रामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा - सप्रसंग व्याख्या दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
Ramchartra Manas uttarkand dohe withe explanatin Part 04
रामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा - सप्रसंग व्याख्या -भाग 01
रामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा - सप्रसंग व्याख्या -भाग 02
रामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा - सप्रसंग व्याख्या -भाग 03
रामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा - सप्रसंग व्याख्या -भाग 04
रामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा - सप्रसंग व्याख्या -भाग 05
रामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा - सप्रसंग व्याख्या दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष-04
प्रेम सहित मुनि नारद बरनि शब्दार्थ व्याख्या विशेष
प्रेम सहित मुनि नारद बरनि राम गुन ग्राम।
सोभासिंधु हृदयँ धरि गए जहाँ बिधि धाम ॥51॥
व्याख्या -
इस प्रकार नारद मुनि श्रीराम के गुण-समूह का प्रेम सहित गान करके तथा उनके सौंदर्य-सागर को हृदय में धारण करके ब्रह्म लोक ( जहाँ ब्रह्मा का निवास है) चले गए।
विशेष-पार्वती का अंतिम प्रश्न था
बहुरि कहहु करुयातन कीन्ह जो अचरज राम ।
प्रजासहित रघुवंसमानि किमि गवने निज धाम ॥
उपर्युक्त पंक्तियों में इसी प्रश्न का उत्तर हैं। कुछ विद्वानों के मत से वह सभी भाइयों तथा प्रजासहित परम दिव्य विमानों पर चढ़कर परविभूति को चले गए। अन्य विद्वानों के अनुसार अयोध्या ही प्रभु का नित्यधाम है। अयोध्या में ही उन्होंने नर लीला की और अंततः वह अव्यक्त रूप से वहीं निवास करने लगे। वह अयोध्या को छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं रहते हैं।
तुम्हरी कृपाँ कृपायतन अब कृतकृत्य शब्दार्थ व्याख्या विशेष
तुम्हरी कृपाँ कृपायतन अब कृतकृत्य न मोह।
जानेउँ राम प्रताप प्रभु चिदानंद संदोह ||52 (क) ॥
नाथ तवानन ससि स्त्रवत कथा सुधा रघुबीर ।
श्रवन पुटन्हि मन पान करि नहिं अघात मतिधीर || 52 ( ख ) ||
शब्दार्थ-
कृपायतन = कृपा के आगार ।
कृतकृत्य = कृतार्थ ।
चिदानंद = सत्, चित्, आनंद स्वरूप ।
संदोह : = पूर्ण ।
श्रवन पुटन्हि = कर्ण छिद्र ।
व्याख्या -
पार्वती कहती हैं कि हे कृपासिंधु। आपकी कृपा से मैं कृतार्थ हो गई। अब मेरा मोह दूर हो गया। हे प्रभु ! अब मुझे सद्, चित्, आनंद के समूह श्रीराम के प्रताप का पूर्ण ज्ञान हो गया। हे नाथ! हे मतिधीर! आपके मुख रूपी चंद्रमा से श्रीराम की कथा रूपी अमृत की वर्षा मेरे कर्ण छिद्र रूपी दोनाओं से मन पीकर तृप्त नहीं होता है ।
अलंकार - परंपरित रूपक ।
राम परायन ग्यान रत गुनागार शब्दार्थ व्याख्या विशेष
राम परायन ग्यान रत गुनागार मति धीर ।
नाथ कहहु केहि कारन पायउ काक सरीर ॥54॥
व्याख्या -
हे नाथ! मुझे यह बताइए कि राम का सच्चा भक्त ज्ञान में तत्पर, गुणों का आगार, धीर बुद्धिवाला प्राणी किस कारण से काग-शरीर को पाया? अर्थात् सर्वगुणसंपन्न प्राणी काग (कौआ) कैसे हो गया?
ऐसिअ प्रस्न बिहंगपति शब्दार्थ व्याख्या विशेष
ऐसिअ प्रस्न बिहंगपति कीन्हि काग सन जाइ।
सो सब सादर कहिहउँ सुनहु उमा मन लाइ ||55||
व्याख्या -
इसी प्रकार के प्रश्न गरुड़ ने भी काग के पास जाकर किए थे। मैं उन सभी प्रश्नों का उत्तर दूँगा । हे उमा ! मन लगाकर सुनो।
सीतल अमल मधुर जल जलज शब्दार्थ व्याख्या विशेष
सीतल अमल मधुर जल जलज बिपुल बहुरंग ।
कूजत कल रव हंस गन गुंजत मंजुल भृंग ||56||
व्याख्या-
उस सरोवर का जल अत्यंत शीतल और निर्मल था तथा उस पर विविध रंगों के अत्यधिक कमल विकसित थे। उस पर हंसों का समूह मधुर ध्वनि से कूजन कर रहा था तथा सुंदर भ्रमर गुंजार कर रहे थे।
तब कछु काल मराल तनु धरि दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
तब कछु काल मराल तनु धरि तहँ कीन्ह निवास ।
सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउँ कैलास ॥57॥
व्याख्या-
तब मैंने हंस का शरीर धारण करके वहाँ निवास किया और श्रीराम का गुणगान आदरपूर्वक सुनकर पुनः कैलाश पर्वत पर आ गया।
भव बंधन ते छूटहिं नर शब्दार्थ व्याख्या विशेष
भव बंधन ते छूटहिं नर जपि जा कर नाम ।
खर्ब निसार बाँधेउ नागपास सोइ राम ॥58॥
शब्दार्थ-
भव बंधन = सांसारिक बंधन
खर्च = तुच्छ ।
व्याख्या-
जिस ईश्वर का नाम लेकर मनुष्य सांसारिक बंधन से मुक्त हो जाते हैं, उसे तुच्छ राक्षस ने नागपाश में बाँध लिया। यह कैसे संभव हुआ।
अस कहि चले देवरिषि करत राम शब्दार्थ व्याख्या विशेष
अस कहि चले देवरिषि करत राम गुन गान ।
हरि माया बल बरनत पुनि पुनि परम सुजान ||59||
व्याख्या -
इतना कहने पर दो घड़ी बीत गई। अतः नारद श्रीराम का गुणगान करते हुए गरुड़ लोक से चल दिए। परम चतुर नारद बारंबार प्रभु की माया की शक्ति का वर्णन करते हुऐ चले जा रहे हैं। वह माया से भयभीत हैं। अतः बार-बार उसका गुणगान कर रहे हैं।
विशेष -
नारद ने ही गरुड़ को श्रीराम का नागपाश छिन्न करने के लिए भेजा था। अतः वह समाचार जानने के लिए तब तक गरुड़ लोक में ही रुके रहे, जब तक गरुड़ वापस नहीं आ गया।
परमातुर बिहंगपति आयउ दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
परमातुर बिहंगपति आयउ तब मो पास ।
जात रहेउँ कुबेर गृह रहिहु उमा कैलास ||60||
व्याख्या-
तब परम व्याकुल गरुड़ मेरे पास आया। मैं उस समय कुबेर के आवास (अलकापुरी) को जा रहा था और तुम (उमा) कैलास पर्वत पर थीं।
बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग ॥61॥
व्याख्या -
बिना सत्संग के हरिकथा सुनने को नहीं मिलती, बिना हरिकथा के श्रवण से मोह भंग नहीं हो सकता और जब तक मोह नहीं समाप्त होता, तब तक श्रीराम के चरणों में अविचल प्रेम नहीं हो सकता। यहाँ क्रमशः यह बताया गया है कि सत्संग से हरिकथा सुनने को मिलती है, हरिकथा से मोह-निवृत्ति होती है और मोह - निवृत्ति से श्रीराम के चरणों में अनुराग उत्पन्न होता है।
अलंकार - कारणामाला
ग्यानी भगत सिरोमनि त्रिभुवनपति शब्दार्थ व्याख्या विशेष
