रामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा - सप्रसंग व्याख्या दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष Ramchartra Manas uttarkand dohe withe explanatin Part 03
रामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा - सप्रसंग व्याख्या दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
रमानाथ जहँ राजा सो पुर दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
रमानाथ जहँ राजा सो पुर बरनि कि जाइ ।
अनिमादिक सुख संपदा रही अवध सब छाइ ॥29॥
शब्दार्थ
रमानाथ = लक्ष्मीपति
अनिमादिक = अष्ट सिद्धियाँ अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा प्राप्ति, = = प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व ।
व्याख्या -
लक्ष्मीपति ही जिस नगर के राजा हों, उसकी महिमा का वर्णन कैसे किया जा सकता है? ऐसा प्रतीत होता है कि मानों वहाँ अणिमा आदि आठों सिद्धियाँ तथा समस्त प्रकार के सुख और वैभव छावनी डालकर बस गए हों।
एहि बिधि नगर नारि नर करहिं दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
एहि बिधि नगर नारि नर करहिं राम गुन गान ।
सानुकूल सब पर रहहिं संतत कृपानिधान ॥30॥
व्याख्या -
इस प्रकार नगर के सभी स्त्री-पुरुष राम के गुणों का गान करते हैं। दयानिधि श्रीराम भी सभी लोगों पर सदैव प्रसन्न रहते हैं।
यह प्रताप रबि जाकें उर जब करइ प्रकास दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
यह प्रताप रबि जाकें उर जब करइ प्रकास
पछिले बाढ़हिं प्रथम जे कहे ते पावहिं नास ॥31॥
व्याख्या -
यह प्रताप रूपी सूर्य जिसके हृदय में जब प्रकाशित होता है, तब जिनका बाद में वर्णन किया गया (अर्थात् धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सुख, संतोष, विवेक, वैराग्य आदि उनकी वृद्धि होती है और जिनका वर्णन पहले किया गया। (अविद्या, पाप, काम, क्रोध, मत्सरादि) उनका विनाश हो जाता है।
विशेष-
यहाँ से राम-राज्य का पूर्व चरित समाप्त हो गया, अब आगे से उत्तरचरित का कथन होगा।
अलंकार - सांगरूपक ।
देखि राम मुनि आवत हरषि दंडवत दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
देखि राम मुनि आवत हरषि दंडवत कीन्ह
स्वागत पूँछ पीत पट प्रभु बैठन कहँ दीन्ह ||32||
व्याख्या -
श्रीराम ने जब सनकादि मुनियों को आते देखा तो प्रसन्नतापूर्वक उनको प्रणाम किया। फिर उनका स्वागत-सत्कार करके पीत वस्त्र बैठने के लिए दिया ।
संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ ।
कहहिं संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ ||33||
शब्दार्थ -
अपवर्ग = मोक्ष
कोबिद = विद्वान्
श्रुति = वेद ।
व्याख्या -
संतों का समागम मोक्ष-प्रदाता है और कामीजनों का संग सांसारिक प्रपंच की ओर ले जाता है। संतों, कवियों, विद्वानों, वेदों, पुराणों तथा उत्तम ग्रंथों का यही कथन है ।
अलंकार - शब्द प्रमाण ।
तुलनीय -
बिनु सत्संग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग ।
मोह गए बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग ॥
परमानंद कृपायतन मनि परिपूरन दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
परमानंद कृपायतन मनि परिपूरन काम ।
