि मेरे तो रूप और रंग को मेरे प्राणेश्वर
ही अपने साथ ले गए हैं भाव यह है कि उसकी खाने-पहनने की ओर अभिरुचि ही नहीं रह गई
थी। वह बार-बार सोचती थी कि मेरे पति यहां से किसी ऐसी अशुभ घड़ी में गए हैं कि एक
बार जाकर उन्होंने लौटने का नाम तक नहीं लिया है। यदि वे अब भी लौट आएं, तो सुहावने दिवस
लौट आएंगे। शीत आग बनकर उस विरहिणी के अंतर्मन को निरन्तर दग्ध करता रहता था और वह
विरहाग्नि में सुलग कर जलकर राख हो चुकी थी। उसके अंतर्मन में टीस थी कि मेरी विरहावस्था
के दुःख से मेरे प्रियतम सर्वथा अनभिज्ञ हैं और उसकी इस अज्ञानता के कारण ही मेरा
यौवन और जीवन जलकर भस्म होते जा रहे हैं- निस्तार होते जा रहे हैं।
विरहिणी नागमती भ्रमर और
कागों को संबोधित करते हुए कहने लगी कि हे भ्रमरों! अरे कागों ! तुम मेरे प्रियतम
के समीप पहुंचकर उन्हें यह संदेश (सूचना) पहुंचा देना कि आपकी प्रियतमा वियोगाग्नि
में दग्ध हो-होकर मर गई है, और उसका धुआं लगने के कारण ही हमारे शरीर काले
पड़ गए हैं।
साहित्यिक सौन्दर्य -
1.
प्रस्तुत पंक्तियों के अन्त में नियोजित दोहे की आचार्य रामचन्द्र शुक्ल आदि
समीक्षकों ने मुक्त कंठ से सराहना की हैं, क्योंकि इसमें विरहिणी
नायिका की मनोव्यथा साकार हो उठी है।
2. नागमती के शरीर में लगी विरहाग्नि के धुएं से भ्रमरों और कागों का काला होना इस तथ्य का व्यंजक है कि वह विरहाग्नि में शीघ्र ही जलकर विरहयातना से छुटकारा नहीं पा गई है अपितु लम्बे अंतराल तक घुट-घुट कर, सुलग सुलग कर जलती रहती है। धुंआ तभी तक अधिक निकला करता है जब तक आग भभक कर जल नहीं उठती ।
3. विरोधाभास और हेतूत्प्रेक्षा
अलंकार ।
पूस जाड़ थरथर तन कांपा सुरुज शब्दार्थ संदर्भ-व्याख्या
पूस जाड़ थरथर तन कांपा सुरुज जड़ाइ लंक दिसि तापा । 1 |
बिरह बाढ़ि भा दारुन सीऊ। कंपि कंपि मरौं लेहि हरि जीऊ | 2 ।
कंत कहां हीं लागौं हियरें। पंथ अपार सूझ नहि नियरें। 3 ।
सौर सुपेती आवै जूड़ी। जानहुं सेज हिवंचल बूड़ी । 4 ।
चकई निसि बिछुरै दिन मिला। हौं निसि बासर बिरह कोकिला । 5 ।
रैनि अकेलि साथ नहि सखी। कैसें जिऔं बिछोही पंखी ।6।
बिरह सैचान भंवै तन चांड़ा। जीयत खाइ मुएं नहिं छांड़ा।
रकत ढरा मांसू गरा हाड़ मए सब संख
धनि सारस होइ ररि मुई आइ समेटहु पंख ॥ 30/10 ॥
शब्दार्थ-
सुरुज= सूर्य ।
जड़ाइ = जाड़े से पीड़ित होकर।
हियरें = हृदय से
नियरें = समीप
हिवंचल = हिमाचल, बर्फ में।
बूड़ी = डूबी।
बासर - दिन
पंखी = पक्षिणी, चिड़िया।
सैचान=बाज।
भवै = चक्कर काटता हैं।
मुएं = मरने पर ।
चांड़ा = भयंकर
ढरा = ढल गया।
गरा=गल गया।
ररि मुई = मर गई है।
संदर्भ -
विगत छन्द की भांति प्रस्तुत पंक्तियाँ भी जायसी के वियोग वर्णन की बड़ी ही मार्मिक पंक्तियां हैं, जिनमें विरहिणी नागमती की पूस के महीने में होने वाली दुर्दशा का वर्णन किया गया है।
व्याख्या -
कवि कहता है कि पूस के महीने में ठंडक इतनी अधिक बढ़ गई कि सभी नर-नारी थर-थर कांपने लगे। यही नहीं स्वयं सूर्य भी जाड़े से पीड़ित होकर लंका की ओर तापने लगा (आग सेकने को तापना कहते हैं) अर्थात् वह उत्तरायण से दक्षिणायन हो गया। बेचारी नागमती की विरह व्यथा और भी बढ़ गई और उसको शीत भयंकर प्रतीत होने लगी। अपने प्रियतम को स्मरण करते हुए वह सोचने लगी कि उनके अभाव में मैं कांप-कांप कर मरी जा रही हूँ और जाड़ा तो मेरी जान लेकर ही पीछा छोड़ेगा। हे प्राणनाथ! आप कहां हो? यदि आप यहां होते तो मैं आपके कंठ से लगकर इस मारक शीत से परित्राण पा सकती थी। आपके और मेरे मध्य तो असीम असूझ मार्ग की दूरी है, आप कहीं समीप भी तो नहीं हैं जिससे मैं ही आकर आपसे मिल लेती। मुझे तो अब ऐसी जूड़ी आने लगी है कि कई-कई रजाइया ओढ़ने पर भी मेरे अंतर्मन का जाड़ा नहीं मिट पाता। अपनी शैया मुझे इतनी ठंडी प्रतीत होती है, मानों उसको बर्फ में डुबो दिया गया है। मुझसे तो चकई बहुत अच्छी होती है जो अपने प्रियतम से रात्रि को बिछुड़कर उससे प्रातःकाल मिल जाती है। इसके सर्वथा मैं अहिर्निशि आपके वियोग में कोयल की भांति तड़पती रहती हूं। रात्रि में मैं अकेली रह जाती हूं। मेरे साथ कोई सखी तक नहीं होती, ऐसी दशा में मैं वियोगिनी पक्षिणी क्योंकर जीवित रह सकती हूँ? हे प्राणनाथ! विरह-रूपी भयंकर बाज मुझ पक्षिणी के चतुर्दिक चक्कर काट रहा है। यह मुझको जीवित ही खाना चाहता है और मरने पर तो मुझे किसी प्रकार भी नहीं छोड़ेगा ।
सारस-सारसी की अटूट जोड़ी
की भांति साथ निभाने की याचना करती हुई नागमती स्व-प्राणेश्वर को संबोधित करते हुए
कहती है कि हे प्राणनाथ! मेरे शरीर का सम्पूर्ण रुधिर दुलक गया है। मेरे शरीरांगों
