रामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा - सप्रसंग व्याख्या दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
‘श्रीरामचरितमानस' में तुलसीदास
महाकवि तुलसीदास एक उत्कृष्ट कवि ही नहीं, महान लोकनायक और तत्कालीन समाज के दिशा-निर्देशक भी थे। इनके द्वारा रचित महाकाव्य 'श्रीरामचरितमानस' भाषा, भाव उद्देश्य, कथावस्तु, चरित्र-चित्रण तथा संवाद की दृष्टि से हिन्दी साहित्य का एक अद्भुत ग्रन्थ है। इसमें तुलसी के कवि, भक्त एवं लोकनायक रूप का चरम उत्कर्ष दृष्टिगोचर होता है। ‘श्रीरामचरितमानस' में तुलसीदास ने व्यक्ति, परिवार, समाज, राज्य, राजा, प्रशासन, मित्रता, दाम्पत्य एवं भ्रातृत्व आदि का जो आदर्श प्रस्तुत किया है, वह सम्पूर्ण विश्व के मानव समाज का पथ-प्रदर्शन करता रहा है। ‘विनयपत्रिका' ग्रन्थ में ईश्वर के प्रति इनके भक्त हृदय का समर्पण दृष्टिगोचर होता है। इसमें एक भक्त के रूप में तुलसी ईश्वर के प्रति दैन्यभाव से अपनी व्यथा-कथा कहते हैं।
गोस्वामी तुलसीदास की काव्य-प्रतिभा का सबसे विशिष्ट पक्ष
यह है कि ये समन्वयवादी थे। उन्होंने 'श्री रामचरितमानस' में राम को शिव का और शिव को राम का भक्त प्रदर्शित कर
वैष्णव एवं शैव सम्प्रदायों में समन्वय के भाव को अभिव्यक्त किया। निषाद एवं शबरी
के प्रति राम के व्यवहार का चित्रण कर समाज की जातिवाद पर आधारित भावना की
निस्सारता (महत्त्वहीनता) को प्रकट किया और ज्ञान एवं भक्ति में समन्वय स्थापित
किया ।
रामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा - सप्रसंग व्याख्या
तुलसीदास विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न तथा लोकहित एवं समन्वय
भाव से युक्त महाकवि थे। भाव-चित्रण, चरित्र-चित्रण एवं लोकहितकारी आदर्श के चित्रण की दृष्टि से
इनकी काव्यात्मक प्रतिभा का उदाहरण सम्पूर्ण विश्व - साहित्य में भी मिलना दुर्लभ
है।
'श्रीरामचरितमानस', 'विनयपत्रिका', 'कवितावली', 'गीतावली', 'श्रीकृष्णगीतावली 'दोहावली', 'जानकी-मंगल', 'पार्वती-मंगल', 'वैराग्य-सन्दीपनी' तथा 'बरवे रामायण आदि।
रामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा - सप्रसंग व्याख्या -भाग 01
रहा एक दिन अवधि कर दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
रहा एक दिन अवधि कर अति आरत पुर लोग ।
जहँ तहँ सोचहिं नारि नर कृस तन राम बियोग ॥1॥
शब्दार्थ -
अवधि = सीमा, मीआद।
आरत = आर्त, व्याकुल
कृस = दुर्बल।
व्याख्या -
श्रीराम के चौदह वर्ष के
वनवास की अवधि का अब एक दिन ही शेष रह गया है। अतः अयोध्यावासी स्त्री-पुरुष
अत्यंत व्याकुल हैं और श्रीराम के वियोग में उनका शरीर दुर्बल हो गया है। वे
जहाँ-तहाँ एकत्र होकर चिंतामग्न हैं।
विशेष -
1. नगरवासी यही सोचते हैं कि आज श्रीराम के वनवास की अवधि पूर्ण होने का अंतिम दिन है, अतः आज उन्हें वापस आ जाना चाहिए।
2. चौदह वर्ष वनवास की अवधि
कब पूर्ण हुई थी, इस पर विद्वानों में
मतभेद है। एक मत से अवधि चैत्र मास में पूर्ण हुई थी। वाल्मीकि के अनुसार श्रीराम
ने चतुर्थी को किष्किंधा में रहकर पंचमी को वहाँ से प्रस्थान किया था और चौदहवाँ