ग्यानी भगत सिरोमनि त्रिभुवनपति कर जान ।
ताहि मोह माया नर पावर करहिं गुमान 162 (क)॥
सिव बिरंचि कहुँ मोहड़ को है बपुरा आन
अस जियें जानि भजहिं मुनि माया पति भगवान 162 ( ख )
शब्दार्थ
जान ( यान) = सवारी।
पाँवर = पामर, तुच्छ
गुमान = अहंकार
बपुरा = बेचारा ।
आन = अन्य |
व्याख्या -
गरुड़ ज्ञानी और भक्तों में शिरोमणि है तथा त्रैलोक्य स्वामी विष्णु का वाहन है अर्थात् सदैव उनके निकट रहता है। जब ऐसे सद्गुण संपन्न गरुड़ को माया ने अपने वश में कर लिया, तब तुच्छ व्यक्ति व्यर्थ ही अहंकार करते हैं कि उन्होंने माया को जीत लिया। माया ऐसी प्रबल है कि वह शिव और ब्रह्मा तक को मोहित कर लेती है, फिर बेचारे अन्य प्राणियों को क्या कहा जाए? ऐसा समझ कर मुनिजन माया के स्वामी भगवान् की उपासना में निरत रहते हैं।
अलंकार दूसरी पंक्ति का व्यार्थापत्ति
नाथ कृतारथ भयउ मैं तव दरसन शब्दार्थ व्याख्या विशेष
व्याख्या -
काग ने कहा कि हे नाथ! आज मैं आपके दर्शन से कृतार्थ ( धन्य) हुआ। सेवक के घर स्वामी का आना उसे कृतार्थ करना है- 'सेवक सदन स्वामि आगमनू, मंगल मूल अमंगल दमनू ।' काग ने पुनः कहा कि हे प्रभु! आप किस कार्यवश आए हैं। आप आज्ञा कीजिए, मैं तत्काल वह कार्य संपादित करूँ। तब गरुड़ ने मधुर वाणी में कहा कि आप सदैव कृतार्थ की मूर्ति हैं, अर्थात् आपको देखकर दूसरे लोग कृतार्थ होते हैं आपकी प्रशंसा स्वयं शिव जी ने की। शिव जी सामान्य जीवों की स्तुति नहीं कर सकते। उनका प्रशंसा करना ही आपके कृतार्थ रूप का प्रमाण है।
अलंकार - प्रथम दोहा - चित्रोत्तर तथा अर्थातरन्यास ।
बालचरित कहि बिबिधि बिधि मन दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
बालचरित कहि बिबिधि बिधि मन महँ परमक उछाह ।
रिषि आगवन कहेसि पुनि श्रीरघुबीर बिबाह || 64
व्याख्या
शिशु रूप वर्णन (5 वर्ष की अवस्था) करने के पश्चात् उन्होंने श्रीराम की बाललीला (14 वर्ष तक की) का उत्साहपूर्वक वर्णन किया। इसके पश्चात् विश्वामित्र के आगमन तथा श्रीराम (अथवा सीता और राम ) के विवाह का वर्णन किया। यह बालकाण्ड तक की कथा है।
कहि बिराध बध जेहि बिधि देह तजी दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
कहि बिराध बध जेहि बिधि देह तजी सरभंग ।
बरनि सुतीछन प्रीति पुनि प्रभु अगस्ति सतसंग 165॥
व्याख्या -
महर्षि अत्रि से विदा होकर श्रीराम दंडकारण्य चले। उनकी पहली भेंट बिराध नामक राक्षस से हुई ।प्रभु ने तत्काल उसका वध कर दिया। तत्पश्चात् शरभंग ऋषि से भेंट हुई। उन्होंने प्रभु दर्शन के बिना ब्रह्मलोक जाना स्वीकार न किया था। श्रीराम का दर्शन होते ही उन्होंने योगाग्नि से शरीर भस्म कर लिया। इसके पश्चात् अगस्त्य के शिष्य सुतीक्ष्ण ऋषि और प्रभु के मिलन तथा सुतीक्ष्ण के प्रेम का वर्णन किया। तत्पश्चात् अगस्त्य ऋषि से मिलन की कथा कही ।
विशेष-
श्रीराम दंडकारण्य में अनेक ऋषि-मुनियों से मिले थे, किंतु काग ने केवल चार ऋषियों-अत्रि, शरभंग, सुतीक्ष्ण और अगस्त्य - से मिलन का उल्लेख किया। कारण यह है कि अत्रि से मिलन महत्त्वपूर्ण है; शरभंग का देह त्याग के कारण महत्त्व है; सुतीक्ष्ण की प्रीति महिमामयी है और अगस्त्य ऐसे ऋषि हैं, जिन्होंने समुद्र का शोषण किया था, विंध्याचल को बढ़ने से रोक दिया था और श्रीराम को राक्षसों के वध का उपाय बताया था। उनके कहने से ही राम पंचवटी में रुके थे
प्रभु नारद संबाद कहि मारुति मिलन दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
प्रभु नारद संबाद कहि मारुति मिलन प्रसंग ।
पुनि सुग्रीव मिताई बालि प्रान कर भंग |166 (क)॥
कपिहि तिलक करि प्रभु कृत सैल प्रबरषन बास ।
बरनन बर्षा सरद अरु राम रोष कपि त्रास ॥166 ( ख )
व्याख्या -
शबरी के आश्रम से श्रीराम सुंदर वन, सरोवर आदि देखते हुए बिरहावस्था में एक वट वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे। तब नारद ने सोचा कि चलकर प्रभु को इस दशा में देखना चाहिए। यह विचार कर नारद प्रभु राम के पास गए। उस समय दोनों में जो संवाद हुआ था, काग ने वह सब गरुड़ को सुनाया। बालि से भयभीत सुग्रीव मुनियों सहित ऋष्यमूक पर्वत पर रहता था। एक दिन उसने दो वीरों (राम-लक्ष्मण) को अपनी ओर आते देखा, अतः उसने हनुमान को उनके पास पता लगाने के लिए भेजा। हनुमान राम के पास बटु रूप में गए। दोनों का परिचय हुआ। काग ने यह वृत्तांत भी सुनाया। श्रीराम हनुमान के साथ सुग्रीव के पास गए, दोनों में मैत्री हुई। सुग्रीव ने अपनी व्यथा सुनाई। श्रीराम ने बालि का वध किया। सुग्रीव किष्किंधा के राजा हुए। काग ने यह घटना भी बताई। इसी समय वर्षा ऋतु आ गई थी। अतः श्रीराम व लक्ष्मण प्रवर्धन पर्वत पर कई मास रुके। सुग्रीव ने सीता का पता लगाने का वादा किया था, किंतु वह राजमद और सुरा सुंदरी में इतना डूब गया था कि राम को दिए गए वचनों को भूल गया। इस पर राम क्षुब्ध हुए और कहा कि 'जेहि सायक मारा मैं बाली, तेहि सर हतौं मूढ़ कहु काली ।' राम के निर्देशानुसार लक्ष्मण किष्किंधापुरी गए और अपना क्रोध प्रकट किया। इससे सुग्रीव समेत सभी वानर भयग्रस्त हो गए। सुग्रीव तत्काल राम की शरण में आया और सीता का पता लगाने के लिए चारों दिशाओं में वानरों को भेज दिया। काग ने इस पूरे वृत्तांत का उल्लेख किया।
विशेष -
श्रीराम-नारद संवाद के बाद अरण्यकाण्ड की समाप्ति हुई और किष्किंधाकाण्ड प्रारंभ हो गया।
सेतु बाँधि कपि सेन जिमि उतरी दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
सेतु बाँधि कपि सेन जिमि उतरी सागर पार ।
गयउ बसीठी बीरबर जेहि बिधि बालिकुमार 1167 ( क ) ||
निसिचर कीस लराई बरनिसि बिबिधि प्रकार
कुंभकरन घननाद का बल पौरुष संघार ॥67 ( ख ) |
शब्दार्थ-
बसीठी = दौत्यकर्म
कीस = बानर
संघार = वध ।
व्याख्या -
समुद्र पर जिस प्रकार सेतु-बंधन हुआ तथा सेना ने समुद्र पार किया, श्रेष्ठ वीर अंगद जिस प्रकार दौत्यकर्म के लिए रावण के दरबार में गया, वे सारे वृत्तांत भी काग ने सुनाए। अंगद ने रावण दरबार में पहुँचने के पूर्व ही उसके एक पुत्र का वध कर दिया था तथा रावण-सभा में कोई भी राक्षस उसके पैर को नहीं उठा सका था, इसीलिए अंगद को 'वीरवर' कहा गया है।