का मांस गल गया है जबकि मेरी हड्डियां सूखकर शंख जैसी निष्प्राण-नीरस हो गई हैं, और आपकी पत्नी
सारसी की भांति आपका नाम रटते रटते मर रही है - आप इतनी कृपा तो कीजिए कि उस मरी
हुई के पंखों को समेट दीजिए ।
साहित्यिक सौन्दर्य
1. 'रक्त पंख' में व्यक्त मार्मिक विरह की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है।
2. उत्प्रेक्षा और रूपक अलंकार ।
लागेउ मांह पर अब पाला शब्दार्थ संदर्भ-व्याख्या
लागेउ मांह पर अब पाला। बिरहा काले भएउ जड़काला। 1 ।
पहल पहल तन रुई जो झांपै । हहलि अधिकी हिय कांपै । 2 ।
आइ सूर होइ तपु रे नाहीं । तेहि बिनु जाड़ न छूटै माहां । 3 ।
एहि मास उपजै रस मूलू। तूं सो भंवर मोर जोबन फूलू । 4
नैन चुवहिं जस मांहुट नीरू। तेहि जल अंग लाग सर चीरू।5।
टुटहिं बुंद परहिं जस ओला । बिरह पवन होइ मारै झोला । 6 ।
केहिक सिंगार को पहिर पटोरा गिंय नहिं हार रही होइ डोरा 7
तुम्ह बिनु कंता धनि हरुई तन तिनुवर भा डोल।
तेहि पर बिरह जराइ कै चहै उड़ावा झोल ॥ 30 / 11 ॥
शब्दार्थ -
अब पाला = जाड़े का समय
जड़काला = जाड़ा।
पहल पहल = शरीर का प्रत्येक पहलू ।
झोल = राख ।
हलि-हहलि- थरथराना, कंपकंपी छूटना।
मांहा = माघ का महीना
रस मूलू - वनस्पतियों में रस उत्पन्न होने का मूलकारण अर्थात् वसन्त
माहुंट= माहौट, माह की वर्षा
पटोरा = रेशमी वस्त्र
गियं = गर्दन में
हरुई - हल्की ।
तिनुवर= तिनके के समान
झापै= छिपाना।
संदर्भ - नागमती की
विरहावस्था का वर्णन किया गया है।
व्याख्या -
माघ का महीना
लग गया है और पाला पड़ गया है। विरहावस्था में तो जाड़ा काल बन गया है। शरीर के
प्रत्येक पहलू को रूई से ढकने पर प्रयत्न करने पर हृदय और भी थर-थर कांपने लगता
है। अथवा जाड़ा इतना अधिक है कि जब शुरू-शुरू में रूई के वस्त्रों से भी शरीर को
ढकने का प्रयत्न करते हैं तो वस्त्रों के ठंडे होने के कारण शरीर और भी अधिक
कांपने लगता है। अरे प्रियतम! तुम मेरे समीप सूर्य बनकर आ तपिए- अर्थात् यदि आप
मेरे समीप आ जाओगे तो मुझे सूर्य के समान सुखद प्रतीत होंगे। तुम्हारे अभाव में
मेरा यह माघ महीने का शीत नहीं छूट सकता। इसी माह में वनस्पतियों में रस का उद्रेक
होता है अर्थात् उनमें रस पड़ना प्रारम्भ होता है। तुम ही वह भ्रमर हो जो मेरे
यौवन-रूप का उपभोग कर सकता है। मेरे नेत्रों से माघ महीने की वर्षा अर्थात् माहौट
की भांति वर्षा की -सी झड़ी लगी रहती है- अश्रुपात होता रहता है। आंसुओं से भीगे
हुए ठंडे वस्त्र मुझको बाणों की तरह चुभते और रिसते रहते हैं । तुम्हारे अभाव में
मुझे माहौट की वर्षा की बूँदें ओलों की भांति कष्टकर प्रतीत होती हैं, जबकि विरह-रूपी
पवन के झोंकों के कारण मेरी व्यथा और भी बढ़ जाती है- भाव यह है कि हवा के झोंकों
के कारण ओले और भी अधिक जोर से लगा करते हैं, उसी प्रकार आपके विरह में
मुझे माघ की वर्षा की बूंदें और भी अधिक संतापित करती हैं। अब मैं किसके लिए
शृंगार करूं और किसके हेतु स्वयं को रेशमी वस्त्रों से सुसज्जित करूं? मैं अपनी ग्रीवा
में हार भी नहीं धारण कर सकती क्योंकि मेरी गर्दन सूख सूखकर डोरे जैसे हो गई है।
डॉ. अग्रवाल के अनुसार - “मेरे कंठ में हार नहीं रहा। मैं उस हार का डोरा मात्र हो
गई हूं।"
हे प्राणनाथ! आपके विरह में सूख सूखकर मैं अत्यधिक हल्की रह गई हूं और मेरा शरीर तिनकों के ढेर के तुल्य हो गया है। इस पर भी विरह की आग मुझको जलाकर राख की भांति उड़ाने को तत्पर है।
साहित्यिक सौन्दर्य - रूपक और उपमा अलंकार।
फागुन पवन झंकोरै बहा शब्दार्थ संदर्भ-व्याख्या
फागुन पवन झंकोरै बहा। चौगुन सीउ जाइ किंमि सहा । 1 ।
तन जस पियरे पात भा मोरा । बिरह न रहै पवन होइ झोरा | 2|
तरिवर झरै झरै बन ढांखा भइ अनपत्त फूल फर साखा 3 ।
करिन्ह बनाफति कीन्ह हुलासू। मो कंह भा जग दून उदासू | 4 |
फाग करहि सब चांचरि जोरी। मोहिं जिय लाइ दीन्हि जसि होरी 5 |
जौं पै पियहि जरत अस भावा। जरत मरत मोहि रोस न आवा। 6 ।
राति देवस इहै मन मोरें लागौं कंत बार जेउं तोरें | 7 |
यह तन जारौं छार के कहौं कि पवन उड़ाउ ।
मकु तेहि मारग होइ परौं कंत धरै जहं पाउ | 30 / 12 ॥
शब्दार्थ -
किंमि= कैसे।
छार = राख।
पियर=पीला
झोरा = झकझोरना।
ढांखा = वृक्ष
पात = पत्र
अनपत्त = पत्रहीन ।
बनाफति = वनस्पतियां |
भा = हो गया है।
चांचरि=शृंगारपरक स्वांग ।
जसि= जैसे।
मकु = शायद ।
संदर्भ - पूर्ववत् ।
व्याख्या-
हे प्राणेश्वर
फागुन के महीने में हवा झकझोरों के साथ प्रवाहित हो रही है, जिसमें शीत का
प्रकोप चौगुना हो उठा है, उसे मैं अकेली और विरहिणी किस प्रकार सहन करूँ? मेरी काया पत्ते
के तुल्य हो गई है। विरह के कारण यह पीले पत्ते जैसा शरीर भी सुरक्षित नहीं रह
