रामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा - सप्रसंग व्याख्या दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष|
रामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा - सप्रसंग व्याख्या -भाग 01
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रामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा - सप्रसंग व्याख्या दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
ब्रह्मानंद मगन कपि सब कें प्रभु दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
ब्रह्मानंद मगन कपि सब कें प्रभु पद प्रीति ।
जात न जाने दिवस तिन्ह गए मास षट बीति ॥15॥
व्याख्या-
सभी वानर अलौकिक ब्रह्मानंद -मग्न हैं। सभी के हृदयों में प्रभु श्रीराम के चरणों के प्रति प्रेम है। वे प्रभु-प्रेम में इतने अधिक आनंदमग्न हैं कि उन्हें पता ही नहीं चला कि कब छः मास बीत गए ।
अब गृह जाहु सखा सब भजेहु दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम ।
सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम ||16||
व्याख्या -
अब आप सभी लोग अपने घरों को जाइए और अटल नियम के साथ मेरी उपासना करते रहिए । मुझे सर्वव्यापी तथा सबका हितैषी समझकर मुझसे अत्यंत प्रेम करते रहना ।
जामवंत नीलादि सब पहिराए रघुनाथ जामवंत नीलादि सब पहिराए रघुनाथ
दोहा जामवंत नीलादि सब पहिराए रघुनाथ
हियँ धरि राम रूप सब चले नाइ पद माथ ||17 ( क ) ॥
तब अंगद उठिनाइ सिरु सजल नयन कर जोरि
अति बिनीत बोलेउ बचन मनहुँ प्रेम रस बोरि ॥17 ( ख ) ॥
व्याख्या -
तत्पश्चात् श्रीराम ने जामवंत, नीलादि सभी को स्वयं वस्त्राभूषण पहनाए। सुग्रीव और विभीषण को निष्कंटक राज्य दिया था, अतः भाइयों ने उनका सम्मान किया। अन्य लोगों को राज्य नहीं मिला था । अतः श्रीराम ने उनके सम्मानार्थ स्वयं वस्त्राभूषण पहनाए। सभी वानरादि श्रीराम के रूप को हृदय में धारण करके उनके चरणों में प्रणाम करके विदा हो गए।
तत्पश्चात् अंगद ने उठकर प्रमाण करके सजल नेत्रों से हाथ जोड़कर अत्यंत विनम्र वाणी में, मानों प्रेमासक्त वाणी में कहा। अंगद के कथन में आर्त भाव की व्यंजना है।
अंगद बचन बिनीत सुनि रघुपति दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
अंगद बचन बिनीत सुनि रघुपति करुना सींव
प्रभु उठाइ उर लायउ सजल नयन राजीव ॥18 ( क ) ॥
निज उर माल बसन मनि बालितनय पहिराइ ।
बिदा कीन्हि भगवान तब बहु प्रकार समुझाई ॥ 18 ( ख ) ॥
शब्दार्थ
करुना सींव = करुणा की सीमा, अत्यंत कृपालु
बसन = वस्त्र |
व्याख्या -
अंगद के विनम्र वचनों को सुनकर अत्यंत कृपालु श्रीराम ने सजल नेत्रों से उसे उठाकर छाती से लगा लिया तथा अपने वक्षस्थल की माला, वस्त्र तथा मणिजटित आभूषण अंगद को पहना दिए और अनेक प्रकार से समझा-बुझाकर उसे विदा कर दिया।
विशेष-
1. ‘निज उर माला' देने में व्यंजना यह है कि मेरी दी हुई माला को पहनने वाले का कोई अहित नहीं हो सकता। उन्होंने सुग्रीव को माला पहनाई थी, बालि ने उसकी उपेक्षा की, अतः वह श्रीराम के द्वारा मारा गया। अब यदि सुग्रीव ने अंगद को दी हुई माला की उपेक्षा की तो वह भी मारा जाएगा।
2. बहु प्रकार समुझाइ - (क) तुम्हें सेवक रूप में रखने से अपयश होगा, क्योंकि तुम्हें किष्किंधा का युवराज बना चुके हैं। (ख) युवराज - पद दिया था, वह वचन भी खाली जाएगा। (ग) माता दुःखी होगी। (घ ) अपने वस्त्र - आभूषण देकर यह प्रमाणित किया कि किष्किंधा की प्रजा अब समझ जाएगी कि राज्य का वास्तविक उत्तराधिकारी अंगद ही है, सुग्रीव के पुत्र नहीं हो सकते।