वर्ष पूर्ण होने पर पंचमी तिथि को भारद्वाज आश्रम में पहुँचे थे
पूर्ण चतुर्दशे वर्षे पच्चभ्यां लक्ष्मणाग्रजः ।
भरद्वाजाश्रमं प्राप्य ववन्दे नियतो मुनिम् ॥ ( युद्धकाण्ड, 124वां सर्ग)
अध्यात्मरामायण के अनुसार भी 14वां वर्ष पूर्ण होने पर पंचमी तिथि को भारद्वाज मुनि का दर्शन कर उन्हें भाई सहित प्रणाम किया
पूर्णे चतुर्दशे वर्षे पच्चभ्यां रघुनन्दनः ।
भरद्वाजं मुनिं दृष्ट्वा ववन्दे सानुजः प्रभुः ॥ ( युद्धकाण्ड, चतुर्दश सर्ग)
3. वाल्मीकि जी वनवास का प्रारंभ राम के जन्मदिन से ही मानते हैं। कुछ लोगों का अनुमान है कि यदि चौदह वर्ष चैत्र में ही उसी तिथि पर पूर्ण न होते हो वे अंत में मास का नाम अवश्य देते, क्योंकि यह चरित उनके समय का है।
सगुन होहिं सुंदर सकल मन प्रसन्न सब केर दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
सगुन होहिं सुंदर सकल मन प्रसन्न सब केर ।
प्रभु आगवन जनाव जनु नगर रम्य चहूँ फेर ॥2॥
शब्दार्थ-
आगवन = आगमन ,आना
रम्य = सुन्दर
फेर = दिशा, ओर
व्याख्या -
सभी लोगों को शुभ शकुन की अनुभूति हो रही है, सभी का मन प्रसन्न है (
प्रसन्नता का भाव कार्य सिद्धि का सूचक होता है), उन्हें ऐसा प्रतीत हो रहा है कि ये शुभ शकुन
प्रभु श्रीराम के आगमन के सूचक हैं। पूरा नगर सुंदर दिखाई पड़ रहा है। ऐसा प्रतीत
होता है कि वह भी प्रभु के आगमन का सूचक है। श्रीराम के अयोध्या से चले जाने के
पश्चात् पूरा नगर भयानक प्रतीत हो रहा था-
"लागति अवध भयावनि भारी
मानहु कालराति अंधियारी ॥'
(अयोध्याकाण्ड, 83/5)
अब श्रीराम के आगमन को जानकर मानों अवध रमणीक हो गया है
अलंकार - दूसरे चरण में उत्प्रेक्षा ।
कौसल्यादि मातु सब मन अनंद अस होइ दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
कौसल्यादि मातु सब मन अनंद अस होइ
आयउ प्रभु श्री
अनुज जुत कहन चहत अब कोई ॥3॥
शब्दार्थ -
श्री = सीता जी
जुत( युक्त) = साथ ।
व्याख्या
श्री कौसल्यादि सभी माताओं के मन में ऐसा आनंद हो रहा है कि अब कोई यह कहना ही चाहता है कि श्रीराम जी और सीता जी लक्ष्मण के साथ आ गए।
विशेष-
आयउ प्रभु यह संदेश कहने वाले के वचन हैं, कौसल्यादि के नहीं, क्योंकि उनके मन में श्रीराम के प्रति वात्सल्य भाव था।
तुलनीय -
गीतावली में इस प्रसंग का अत्यंत मनोरम और शकुन
सूचक वर्णन है
क्षेमकरी बलि बोलि सुवानी।
कुसलक्षेम सियराम लपन कब ऐ, अब अवध रजधानी ॥
ससिमुख कुंकुम बरनि सुलोचनि मोचनि सोचनि बेद बखानी ।
देवि दया करि देहि दरसफल जोरि पानि बिनवहिं सब रानी ॥
सुनि सनेहमव वचन निकट है मंजुल मंडल के मंडरानी।
सुभ मंगल आनंद गगन धुनि अकनि उर जरनि जुड़ानी ॥
फरकन लगे सुअंग बिदिस दिसि मन प्रसन्न दुख दसा सिरानी ।
करहिं
प्रनाम सप्रेम पुलकि तनु मानि बिबिध बलि सगुन सयानी ॥
भरत नयन भुज दच्छिन फरकत दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
भरत नयन भुज दच्छिन फरकत बारहिं बार ।
जानि सगुन मन हरष अति लागे करन बिचार ॥4॥
शब्दार्थ
भुज = भुजा
व्याख्या -
भरत जी का दाहिना नेत्र और दक्षिण भुजा बारंबार फड़कते हैं। इसे शुभ शकुन समझकर उनके मन में अपार हर्ष हुआ और वे विचार करने लगे ।
विशेष -