पाएगा, क्योंकि विरह के झकझोरे उसे तोड़ डालेंगे अर्थात् मेरे
प्राणांत होने की आशंका है। अब सभी वृक्षों के पत्तें झड़ने लगे हैं, ढाक-वनी के ढाकों
के भी पत्ते झड़ रहे हैं। जितनी भी लताएं हैं वे फल-फूल और पत्रों से शून्य हो गई
हैं। हां अब वनस्पतियों से नई कोंपलें फूटने लगी हैं मानो वे इन कोंपलों के द्वारा
अपना उल्लास व्यक्त कर रही हैं। एक ओर तो लताएँ हैं जो अपने प्रियतम बसन्त से
मिलकर नवोल्लास से परिपूर्ण हो चुकी हैं, दूसरी ओर विरहिणी मैं हूं, जो आपके न लौटने
के कारण और भी अधिक उदास हो उठी हूं। मेरी सभी सखियां चांचरि जोड़कर फाग मना रही
हैं। सखियों को स्व- प्रियतमों के साथ रास-रंग मनाते देखकर मेरे अंतर्मन में विरह
की आग इस प्रकार भड़क उठती है मानो उसमें होली जला दी गई हो। हे नाथ! यदि आपको
मेरा इस प्रकार विरह की आग में जलना अच्छा लगता (भाता) है, तो मैं सहर्ष इस
प्रकार जलते हुए मर जाऊंगी और मुझको क्रोध नहीं आएगा। हे प्रियतम मैं तो अहर्निश
यही सोचती रहती हूं कि तुम्हारे थाल जैसे हृदय से लग जाऊं अथवा मैं स्वयं को तेरे
समक्ष उस प्रकार भोग रूप में प्रस्तुत करूं, जैसे उपभोक्ता (खाने वाले
को ) थाल में सामग्री सज्जित करके प्रदान की जाती है।
हे प्राणेश्वर ! मेरी अभिलाषा तो यह है कि मैं आपकी वियोगाग्नि में अपने शरीर को जलाकर राख कर दूं और पवन से निवेदन करूं कि वह मुझको उड़ा ले जाए। ऐसा करने पर शायद मेरी राख उस मार्ग पर भी गिर पड़े जहां पर आप अपने चरण रखेंगे- भाव यह है कि मैं तो राख बन कर भी आपके चरण चूमना चाहती हूं।
साहित्यिक सौन्दर्य -
1. चांचरि उस शृंगार-प्रधान नृत्य-गान को कहते हैं जिसकी योजना विशेषतः फागुन के महीने में होती है।
2. 'तन........ मोरा' में उपमा अलंकार ।
3. 'लागौं .......तोरें में उपमा अलंकार ।
4. दोहे में
अभिलाषा-संचारी की बड़ी ही मनोरम व्यंजना की गई है।
चैत बसंता होइ धमारी शब्दार्थ संदर्भ-व्याख्या
चैत बसंता होइ धमारी। मोहि लेखें संसार उजारी । 1 ।
पंचम बिरह पंच सर मारै रकत रोइ सगरौ बन ढारै । 2 ।
बूड़ि उठे सब तरिवर पाता। भीज मंजीठ टेसू बन राता । 3 ।
मरैं आंब फरैं अब लागे । अबहुं संवरि घर आउ सभागे। 4 ।
सहस भाव फूली बनफती मधुकर फिरे संवरि मालती।5।
मो कहं फूल भए जस कांटे। दिस्टि परत तन लागहिं चांटे 6 |
भर जोबन एहु नारंग साखा सावा बिरह अब जाइ न राखा । 7 ।
घिरिनि परेवा आव जस आइ परहु पिय टूटि
नारि पराएं
हाथ है तुम्ह बिनु पाव न छूटि | 30 / 13 ॥
शब्दार्थ -
धमारी = एक राग विशेष
लेखें = लिए।
उजारी = बीरान।
पंच सर = पंच बाणों वाला अर्थात् कामदेव ।
रकत=रक्त ।
सगरौ=सारा ।
बूड़ि= डूब।
राता = लाल ।
मौरें=बौर से लदे ।
फरें=फलों से युक्त होना, फलना।
संवरि=याद करके ।
बनफती = वनस्पती
मधुकर = भ्रमर।
सोवा = तोता।
घिरिनि परेवा = लोटन कबूतर ।
नारि= स्त्री
संदर्भ - पूर्ववत्
व्याख्या-
अपने परदेशी
प्रियतम को स्मरण करती हुई नागमती कहती है कि चैत्र का महीना आ गया है जिसमें
चारों ओर धमार का आयोजन हो रहा है। चारों ओर उल्लास और आनन्द छाया हुआ है जबकि
मेरे लिए तो यह संसार प्रियतम के अभाव में वीरान और सुनसान लग रहा है। जब कोयल
पंचम स्वर में कुहुकती है तो उसकी बोली मेरे हृदय में कामदेव के बाणों की भांति
लगती है और मेरे रुधिर के आसुओं से सम्पूर्ण वन ओत-प्रोत हो गया है- वसंत ऋतु में
कोयल का रुदन उपयुक्त नहीं लगता यहां यही अर्थ अधिक उचित है कि नागमती के रक्त
पूर्ण आंसू सारे बन में ढुलकते रहते हैं, अन्यथा इन पंक्तियों का
अधिकांश टीकाकारों ने यह अर्थ किया है- "कोयल अपने पंचम राग में विरह के कारण
पिउ-पिउ रटती हुई कामदेव के पंचबाण मारती है और रक्त के आंसू रोकर सारे वन में
गिराती है (डॉ. वा. शरण अग्रवाल) । “कोयल अपने पंचम स्वर में विरह के कारण पिउ-पिउ
रटती हुई कामदवे के पंचबाण मारती है और रक्त के आंसू रोकर सारे बन में गिराती
है।" (राकेश)। इन दोनों ही अर्थों में कोयल द्वारा कामदेव को बाण मारने का
अभिप्राय ग्रहण किया गया है, जबकि कवि का अभिव्यंग्यार्थ यह है कि कोयल की
कुहुक सुनकर नागमती के हृदय पर काम-वाणों का प्रहार होता है उसकी कामोत्तेजना बढ़
उठती है। उन रुधिरमय आंसुओं में भीगकर वृक्षों के पत्ते लाल हो उठे हैं, जबकि मंजीठ और
टेसू उनमें भीगकर लाल हो गए हैं। हे सभागे प्राणेश्वर! अब तो बौर आए हुए
आम्रवृक्षों पर फल भी लगने लगे हैं, अतः आप भी मुझको याद करके
घर क्यों नहीं लौट आते। वसुन्धरा की समस्त वनस्पतियाँ सहस्रों रूपों में पुष्पित
हो उठी हैं और भ्रमर अपनी मालती की स्मृति करके उसके चक्कर काटने लगा है। हे नाथ!