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम ॥34॥
शब्दार्थ
कृपायतन = कृपा के धाम
अनपायनी = निश्चत, अविचत ।
व्याख्या-
हे प्रभु! आप परमानंद स्वरूप हैं- 'आनंदी ब्रह्मोति व्याजानात्' (तैत्त. 3/6), कृपा के आगार हैं तथा मन से पूर्ण काम हैं अर्थात् आप में कोई इच्छा-कामना नहीं है। अतः हे प्रभु! हम चारों भाइयों को अविचल प्रेमाभक्ति प्रदान कीजिए।
बार बार अस्तुति करि प्रेम सहित दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
बार बार अस्तुति करि प्रेम सहित सिरु नाइ ।
ब्रह्म भवन सनकादि गे अति अभीष्ट बर पाइ ॥35॥
व्याख्या -
इस प्रकार श्रीराम की बार-बार स्तुति करके तथा मनोवांछित वरदान प्राप्त करके सनकादि चारों भाई श्रीराम को प्रणाम करके ब्रह्मलोक चले गए।
नाथ न मोहि संदेह कछु सपनेहुँ दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
नाथ न मोहि संदेह कछु सपनेहुँ सोक न मोह ।
केवल कृपा तुम्हारिहि कृपानंद संदोह ॥36॥
व्याख्या -
भरत जी ने कहा कि हे स्वामी! मुझे न कोई संदेह है, न शोक है और न मोह है। हे कृपानिधि ! यह केवल आपके ही अनुग्रह का प्रताप है।
विशेष -
श्रीराम ने कह दिया था कि मुझमें और भरत में कोई अंतर नहीं है। भक्त और भगवान् की इस अभेदता के कारण भरत भी पूर्ण ज्ञानी हैं। अतः उनमें शोक-मोहादि कुछ भी नहीं है- 'तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः । (यजुर्वेदसंहिता 403)
ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखंड ।
अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दंड ॥37॥
शब्दार्थ-
जग बल्लभ = संसार को प्रिय
श्रीखंड = चंदन ।
व्याख्या -
परिणामस्वरूप चंदन को देवताओं के सिर पर चढ़ाया जाता है और वह संसार को प्रिय होता है। अपने दुष्ट आचरण के कारण अग्नि में जलाया जाता है, फिर घन पर पीटा जाता है। इस प्रकार उसे दंडित कुठार किया जाता है।
अलंकार - दृष्टांत तथा सम ।
निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम शब्दार्थ व्याख्या विशेष
निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज
ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज ॥38॥
शब्दार्थ-
उभय = दोनों
सुख = आनंदमग्न ।
व्याख्या -
जिनके लिए निंदा-प्रशंसा एक समान हैं, जो मेरे चरण-कमलों के प्रति ममत्व-भाव रखते हैं, सद्गुणों के आगार हैं, सदैव आनंदमग्न रहते हैं, ऐसे संत मुझे प्राणों के समान प्रिय हैं।
पर द्रोही पर दार रत पर धन शब्दार्थ व्याख्या विशेष
पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद।
ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद ॥39॥
शब्दार्थ-
पर दार = दूसरे की स्त्री
रत = प्रेमी
अपबाद = निंदा
पाँवर =नीच
मनुजाद = राक्षस।
व्याख्या -
असंत सदैव दूसरों से द्रोह ( बैर रखते हैं, दूसरे की स्त्री और पराए धन को हड़पने का प्रयास करते हैं तथा परनिंदा में ही दत्तचित्त रहते हैं । ऐसे व्यक्ति नीच और पापी होते हैं तथा मनुष्य रूप में राक्षस ही होते हैं ।
ऐसे अधम मनुज खल कृतजुग दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
ऐसे अधम मनुज खल कृतजुग त्रेताँ नाहिं ।
द्वापर कछुक बूंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं ॥40॥
व्याख्या -