1. पुरुष के दाहिने अंगों का फड़कना शुभ माना जाता है। यहाँ तीन प्रकार के शकुन दिखाए गए हैं- पुरवासियों को प्रत्यक्ष, माताओं को मानसिक और भरत को कायिक ।
2. श्रीराम के वनवास की अवधि पूर्ण होने में केवल डेढ़ पहर शेष रह गया है। इसी कारण सभी अवधवासी 'अति आरत' होकर चिंतामग्न हैं, किंतु इसी समय होने वाले शुभ शकुन उनमें आशा का संचार करते हैं।
राम बिरह सागर महँ दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत ।
बिप्र रूप धरि पवन सुत आइ गयउ जनु पोत ॥1 ( क ) ॥
शब्दार्थ-
मगन = डूबना
पोत= जहाज या नौका।
व्याख्या -
इस प्रकार श्रीराम के विरह रूपी समुद्र में भरत
का मन डूब रहा था। उसी समय विप्र रूप में हनुमान जी आ गए, मानों डूबते व्यक्ति को
सहारा देने के लिए जहाज पहुँच गया हो।
अलंकार
पहली पंक्ति रूपक, दूसरी पंक्ति उत्प्रेक्षा । -
बैठे देखि कुसासन जटा मुकुट दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
बैठे देखि कुसासन जटा मुकुट कृस गात ।
राम राम रघुपति
जपत स्त्रवत नयन जलजात ॥ 1
( ख ) ॥
शब्दार्थ -
कृस ( कृश) = दुर्बल
गात = शरीर
स्त्रवत = प्रेमाश्रुप्रवाह ।
जलजात = कमल ।
व्याख्या -
हनुमान ने देखा कि भरत जी कुशासन पर बैठे हैं, सिर पर जटाओं का मुकुट है, श्रीराम के वियोग में
उनका शरीर दुर्बल हो गया है। वह निरंतर 'राम राम' का कर जप रहे हैं और उनके कमल के समान नेत्रों से
अश्रुप्रवाह हो रहा है।
विशेष-
श्रीराम वन में कुशासन पर ही बैठते थे, सिर पर जटाओं का मुकुट था
भरत की भी वहीं स्थिति है,
केवल एक अंतर है- श्रीराम
के वियोग में उनका शरीर सूख गया है।
अलंकार -
स्त्रवत नयन जलजात परिणाम |
तुलनीय -
1. वाल्मीकि रामायण में भी
भरत की दशा का इसी प्रकार वर्णन मिलता है। हनुमान ने देखा कि
ददर्श भरतं दीनं कृशमाश्रमवासिनं ।
जटिलं मलदिग्धाङ्गं भ्रातृव्यसनकर्शितम् ॥
फलमूलाशिनं दान्तं तापसं धर्मचारिणम्।
समुन्नतजटाभारं वल्कलाजिनवाससम् ॥ ( युद्धकाण्ड, 125वां सर्ग)
2. अध्यात्मरामायण के अनुसार भी हनुमान ने अयोध्या से एक कोस की दूरी पर नन्दिग्राम में इसी रूप में भरत को बैठे हुए देखा
क्रोशमात्रे त्वयोध्यायाश्चीर कृष्णाजिनाम्बरम्
ददर्श भरतं दीनं कृशमाश्रमवासिनम् ॥
मलपङ्कविदिग्धाङ्गं जटिलं वल्कलाम्बरम्
फलमूलकृताहारं रामचिन्तापरायणम् ॥ (युद्धकाण्ड, चतुर्दश सर्ग)
राम प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचनदोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
दोहा
राम प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचन मम तात ।
पुनि पुनि मिलत भरत सुनि हरष न हृदयँ समात ॥ 2 (क)॥
सोरठा-
भरत चरन सिरु नाइ तुरित गयउ कपि राम पहिं ।
कही कुसल सब जाइ हरिषि चलेउ प्रभु जान चढ़ि ॥2 (ख) ॥
शब्दार्थ -
जान (सं. यान) = पुष्पक विमान ।
व्याख्या -
हनुमान ने कहा कि हे तात! तुम श्रीराम को प्राणों के समान प्रिय हो । मेरा वचन
पूर्णतः सत्य है। हनुमान के ऐसे उद्गार सुनकर भरत के हृदय में हर्ष समा नहीं रहा
है। वह प्रेम तथा कृतज्ञता से वशीभूत होकर हनुमान का पुनः पुनः आलिंगन करते हैं।
तत्पश्चात् हनुमान भरत के चरणों में प्रणाम करके तत्काल