आपके अभाव में मेरे लिए पुष्प भी कंटक तुल्य बन गए हैं और जब मैं पुष्पों को देखती
हूं तो मेरे शरीर में उसी प्रकार का कष्टानुभव होने लगता है, जैसा चांटे (चपत)
मारने पर हुआ करता है। मेरे इस नारंगी के वृक्ष रूपी शरीर में यौवन भर उठा है, नारंगी वृक्ष पर
नारंगिया आने की भांति मेरी शरीर-लता भी यौवन से परिपूर्ण है ( स्तन रूपी फल लगे
हुए हैं) किन्तु अब विरह-रूपी तोता इसको कुतरे डाल रहा है और मुझसे उसकी रक्षा
नहीं हो पा रही है- भाव यह है कि आप स्वयं ही किसी प्रकार इसकी रक्षा कीजिए।
हे प्रियतम! आप मुझसे
अचानक ही उस प्रकार आ मिलिए जैसे लोटन कबूतर अचानक ही आकाश से टूटकर अपनी प्रियतमा
से आ मिलता है। तुम्हारी स्त्री ( अथवा मेरी नाड़ी) अब विरह-रूपी पर-पुरुष के
हाथों फंसी हुई है, इसको आपके अतिक्ति और कौन छुड़ा पाएगा।
साहित्यिक -
1. दोहे की
अंतिम पंक्ति में नियोजित "नारि पराए हाथ है"- बड़ी ही अर्थगर्भित है।
इसके द्वारा नागमती प्रकारान्तर से इस तथ्य का आश्रय लेती है कि शायद मेरा पति
ईर्ष्या से ही शीघ्र लौट आए कि उसकी स्त्री पर कोई अन्य व्यक्ति अधिकार करना चाहता
है।
2. 'नारि' शब्द का श्लेष से
'नाड़ी' अर्थ लेने पर इन पंक्तियों का भाव यह है कि अब
मेरी नाड़ी छूटने वाली है, मेरी नाड़ी यमराज के अधिकार में है अतः आप
शीघ्रातिशीघ्र आकर मेरी प्राण-रक्षा कीजिए। 3. उपमा, रूपक और श्लेष अलंकार ।
भा बैसाख तपनि अति लागी।
चोला चीर चंदन भी आगी ।1। सूरुज जरत हिवंचल ताका बिरह बजागि सौहं रथ हांका | 21 जरत बजागिनि
होउ पिय छांहां। आइ बुझाउ अंगारन्ह माहां । 3 । तोहि दरसन होइ नारी । आइ आगि सों
करु फुलवारी । 4 । लागिउं जरे जरे जस भारू। बहुरि जो भूँ जसि तजीं न बारू । 5 सरवर
हिया घटत निति जाई। टूक टूक होइ होइ बिहराई ।6। बिहरत हिया करहु पिया टेका। दिस्टि
दवंगरा मेरवहु एका। 7। कंवल जो बिगसा मानसर छारहिं मिलै सुखाइ । अब बेलि फिरि पलु
जौं पिय सींचहु आइ ॥ 30 / 14 ।।
शब्दार्थ -
हिवंचल-हिमाचल ।
बजागि=वज्राग्नि।
सौहं=सम्मुख
भारू=भाड़ा।
बहुरि = दुबारा
बिहराई= बिखर जाना, फैल जाना।
टेका=सहारा।
दिस्टि दबंगरा = दृष्टि रूपी दौंगरा अर्थात् हल्की वर्षा
मेरबहु-मिलओ, प्रदान करो।
छारहिं राख ।
संदर्भ -
विरहिणी नागमती के हृदय में उठने वाली भावनाओं का वर्णन किया गया है।
व्याख्या
कवि वर्णन
करता है कि बैसाख का महीना आ जाने के कारण चारों ओर भयंकर ताप पड़ने लगा है।
विरहिणी नागमती को चन्दनी चीर और चोला आग जैसा दाहक प्रतीत होता है। वह सूर्य जो
इससे पूर्व लंका की ओर चला गया था। अब तपते हुए हिमाचल की ओर ताकने (देखने लगा है
और उसने मेरी बिरह-रूपी वज्राग्नि की ओर अपने रथ को हांक दिया है अथवा सूर्य जलता
हुआ हिमाचल की ओर जाना चाहता था ( वहां तो वह नहीं गया) विरह की वज्राग्नि में
तपती हुई मेरी ओर ही उसने रथ हाँक दिया है ( मैं और तपने लगी ) । हे प्रियतम ! मैं
विरह-रूपी वज्राग्नि में प्रज्ज्वलित हो रही हूं आप इससे मेरी रक्षा कीजिए मुझे
अपने सम्मिलन की छाया प्रदान कीजिए। मैं विरहाग्नि के अंगारों में झुलसी जा रही
हूं, इनसे आप मेरी रक्षा कीजिए अपने आगमन रूपी जल से इन अंगारों
को बुझाइए। आपकी पत्नी आपके दर्शनों से ही सुशीतल हो सकती है। वे प्राणनाथ ! शीघ्र
ही आइए और मुझको अंगारों से फुलवाड़ी में परिणत कर दीजिए। आपके विरह की आग में मैं
सदैव भाड़ की तरह जलती रहती हूं और यदि आप मुझको फिर भी जलाएंगे तो भी आपका द्वार
(बारू) न छोडूंगी। अथवा जिस प्रकार भाड़ की आग में भूने जाने पर जौ की बौहरिया
(भुने हुए जौ को लोक शब्दावली में बौहरी कहते हैं) जिस प्रकार तीव्र ताप के कारण
बार-बार उछल उछल कर भी बालू में ही आ गिरती है तप्त बालू को नहीं छोड़ती- उसी
प्रकार मैं भी आपके द्वारा नाना प्रकार के कष्ट संताप दिए जाने पर भी आपका साथ
नहीं छोड़ सकती। हे प्रिय ! मेरा सरोवर-रूपी हृदय नित्यप्रति घटता जा रहा है- जैसे
गर्मी से तालाब का जल सूखता जाता है उसी प्रकार विरह ताप के कारण मेरे हृदय की
भावनाएं शुद्ध-नीरस होती जा रही हैं। स्थिति यहां तक आ पहुंची है कि मेरा हृदय
पूर्णतः सूखकर छिन्न-भिन्न हो उठा है जैसे सूखे हुए तालाब का तल (मिट्टी) अनेक
खण्डों में विभक्त हो जाती है। हे प्राणेश्वर ! मेरे फटते हुए हृदय को सहारा दीजिए
और अपनी दृष्टि-रूपी दोंगरे से उसके छिन्न-भिन्न टुकड़ों को मिलाकर एक कर दीजिए।
हे नाथ! वह कमल जो मेरे
हृदय रूपी मानसरोवर में खिला हुआ था अर्थात् मेरा प्रफुल्लित हृदय- आपके दर्शन
रूपी जल के अभाव में सूख सूखकर मिट्टी में मिल रहा है। उसकी सूखी हुई बेल (कमलनाल)
अब भी पुनः हरी-भरी हो सकती है यदि आप उसको अपनी दृष्टि-रूपी जल (वर्षा) से सींचने
की अनुकम्पा करेंगे।
साहित्यिक सौन्दर्य
1.