ऐसे दुष्ट और नीच व्यक्ति सत्युग तथा त्रेता में नहीं होते हैं, द्वापर में थोड़ी संख्या में पाए जाते हैं, किंतु कलियुग में झुंड के झुंड मिल जाएँगे।
सुनहु तात माया कृत गुन शब्दार्थ व्याख्या विशेष
सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक ।
गुन यह उभय न देखिअहिं देखि सो अबिबेक ॥41॥
शब्दार्थ-
गुन = लाभ।
अविवेक = अज्ञान।
व्याख्या -
श्रीराम ने कहा कि हे भ्राता ! मायाजन्य गुण और दोष असंख्य हैं। लाभ इसी में है कि दोनों पर दृष्टिपात न किया जाए। उन पर विचार करना एक प्रकार का अज्ञान ही है।
विशेष-
गुण विद्या माया कृत हैं और अवगुण अविद्या माया की उपज हैं हैं दोनों मायाकृत ही, अतः तत्वदृष्टि यही है कि प्राणी प्रभु भक्ति करे, गुण-दोषों के चक्कर में न पड़े। गुण-दोष देखने वाली वृत्ति दृष्टि का दोष है। इसी से इसे अविवेक कहा है।
अलंकार- गुन गुन- यमक ।
जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं शब्दार्थ व्याख्या विशेष
जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान ।
जे हरि कथाँ न करहिं रति तिन्ह के हिय पाषान ॥ 42॥
व्याख्या -
सनकादि मुनि जो जीवनमुक्त हैं तथा ब्रह्म परायण हैं, वे भी ध्यान त्यागकर श्रीराम का चरित-श्रवण करते हैं। ऐसी आनंदमयी प्रभु-लीला से जो प्रेम नहीं करते, उनका हृदय प्रस्तर-तुल्य है।
सो परत्र दुख पावह सिर धुनि शब्दार्थ व्याख्या विशेष
सो परत्र दुख पावह सिर धुनि धुनि पछिताइ ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ ॥ 43 |
शब्दार्थ -
परत्र ( पर + व्रत) = परलोक ।
व्याख्या-
जो इस शरीर से पुरुषार्थ-चतुष्ट्य प्राप्ति की चेष्टा नहीं करता, वह परलोक (अथवा इस लोक और परलोक) में दुःख पाता है, तथा काल, कर्म और ईश्वर को मिथ्या दोष लगाकर सिर धुन-धुन कर पछताता है। कुछ लोग काल को दोष लगाते हैं कि काल अच्छा नहीं था, समय का फेर है; कुछ लोग कहते हैं कि हमारा प्रारब्ध (संचित कर्म) अच्छा नहीं था और कुछ लोग ईश्वर को दोष देते हैं कि उसकी यही इच्छा थी। ज्योतिषी काल को, मीमांसक कर्म को और नैयायिक ईश्वर को दोषी बताते हैं। वे उपर्युक्त तीनों को मिथ्या दोष लगाते हैं; वे यह भूल जाते हैं कि जैसा कर्म किया वैसा फल पाया।
जो न तरै भव सागर नर समाज शब्दार्थ व्याख्या विशेष
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ ।।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ॥ 44
शब्दार्थ-
समाज = सामग्री, साधन ।
कृतनिंदक = कृतघ्न
आत्माहन = आत्मघाती ।
व्याख्या -
जो व्यक्ति ऐसे साधन पाकर भी संसार सागर से पार जाने का प्रयास नहीं करता, वह कृतघ्न और मूर्ख है तथा उसे आत्मघाती अथवा आत्महत्या करने वाले की गति प्राप्त होती है ।
तुलनीय
श्रीमद्भागवत में भी कहा गया है
नृदेहमाधं सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरु कर्णधारम् ।
मयानुकूलेन नमस्वतेरितं पुमान् भवाव्यिं न तरेत् स आत्मा (श्रीमद्भागवत - 11/20/17)
और एक गुप्त मत सबहि कहउँ दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
औरउ एक गुप्त मत सबहि कहउँ कर जोरि
संकर भजन बिना न भगति न पावइ मोरि ||45||
व्याख्या -