श्रीराम के पास चले गए। वहाँ जाकर उन्होंने भरत का समग्र कुशल वृत्तांत निवेदित
किया, जिसे सुनकर प्रभु राम ने
प्रसन्न होकर पुष्पक विमान पर चढ़कर अयोध्या के लिए प्रस्थान किया।
हरषित गुर परिजन अनुज दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
हरषित गुर परिजन अनुज भूसुर बूंद समेत ।
चले भरत मन प्रेम अति सन्मुख कृपानिकेत 13 ( क ) ॥
बहुतक चढ़ीं अटारिन्ह निरखहिं गगन बिमान ।
देखि मधुर
सुर हरषित करहिं सुमंगल गान ॥ ( ख ) ॥
शब्दार्थ-
परिजन = कुटुंबीजन।
भूसुर = ब्राह्मण
वृंद = समूह।
कृपानिकेत = दया के धाम ।
व्याख्या -
गुरु वशिष्ठ, कुटुम्बीजन, अनुज (शत्रुघ्न) तथा ब्राह्मण ऋषि वृन्द आदि परम प्रसन्न हैं। उन सबके साथ अत्यंत प्रेमपूर्वक श्रीभरत जी दयानिधि प्रभु राम के स्वागत के लिए चले ।
बहुत-सी स्त्रियाँ जो बाहर निकलने में संकोच करती थीं, वे महलों की अटारियों पर चढ़कर आकाश में विमान को देख रही हैं। जब उन्हें विमान दिखाई दिया तो हर्षित होकर मधुर स्वर में मंगलगीत गाने लगीं। स्त्रियाँ अटारियो पर हैं, अतः उनको विमान पहले दिखाई पड़ा।
राका ससि रघुपति पुर सिंधु दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
राका ससि रघुपति पुर सिंधु देखि हरषान ।
बढ़यो कोलाहल करत जनु नारि तरंग समान ॥ 3 (ग)॥
शब्दार्थ -
राका ससि = पूर्णिमा का चंद्रमा
सिंधु = सागर
तरंग = लहर
व्याख्या -
श्रीराम पूर्णिमा के चंद्र हैं और अयोध्या
समुद्र है। अयोध्या रूपी सागर श्रीराम रूपी चंद्रमा को देखकर हर्षित हुआ। (
पूर्णिमा तिथि को समुद्र में ज्वार-भाटा आता है, तब उसमें ऊँची-ऊँची तरंगें उठती हैं)। यहाँ नगर
की स्त्रियाँ तरंग के समान हैं, वे मधुर गीत गा रही हैं, जिससे प्रतीत होता है कि मानों समुद्र ही कोलाहल (शब्द)
करता हुआ बढ़ रहा है।
विशेष-
1. चंद्रमा की उत्पत्ति सिंधु से हुई थी और श्रीराम अयोध्या में प्रकट हुए थे। अतः श्रीराम को चंद्रमा कहा गया है।
2. पूर्णिमा चौदह दिनों के बाद आती है और श्रीराम चौदह वर्षों के बाद आ रहे हैं।
3. चंद्रमा प्राची (पूर्व) दिशा में उदित होता है। यहाँ व्यंजना यह है कि श्रीराम भी अयोध्या की पूर्व दिशा में आ गए।
अलंकार -
1. पहली पंक्ति समअभेद रूपक 2. जनु नारि तरंग समान वस्तुत्प्रेक्षा
आवत देखि लोग सब कृपासिंधु दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
आवत देखि लोग सब कृपासिंधु भगवान ।
नगर निकट प्रभु प्रेरेउ उतरेउ भूमि बिमान ||4 ( क ) ॥
उतरि कहेउ प्रभु पुष्पकहि तुम्ह कुबेर पहिं जाहु ।
प्रेरित राम चलेउ सो हरषु बिरहु अति ताहु ||4 ( ख ) ॥
व्याख्या -
जब दया के सागर भगवान राम ने देखा कि अवधवासी उनका स्वागत करने के लिए आ रहे हैं, तब उन्होंने नगर के समीप ही पुष्पक विमान को भूमि पर उतरने की प्रेरणा (आज्ञा ) दी। उनकी आज्ञानुसार विमान भूमि पर आ गया।
पुष्पक यान से उतरकर प्रभु ने उससे कहा कि अब तुम कुबेर के
पास जाओ। श्रीराम की प्रेरणा (आज्ञा ) से वह अपने स्वामी कुबेर के पास चला। उस समय
उसे हर्ष तथा वियोगजन्य दुःख, दोनों का अनुभव हो रहा था।
विशेष -