जायसी ने देशज शब्दों का बड़ा ही सार्थक प्रयोग किया है। प्रस्तुत पंक्तियों में प्रयुक्त
दबंगरा शब्द ऐसा ही है वर्षा होने से पूर्व ग्रामों में तालाब पूर्णतः सूख जाते
हैं और उनकी चिकनी मिट्टी सूखकर बड़े-बड़े टुकड़ों में विभक्त हो जाती हैं, जिनको लोक
शब्दावली में 'कीलें' कहते हैं। जब हल्की-सी भी वर्षा होती है और
तालाब में दुलककर पानी भर जाता है तो ये टुकड़े मिलकर एक हो जाते हैं। प्रस्तुत
पंक्तियों में नागमती भी स्वपति से दृष्टि-रूपी दौंगरे की याचना करती है जिससे
उसके भग्न हुए हृदय के टुकड़े मिलकर एक हो जाएं।
2. रूपक, उत्प्रेक्षा, उपमा और सांगरूपक
अलंकार ।
जेठ जरै जग बहै लुवारा उठे बवंड शब्दार्थ संदर्भ-व्याख्या
जेठ जरै जग बहै लुवारा उठे बवंडर धिकै पहारा । 1 ।
बिरह गाजि हनिवंत होइ जागा। लंका डाह करै तन लागा। 2 |
चारिहुं पवन झंकोरै आगी लंका डाहि पलंका लागी । 3 ।
दहि भइ स्याम नदी कालिंदी । बिरह कि आगि कठिन असि मंदी। 4 ।
उठे आणि औ आवै आंधी नैन न सूझ मरौं दुख बांधी।5।
अधजर भई मांसु तन सूखा लागेउ बिरह काग होइ भूखा ।6।
मांसु खाइ अब हाड़न्ह लागा। अबहुं आउ आवत सुनि भागा। 7 |
परबत समुंद्र मेघ ससि दिनअर सहि न सकहिं सुनि भाग ।
मुहमद सती सराहिओ जरै जो अस पिय लागि ॥ 30/15 ॥
शब्दार्थ
लूवारा= लू
धिकै =दहकने लगे।
गाजि = गरजकर
हनवंत = हनुमान
डाह = जलाना।
कालिंदी = यमुना।
दिनअर= दिनकर, सूर्य
जरे = तपना
संदर्भ -
ज्येष्ठ के महीने में नागमती को अनुभव होने वाली विरहाग्नि का वर्णन किया गया है।
व्याख्या -
ज्येष्ठ के महीने में सारी पृथ्वी जलने लगी। आंधी के बवंडर उठने लगे और तीव्र ताप के कारण पहाड़ भी दहकने लगे। विरह हनुमान की भांति गर्जन करते हुए जागृत हो गया और लोगों के ( नागमती के) शरीरों को लंका की भांति दग्ध करने लगा। चारों पवन अपने झोंकों से इस विरह की आग को विवर्धित करने लगे और उससे लंका ही नहीं अपितु पलका तक जल उठी। इस विरहाग्नि में जलकर ही यमुना नदी का जल काला हो गया है। विरह की अग्नि धीमी-धीमी सुलगती आग की तरह अत्यधिक दुस्सह हुआ करती है। आग भड़क उठी है, जबकि अंधड़ भी चल रहा है। नागमती कहती है कि ऐसे में मुझको हाथों-हाथ नहीं दिखाई पड़ रहा है और इस दुःख में ग्रस्त होकर मैं मरी जा रही हूँ बिरहाग्नि में जलकर में अधमरी (अधजली ) हो उठी हूं और मेरे शरीर का सारा मांस सूख गया है। विरह-रूपी काम मेरे मांस को उसी प्रकार खाए डालता है, जैसे बुभिक्षित कौआ मांस पर झपटा करता है। विरह-रूपी कौवे ने मेरे मांस का भक्षण करने के पश्चात् अब मेरी हड्डियों को खाना आरम्भ कर दिया है। हे प्राणनाथ ! आप अब भी आकर मुझे जीवित बचा लीजिए क्योंकि यह आपके आने का नाम सुनते ही भाग खड़ा होगा। नागमती की यह विरहाग्नि जो ज्येष्ठ माह की लुओं के रूप में प्रकट हो रही है, इसको पर्वत, समुद्र, बादल, चन्द्रमा और सूर्य में से कोई भी नहीं सहन कर सकता। कवि मलिक मुहम्मद जायसी कहते हैं कि सती-साध्वी नागमती की सराहना करनी चाहिए जो अपने प्रियतम के आगमन की प्रतीक्षा में इस विरहाग्नि को सहन कर रही है।
साहित्यिक सौन्दर्य '
1 लंका झाहि पलंका' इस पंक्ति का डॉ. वासुदेवशरण ने यह अर्थ दिया है कि 'वह अग्नि लंका को जलाकर अब पलंग में लग गई जो इस दृष्टि से अनुपयुक्त है कि इस पंक्ति में जायसी ने 'लंका 'छोड़कर लंका जा पहुंचने की लोकोक्ति का प्रयोग किया है और इसका भाव है कि वह दूर-दूर तक फैली हुई है।
2. उपमा और रूपक अलंकार।
तपै लाग अब जेठ असाढ़ी शब्दार्थ संदर्भ-व्याख्या
तपै लाग अब जेठ असाढ़ी। भै मोकहं यह छाजनि गाढ़ी। 1 ।
तन तिनुवर भा झरी खरी में बिरहा आगरि सिर परी। 2
सांठि नाहिं लगि बात को पूंछा बिनु जिय भएउ मूंज तन छूछा 31
बंध नाहिं और कंध न कोई। बाक न आव कहौं केहि रोई 4 ।
ररि दूबरि भई टेक बिहूनी बंभ नाहि उठि सके न खूनी 151
बरसहिं नैन अहिं घर माहां तुम्ह विनु कंत न छाजन छांहां।6।
कोरे कहां ठाट नव साजा तुम्ह बिनु कंत न छाजन छाजा। 7।
अबहूं दिस्टि मया करू छान्हिन तजु घर आउ
मंदिल उजार होत है नव कै आनि बसाउ ॥ 30/16
शब्दार्थ -
भै = हो गई।
मोकहं = मेरे लिए।
छाजनि=छूत का एक रोग विशेष ।
तिनुवर = तिनके के समान ।
आगरि=अर्गला ।
साँठि नांहि = गांठ की पूंजी नष्ट हो गई है।
बंध = भाई, बंधु।
कंध = कंधा।
मूंज = एक विशेष प्रकार की घास ।
टेक= आश्रम, सहारे की लकड़ी।
ररि=रकर।
थंभ स्तंभ, खम्बा
थूनी = छप्पर को साधने के लिए लगाई जाने वाली लकड़ी जो दीवार में गाड़कर बंडेरा में फंसा दी जाती है (बंडेरा उस मोटी बल्ली को कहते हैं जिस पर दो पहलू छप्पर का मध्य भाग टिका रहता है)।
दिस्टि दृष्टि
मया=दया।
मंदिल = मंदिर, भवन।
नव कै = नया करके ।
छाजन = छप्पर ।
संदर्भ- नागमती द्वारा विरह में अपने प्राणेश्वर का स्मरण किया गया है।