कहेहु दंडवत प्रभु मैं तुम्हहि कहउँ दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
कहेहु दंडवत प्रभु मैं तुम्हहि कहउँ कर जोरि ।
बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि ||19 ( क ) ॥
अस कहि चलेउ बालिसुत फिरि आयउ हनुमंत ।
तासु प्रीति प्रभु सन कही मगन भए भगवंत ॥19॥ ( ख ) ॥
कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि ।
चित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि ||19 ( ग ) ||
शब्दार्थ-
सुरति = स्मृति ।
कुलिसहु = वज्र से भी ( वज्र या हीरा सर्वाधिक कठोर तथा बहुमूल्य रत्न होता है) ।
कुसुमहु = पुष्प से भी।
खगेस = गरुड़ ।
व्याख्या -
अंगद ने कहा कि हे हनुमान ! मैं तुमसे करबद्ध प्रार्थना करता हूँ कि जाते ही श्रीराम से मेरा प्रणाम निवेदित कीजिएगा तथा बार-बार मेरा स्मरण दिलाते रहिएगा। यहाँ व्यंजना यह है कि शायद कभी वह द्रवित होकर अपनी शरण में वापस बुला लें। ऐसा कहकर बालिपुत्र अंगद चल पड़ा और हनुमान श्रीराम के पास वापस आ गए। हनुमान ने आते ही श्रीराम से अंगद की प्रीति का उल्लेख किया, जिसे सुनकर श्रीराम भी स्नेह-मग्न हो गए।
काग भुशुण्डि कहते हैं कि हे गरुड़! श्रीराम का चित्त वज्र से भी अधिक कठोर और पुष्प से भी अधिक कोमल है। ऐसे अद्भुत चित्त को समझना किसके लिए संभव है? अर्थात् कोई भी व्यक्ति उनके चित्त की दशा को समझने में समर्थ नहीं है।
विशेष -
श्रीराम बालि के लिए बहुत कठोर थे, उसका वध कर दिया, किंतु उसकी विनती सुनकर इतने द्रवित हुए कि उसे अमरत्व प्रदान करने की घोषणा कर दी। इसी प्रकार अंगद को वापस भेजने में कठोरता दिखाई, किंतु हनुमान द्वारा उसकी विनती सुनकर करुणा से द्रवित भी हो गए।
अलंकार -
अंतिम दोहा-प्रतीप, व्याघात तथा विरोधाभास ।
तुलनीय-
वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि ।
लोकोत्तराणां चेतांसि को हि विज्ञातुमर्हति ॥
बरनाश्रम निज निज धरम निरत बेद दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
बरनाश्रम निज निज धरम निरत बेद पथ लोग ।
चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग ॥20॥
व्याख्या-
सभी लोग वेदसम्मत वर्ण और आश्रम धर्म का पालन करते हैं तथा वेदमार्ग पर चलते हुए सदा सुखी रहते हैं। वे भय, शोक तथा रोग से मुक्त हैं।
विशेष-
तुलसीदास निगमागम पद्धति के कट्टर अनुयायी थे। वर्ण और आश्रम व्यवस्था में उनका अटूट विश्वास था। वे मानते थे कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वेदों द्वारा निर्धारित व्यवस्था का अनुसरण करने से ही सुखी रह सकते हैं तथा चार आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास) का पालन भी अनिवार्य है ।
राम राज नभगेसे सुनुं सचराचर दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
राम राज नभगेसे सुनुं सचराचर जग माहिं ।
काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं ॥21॥
शब्दार्थ
नभगेस= गरुड़
सचराचर = जड़-चेतन ।
व्याख्या -
काग भुशुण्डि कहते हैं कि हे गरुड़! सुनो! राम के राज्य में जड़-चेतन किसी भी प्राणी को काल, कर्म, स्वभाव (व्यसनादि) और गुणों से उत्पन्न दुःख व्याप्त नहीं होता है।