भगवत्प्राप्ति के लिए प्रथम शर्त है- सत्संग। इसका उल्लेख किया जा चुका है। सत्संग के अतिरिक्त राम-भक्ति की सुलभता की एक अन्य शर्त भी है, और वह है- शिव की भक्ति । इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए श्रीराम कहते हैं कि मैं हाथ जोड़कर एक रहस्य का उल्लेख और देना चाहता हूँ। शिव की उपासना के बिना कोई भी व्यक्ति मेरी भक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता।
विशेष
यहाँ शिव-विष्णु की अद्वैतता का प्रतिपादन किया गया है। वस्तुतः मध्यकाल में शैवों और वैष्णवों में काफी विरोध बढ़ गया था प्रायः दोनों में संघर्ष होते रहते थे। तुलसीदास ने इस विवाद को समाप्त करने के लिए शिव-विष्णु में अविरोध-भाव का प्रतिपादन किया है। राम कथा के प्रथम वक्ता शिव हैं ही, मानस में अनेक स्थानों पर दोनों की अभिन्नता की, चर्चा की गई है, यथा
1. बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू राम भगत कर लच्छन एहू ॥
सिवपद कमल जिन्हहिं रति नाहीं । रामहिं ते सपनेहु न सोहाहीं ॥
2. इच्छित फल बिनु सिव अवराधे। लहिय न कोटि जोग जप साधे ।
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी ॥
3. संकर बिमुख भगति चह मोरी । सो नारकी मूढ़ मति थोरी ॥
4. सिव द्रोही मम दास कहावा । सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा ॥
मम गुन ग्राम नाम रत गत शब्दार्थ व्याख्या विशेष
मम गुन ग्राम नाम रत गत ममता मद मोह ।
ता कर सुख सोइ जानइ परानंद संदोह || 46 ॥
शब्दार्थ-
गुन ग्राम = गुणों का समूह।
रत = ध्यानमग्न
परानंद = वह आनंद जो सबसे परे है अर्थात्
व्याख्या-
जो व्यक्ति मेरे गुणों तथा नाम-जप में सदा लीन रहता है और ममत्व अहंकार तथा मोह का पूर्ण रूपेण परित्याग कर चुका है, वही पूर्णानंद का अनुभव कर सकता है। वह ऐसा सुख है जो अनिर्वचनीय है, अर्थात् उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
उमा अवधबासी नर नारि शब्दार्थ व्याख्या विशेष
उमा अवधबासी नर नारि कृतारथ रूप
ब्रह्म सच्चिदानंद घन रघुनायक जहँ भूप ॥47॥
व्याख्या -
शिव जी कहते हैं कि हे पार्वती ! अवध के स्त्री-पुरुषों का जीवन कृतार्थ है, धन्य है क्योंकि उन्हें श्रीराम की भक्ति सुलभ हो गई है, जो मोक्ष से बढ़कर है। अवधवासियों के कृतार्थ होने का वास्तविक कारण यह है कि जो ब्रह्म सत्, चित् और आनंद का समूह है, वही अवध का राजा है ।
तब मैं हृदयँ बिचारा जोग जग्य व्रत शब्दार्थ व्याख्या विशेष
तब मैं हृदयँ बिचारा जोग जग्य व्रत दान ।
जा कहुँ करिअ सो पैहउँ धर्म न एहि सम आन ॥48॥
व्याख्या -
तब मैंने ह्रदय में विचार किया कि जिस परमात्मा की प्राप्ति के लिए योग, यज्ञ, जप, दान आदि किए जाते हैं, मुझे उसका सान्निध्य लाभ होगा। अतः इस पौरोहित्य कर्म के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है।
नाथ एक बर मागउँ राम कृपा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
नाथ एक बर मागउँ राम कृपा करि देहु ।
जन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु ||49||
व्याख्या -
इसी प्रेमाभक्ति की याचना करते हुए वशिष्ठ मुनि श्रीराम से कहते हैं कि हे नाथ! मैं आपसे एक ही वरदान माँगता हूँ । हे राम! आप कृपा करके ऐसा वरदान दीजिए जिससे जन्म-जन्मांतर में आपके चरण-कमलों के प्रति स्नेह कभी कम न हो अर्थात् आपके चरणों में अविचल प्रीति सदैव बनी रहे ।