व्याख्या - नागमती अपने परदेशी प्रियतम को याद करते हुए कहती हैं कि प्राणेश्वर अब मेरे शरीरांगों में विरह जेठ-- अषाढ़ की तरह तपने लगा है और यह तपन मेरे शरीर को छाजन (एक रोग विशेष) की तरह व्यथित करने लगा है मेरा शरीर सूख सूखकर कांटा हो गया है और में खड़ी झुरती रहती हूं। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है मानो विरह की खान (आगरी) ही मेरे सिर पर टूट पड़ी है। अब मेरी गांठ में पूंजी नहीं है अर्थात् मेरा पति रूपी धन मुझसे दूर है अतः मेरी बात कौन पूछेगा। अपने प्रियतम के अभाव में मेरा शरीर मूंज की भांति निस्सार हो गया है (मूंज के बान से चारपाई बुनी जाती है)। इस समय न तो कोई मेरा बंधु-बांधव है और न ही कोई कंधा अर्थात् सहारा देने वाला है। मेरे मुंह से शब्द ही नहीं निकल पाते अतः मैं किसको रोकर बातें सुनाऊं। रो-रोकर में अत्यधिक दुर्बल हो गई हूं और सभी प्रकार के आश्रयों से विहीन हूं। जब पति रूपी स्तंभ ही न हो तो जीवन रूपी छप्पर थूनियों (छोटे-छोटे सहारों) पर कैसे टिका रह सकता है। मेरे नेत्रों से अविरल रूप में आसुंओं की वर्षा होती रहती है जो घर में ही टपकते रहते हैं। हे नाथ! आपके अभाव में न तो मेरे भवन पर छप्पर (छाजन) ही है और न छाया ही है। अब कौन है जो नए ठाठ सजाएगा अथवा “अरे, कौन कहां अब नया साज सजाएगा?" हे नाथ आपके अभाव में तो अब वस्त्र अथवा छप्पर कुछ भी तो अच्छा नहीं लगता।
हे प्राणेश्वर ! आप अब भी
मेरी ओर अपनी कृपा दृष्टि कीजिए और उस स्थान को छोड़कर जहां पर आप किसी अन्य को
आश्रय प्रदान कर रहे हैं, अर्थात जिस स्त्री के जीवन रूपी घर में आपने
अपनी उपस्थिति रूपी छान छायी हुई हैं, से छोड़कर मेरे समीप लौट
आइए आपकी पत्नी का यह शरीर रूपी घर उजाड़ होता जा रहा है आप आकर इसको नए रूप में
बसा लीजिए।
साहित्यिक सौन्दर्य - 1.
इन पंक्तियों का डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने निम्नांकित अर्थ दिया है-
“अब जेठ-आषाढ़ी तपने लगी
है। मेरे लिए छाजन दुखदायी हो गई है। इसका तान या फैलाव सिमटकर ढेर हो गया है। मैं
उसके नीचे खड़ी सूखती हूं। उसकी अर्गला निकल गई है और द्वार खोलने वाले के सिर पर
आ गिरती है। इसमें सेंटे नहीं लगे पत्ते का तो कहना ही क्या? डोरी के न रह
जाने ( लपेट खुल जाने) से मूंज की ताने छूछी हो गई हैं। बंद भी नहीं रहे और दीवार
(कंध) भी कोई नहीं है। धुड़िया (बॉक) भी नहीं है। किससे रोकर व्यथा कहूं? यह दुपलिया छान
(दूबरि) अपने स्थान से सरक कर (ररि) टेक विहीन हो गई है। इसमें जो थंभ था वह नहीं
रह गया । सहारे के लिए थूनी भी नहीं लग सकती। इसके ऊपर धुंआ निकलने के लिए जो
धमाले या धूमनेत्र बने थे, वे पानी बरसने पर अब घर में ही टपकते हैं। हे
कत, तुम्हारे बिना अब छाजन छांह नहीं करती। पूरे बांस (कोरे)
कहां हैं जिनसे छान को नया बनाया जाए? हे कंत, तुम्हारे बिना
छाजन नहीं छाई जा सकती।
अब भी कृपा दृष्टि करो और बिजन छोड़ो, घर में आओ। यह राज मंदिर उजाड़ हो रहा है, आकर नया बसाओ।"
2. उपमा और रूपक अलंकार।
रोइ गंवाएउ बारह मासा सहस सहस शब्दार्थ संदर्भ-व्याख्या
रोइ गंवाएउ बारह मासा सहस सहस दुख एक एक सांसा। 1 |
तिल तिल बरिस बरिस बरु जाई। पहर पहर जुग जुग न सिराई 2 ।
सो न आउ पिउ रूप मुरारी जासों पाव सोहाग सो नारी। 3।
सांझ भए झुरि झुरि पंथ हेरा। कौनु सो घरी करै पिउ फेरा। 4 ।
दहि कोइल मै कंत सनेहा तोला मांस रहा नहिं देहा ॥30
/ 17 ॥
शब्दार्थ -
गंवाएउ = खो दिया।
सहस = सहस्त्र ।
सिराई = ठंडा
हेरा=देखा।
दहि = जलकर
पाव लागि= चरण स्पर्श करने के लिए।
चेरी = दासी।
निसरी = निकलकर
गरा=गल गया।
झांखि = पछता गया।
पांखि = पक्षी ।
संदर्भ -
नागमती ने अपने प्रियतम के वियोग में किस प्रकार बारह महीने व्यतीत किए उसी विरह
का वर्णन यहां किया गया है।
व्याख्या -
कवि कहता है कि पीछे वर्णित रीति से विरहिणी नागमती ने रो-रोकर बारह महीने जैसे-तैसे व्यतीत किए। उसकी एक-एक सांस में भी उसको हजारों प्रकार का दुःखानुभव होता था। उसके लिए एक-एक क्षण का समय काटना वर्षों की भांति लम्बा हो गया था। इसी प्रकार एक-एक पहर की कालावधि युगों के समान लम्बी प्रतीत होती थी। फिर भी उसका कृष्ण की भांति सुन्दर पति लौटकर नहीं आया था जिससे उसको सौभाग्यवती कहलाने का सुअवसर मिल सकता। संध्या होते ही वह बड़ी उत्सुकतापूर्वक पति के प्रत्यागमन के मार्ग की ओर देखने लगती थीं और सोचती रहती थी कि न जाने वह शुभ घड़ी कब आएगी जब उसके पति उसके समीप आएंगे। वह अपने प्रियतम के प्रेम में जलकर कोयल की भांति काली पड़ गई थी और उसके शरीर में एक तोला तक मांस अवशिष्ट नहीं बचा था। उसके शरीर में रक्त भी शेष नहीं बचा था और विरह ने उसके शरीर को गला दिया था। उसके शरीर का रुधिर उसके आंसुओं के रूप में रत्ती - रत्ती की मात्रा तक शरीर से निकल गया था। बड़े ही कातर स्वर में वह कहने लगी कि हे प्राणेश्वर मैं हा! हा! खाते हुए आपके चरणों में गिरती हूं। आप अपने उस स्नेह-संबंध को पुनः जोड़ लीजिए जो इस समय आपने तोड़ रखा है।