भूमि सप्त सागर मेखला शब्दार्थ व्याख्या विशेष
भूमि सप्त सागर मेखला। एक भूप रघुपति कोसला ॥
भुअन अनेक रोम प्रति जासू। यह प्रभुता कछु बहुत न तासू ॥
सो महिमा समुझत प्रभु केरी। यह बरनत हीनता घनेरी ॥
सोउ महिमा खेगस जिन्ह जानी। फिरि ऐहिं चरित तिन्हहुँ रति मानी ॥
सोउ जाने कर फल यह लीला। कहहिं महा मुनिबर दमसीला ॥
शब्दार्थ-
मेखला = करधनी
हीनता = तुच्छता।
दमसीला = जितेन्द्रिय |
व्याख्या -
जिस पृथ्वी के सातों समुद्र मेखला समान हैं अर्थात् जिसके चारों ओर सात समुद्र हैं, रघुवंशी अयोध्या नरेश उसके ही सम्राट् हैं। तुलसीदास के अनुसार श्रीराम केवल अयोध्या के राजा नहीं हैं, अपितु समग्र पृथ्वी के सम्राट् हैं। समस्त पृथ्वी का नरेश होना भी उनकी प्रभुता का द्योतक नहीं है, क्योंकि उनके एक-एक रोम में अनेक ब्रह्मांड स्थित हैं। उनकी इस महिमा को समझ लेने पर उन्हें केवल भूमंडल का सम्राट् बताना अत्यंत तुच्छता है। काग भुशुण्डि कहते हैं कि है गरुड़! उनकी इस महिमा को जो जान लेता है वह प्रभु की सगुण लीला से प्रेम करने लगता है। उपर्युक्त महिमा को जानने का फल है- सगुण लीला में प्रीति । तुलसीदास कहते हैं कि यह मेरी ही मान्यता नहीं है अपितु जितेन्द्रिय महामुनि भी इसका उल्लेख करते हैं ।
विशेष -
1. सप्त दीप - जम्बू, प्लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्रौंच, शाक और पुष्कर।
2. श्रीराम के रोम-रोम में अनेक ब्रह्मांड हैं, यह उनका ऐवर्श्य रूप है, सगुण लीला उनका माधुर्य रूप है। अगस्त्य, याज्ञवल्क्य, नारद, सनकादि इन्द्रियजित मुनिश्रेष्ठ उनके ऐश्वर्य रूप से परिचित हैं, फिर भी उनकी सगुण लीला का गान करते हैं। केवल ऐश्वर्य का ज्ञान होने से भव से निष्कृति संभव नहीं है। मुमुक्ष के लिए माधुर्य अवतारी लीला के प्रति प्रेम आवश्यक है।
दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज
जीत मनहिं सुनिअ अस रामचंद्र के राज ॥22॥
व्याख्या -
राजनीति के चार अंग माने गए हैं-साम, दान, दंड और भेद । राम के राज्य में कोई अपराधी नहीं था अतः किसी को दंड देने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। सामान्य जन भी दंड (डंडा) नहीं रखते थे, केवल साधुओं के हाथ में दंड (त्रिदंडी स्वामी आदि ) अवश्य दिखाई पड़ता था। इसी प्रकार राम-राज्य में भेद नीति की भी आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि उनका कोई शत्रु ही नहीं था भेद का स्वरूप नर्तक-नृत्य समाज में अवश्य दिखाई पड़ता था । विभिन्न वाद्यों की ध्वनियों में भेद रहता था तथा नृत्य-कला के भी अनेक भेद थे। उनके राज्य में किसी को जीतने की भी चर्चा नहीं सुनाई देती थी। केवल मन को जीतने (कामादि पर नियंत्रण रखने की बात अवश्य होती थी। इस प्रकार राम-राज्य में केवल दो नीतियों साम, दान का ही प्रयोग होता था ।
अलंकार—
परिसंख्या-लक्षण - जहाँ किसी वस्तु का निषेध करके पुनः उसकी उपस्थिति दिखाई जाए।
बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तब दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तब जेतनेहि काज ।
मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र के राज ॥23॥
शब्दार्थ -
बिधु = चंद्रमा ।
मयूखन्हि = किरणों से
बारिद = मेघ
व्याख्या -
श्री रामचंद्र के राज्य में पृथ्वी चंद्रमा की रश्मियों से परिपूर्ण रहती है। सूर्य आवश्यकतानुसार ही ताप विकीर्ण करता है और मेघ माँगने पर जल प्रदान करते हैं।
