अनुवाद तथा समतुल्यता का सिद्धांत |Principle of translation and equivalence

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अनुवाद तथा समतुल्यता का सिद्धांत

अनुवाद तथा समतुल्यता का सिद्धांत |Principle of translation and equivalence


 

अनुवाद तथा समतुल्यता का सिद्धांत :

 

पश्चिमी अनुवाद संबंधी चिंतकों ने अनुवाद के विविध पक्षों पर व्यापक विचार और विश्लेषण किया है । उन्होंने भाषागत और भाव अथवा विषयगत अंतरण दोनों पर गहराई से विचार किया । कृति का शरीर ही नहीं उसके प्राण अथवा आत्मा दोनों होते हैं । अनुवाद में दोनों का अंतरण होता है । भाषा पीछे छूट जाती हैपरंतु उसके संकेतों का वहन होता है आत्मा अथवा प्राण को नई भाषा के जरिये अनुवाद पुनःस्थापना करता है । यहाँ बिहारी लाल का दोहा स्मरण में आता है -

 

"दुखी होहुगे सरल हियबसत त्रिभंगी लाल ।

 

गलेकमरघुटनों - तीनों जगह बांकी मुद्रा वाले कृष्ण मेरे सरल (सीधे ) हृदय में कैसे खड़े होंगे उन्हें कष्ट नहीं होगा अतः मैं अपने हृदय या मन को भी वैसे वक्र बनाये हूँ । अर्थात् उनके स्थापन हेतु वैसा ही वक्र आकार निर्माण किया है ।

 

'समतुल्यताशब्द हम यहाँ गणित के शब्द का प्रयोग कर रहे हैं । वहाँ पर (=) समानता के लिए व्यवहार करते हैं । जैसे 3-2 = 2-1 को कहते हैं अनुवाद में उसी लहजे में बांयी तरफ मूल भाषा और दाहिनी तरफ लक्ष्य भाषा रख कर मिलान करते हैं । तब उसमें कम अधिक की चर्चा उठती है यह उद्देश्य बराबरी के स्तर पर नहीं यहाँ पर दिशा समान होभाव समान हो और स्तर एक जैसा हो । यहाँ गाणितिक तुलना की बात नहीं है यहाँ संदेश पहुँचाने का मामला है । केटफोर्ड और नाडा ने जो विचार रखे हैं वे अभिव्यक्ति के स्तर पर तुलनीय हैं मूल और अनुवाद की अभिव्यक्ति का भाषा तथा अर्थ के स्तर मिलान करते हैं । लेकिन नाइडा ने पाठ में निहित अर्थ को दोनों में तुलना कर देखा है उसी प्रकार शैली पर गौर करते हुए तुलना करते हैं ।

 

इसके अलावा डा. के.के. गोस्वामी ने सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भशैलीगत सौन्दर्य और पाठ की विशिष्ट भूमिका की बात उठायी है । अतः उन्हें पाश्चात्य चिंतकों का वर्गीकरण स्वीकार्य नहीं होता । वे संशोधन करते हैं । शब्दानुवादआगत शब्दशब्द निर्माणक्रम परिवर्तनरूपांतरणअनुकूलनलिप्यंतरणभावानुवाद आदि की भूमिका को स्पष्टतः स्वीकरते हैं । तदनुसार समतुल्यता की चार विभिन्न स्तरों पर विचार करने की बात उन्होंने कही हैं :

 

1. भाषापरक समतुल्यता :

 

यहाँ पर भाषा सामग्री को लेकर समतुल्यता निर्धारित होती है स्रोत भाषा की तथा लक्ष भाषा की -

 

शब्द और शब्द 

पदबंध - पदबंध 

वाक्य- वाक्य

 

इन तीनों भाषाई इकाइयों में लक्ष्य भाषा के साथ तुलना कर निष्कर्ष निकाले जाते हैं । 

सबसे छोटी इकाई 'शब्दोंकी है

 

कुछ शब्दों का अनुवाद शब्द स्तर पर समतुल्य देख सकते हैं :

 

हिंदी

 

          हिंदी  - ओड़िया

 