अंगद के वापस आने पर युद्ध प्रारंभ हो गया। सर्वप्रथम राक्षसों और वानरों में विविध प्रकार का युद्ध हुआ, काग ने वह सारा वृत्तांत सुनाया। तत्पश्चात् मेघनाद - लक्ष्मण युद्ध तथा कुंभकर्ण - श्रीराम युद्ध, लक्ष्मण के द्वारा मेघनाद वध तथा श्रीराम के द्वारा कुंभकर्ण वध का वृत्तांत कहा।
सुनि बिहंगपति बानी सहित बिनय दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
सुनि बिहंगपति बानी सहित बिनय अनुराग ।
पुलक गात लोचन सजल मन हरषेउ अति काग 169 (क )||
श्रोता सुमति सुसील सुचि कथा रसिक हरि दास ।
पाइ उमा अति गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास ||69 ( ख ) ||
शब्दार्थ -
गात = शरीर
समुति= सद्बुद्धिसंपन्न।
सुसील सदाचारी ।
सुचि = पवित्र
रसिक = प्रेमी।
गोप्यमति = रहस्यपूर्ण, छिपाने वाली ।
व्याख्या -
गरुड़ की विनम्र तथा प्रेमपूर्ण वाणी सुनकर काग भुशुण्डि का शरीर रोमांचित हो गया, नेत्रों में अश्रु आ गए तथा वह मन में बहुत प्रसन्न हुआ। शिव जी कहते हैं कि यदि श्रोता सदबुद्धिसंपन्न, सदाचारी, पवित्र, कथाप्रेमी तथा भगवद् भक्त हो तो संतजन अत्यंत गोपनीय रहस्य को भी प्रकाशित कर देते हैं।
ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार
केहि कै लोभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार ॥ 70 ( क ) ॥
श्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि ।
मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि ॥70 ( ख ) ||
शब्दार्थ-
सूर ( शूर) = वीर।
कोविद = विद्वान्
बिडंबना = हँसी
श्री मद प्रभुता, लक्ष्मी अथवा धन का अहंकार
बक्र = टेढ़ा
व्याख्या -
बड़े-बड़े ज्ञानी, तपस्वी, वीर, कवि, विद्वान् आदि गुणों से संपन्न व्यक्तियों में ऐसा कौन है जो लोभ के वशीभूत होकर हँसी का पात्र न बन गया हो? ऐसा कौन धन-संपन्न व्यक्ति है जो अहंकार के वशीभूत न हुआ हो ? राजमद ने किसे बधिर नहीं बनाया - प्रभुता पाइ काहि मद नाहीं ?' संसार में ऐसा कौन प्राणी है जिसे सुंदर स्त्री के मृग के समान नेत्र रूपी बाणों ने घायल न कर दिया हो ? तात्पर्य यह है कि संसार के सभी प्राणी लोभ, धनमद, वैभव तथा काम के वशीभूत हो ही जाते हैं।
अलंकार - वक्रोक्ति ।
ब्यापि रहेउ संसार महुँ माया शब्दार्थ व्याख्या विशेष
ब्यापि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड ।
सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाखंड ॥ 71 (क) ॥
सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि ।
छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि ॥71 (ख)॥
शब्दार्थ-
कटक = सेना
भट = योद्धा
सोपि (सोऽपि ) = वह भी
पद रोपि = प्रतिज्ञापूर्णक ।
व्याख्या -
माया की बलिष्ठ सेना पूरे संसार में व्याप्त है। काम, क्रोध, लोभ आदि तथा अहंकार, कपट, पाषंड उसके सेनापति हैं। यह माया श्रीराम की दासी है, वह भी ज्ञान के प्रकाश होने पर मिथ्या प्रतीत होती है। मिथ्या होते हुए भी यह माया श्रीराम के अनुग्रह के बिना छूटती नहीं है। यह मैं प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ
विशेष -
माया का तात्पर्य हैं जो नहीं है, भ्रांतिवश उसे समझना। (मा = नहीं + या = जो जो नहीं है।) जैसे भ्रमवश अंधकार में रज्जु को सर्प समझ लेते हैं, किंतु प्रकाश होने पर वास्तविकता का ज्ञान होता है, उसी प्रकार जीव भ्रमवश असत्य को सत्य समझ लेता है। यह रघुबीर की दासी है, अतः इसमें सत्य की प्रतीति होती है, किंतु जब उनकी कृपा रूपी प्रकाश की प्राप्ति हो जाती है, तब वह असत्य प्रतीत होने लगती है। अलंकार - तीसरी पंक्ति-विरोधाभास ।
तुलनीय -
1. जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया ।
जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि ॥ ( बाल. - 117)
2. विनयपत्रिका में भी कहा गया है
माधव असि तुम्हारि यह माया ।
करि उपाय पचि मरिय तरिय नहिं जब लगि करहु न दाया ।
सुनिय गुनिय समुधिय समुझाइय दस हृदय नहिं आवै ।
जेहि अनुभव बिनु मोह जनित दारुन भव विपति सतावै ।
काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त शब्दार्थ व्याख्या विशेष
काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुखरूप ।
ते किमि जानहिं रघुपतिहि मूढ़ परे तम कूप ॥73 (क ) ॥
निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ ।
सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होइ ॥ 73 ( ख ) ॥
शब्दार्थ-
रत = आसक्त
तम = अंधकार
तमकूप = अंधकूप, अंधा कुआँ ।
व्याख्या -
जो व्यक्ति काम, क्रोध, अहंकार, लोभ में आसक्त हैं और दुःखदायी गृहस्थी के कार्यों में लिप्त हैं, वस्तुतः वे अंधकूप में पड़े हैं। ऐसे लोग प्रभु श्रीराम के मर्म को समझ ही नहीं सकते। जिस प्रकार अंधे कुएँ में पड़ा व्यक्ति कुछ भी देख नहीं पाता, उसी प्रकार ब्रह्म के दो रूप हैं-निर्गुण-सगुण निर्गुण रूप को समझना सरल है, किंतु सगुण को कोई समझ नहीं पाता। सगुण रूप के चरित दो प्रकार के होते हैं-कुछ सुगम और कुछ अगम, जिन्हें सुनकर मुनिजनों का भी मन भ्रम में पड़ जाता है ।
जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ शब्दार्थ व्याख्या विशेष
जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर ।
व्याधि नासहित जननी गनति न सो सिसु पीर 174 (क) |
तिमि रघुपति निज दास कर हरहिं मान हित लागि ।
तुलसिदास ऐसे प्रभुहि कर न भजहु भ्रम त्यागि 74 (ख)
व्याख्या-
यद्यपि फोड़े को चिराते समय शिशु को बहुत कष्ट होता है और वह व्याकुल होकर रोता है। किंतु माता जानती है कि फोड़े को चिराने से ही बच्चे का क्लेश दूर होगा। अतः उस रोग के नाश के लिए माता बच्चे की आपरेशनजन्य पीड़ा की परवाह नहीं करती है। उसी प्रकार प्रभु अपने भक्त के अभिमान को उसके हित के लिए निर्मम होकर नष्ट कर देते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि ऐसे भक्तवत्सल समस्त भ्रम त्याग कर प्रभु की उपासना क्यों नहीं करते?