1. श्रीराम ने पुष्पक विमान विभीषण को वापस नहीं किया, उसे कुबेर के पास भेज दिया। वस्तुतः यह यान कुबेर का ही था, जिसे रावण छीन लाया था। अतः नियमतः उस पर कुबेर का ही अधिकार था।
2. हरषु बिरहु अति ताहु-विमान बहुत समय के अंतराल के बाद अपने स्वामी के पास जा रहा है, अतः उसे हर्ष हुआ। किंतु श्रीराम से उसका वियोग हो रहा है, अतः उसे दुःख भी हुआ।
अलंकार -
यहाँ प्रथम समुच्चय अलंकार है, क्योंकि विमान को हर्ष व शोक एक ही साथ हुए हैं।
तुलनीय -
अध्यात्मरामायण के अनुसार भी राम के आदेश से ही विमान कुबेर के पास गया था
अब्रवीत्पुष्पकं देवो गच्छ वैश्रवणं वह ।
अनुगच्छानुजानामि कुबेरं धनपालकम् ॥( युद्धकाण्ड, चतुर्दश सर्ग)
पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन भेंटे हृदयँ दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन भेंटे हृदयँ लगाइ ।
लछिमन
भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ ॥ 5 ॥
व्याख्या -
भरत जी से भेंट करने के पश्चात् श्रीराम ने प्रसन्नतापूर्वक शत्रुघ्न को हृदय से लगाकर आलिंगन किया। जब श्रीराम, भरत और शत्रुघ्न दोनों से मिल चुके, तब लक्ष्मण और भरत दोनों भाई प्रेमपूर्वक मिले।
भेटेउ तनय सुमित्रा दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
भेटेउ तनय सुमित्रा राम चरन रति जानि ।
रामहि मिलत कैकई हृदयँ बहुत सकुचानि ॥6 ( क ) ॥
लछिमन सब मातन्ह मिलि हरषे आसिष पाइ
कैकई कहँ पुनि-पुनि मिले मन कर छोभु न जाइ ॥6 ( ख ) ||
शब्दार्थ -
तनय = पुत्र
रति = प्रेम
छोभु (सं. क्षोभ ) =
व्याकुलता, खेद ।
व्याख्या -
सुमित्रा माता लक्ष्मण को राम का प्रेमी समझकर
मिलीं, केवल पुत्र समझकर नहीं।
कैकेयी श्रीराम से मिलीं,
किंतु भेंट करते समय उनके
हृदय में बहुत संकोच हो रहा है। वह सोचती हैं कि मेरे कारण ही इनको वनवास का दुःख
झेलना पड़ा। पुनः लक्ष्मण सभी माताओं से मिले और उनका आशीर्वाद प्राप्त करके
प्रसन्नता का अनुभव किया। वह कैकेयी से बार-बार मिलते हैं, किंतु उनके मन का खेद
अथवा व्याकुलता समाप्त नहीं होती है।
विशेष -
1. सुमित्रा ने लक्ष्मण को रामचरणानुरक्त समझकर भेंट किया। भाव यह है कि उनमें पुत्र के प्रति ममत्व की अपेक्षा उनके राम भक्त होने के कारण अधिक प्रसन्नता है।
2. मन कर छोभु न जाइ - यह
पंक्ति दोनों के लिए हो सकती है। कैकेई के मन का क्षोभ नहीं जाता है अथवा लक्ष्मण
के मन का क्षोभ नहीं जाता है।
लक्ष्मण के पक्ष में यह कहा जा सकता है कि वह कैकेयी से
बार-बार मिलते हैं, किंतु यह स्मरण करके कि
उनके कारण ही श्रीराम को वन जाना पड़ा, उनके दुःख का शमन नहीं होता है। लक्ष्मण ने कैकेयी को
कटुवचन कहा था, अतः अपने मन का क्षोभ
मिटाने के लिए वह उनसे बार-बार मिलते हैं।
कैकेयी को राम को वनवास देने का क्षोभ था, अतः उनका क्षोभ मिटाने के लिए लक्ष्मण उनसे बार-बार मिलते हैं।
3. यहाँ लक्ष्मण के चरित्र का अत्यंत सूक्ष्म एवं मनोवैज्ञानिक
ढंग से चित्रांकन हुआ है। महाकाव्य में किसी भी पात्र के चरित्र-निरूपण में यह
ध्यान रखना पड़ता है कि उसमें जिस भाव का उदेक दिखाया जाए, क्रमशः उसका विकास, ह्रास और फिर शमन भी
दिखाया जाए। लक्ष्मण में कैकेयी के प्रति शृंगवेरपुर में जिस भाव का उद्रेक होता