Office -कार्यालय-कार्यालय

 Production-उत्पादन-उत्पादन

Crowd - भीड़ -भीड़ 

Sky-आकाश-आकाश 

उपरोक्त में हिंदी और ओड़िया दोनों अनुवाद समान हैं । अंग्रेजी से दोनों भाषाओं में 'अनुवाद कैसे समतुल्य हो रहा हैयह देखने योग्य हैं ।

 

इसी प्रकार 'पदोंका रूपांतरण भी समतुल्य देखा जा सकता है -

 

              हिंदी -ओड़िया

Chief Justice -मुख्यन्यायाधीश-मुख्यन्यायाधीश

General manger-मुख्य प्रबंधक-मुख्य प्रबंधक

 Government School-सरकारी विद्यालय-सरकारी विद्यालय

Armed Forces-सैन्य बल-सैन्य बल

 Old Generation-पुरानी पीढ़ी-पुरुणा पीढ़ी

 

वाक्य स्तर पर समतुलनात्मकता विशेष महत्व रखती हैं

 

I went home -मैं घर गया 

This is his bag- यह उसका थैला है 

Dowry is not abolished in India - भारत से दहेज समाप्त नहीं हुआ ।

 

अगर मुहावरेदार वाक्य आ जाते हैं तो लक्ष्य भाषा में कई बार मिल जाते हैंकई बार उसी तरह के अन्य मुहावरों से काम चलाते हैं।

 

Mind and Matter- जड़ चेतन 

Leap and Bounds- रात दिन फलना फूलना

In long run- लंबी अवधि में

Fall in love -प्रेम करना 

To go to dogs -बरबाद होना

 

मूल भाषा के गद्यपद्यकथानाटक आदि में भी यह बात शामिल है । इनकी शैली अनूदित कृति में मिलान कर देखना होता है

 

2. शैली परक समतुल्यता : 

2) शैली परक समतुल्यता : यहाँ पर अभिव्यक्ति की शैली का महत्व है । इसे अनुवाद में मिलाया जाता है ।

 

(i) औपचारिक 

ii) अनौपचारिक 

(iii) लिखित 

iv) मौखिक 

(v) समाजिक 

vi) प्रयुक्तिपरक

 

छः शैलियाँ मुख्य मिलती हैं ये शैलियाँ हर भाषा की अपनी अपनी होती हैं । इसे लखनवी भाषा में 'अंदाजकहा जाता है । कहने का कायदा या तरीका भिन्न-भिन्न होता है । अनुवादक में लक्ष्य में समान लहजा या शैली का प्रयोग किया जाता है ।

 

उर्दू  - हिंदी 

जैसे - तशरीफ लाइए- बैठिएबिराजमान होइए

 कृपया पधारिए - Please, come in.

 

गद्य-पद्य नाटकादि की शैलियों में से यहाँ एक कविता का उदाहरण देना उचित होगा ।

 

प्रसिद्ध रुबाइयत ऊमर खय्याम / हरिवंश राय बच्चन ने उनके अंग्रेजी (फिटजिराल्ड कृत) अंश का हिंदी रूप यहाँ प्रस्तुत है :

 

With me along some strip of Herbage strow

That just divides the desert from the sown. 

While name of slave and sultan scarce is known 

and pity sultian Mahamud on his throne.

 

इस का रूपपरक समतुल्य अनुवाद (नाइडा की भाषा) यहाँ दिया जाता है 

 

"चलो चल कर बैठें उस ठौर

बिछी जिस थल मखमल - सी घास । 

जहाँ पर शस्य श्यामला भूमि 

धवल मरु के बैठी है पास

जहाँ कोई न किसी का नाथ

भूपति महमूद सिहाए भाग

जहाँ हमको यदि देखे साथ ।"

 

यहाँ पर मूललक्ष्य प्रभावोत्पादकता है इस शैली में हिंदी यह प्रदान करने में सक्षम है । एक कृति के कई तरह से अनुवाद प्रस्तुत करते हैं। शैली को लेकर यह विविधता आती है हाँ अनुवाद के अनुभवक्षमता और दृष्टि का प्रभाव भिन्न-भिन्न रूप देता है । इसी को मैथिली शरण गुप्तसुमित्रानन्दन पंतकेशव प्रसाद पाठक आदि के रूबाइयत के अनुवादों से मिला कर भिन्नता देखी जा सकती है । शैली बदल रही है मूल अर्थ और अभिव्यक्ति का आशय अक्षुण्ण रहता है । यह कविता में ज्यादा प्रयुक्त होता है । नाटक या कथा या निबंध में उतना स्पष्ट रूप नहीं बनता । क्योंकि कविता में कल्पनाशीलता बहुत अधिक होती है । भाषा में रचनाकार जितनी ऊँची उड़ान भरता हैअनुवादक को लक्ष्य में उतना ही उड़ना पड़ता है ।