जासु कृपा कटाच्छु सुर चाहत चितव दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
जासु कृपा कटाच्छु सुर चाहत चितव न सोइ ।
राम पदारबिंद रति करति सुभावहि खोइ ||24|
व्याख्या -
जिनकी कृपा-कटाक्ष की आकांक्षा देवता करते रहते हैं, सीता जी उनकी ओर दृष्टिपात भी नहीं करती हैं। उनकी दृष्टि सदैव पति पर ही रहती है। यद्यपि श्री (लक्ष्मी) कहीं स्थिर नहीं रहतीं, किंतु सीता जी अपनी इस चंचलावृत्ति को छोड़कर, अपने स्वभाव को छोड़कर सदैव श्रीराम के चरण-कमलों से प्रेम करती रहती हैं। अपने ऐश्वर्य भाव को छिपाकर पति सेवा में निरत रहती हैं।
ग्यान गिरा गोतीत अज माया दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
ग्यान गिरा गोतीत अज माया मन गुन पार ।
सोइ सच्चिदानंद घन कर नर चरित उदार ॥25॥
शब्दार्थ-
गिरा = वाणी।
गोतीत इन्द्रियों से परे ।
पार=परे।
व्याख्या -
जो ब्रह्म वाणी और इन्द्रियों से परे है; अजन्मा हैं; माया, मन गुणों (सत, रज, तम) से परे है; सत् चित् और आनंद का समूह है; वही ब्रह्म उदार नर लीला कर रहा है।
विशेष -
1. गोतीत- उसका कोई रूप नहीं है, गंध नहीं है, शब्द नहीं है, रस नहीं है, शरीर नहीं है, अतः वह क्रमशः नेत्रों, नासिका, कान, जिह्वा तथा स्पर्श द्वारा नहीं जाना जा सकता
नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुषा । (कठ-2/3/12)
2. गोस्वामी जी जब-जब नर-लीला का विस्तृत वर्णन करते हैं, तब-तब पाठकों को स्मरण दिला देते हैं कि श्रीराम सामान्य नर नहीं हैं, परब्रह्म ही नर-लीला कर रहा है।
अवधपुरी बासिन्ह कर सुख संपदा दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
अवधपुरी बासिन्ह कर सुख संपदा समाज
सहस सेष नहिं कहि सकहिं जहँ नृप राम बिराज ॥26॥
व्याख्या -
जिस अयोध्या के श्रीराम स्वयं सम्राट् हैं, वहाँ के निवासियों के सुख सम्पत्ति और सामाजिक स्थिति का वर्णन सहस्त्रों शेष नाग भी नहीं कर सकते।
चारु चित्रसाला गृह गृह प्रति लिखे दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
चारु चित्रसाला गृह गृह प्रति लिखे बनाइ ।
राम चरित जे निरख मुनि ते मन लेहिं चोराइ ॥27॥
शब्दार्थ-
चित्रसाला = रंग-बिरंगे सजावट का स्थान
चारु = सुंदर।
व्याख्या -
प्रत्येक आवास में सुंदर चित्रशाला हैं, जिनमें श्रीराम का चरित्र लिखा गया है। उनकी सजावट इतनी सुंदर है, जिसे देखकर मुनियों का भी मन मुग्ध हो जाता है।
सुमन बाटिका सबहिं लगाई शब्दार्थ व्याख्या विशेष
सुमन बाटिका सबहिं लगाई। बिबिध भाँति करि जतन बनाईं ॥
लता ललित बहुजाति सुहाई । फूलहिं सदा बसंत कि नाई ॥
गुंजत मधुकर मुखर मनोहर । मारुत त्रिबिधि सदा बह सुंदर ॥
नाना खग बालकन्हि जिआए। बोलत मधुर उड़ात सुहाए ॥
शब्दार्थ -
मधुकर = भ्रमर ।
मुखर = शब्द
मारुत = पवन
त्रिबिध = शीतल, मंद, सुगंध
खग = पक्षी
जिआए = जिलाया, पालन किया।
व्याख्या -
सभी अवधवासियों ने सुंदर उपवन लगा रखा है। ये वाटिकाएँ बहुत प्रयत्नपूर्वक लगाई गई हैं। उनके साथ ही अनेक प्रकार की सुंदर लताएँ भी सुशोभित हैं, जो सदैव वसंत ऋतु के समान पुष्पित रहती हैं। उन पर भ्रमर मधुर शब्दों से गुंजार करते रहते हैं। सुंदर, शीतल, मंद सुगंध प्रवाहित होता रहता है। बच्चों ने अनेक प्रकार के पक्षियों को पाल रखा है, जिनकी बोली बहुत ही मधुर है तथा वे उड़ते समय बहुत मनोहर प्रतीत होते हैं।