है, चित्रकूट में उसका
उत्कर्ष दिखाई पड़ता है और उत्तरकाण्ड में शमन ।
दोहा लछिमन अरु सीता सहित दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
दोहा लछिमन अरु सीता सहित प्रभुहि बिलोकति मातु
परमानंद मगन मन पुनि पुनि पुलकित गातु ॥17॥
व्याख्या -
इसके पूर्व कहा गया था कि माता कौसल्या श्रीराम
को बार-बार देखती है; किंतु किसी को यह संदेह न
हो कि माता का ममत्व केवल राम के प्रति है, अतः कवि पुनः स्पष्ट करता है कि माता कौसल्या लक्ष्मण और
सीता सहित श्रीराम को बार-बार देखती हैं और प्रत्येक बार उनका शरीर प्रेम से
रोमांचित हो जाता है तथा मन परमानंद में डूबा हुआ है।
नारि कुमुदिनीं अवध सर रघुपति दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
नारि कुमुदिनीं अवध सर रघुपति बिरह दिनेस ।
अस्त भएँ बिगसत भई निरखि राम राकेस 19 ( क ) ॥
होहिं सगुन सुभ विविधि विधि बाजहिंक गगन निसान।
पुर नर नारि सनाथ करि
भवन चले भगवान ||9 ( ख ) ॥
शब्दार्थ-
सर = तालाब
दिनेस = सूर्य ।
राकेस = पूर्ण चंद्र
निसान = नगाड़ा।
सनाथ = कृतार्थ ।
व्याख्या -
अयोध्या रूपी सरोवर की स्त्रियाँ
रूपी कुमुदिनी श्रीराम के विरह रूपी सूर्य के अस्त होने पर श्रीराम रूपी पूर्ण
चंद्र को देखकर विकसित (प्रसन्न ) हो गई। इस समय अनेक प्रकार के मंगल सगुन हो रहे
हैं, आकाश में देवता वृंद
नगाड़े बजा रहे हैं। इस प्रकार नगर के स्त्री-पुरुषों को कृतार्थ करके प्रभु
श्रीराम महल को चले।
विशेष -
1. राजतिलक के समय देवता दुःखी थे, क्योंकि उन्हें चिंता थी कि यदि राम वन न गए तो राक्षसों का विनाश कैसे होगा? इसीलिए- 'तिन्हति सोहाव न अवध-बधावा। किंतु अब उनका कार्य संपन्न हो गया है, अतः वे प्रसन्न हैं और नगाड़े बजा रहे हैं।
2. श्रीराम के बन जाने पर पुरवासी अनाथ हो गए थे, अब उनके वापस आने पर वे फिर से 'सनाथ' हो गए हैं।
अलंकार - पहला दोहा-सांगरूपक ।
तब मुनि कहेउ सुमंत्र सन सुनत शब्दार्थ व्याख्या विशेष
तब मुनि कहेउ सुमंत्र सन सुनत चलेउ हरषाइ ।
रथ अनेक बहु बाजि गज तुरत सँवारे जाइ ||10 (क)
जहँ तहँ धावन पठइ पुनि मंगल द्रव्य मगाइ ।
हरष समेत
बसिष्ट पद पुनि सिरु नायउ आइ ||10 ( ख ) ॥
शब्दार्थ-
बाजि = अश्व
सँवारे = सजाया।
धावन = शीघ्रगामी व्यक्ति ।
व्याख्या -
तब वशिष्ठ मुनि ने सुमंत्र से राज्याभिषेक की सभी तैयारियाँ
यथाशीघ्र संपन्न करने के लिए कहा। सुमंत्र प्रसन्नतापूर्वक चले और अनेक प्रकार के
रथों, अश्वों और हाथियों को
सजाया तथा यत्र-तत्र शीघ्रगामी व्यक्तियों को भेजकर राज्याभिषेक के अवसर पर
प्रयुक्त होने वाले मांगलिक पदार्थों को मँगवाकर वापस आ गए और प्रसन्नतापूर्वक
वशिष्ठ मुनि का अभिवादन किया।
सासुन्ह सादर जानकिहि मज्जन दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
सासुन्ह सादर जानकिहि मज्जन तुरत कराइ
दिब्य बसन बर भूपन अँग अँग सजे बनाइ ॥11 (क)॥
राम बाम दिसि सोभति रमा रूप गुन खानि ।
देखि मातु सब हरषीं जन्म सुफल निज जानि॥11 (ख)
शब्दार्थ -
मज्जन = स्नान
बसन = वस्त्र
बर = श्रेष्ठ
रमा = लक्ष्मी; यहाँ तात्पर्य है - सीता ।
व्याख्या-
एक ओर श्रीराम, उनके अनुजों तथा सखाओं