 

परंतु भाषाश्रयी पाठ का अनुवाद बहुत कठिन है उपेंद्रभंज का 'वैदेहीश विलासराम कथा का रीतिशैली में रचित महाकाव्य है ये शब्द और उनके अर्थ वैचित्र्य का सौन्दर्य ओड़िया की विशेषता है । यहाँ छंद भी ओड़िया का अपना है । सिर्फ काव्य विश्वविश्रुत है। एक-एक छंद के कई अर्थ संभव हैं । उसी तरह बिहारी के दोहों में एक-एक शब्द के अर्थ बदल कर उन्हें भिन्न धरातल पर प्रस्तुत कर सकते हैं । अर्थात् भंज और बिहारी काव्य का संदेश अथवा कथ्य उनकी भाषा में पूरी तरह लिपटागुंथा है । ऐसी संश्लिष्ट जटिल और बहु स्तरीय भाषा का प्रयोग किया है कि अनुवादक एक अर्थ लेकर अनुवाद करे तो दूसरा काव्याशय छूट जाता है। ऐसे में अगर गद्यानुवाद करे तो उस शैली के किरच - किरच हो जाते हैं। सारे अलंकार और छंद के स्तर पर प्रयासों पर पानी फिर जाता है । लिप्यतरण करने पर भी (चूंकि बहुत कुछ संस्कृतनिष्ठ अघौर समास परक छंदों का प्रयोग है) पाठक के लिए संप्रेषणीय नहीं हो पाता । "Poetry cannot Be translated"

 

काव्यानुवाद संभव नहीं । अगर करता है तो वह एक नया (अनूदित भाषा का) पाठ होता है । को 'अनुवाद में दुहराया नहीं जा सकता। इस शैली से जो छंद क्षति होती हैवह अत्यंत हास्यास्पद मूल होती है मूल की गरिमागंभीरता और गहनता को अक्षुण्ण रख पाना दुरुह होता है ।

 

अनुवाद के पूरे क्षेत्र में यह रीति परक काव्य ही हर भाषा में सबसे बड़ी चुनौती होता है । सृजनतात्मक साहित्य में भारतवर्ष रामचरित मानस (तुलसीदास) और भागवत ( जगन्नाथ दास) को पाकर गौरवान्वित है । मानस के सिर्फ ओड़िया में पंद्रह से अधिक प्रकाशित अनुवाद हैं । हाल ही प्रो. राधाकांत मिश्र ने चौपाईछंद में ओड़िया में रूपांतरण किया है परंतु भागवत का हिंदी रूप अब तक सामने नहीं आया । क्योंकि यह नवाक्षरी छंद ओड़िया में सर्वाधिक ललित छंद हो गया । भागवत की भाषा का सरलतम रूपगूढ़तम दर्शन एवं ललितलीलाओं को लेकर अतीव सहज गति में बढ़ता है । इस शैली का हिंदी अनुकरण तो संभव है परंतु हिंदी में वह लालित्य और वह माधुर्य लाना संभव नहीं । अतः हर प्रयास गद्य में उलझ कर रह जाता है । इस प्रकार शैली का सागर पार कर सरलतम काव्य को एक क्षेत्र से दूसरे में पहुँचाना बहुत बड़ी चुनौती है। प्रो. राधाकांत समतुल्य ओड़िया प्रयोग से मानस को सफलता पूर्वक पहुँचा सके हैं । भागवत की शैली लाना अभी भी किसी हिंदी अनुवादक के लिए संभव नहीं हुई हम यहाँ पर भारतीय भाषा के अनुवाद में उदाहरण के रूप में ओड़िशा में अनुवाद की कुछ चर्चा कर रहे हैं ।

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