कवि कहता है कि इस प्रकार
एक वर्ष तक नाना प्रकार से विलाप करती हुई नागमती अंततः झख मारकर रह गई अर्थात्
उसकी अभिलाषा सफल नहीं हो पाई। उसने स्व पति के विषय में लोगों से घर-घर जाकर, पूछताछ की और जब
उनसे कुछ भी पता न चला तो वह हारकर वन के पक्षियों से पूछने के लिए राजमहल से निकल
पड़ी। साहित्यिक सौन्दर्य - 'हा! हा! खाना', लोक-जीवन में दीनता की
चरमावस्था होती है। 2. श्लेष, पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार ।
भई पुछारि लीन्ह बनबासू शब्दार्थ संदर्भ-व्याख्या
भई पुछारि लीन्ह बनबासू । बैरिनि सवति दीन्ह चिल्हवांसू । 1|
कै खर बान कसै पिय लागा। जौं घर आवै अबहुं कागा । 2 ।
हारिल भई पंथ मैं सेवा । अब तहं पठवौं कौनु परेवा । 3 ।
धौरी पडुक कहु पिय ठाऊं। जौ चित रोख न दोसर नाऊं । 4 ।
जाहि बया गाहि पिय कंठ लवा। करे मेराउ सोई गौरवा। 5 ।
कोइलि भई पुकारत रही। महरि पुकारि लेहु रे दही 6 |
पियरि तिलोरि आव जलहंसा। बिरहा पैठि हिंए कत नंसा । 7 ।
जेहि पंखी कहं अवौं कहि सो बिरह के बात ।
सोई पंखि जाइ डहि तरिवर होइ निपात ॥ 30/18 ॥
शब्दार्थ -
पुछारि= मोरनी, पूछने वाली।
सवति = सौत।
चिल्हवांसू = चिड़ियां फंसाने का एक फन्दा ।
खर= तीव्र | परेधा = पक्षी |
पंडुक = पीला ।
चित रोख = एक पक्षी
रोख = रोष।
दोसर नांऊ= किसी दूसरे का नाम लेना। गहि पकड़कर ।
मेराउ = मिला।
महरि= ग्वालिन नामक चिड़िया
तिलोरि = तेलिया मैना ।
कत नंसा = नीलकंठ, काटना और नाश करना ।
अढवौं = आज्ञा देना, काम में नियुक्त करना।
डहि जल ।
निपात=पत्रहीन
संदर्भ-नागमती द्वारा पति की खोज का वर्णन।
व्याख्या -
स्वपति की खोज
में घर से निकली नागमती का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि अब वह विरह में व्याकुल
होकर मोरनी बनकर बन बन में मारी-मारी फिर रही थी। उसको उसकी सौत (पद्मावती) ने
चिड़िया फंसाने के जाल रूपी विरह में फंसा रखा था। विरह की तीव्रता उसको जलाए
डालती थी, जो उसके हृदय में तीव्र बाण की भांति चुभ रहा था। कौवे को
बैठा देखकर वह उससे कह उठती थी कि अरे कौवे ! यदि आज मेरे प्रियतम घर लौट रहे हों
तो तू उड़ जा । मैं लम्बे समय से हारिल बनी हुई स्व- प्रियतम के आगमन की प्रतीक्षा
कर रहीं हूं और अब किसी पक्षी को संदेश देकर अपने प्राणेश्वर के समीप प्रेषित करूं
। नागमती धौरी और पंडुक चिड़ियों से कहने लगी कि अरी तुम्हीं मुझको प्रियतम का
स्थान बता दो। यदि मेरे प्रियतम अपने हृदय में मुझसे रुष्ट हुए हैं तो फिर मेरे
लिए दूसरा स्थान ही कौन-सा है ? हे क्या पक्षी ! तू ही जाकर मुझको कंठ से लगाने
वाले प्रियतम को लिवा ला। मेरे लिए तो उसी पक्षी का गौरवपूर्ण स्थान रहेगा जो मेरा
स्व-प्रियतम से सम्मिलन कराएगा। मैं तो अपने प्रियतम को कोयल बनकर पुकारती हूं।
कवि कहता है कि वह नारी ग्वालिन नामक चिड़िया की तरह दही लो, दही लो चिल्लाती
फिरती थी
अथवा नागमती यह कहते हुए
कि मैं विरहाग्नि में जली जा ही हूं, दया के लिए (महरि)
पुकारती फिर रही थी। बिना किसी ओर ध्यान दिए, एक वृक्ष पर तिलौरी, मैना पक्षी और
सरोवर में हंस क्रीड़ा करते रहे। नागमती के हृदय में तो अब विरह-रूपी नीलंकठ का
निवास हो गया है जो बराबर उसके शरीर को कचोटता रहता है। |
कवि कहता है कि
विरह-दग्धा नागमती जिस किसी भी वृक्ष के समीप पहुंचकर उस पर बैठे हुए पक्षियों को
अपनी विरह व्यथा सुनाने का प्रयास करती थी, उसकी विरहाग्नि की लपटों
से वही पक्षी जल जाता था और वृक्ष पत्रहीन हो जाते थे ।
साहित्यिक सौन्दर्य -
1. प्रस्तुत पंक्तियों के डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने दो अर्थ दिए हैं उनमें से एक इस प्रकार है-
“पूछने वाली बनकर उसने
बनवास लिया कि पक्षियों से प्रिय का समाचार पूछूंगी पर कोई पक्षी वहां पहुंचता ही
नहीं क्योंकि, बैरिन सौत ने पक्षियों को फंसाने के लिए चिल्हवासं लगा रखे
हैं। इतने पर भी कोई कौवा यदि ', घर पहुंच जाता है, तो प्रियतम, (भी उसी षड्यंत्र
में मिलकर) तीक्ष्ण बाण चढ़ाकर उसकी ओर खींचने लगता है । अथवा पहली दो पंक्तियों
का अर्थ इस प्रकार होगा- “ पूछने वाली बनकर उसने वनवास लिया। बैरिन सौत ने पति को
छल फंदे में फंसा रखा है (या अपने चुहल में फंसा रखा है ) । प्रियतम ने पहले अपनी
कंचन काया को तपाकर उत्तम बना लिया और अब उसको कसौटी पर कस कर देख रहा है। अब भी
वह घर लौट आए तो क्या बिगड़ा?”