लरिकाई जहँ जहँ फिरहिं तहँ तहँ संग दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
लरिकाई जहँ जहँ फिरहिं तहँ तहँ संग उड़ाउँ
जूठनि परइ अजिर महँ सो उठाइ करि खाउँ 1175 ( क ) ॥
एक बार अतिसय सब चरित किए रघुबीर ।
सुमिरत प्रभु लीला सोइ पुलकित भयउ सरीर ॥75 ( ख ) ॥
शब्दार्थ-
अजिर = आँगन
अतिसय (अतिशय) = अत्यधिक अद्भुत
व्याख्या -
शिशुराम हाथ में पक्वान्न लेकर आँगन में इधर-उधर घूमते हैं, काग भी उन्हीं के साथ-साथ उड़ता रहता है और आँगन में उनकी जो जूठन गिरती है, काग उसे उठाकर खा लेता है। एक बार श्रीराम ने अत्यंत अद्भुत लीला की। उसका स्मरण करते ही काग का शरीर रोमांचित हो गया।
रेखा त्रय सुंदर उदर नाभी रुचिर शब्दार्थ व्याख्या विशेष
रेखा त्रय सुंदर उदर नाभी रुचिर गंभीर ।
उर आयत भ्राजत बिबिध बाल बिभूषन चीर ॥76॥
शब्दार्थ-
आयत = विशाल ।
भ्राजत = सुशोभित ।
चीर = वस्त्र ।
व्याख्या -
पेट पर तीन सुंदर रेखाएँ (त्रिबली) हैं, नाभि बहुत सुंदर और गहरी है। विशाल वक्षस्थल पर अनेक प्रकार के सुंदर आभूषण और वस्त्र सुशोभित है।
आवत निकट हँसहिं प्रभु भाजत दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
आवत निकट हँसहिं प्रभु भाजत रुदन कराहिं ।
जाउँ समीप गहन पद फिरि फिरि चितइ पराहिं ॥77 ( क ) ॥
प्राकृत सिसु इव लीला देखि भयउ मोहि मोह ।
कवन चरित्र करत प्रभु चिदानंद संदोह 177 (ख)
व्याख्या -
जब मैं प्रभु के निकट जाता था, तब वे प्रसन्न हो जाते थे और जब मैं भागता था तब रोने लगते थे। उनके रूदन को देखकर जब मैं उनके चरणों को पकड़ने के लिए निकट जाता था, तब मेरी ओर बार-बार देखकर भाग जाते थे। पीछे मुड़कर देखने में भाव यह है कि वह देखते थे कि मैं उनके समीप आ रहा हूँ कि नहीं। इस प्रकार उनकी सामान्य बालक के समान क्रीड़ा देखकर मुझे मोह उत्पन्न हो गया। मैंने सोचा कि जो प्रभु चित्-आनंद-घन है, वह इस प्रकार की लीला क्यों कर रहा है?
विशेष-
श्रीराम का काग को पकड़ने के लिए दौड़ना, भागने पर पूप दिखाना, निकट आने पर हँसना, भागने पर रोना आदि बाल लीलाओं को देखकर काग को मोह हो गया। उसको यह भ्रम हुआ कि सच्चिदानंद प्रभु को इस प्रकार का आचरण नहीं करना चाहिए। गरुड़ को भी उनकी इसी प्रकार की माधुर्य लीला देखकर मोह हुआ था- 'चिदानंद संदोह राम विकल कारन कवन ।'
ब्रह्मलोक लगि नयऊँ में चितय शब्दार्थ व्याख्या विशेष
ब्रह्मलोक लगि नयऊँ में चितय पाठ उड़ात
जुग अंगुल कर बीच सब राम भुजहि मोहि तात 1179 ( क)
सप्ताबरन भेद करि जहाँ लगें गति मोरि ।
गयउँ तहाँ प्रभु भुज निरखि व्याकुल भयउँ बहोरि 179 ( ख )
शब्दार्थ -
ब्रह्मलोक - भू, भव, स्व, जन, तप, सत्य इन छः लोगों को पार कर सातवाँ ब्रह्मलोक है।
जुग = दो । स
प्तावरन - आवरण नौ माने गए हैं-गंध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द, अहंकार, बुद्धि, प्रकृति और शुद्ध सत्व । जीव की गति केवल सात आवरण तक है। दूसरे मत से सात आवरण ये हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन, आकाश, अहंकार और महत्तत्व ।
व्याख्या -
काग कहता है कि मैं ब्रह्मलोक तक गया। पृथ्वी से ब्रह्मलोक तक पहुँचने के लिए भू, भव, स्व, जन, तप, सत्य इन छः लोगों को पार करना पड़ता है। ब्रह्मलोक तक जाने के पश्चात् उसने पीछे मुड़कर देखा । राम की भुजा तब भी उसका पीछा कर रही थी। केवल दो अंगुल की दूरी थी। अतः वह पुनः उड़ा और सात आवरणों को भेदकर गया। आवरण नौ माने गए हैं-गंध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द, अहंकार, बुद्धि, प्रकृति और शुद्ध सत्व । जीव की गति यहीं तक है। अब, प्रकृति और शुद्ध सत्य दो आवरण शेष थे। यही दो अंगुल का अंतर था। दूसरे मत से अहंता और ममता दो अँगुल हैं। यही शेष थे। इनको पार करने पर ही प्रभु का सान्निध्य प्राप्ति होता है। सप्तावरण भेद करने पर उसने पुनः पीछे मुड़कर देखा, किंतु राम की भुजा अब भी उसका पीछा कर रही थी। अतः वह त्रस्त हो गया। अन्य मत से सप्तावरण ये हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन, आकाश, अहंकार और महत्तत्व । जहाँ ब्रह्मांड समाप्त होते हैं, यहाँ से ये सात आवरण प्रारंभ होते हैं ।
विशेष -
सामान्यतः जीव परमात्मा से विमुख हो जाता है। वह भागता है, किंतु परमात्मा उस पर अनुग्रह करना चाहता है। राम-भुजा का काग के पीछे-पीछे जाने का यही रहस्य है। दो अंगुल की दूरी प्रकृति और शुद्ध सतोगुण की है। इसको पार करने पर ही परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त होता है। अविद्या माया प्रभु से वियोग करा देती है और विद्या माया भक्त भगवान के संबंध को दृढ़ कराती है। दो अंगुल का भेद दिखाकर कवि ने यह स्पष्ट किया है कि प्रभु ने काग का साथ कभी नहीं छोड़ा। काग भेद-भगति का उपासक है, इसलिए भी यह अंतर बना हुआ है।
जो नहिं देखा नहिं सुना जो मनहूँ न समाइ शब्दार्थ व्याख्या विशेष
जो नहिं देखा नहिं सुना जो मनहूँ न समाइ -