आदि को स्नानादि कराकर तैयार किया जा रहा है, उधर उसी समय माताओं (सासुओं) ने सीता जी को आदरपूर्वक स्नान
कराया तथा दिव्य वस्त्र एवं श्रेष्ठ आभूषण उनके अंग-अंग में पहनाया । इस प्रकार
पूर्ण शृंगार करके रूप और गुण की खान सीता जी श्रीराम के बायीं ओर सुशोभित हुईं।
यह देखकर सभी माताओं ने अपना जन्म कृतार्थ समझकर प्रसन्नता का अनुभव किया।
विशेष-
सीता जी को सोलहों श्रृंगार कराए गए हैं और बारहों आभूषण पहनाए गए हैं।
भारतीय परंपरा में 16 श्रृंगार और 12 आभूषण मान्य हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं
1. सोलह श्रृंगार - अंगों में
उबटन लगाना, स्नान करना, स्वच्छ वस्त्र धारण करना, केश सज्जा करना, काजल लगाना, माँग सँवारना, सेंदुर लगाना, महावर देना, भाल पर तिलक लगाना, चिबुक पर तिल बनाना, मेहंदी लगाना, अरगजा आदि सुगंधित
वस्तुओं का प्रयोग करना, आभूषण पहनना, पुष्प माला धारण करना, पान खाना तथा मिस्सी लगाना
।
2. बारह आभूषण -
नूपुर, किंकिणी, चूड़ी, अँगूठी, कंकण, बिजायठ, हार, कंठश्री, बेसर, बिरिया, टीका, शीशफूल।
सुनु खगेस तेहि अवसर ब्रह्मा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
सुनु खगेस तेहि अवसर ब्रह्मा सिव मुनि वृंद ।
चढ़ि विमान आए सब सुर देखन सुखकंद 11 (ग)
शब्दार्थ -
खगेस = पक्षिराज गरुड़ ।
सुखकंद=1. आनंद के मूल, 2. आनंद रूपी मेघ ।
व्याख्या -
काग भुशुण्डि कहते हैं- हे पक्षिराज ! सुनिए। उस समय ब्रह्मा, शिव मुनि वृंद तथा सभी देवता विमानों पर चढ़कर आनंद के मूल अथवा आनंद की वर्षा करने वाले श्रीराम का दर्शन करने आए।
वह सोभा समाज सुख कहत न बनइ खगेस दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
वह सोभा समाज सुख कहत न बनइ खगेस ।
बरनहिं सारद सेष श्रुति सो रस जान महेस 12 (क)
शब्दार्थ -
खगेस = गरुड़
सारद = शारदा, सरस्वती
श्रुति = वेद ।
व्याख्या -
काग भुशुण्डि कहते हैं कि हे गरुड़! श्री राम
जानकी के सिंहासनारूढ़ होने की वह शोभा, वह समाज और वह आनंद मुझसे कहते नहीं बनता। उसका वर्णन सरस्वती, शेषनाग और वेद करते हैं, किन्तु वस्तुतः उस रस
(आनंद) को केवल शिव जी ही जानते हैं। तात्पर्य यह है कि वह शोभा, समाज और आनंद अलौकिक थे, अप्राकृत थे।
अलंकार संबंधातिशयोक्ति । -
भिन्न भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
भिन्न भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम ।
बंदी वेष वेद तब आए जह श्रीराम ॥12 (ख)
प्रभु सर्वग्य कीन्ह अति आदर कृपानिधान।
लखेउ न काहूँ मरम कछु लगे करन गुन गान 12 (ग)
शब्दार्थ-
बंदी = चारण
मरम = मर्म, रहस्य |
व्याख्या -
सभी देवताओं ने भिन्न-भिन्न प्रकार से श्रीराम
की स्तुति की और अपने-अपने निवास को चले गए। तात्पर्य यह है कि इन्द्र, पितर, यक्षादि, महानाग, सिद्ध, किन्नर, मरुत, वसु आदि ने भिन्न-भिन्न
प्रकार से स्तुति की है। तत्पश्चात् चारण के वेश में वेदगण श्रीराम के निकट आए।
प्रभु श्रीराम सर्वज्ञ हैं,
अतः वह वेदों को चारण वेश
में भी पहचान गए तथा उनका स्वागत-सत्कार किया। इस रहस्य को वहाँ उपस्थित कोई
व्यक्ति न जान सका । तब वेदों ने श्रीराम का गुणगान प्रारंभ किया।.