2. उस मार्ग पर चलती चलती
मैं थक गई हूं। अब संदेशा पाने के लिए वहां किस पक्षी ( या संदेश वाहक) को भेजूं ।
3. श्वेत और पीली पड़ी
हुई अब मेरे लिए प्रिय का ही ठांव है। यद्यपि चित्त में रोष हैं, फिर भी दूसरा नाम
नहीं जानती।
4. जो जाकर आए, प्रिय को कंठ पकड़कर ले आए और मुझसे मिला दे, वही गौरवशाली ( बड़े पद वाला) है।
5. आम की गुठली की कोइली (पपैया ) जैसी बनकर मैं पुकारती रही। मेरी सास जी को बुलाओ। हाय मैं जली । पियरी और तिलौरी आती है, तो मेरा जी ( हंस) जलता है। विरह हृदय में घुलकर क्यों मुझे काट और मार रहा है ? जायसी की श्लेषार्थक शब्दावली द्वारा विविध वस्तुओं का नाम गिनाने की शैली इन पंक्तियों में भी है ।
6. मुद्रा, श्लेष और अतिशयोक्ति अलंकार ।
कुहुकि कुहुकि जसि कोइलि रोई शब्दार्थ संदर्भ-व्याख्या
कुहुकि कुहुकि जसि कोइलि रोई । रकत आंसु घुंघुची बन बोई। 1 ।
पै करमुखी नैन तन राती । को सिराव बिरहा दुख ताती । 2 ।
जहं जहं ठाढ़ि होइ बनबासी । तहं तहं होइ घुंघुचिन्ह कै रासी । 3 ।
बुंद बुंद महं जानहुं जीऊ । कुंजा गुंजि करहिं पिउ पिऊ ।
4 तेहि दुख डहे परास निपाते । लोहू बूड़ि उठे परभाते 5 ।
राते बिंब भए तेहि लोहू । परवर पाक फाट हिय गोहूं | 6 |
देखिअ जहां सोइ होई राता । जहां सो रतन कहै को बाता। 7।
ना पावस ओहि देसरें ना हेवंत बसंत ।
ना कोकिल न पपीहरा केहि
सुनि आवहि कंत ॥ 30 / 19 ॥
शब्दार्थ -
राती = लाल ।
करमुखी - काले मुंह की ।
सिराव = शीतल करे।
रासी-ढेर।
कुंजा=क्रौंच पक्षी
गुंजि= गूंजकर ।
डहे= जल गए।
परास=पलाश अथवा फरास के वृक्ष
निपाते = पत्रहीन
बूड़ि= डूब।
परवर=परवल ।
ओहि = उस ।
संदर्भ - नागमती की
विरहावस्था का वर्णन |
व्याख्या-
विरहिणी नागमती
की विरहावस्था का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि नागमती वनों में कोयल की भांति
कुहुक-कुहुक कर अर्थात् हूकें भरती हुई, रुदन करती फिर रही थी और
उसके रुधिरमय अश्रु लाल रंग की घुघचियों के रूप में चारों ओर बिखर गए थे।
विरहाग्नि में सुलगते रहने के कारण उसका मुख काला पड़ गया था जबकि उसके नेत्र तथा
शरीर लाल रंग के हो रहे थे । रक्ताश्रुओं में भीगने के कारण शरीर का लाल हो जाना
सर्वथा स्वाभाविक है। वह विरह की जिस तीव्र अग्नि में जल रही थी उसको शीतल करने
वाला कोई भी नहीं था । वह वन में जहां कहीं भी जाकर खड़ी हो जाती थी वहीं पर उसके
नेत्रों से गिरे रक्ताशुओं के कारण घुंघचियों का ढेर-सा लग जाता था, उसके आसुंओं की
एक-एक बूंद मानो जान ही टपकी पड़ रही थी, इसीलिए प्रत्येक कुंज में
से ‘पिउ-पिउ’ की अनुगूंज उठ रही थी। उसके दुःख में विदग्ध होकर पलाश-वृक्ष पत्रहीन
हो गए थे। (परास का प्रयोग फरास के वृक्ष के लिए भी माना जा सकता है, जिसको पत्ते नहीं
आते) और फिर प्रातः काल लाल-लाल पुष्पों से लदकर ऐसे प्रतीत होते थे, मानो नागमती के
रक्त में डूबने के कारण ही उनके फूल लाल रंग के हो गए हैं। बिम्बफल भी नागमती के
रुधिर में डूबकर लाल हो गए, जबकि परवल पक कर पीले पड़ गए और गेंहू का हृदय
फट गया। जिस किसी को भी और जहां कहीं भी देखिए, वही लाल दिखाई पड़ता था
अथवा नागमती जिस किसी पर भी अपनी दृष्टि डालती थी, वही लाल हो जाता था इसलिए
जहां रत्नसेन रूपी लाल विद्यमान था, वहां इस बात को जाकर कौन
कहता ?
अपने प्रियतम के वियोग
में कलपती हुई नागमती कहने लगी कि मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि मेरा प्रियतम जिस
देश में निवास कर रहा है उस देश में न तो वर्षा ऋतु होती है और न हेमंत और वसंत
ऋतु का ही अस्तित्व है। वहां पर कोयल और पपीहे भी नहीं होते। यही कारण है कि मेरे
प्राणेश्वर न तो ऋतुओं के प्रभाव-स्वरूप मुझको याद करके लौट पाते हैं और न कोयल और
पपीहे की आवाज से ही उनको यह याद आती है कि मेरी वियुक्ता पत्नी मुझको इसी प्रकार
तड़प-तड़प कर याद कर रही होगी ।
साहित्यिक सौन्दर्य -
1. वियोगियों के लिए तीन ही ऋतुएं कवियों ने अधिक संतापदायक सिद्ध की हैं- वर्षा, हेमन्त और वंसत । अतः नागमती सोचती है कि उस देश में, जहां मेरा पति निवास करता है, ये ऋतुएं होती ही नहीं हैं। इसी प्रकार कोयल और पपीहा भी बिछुड़े प्रियतम की स्मृति दिलाने के लिए प्रसिद्ध हैं। नागमती अपने अंतर्मन को यह सोचकर समाश्वासन देना चाहती है कि जब ये बातें वहां होती नहीं हैं, तो मेरे प्रियतम को मुझ वियुक्ता की स्मृति आ ही कैसे सकती है?
2. उत्प्रेक्षा अलंकार