सो सब अद्भुत देखे बरनि कवनि विधि जाह 180 ( क ) |
एक एक ब्रह्मांड महुँ रहउँ बरष सत एक ।
एहि विधि देखत फिर मैं अंड कटाह अनेक 180 ( ख ) ||
शब्दार्थ-
अंड कटाह = ब्रह्मांड ।
व्याख्या-
मैंने जो पूरे जीवन में न देखा था और न सुना था तथा जो मन से परे है, मन में समा नहीं सकता अर्थात कल्पनातीत है। ऐसे अद्भुत दृश्य मेरे द्वारा देखे गए। उनका वर्णन करना संभव नहीं है। मैं एक-एक ब्रह्मांड में सौ-सौ वर्ष तक रहा। इस प्रकार अनेक ब्रह्मांडों में अद्भुत दृश्य देखता हुआ घूमता रहा।
विशेष-
एक-एक ब्रह्मांड में एक सौ वर्ष रहे। मनुष्यों का एक वर्ष देवताओं का एक दिन होता है और देवताओं के एक हजार वर्ष का एक कल्प होता है। ऐसे-ऐसे सौ कल्पों तक काग विचरण करते रहे।
भिन्न भिन्न में दीख सबु अति शब्दार्थ व्याख्या विशेष
भिन्न भिन्न में दीख सबु अति विचित्र हरिजान ।
अगनित भुवन फिरे प्रभु राम न देखाउँ आन ॥81 (क)
सोइ सिसुपन सोइ सोभा सोइ कृपाल रघुबीर।
भुवन भुवन देखत फिरउँ प्रेरित मोह समीर 181 (ख)॥ ॥
शब्दार्थ -
हरिजान (सं. हरियान) = विष्णु की सवारी, गरुड़
आन = अन्य ।
समीर = पवन।
व्याख्या-
हे गरुड़! मैंने सभी लोकों में भिन्न-भिन्न तथा विचित्र दृश्य देखे। इस प्रकार मैं असंख्य लोकों में विचरण करता रहा, किंतु अन्य प्रभु राम को नहीं देखा। सभी लोकों में राम ही थे, उसी प्रकार की शिशुता थी, वैसा ही सौंदर्य था और वही उदारता थी। इस प्रकार में मोह रूपी पवन के द्वारा प्रेरित एक लोक से दूसरे लोक तक विचित्र दृश्य देखते हुए विचरण करता रहा।
देखि कृपाल बिकल मोहि बिहँसे शब्दार्थ व्याख्या विशेष
देखि कृपाल बिकल मोहि बिहँसे तब रघुबीर ।
विहँसतहीं मुख बाहेर आय सुनु मतिधीर ॥82 (क)
सोइ लरिकाई मो सन करन लगे पुनि राम
कोटि भाँति समुझावउँ मनु न लहइ बिश्राम ॥82 ( ख ) ॥
व्याख्या-
मुझे व्याकुल देखकर दयालु प्रभु हँसे । उनके हँसने पर उनका मुख खुल गया। अतः मैं बाहर आ गया। श्रीराम पुनः मुझसे यथापूर्व बालक्रीड़ा करने लगे। मैं अपने मन को बार-बार समझाता था कि ये मेरे इष्टदेव ही हैं, स्वामी ही हैं, किंतु मन को शांति नहीं मिलती थी।
विशेष -
1. यहाँ गोस्वामी जी समझाते हैं कि ज्ञानी, भक्तशिरोमणि, सर्वज्ञ काग भुशुण्डि के मन में जब संदेह पैदा हो गया और वह अपनी बुद्धि से उसका निवारण करने का प्रयत्न करने लगे, तब उनको सफलता नहीं मिली । अतः सामान्य व्यक्ति प्रभु के रहस्य को कैसे समझ सकता है।
2. भक्त जब व्याकुल होता है, तब प्रभु हँस देते हैं। हँसी के द्वारा उसके मोह का निवारण करते हैं, जैसे
(i) देखि राम जननी अकुलानी प्रभु हँसि दीन्ह मधुर-मुसुकानी ॥
(ii) निज माया बल देखि बिसाला हिय हँसि बोले दीनदयाला ॥
सुनि सप्रेम मम बानी देखि दीन शब्दार्थ व्याख्या विशेष
सुनि सप्रेम मम बानी देखि दीन निज दास।
बचन सुखद गंभीर मृदु बोले रमानिवास ॥83 (क ) ॥
काकमसुंडि मागु बर अति प्रसन्न मोहि जानि ।
अनिमादिक सिधि अपर रिधि मोच्छ सकल सुख खानि ॥83 ( ख ) ॥
शब्दार्थ-
अनिमादिक अणिमा, महिमा, गरिमा, लविमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व-ये आठ = सिद्धियाँ मानी गई हैं।
सिधि = सिद्ध।
अपर = अन्य
रिधि = रिद्धि, निधि ।
व्याख्या-
मेरी प्रेम और विनम्रता पूर्ण कर्णा सुनकर तथा अपना भक्त देखकर रमापति (राम) सुखदायी, मधुर और गंभीर वाणी में बोले कि हे काग! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। तुम अणिमादि आठों सिद्धियाँ, नौ निधियाँ तथा समस्त सुखों की राशि मोक्ष आदि कुछ भी वरदान में माँगो ।
अबिरल भगति बिसुद्ध तव श्रुति शब्दार्थ व्याख्या विशेष
अबिरल भगति बिसुद्ध तव श्रुति पुरान जो गाव
जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव ॥84 ( क ) ॥
भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपासिंधु सुख धाम ।
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम ॥84 (ख)||
शब्दार्थ -
अबिरल भगति = अचल, एकरस भक्ति
जोगीस = योगीश्वर ।
प्रनत हित = शरणागत का कल्याण करने वाले ।
व्याख्या -
काग ने कहा कि हे भक्तों के लिए कल्पवृक्ष, शरणागत हितकारी, कृपा के आगार और सुख प्रभु! मुझे वह अविचल एकरस भक्ति प्रदान कीजिए जिसका उल्लेख वेदों और पुराणों में है, जिसको बड़े-बड़े योगीश्वर मुनि भी खोजते रहते हैं, किंतु प्रभु के अनुग्रह से कोई-कोई ही जिसे पाते हैं । हे राम! मुझे वही एकरस भक्ति प्रदान कीजिए। के धाम
माया संभव भ्रम सब अब न शब्दार्थ व्याख्या विशेष
माया संभव भ्रम सब अब न ब्यापिहहिं तोहि ।
जाने ब्रह्म अनादि अज अगुन गुनाकर मोहि ॥85 ( क ) ॥
मोहि भगत प्रिय संतत अस विचारि सुने काग
कायँ बचन मन मम पद करेसु अचल अनुराग ॥85 ( ख )||
शब्दार्थ-
संभव = उत्पन्न ।
अगुन = सत्, रज, तम गुणों से परे ।
गुनाकर असंख्य कल्याणकारी गुण ।
संतत = निरंतर
काय = = शरीर ।
व्याख्या -