विशेष -
अध्यात्मरामायण में विभिन्न देवताओं द्वारा की गई
स्तुति का विस्तृत विवरण मिलता है। वहाँ पितर, यक्ष, गंधर्व, महानाग, सिद्ध, किन्नर, मरुत, वसु,
मुनि, गौ, गुह्यक, पक्षी, प्रजापति और अप्सराओं
द्वारा श्रीराम की स्तुति का उल्लेख किया गया है। (युद्धकाण्ड, सर्ग 15, छंद सं. 65 से 74 तक) तुलसीदास ने संक्षेप
में ही इसका उल्लेख कर दिया है।
सब के देखत वेदन्ह विनती दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
सब के देखत वेदन्ह विनती कीन्हि उदार
अंतर्धान भए पुनि गए ब्रह्म आगार 113 ( क ) |
बैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर।
बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर ||13 ( ख ) ॥
शब्दार्थ-
उदार = श्रेष्ठ, महान
आगार = लोक।
बैनतेय = गरुड़ ।
व्याख्या -
सभी लोगों के देखते-देखते वेदों ने श्रीराम की महान विनती की, फिर अंतर्धान (गायब हो गए और ब्रह्मलोक चले गए। (ब्रह्मलोक ही वेदों का निवास-स्थान हैं)
काग भुशुण्डि कहते हैं कि हे विनता के पुत्र गरुड़ जी!
सुनो। तत्पश्चात् जहाँ श्रीराम थे, वहाँ शिव जी आए और उनकी स्तुति की। उस समय उनकी वाणी
प्रेमाधिक्य के कारण गद्गद थी और शरीर रोमांचित था ।
विशेष-
सामान्यतः वेद प्रकट होकर स्तुति नहीं करते । यहाँ
वह सशरीर चारण रूप में आए और जब अंतर्धान हो गए तब लोगों ने जाना कि ये वेद थे।
बार बार बर मागऊँ हरषि देहु श्रीरंग दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
बार बार बर मागऊँ हरषि देहु श्रीरंग ।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग 1114 (क)
बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास ।
तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब विधि
सुखप्रद बास ||14 ( ख )||
शब्दार्थ -
श्रीरंग = श्री जानकी जी का रंजन करने वाले अर्थात् पति।
अनपायनी =जिसका कभी अपाय (वियोग ) न हो, अर्थात् हृदय में सदा एक रस रहने वाली ।
व्याख्या -
शिव जी ने कहा कि हे जानकी पति! मैं बार-बार
आपसे यही वरदान माँगता हूँ कि आप मुझे अपने चरण-कमलों में सदा एक रस रहने वाली
भक्ति तथा सत्संग प्रदान करें। इस प्रकार शिव जी राम के गुणों का वर्णन करके
प्रसन्नतापूर्वक अपने निवास कैलाश पर्वत पर चले गए। ('हरषि' शब्द में यह व्यंजना है
कि उन्हें वरदान मिल गया)। तत्पश्चात् श्रीराम ने सभी वानरों को सभी प्रकार के
सुखदायी निवास स्थान दिलवाए।