हे काग! अब माया से उत्पन्न कोई भ्रम तुझमें व्याप्त नहीं होंगे। संभव भ्रम का तात्पर्य है - स्वरूप में भ्रम, प्रकृति में भ्रम, चरित्र में भ्रम, राम को सामान्य मानव समझना आदि। तुम मुझे परब्रह्म, अनादि तत्व, अजन्मा, सत्, रज, तम गुणों से अतीत तथा समस्त कल्याणकारी गुणों की राशि समझते रहना ।
हे काग! तुम यह समझकर कि मुझे भक्त सदैव प्रिय होते हैं, शरीर, वाणी और मन से एकनिष्ठ भाव से मेर चरणों में प्रीति बनाए रखना।
अलंकार- अगुन गुनाकर विरोधाभास।
तुलनीय - अंतिम पंक्ति - गीता में भी इसी प्रकार कहा गया है-
मन्मना भव मभक्तों मयाजी मां नमस्कुरु
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः ॥ (9/34)
सुचि सुसील सेवक सुमति प्रिय दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
सुचि सुसील सेवक सुमति प्रिय कहु काहि न लाग ।
श्रुति पुरान कह नीति असि सावधान सुनु काग ॥86 ||
व्याख्या -
श्रीराम कहते हैं कि हे काग! ध्यानपूर्वक इस तथ्य का श्रवण करो। सदाचारी, पवित्र और परमार्थ बुद्धिवाला भक्त किसे प्रिय नहीं होता है अर्थात् ऐसे सेवक पर सभी प्रसन्न रहते हैं। वेदों और पुराणों का भी यही मत है।
विशेष-
यहाँ गोस्वामी जी ने वेदमत और लोकमत दोनों का समन्वय कर दिया है।
एक पिता के बिपुल कुमारा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
एक पिता के बिपुल कुमारा। होहिं पृथक गुन सील अचारा ॥
कोउ पंडित कोउ तापस ग्याता । कोउ धनवंत सूर कोउ दाता ॥
कोउ सर्बग्य धर्मरत कोई। सब पर पितहि प्रीति सम होई ॥
व्याख्या -
प्रभु को सेवक सर्वाधिक प्रिय होता है, इस तथ्य का स्पष्टीकरण गोस्वामी जी एक लौकिक दृष्टांत के द्वारा देते हैं। वह कहते हैं कि एक पिता के कई पुत्र होते हैं। उनका गुण, स्वभाव तथा आचरण एक-दूसरे से भिन्न होता है। उनमें कोई विद्वान् होता है, कोई तपस्वी और ज्ञानी होता है, कोई धनाढ्य, कोई वीर और कोई दानी होता है, कोई सर्वज्ञ और कोई धर्मपरायण होता है। किंतु पिता सभी पुत्रों से समान भाव से प्रेम करता है।
अलंकार - दृष्टांत
पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचरब्दार्थ व्याख्या विशेष
दोहा -
पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ ।
सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ ॥ 87 ( क ) ॥
सोरठा-
सत्य कहउँ खग तोहि सुचि सेवक मम प्रानप्रिय ।
अस बिचारि भजु मोहि परिहरि आस भरोस सब ॥87 ( ख ) ॥
शब्दार्थ- सर्व भाव = अनन्य भाव से
व्याख्या-
पुरुष, नपुंसक और स्त्री अथवा कोई भी जड़-चेतन जो प्राणी अनन्य भाव से निष्कपट रूप से मेरी उपासना करता है, वह मुझे परम प्रिय है। हे गरुड़! मैं तुमसे सत्य वचन कहता हूँ कि पवित्र सेवक मुझे प्राणों के समान प्रिय हैं। ऐसा विचार कर समस्त लौकिक-पारलौकिक आशाओं का परित्याग कर मेरी उपासना करो।
तुलनीय
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्
यह विनती रघुबीर गुंसाई ।
और आस बिस्वास भरोसो हरौ जिय की जड़ताई ॥
चहौं न सुगति सुमति संपति कछु रिधि सिधि बिपुल बड़ाई ||
हेतु रहित अनुराग नाथ पद बढ़ो अनुदिन अधिकाई ||103॥ (विनयपत्रिका)
बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु ।
गावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु ॥ 89 ( क ) ॥
कोउ बिश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिनु ।
चलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ ||89 ( ख ) ॥
व्याख्या-
क्या सद्गुरु के बिना ज्ञान संभव है? और क्या वैराग्य के बिना भी ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है? उत्तर हैं-नहीं। यहाँ ज्ञान-प्राप्ति की दो आवश्यक शर्तें बताई गई हैं- सद्गुरु का सान्निध्य और वैराग्य । वस्तुतः जब तक तत्वदर्शी गुरु का साक्षात्कार नहीं होता तब तक आत्मस्वरूप की उपलब्धि असंभव है। गुरु का अर्थ ही है - अंधकार को नष्ट करने वाला। यदि गुरु से ज्ञान प्राप्त भी हो गया तो वैराग्य न होने पर वह कुछ काल के बाद समाप्त हो जाएगा। इसी प्रकार भगवद्-भक्ति के बिना वास्तविक सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती । यह केवल कवि-कथन ही नहीं है, वेद-पुराण इसके प्रमाण हैं। इसी प्रकार जब तक सहज संतोष न हो जाए, तब तक स्थायी शांति नहीं मिल सकती। असंतोष ही समस्त दुःखों का मूल है। सहज संतोष का तात्पर्य है-हर्ष-विषाद से मुक्ति । 'सहज संतोष' और 'हरि-भक्ति' सच्चे सुख के लिए उसी प्रकार अनिवार्य हैं, जिस प्रकार नौका चालन के लिए जल । अर्थात्
जिस प्रकार जल के बिना, केवल थल पर नौका नहीं चल सकती, वैसे ही 'संतोष' के बिना शांति नहीं प्राप्त हो सकती। कोई भी व्यक्ति चाहे कितना ही परिश्रम करते-करते थक जाए।
अलंकार -
1. पहली पंक्तिकारणमाला।
2. अंतिम पंक्ति दृष्टांत ।
3. वक्रोक्ति ।
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
दोहा
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु ।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह विधामु 190 (क)
सो.
अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल ।
महजु राम रघुबीर करुनाकर सुंदर सुखद ॥90 ( ख ) ॥
व्याख्या -
बिना विश्वास के भक्ति का उद्रेक नहीं होता । वस्तुतः श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है। तुलसीदास ने कहा भी है कि परिचय के बिना विश्वास नहीं होता, विश्वास के बिना प्रेम नहीं होता और प्रेम के बिना भक्ति में दृढ़ता नहीं आती जाने बिनु न होइ परतीती, बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती प्रीति बिना नहिं भगति दृढ़ाई, जिमि खगपति जल कै चिकनाई ।' जब तक भक्ति का उद्रेक नहीं होता, तब तक राम द्रवित नहीं होते अर्थात् भगवान् का अनुग्रह भक्ति से ही होता है। और जब तक राम का अनुग्रह प्राप्त नहीं होता, तब तक जीव स्वप्न में भी शांति नहीं प्राप्त कर सकता। काग कहता है कि हे गरुड़ ! इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए समस्त कुतर्कों और संदेहों को त्यागकर करुणानिधान तथा सुख प्रदान करने वाले श्रीराम की उपासना करो।
विशेष
गरुड़ में दो ही दोष आ गए थे-कुतर्क और संशय। उसका कुतर्क था- 'चिदानंद संदोह राम विकल कारन कवन ।' तथा उसका संदेह था - 'देखि चरित अति नर अनुसारी, भयउ हृदय मम संसय भारी' अतः काग भुशुण्डि ने इन दो दोषों का निवारण किया।
अलंकार - कारणमाला तथा विनोक्ति ।
मरुत कोटि सत बिपुल बल रबि सत दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
मरुत कोटि सत बिपुल बल रबि सत कोटि प्रकास ।
ससि सत कोटि सुसीतल समन सकल भव त्रास ॥91 (क)|
काल कोटि सत सरिस अति दुस्तर दुर्ग दुरंत ।
धूमकेतु सत कोटि सम दुराधरष भगवंत ॥ 91 (ख)
शब्दार्थ-
मरुत = पवन
समन (सं. शमन) = शांत करने वाले।
दुस्तर = 1. जिसे पार पाना कठिन हो,. विकट, कठिन
दुर्ग= जिसमें पहुँचना कठिन हो, दुर्गम ।
दुरंत = 1. जिसका अंत जल्दी न मिले, अपार प्रचंड, भीषण ।
धूमकेतु = अग्नि ।
दुराधर्ष = प्रबल, प्रचंड ।
व्याख्या-
भगवान् में करोड़ों पवन के समान बल है। पवन सर्वाधिक बलवान माना गया है। सैकड़ों करोड़ सूर्यो के समान उनमें प्रकाश है। सैकड़ों करोड़ चंद्रमा के समान संसारजन्य भय का दमन करने वाली शीतलता है। वे सैकड़ों करोड़ काल के समान विकट, दुर्गम और प्रचंड हैं तथा सैकड़ों करोड़ अग्नि के समान शक्तिशाली हैं।
रामु अमित गुन सागर थाह कि दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
रामु अमित गुन सागर थाह कि पावह कोइ
संतन्ह सन जस किछु सुनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ 1192 (क)
सो. भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन ।
तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन ॥92 ( ख ) ॥
व्याख्या -
काग कहता है कि श्रीराम अनंत गुणों के सागर हैं, उनके सम्यक् गुणों की जानकारी संभव नहीं । जैसे समुद्र की थाह लगाना दुष्कर है, वैसे ही श्रीराम के गुणों का पूर्ण ज्ञान संभव नहीं हैं। मैंने जो कुछ संतों (शिव जी तथा लोमश आदि) से सुना था, उसका वर्णन कर दिया।
भगवान् षट् ऐश्वर्य युक्त हैं, सुख के आगार हैं, करुणा की मूर्ति हैं। अतः ममत्व, अहंकार तथा अभिमान त्यागकर उनकी उपासना करनी चाहिए।
ताहि प्रसंसि बिबिधि बिधि सीस शब्दार्थ व्याख्या विशेष
ताहि प्रसंसि बिबिधि बिधि सीस नाइ कर जोरि
वचन विनीत सप्रेम मृदु बोलेउ गरुड़ बहोरि ॥93॥ (क)
प्रभु अपने अविबेक ते बूझउँ स्वामी तोहि
कृपासिंधु सादर कहहु जानि दास निज मोहि ॥93 ( ख ) ||
व्याख्या -
इस प्रकार गरुड़ ने काग की अनेक प्रकार से प्रशंसा की तथा हाथ जोड़कर प्रमाण किया और प्रेमपूर्वक मधुरवाणी में पुनः विनम्रतापूर्वक कहा कि हे स्वामी मैं अपने अज्ञानवश आपसे पुनः पूछता हूँ। हे दयानिधिः मुझे अपना सेवक समझकर मेरी जिज्ञासा का समाधान कीजिए।
तुम्हहि न ब्यापत काल अति शब्दार्थ व्याख्या विशेष |
सो. -
तुम्हहि न ब्यापत काल अति कराल कारन कवन ।
मोहि सो कहहु कृपाल ग्यान प्रभाव कि जोग बल 1194 (क)
दोहा -
प्रभु तव आश्रम आएँ मोर मोह भ्रम भाग ।
कारन कवन सो नाथ सब कहहु सहित अनुराग ॥ 94 ( ख ) ॥
व्याख्या -
ऐसा सर्वभक्षी, अनुलंघनीय, विकराल काल का भी आप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसका कारण आपका परम ज्ञानी होना है अथवा यह आपके योग का बल है? अखंड ज्ञान संपन्न व्यक्ति कालातीत होते हैं, उसी प्रकार अष्टांग योग की साधना के बल से लोग देह-सिद्ध प्राप्त कर लेते हैं, योगी योग बल से काल पर विजय प्राप्त कर लेते हैं।
गरुड़ का एक प्रश्न और है। वह कहता है कि हे स्वामी! आपके आश्रम में प्रवेश करते ही मेरा समस्त मोह और भ्रम भंग हो गया। इसका क्या कारण है? हे नाथ! मुझे ये सारे तथ्य प्रेमपूर्वक समझाइए ।
विशेष-
यहाँ गरुड़ ने काग से चार प्रश्न किए हैं
(क) राम भक्त होते हुए भी तुम्हें काग-शरीर क्यों मिला?
(ख) रामचरितसर की प्राप्ति कहाँ हुई?
(ग) महाप्रलय में भी आपका नाश क्यों नहीं होता है?
(घ) आपके आश्रम में प्रवेश करते ही मेरा मोह भंग क्यों हो गया?
पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत शब्दार्थ व्याख्या विशेष
पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जन कहहिं
अति नीचहु सन प्रीति करिअ जानि निज परम हित ॥95 ( क ) ॥
पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटंबर रुचिर ।
कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम | 95 (ख ) ||
शब्दार्थ -
पन्नगारि = सर्पों के शत्रु, गरुड़
पाट= रेशम
पाटंबर = रेशमी वस्त्र ।
कृमि = कीड़ा ।
व्याख्या-
काग का कथन है कि है गरुड़! वेद और लोकमत दोनों दृष्टियों से यह नीति सम्मत माना गया है कि यदि अत्यंत नीच प्राणी से अपना कल्याण होता हो तो उससे भी प्रेम करना चाहिए। सामान्यतः यह नीति है कि 'बुध नहिं करहिं अधम कर संगा', किंतु यदि अपना हित होता हो तो उससे भी प्रेम करने में दोष नहीं है। यही लोक रीति है।
अपने कथन की पुष्टि के लिए वह एक दृष्टांत देते हैं कि रेशम कीड़े से बनता है, उसी रेशम से सुंदर रेशमी वस्त्र बनाए जाते हैं। यद्यपि वह कीड़ा बहुत गंदा होता है, फिर भी लोग उसे बहुत प्यार से पालते हैं।
अलंकार - 1. दृष्टांत ।
2. परम अपावन प्रान सम-दृष्टांत ।
प्रथम जन्म के चरित अब कहउँ शब्दार्थ व्याख्या विशेष
प्रथम जन्म के चरित अब कहउँ सुनहु बिहगेस ।
सुनि प्रभु पद रति उपजड़ जातें मिटहिं कलेस || 96 ( क ) ||
पूरुब कल्प एक प्रभु जुग कलिजुग मल मूल ।
नर अरु नारि अधर्मरत सकल निगम प्रतिकूल || 96 ( ख ) ||
व्याख्या -
काग कहता है कि हे गरुड़! अब मैं अपने प्रथम जन्म का वर्णन करता हूँ। उसे सुनकर तुम्हारे पंच क्लेश समाप्त हो जाएँगे और प्रभु के चरणों में प्रेम भी उत्पन्न होगा। सत्ताईस कल्पों पूर्व (काग- शरीर 27 कल्पों से है) कलियुग था, जो समस्त विकारों का मूल है उस कलियुग में सभी स्त्री-पुरुष अधर्म परायण थे तथा वैदिक रीतियों के प्रतिकूल आचरण करते थे।
असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे शब्दार्थ व्याख्या विशेष
असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं ।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध न पूज्य ते कलिजुग माहिं |198 ( क ) |
सो.
जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ ।
मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ ॥98 ( ख ) ||
शब्दार्थ
भूषन = आभूषण, गहने।
भच्छाभच्छ: = अभक्ष्य का भक्षण करने वाले
अपकारी - = दूसरों का अहित करने वाले
चार = चुगलखोर, पिशुन
बकता = वक्ता ।
व्याख्या-
जो अमंगल वेष और आभूषण धारण करते हैं, वे ही कलियुग में सिद्ध और योगी माने जाते हैं। अघोर पंथी मद्य-माँस, मल-मूत्र आदि खाते थे तथा नरमुंड माला, हड्डियों, चिता की भस्म आदि शरीर पर लगाते थे। ऐसे लोगों को योगी और सिद्ध समझा जाता था। जो दूसरों की निंदा करते थे, चुगलखोर थे, उनकी पूजा होती थी । जो मन, वाणी और कर्म से झूठे थे, रोचक कथाओं द्वारा श्रोताओं को प्रसन्न करने में निपुण थे, उन्हें वक्ता माना जाता था। सत्य कथन करने वालों की उपेक्षा होती थी।
विशेष -
मध्यकाल में ऐसे तथाकथित साधुओं की भीड़ देखी जा सकती थी, जिनकी वेश-भूषा साधुओं के समान थी, किंतु आचरण निम्न कोटि का था। छल-प्रपंच, झूठ-फरेब, पापंड धूर्तता आदि उनकी जीवनचर्या थी। धर्म के नाम पर शैव, वैष्णव, शाक्त, जैन, बौद्ध, शैवों में पाशुपत, कापालिक, लकुलीश, वीर शैव, अघोरपंथी आदि मतावलम्बी विद्यमान थे। शाक्तों में आनंद भैरवी, भैरवी, भैरवी चक्र, सिद्धि मार्ग जैसी गुह्य साधनाओं का प्रचलन था । बौद्ध धर्म महायान, हीनयान, मन्त्रयान, सहजयान, वज्रयान आदि के रूप में विकसित हो रहा था। समाज में ऐसे साधुओं की भीड़ देखी जा सकती थी, जो अध्यात्म-चिंतन के लिए विरक्त नहीं हुए थे अपितु मठाधीश बनकर शिष्यों की अपार मंडली बनाकर ऐश्वर्य भोग में ही लिप्त रहते थे। उनकी सारी चतुराई सांसारिक भोग तक ही सीमित थी। इनमें कुछ लोग सदैव नग्न रहते थे, कुछ साधु मयूर पिच्छ धारण करते थे, कुछ मस्ती के लिए सुरापन करते थे। शैव मत में तांत्रिक क्रिया और श्मशान साधना प्रचलित थी। कापालिक वामाचारी थे। शव साधना, कपाल-साधना, पशु-बलि, नर बलि इनके साधना-सम्मत विधान थे। कालामुख संप्रदाय में कपाल पात्र भोजन, शव - भस्म - स्नान, सुरा-कुम्भ स्नान आदि विधियाँ प्रचलित थीं। कौल - साधना में असामाजिक एवं दूषित कार्य चरम सीमा पर पहुँच गए थे। माँस भक्षण, मदिरा सेवन आदि अनेक प्रकार के निषिद्ध कार्य इनकी साधना के अंग बन गए थे। वे कीचड़ और चंदन में, श्मशान और भवन में अंतर नहीं मानते थे। मद्य, माँस, मंत्र, मैथुन और मुद्रा वज्रयान के मूल आधार थे। प्रत्येक साधक के लिए एक मुद्रा (स्त्री) रखना अनिवार्य था। कबीरदास ने भी इसी प्रकार उस युग के तथाकथित साधुओं एवं उनके द्वारा अपनाई गई समाज-विरोधी गतिविधियों का इन शब्दों में उल्लेख किया है
इक जगम जटा धार, इक अंग बिभूति करै अपार ।
इक मुनियर एक मनहुँ लीन, ऐसे होत होत जग जात खीन ।
इक आराधें सकति सीव, इक परदा दे दे बधैँ जीव
इक कुलदेवी को जपहिं जाप, त्रिभुवनपति भूले त्रिविध ताप
ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं शब्दार्थ व्याख्या विशेष
ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात
बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि ।
जानद ब्रह्मा सो विप्रबर आँखि देखावहिं डाटि ||99 (ख)||
शब्दार्थ
बिप्र = ब्राह्मण
घात = हत्या ।
बादहिं = विवाद करते हैं।
व्याख्या -
कलियुग में स्त्री व पुरुष ब्रह्म ज्ञान के अतिरिक्त अन्य कोई बात नहीं करते और लालच में ब्राह्मण तथा गुरु की हत्या तक कर डालते हैं। शूद्र ब्राह्मणों से विवाद करते हैं कि क्या वे उनसे कुछ छोटे हैं? शूद्रों के अनुसार जो ब्रह्म को जानता है, वहीश्रेष्ठ ब्राह्मण है । उनका अभिप्राय है, क्योंकि वे भी ब्रह्म को जानते हैं इसलिए वे उनसे कम नहीं है। यह कहकर वे ब्राह्मणों को डाँटकर आँखें दिखाते हैं।
भए बरनं संकर कलि भिन्नसेतु दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
भए बरनं संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग ।
करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग ||100 (क ) ||
श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक ।
तेहिं न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक ||100 ( ख ) |
शब्दार्थ-
बरन संकर = वर्णसंकर, दो भिन्न जातियों के स्त्री-पुरुषों से उत्पन्न व्यक्ति ।
सेतु = पुल, मार्ग, पंथ, संप्रदाय रुज रोग
संजुत= संयुक्त
बिरति = वैराग्य ।
व्याख्या -
जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि गुण-कर्माश्रित वर्ण-व्यवस्था समाप्त हो गई थी। उनका स्थान जातियों ने ले लिया था। इनमें से अनेक जातियाँ ऐसी थीं जो व्यभिचार तथा अनुलोम-प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न हुई थीं। इस प्रकार वर्ण संकर (दो भिन्न जातियों के स्त्री-पुरुषों से उत्पन्न) जातियों का बाहुल्य हो गया था । ऐसे लोग प्राचीन धर्म-ग्रंथों पर आधारित व्यवस्था का तिरस्कार करके भिन्न-भिन्न मार्ग (सेतु) पर चलते थे। उनका कहना था कि वह जिस मार्ग (सेतु) पर चल रहे हैं, वह भव-सागर पार करने का सर्वोत्तम साधन है। ऐसे तथाकथित 'सेतु' प्रायः अनाचाराश्रित होते थे, लोग धर्म के नाम पर पाप कर्म करते थे। परिणामतः वे दुःख, भय, रोग, शोक, वियोग आदि विपत्तियों में पड़ जाते थे।
शास्त्रों में निरूपित ज्ञान-वैराग्य सम्मत भगवद्-भक्ति का मार्ग त्यागकर प्रायः ऐसे लोग मोह के वशीभूत होकर नाना प्रकार के पंथों और संप्रदायों का प्रवर्तन कर रहे थे।
विशेष-
कबीरदास ने भी पंथ निर्माता तथाकथित साधुओं की निंदा की है। उनका एक पद इस प्रकार है
ऐसा जोग न देखा भाई, भूला फिरै लिए गफिलाई ।
महादेव को पंथ चलावै, ऐसो बड़ो महंत कहावै ॥
हाट बजारै लावै तारी, काचे सिद्धहि माया प्यारी ।
कब दत्ते मावासी तोरी, कब सुखदेव तोपची जोरी ॥
नारद कब बंदूक चलाई, व्यासदेव कब बंब बजाई।
करहिं लराई मति के मंदा, ई अतीत की तरकस बंदा ॥
भए बिरक्त लोभ मन ठाना, सोना पहिरि लजावें बाना ।
घोरा घोरी कीन्ह बटोरा, गांव पाय जस चले करोरा ॥ (रमैनी-69)