रामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा - सप्रसंग व्याख्या शब्दार्थ व्याख्या विशेष | Ramchartra Manas uttarkand dohe withe explanatin Part 05
रामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा - सप्रसंग व्याख्या -भाग 01
रामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा - सप्रसंग व्याख्या शब्दार्थ व्याख्या विशेष 04
सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाषंड ।
मान मोह मारादि मढ ब्यापि रहे ब्रह्मंड ||101॥ (क ) ॥
तामस धर्म करहिं नर जप तप व्रत मख दान ।
देव न बरषहिं धरनीं बए न जामहिं धान ||101 ( ख ) ॥
व्याख्या -
काग कहते हैं कि हे गरुड़! सुनो। कलियुग में छल-कपट, हठ (दुराग्रह), अहंकार, ईर्ष्या-द्वेष, पाखंड, मिथ्याभियान, मोह, कामादि विकार पूरे ब्रह्मांड में परिव्याप्त हो जाएँगे। व्यक्ति सत्वगुण अथवा रजोगुण के स्थान पर तामसी वृत्तियों को बढ़ावा देने वाले जप, तप, यज्ञ, व्रत, दान आदि करेंगे। तात्पर्य यह है कि शास्त्रोक्त विधि से धार्मिक कृत्यों का दिखावा करेंगे। देश में प्रायः सूखा पड़ेगा, वर्षा कम होगी अथवा नहीं होगी। परिणामतः धान आदि वर्षा पर आश्रित अन्न नहीं पैदा होंगे।
सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार ।
गुनउँ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास निस्तार ॥102 ॥ ( क ) ॥
कृतजुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अऊ जोग ।
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग ॥102 ( ख )
शब्दार्थ-
ब्यालारि = सर्पों के शत्रु, गरुड़
मल = पाप
निस्तार = उद्धार
कृतयुग = सतयुग ।
व्याख्या -
काग कहता है कि हे गरुड़ ! सुनिए । यद्यपि कलियुग पापों और अवगुणों की खान है, फिर भी उसमें गुण भी हैं। इस युग में बहुत प्रयास के बिना ही भव-सागर से उद्धार हो जाता है। सतयुग, त्रेता और द्वापर अनेक में पूजा-पाठ, यज्ञ तथा योग-साधना से जो सद्गति प्राप्त होती हैं, वही गति कलियुग में केवल भगवन्नाम के स्मरण से प्राप्त हो जाती है ।
तुलनीय
कृते यद् ध्यायते विष्णुं त्रेतायां यजतो मरकैः ।
द्वापरे परिचर्यायां कली तद्धरि कीर्तनात् ||52|1 (भागवत-12/3)
सम जुग आन नहिं जौं नर कर दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास ।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास ॥103 ( क ) ॥
प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान ।
जेन केन विधि दीन्हें दान करह कल्यान ॥105 ( ख ) ||
व्याख्या -
इसके पूर्व कलियुग के दोष गिनाए गए हैं। यहाँ कलियुग का गुण बताते हुए कहा गया है कि कलियुग के समान दूसरा कोई युग नहीं है, यदि मनुष्य इस तथ्य पर विश्वास करे, क्योंकि इस युग में श्रीराम के निर्मल गुणों का गान मात्र करने से बिना अन्य प्रयास (यज्ञ, जप, तप आदि) के ही भव-सागर से पार हो जाता है। धर्म के चार चरण माने गए हैं, वे हैं-सत्य, दया, तप और दान। इसी प्रकार अधर्म के भी चार चरण माने गए हैं-असत्य भाषण, हिंसा, असंतोष और द्वेष । इनमें से कलियुग में केवल दान की ही प्रतिष्ठा है। किसी भी विधि से दिए गए दान से सर्वथा कल्याण ही होता है।
तुलनीयतमः
कृते प्रशंसन्ति त्रेतायां ज्ञानकर्म च द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेक कली युगे। (सृष्टिखण्ड, अध्याय-18/37)
हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं ।
भजिअ राम तजि काम सब अस विचारि मन माहिं || 104 ( क ) ||
तेहिं कलिकाल बरष बहु बसेउँ अवध बिहगेस ।
परेउ दुकाल विपति बस तब में गयउ विदेस || 104 (ख)
व्याख्या-
सभी प्रकार के गुण और दोष भगवान् की माया की उपज हैं। दोष और गुण दोनों हैं। वे मायाकृत है। भगवद्-भक्ति के बिना नहीं जाते। यह समझकर निष्काम भाव से ईश्वर की आराधना करनी चाहिए। यहाँ से कलिधर्म-निरूपण समाप्त हुआ।
काग पुनः कहता है कि हे गरुड़! उस कलियुग में मैं अनेक वर्षों तक अवध में रहा। कुछ समय के पश्चात् दुर्भिक्ष अथवा अकाल पड़ा। तब में विपत्तिवश अवध को छोड़कर विदेश चला गया। अकाल पड़ने पर भोजनादि का अभाव हो जाता है और लोग अकाल ही काल-कवलित होने लगते हैं।
में खत मल संकुल मति नीच जाति दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
दोहा
में खत मल संकुल मति नीच जाति बस मोह। -
हरिजन द्विज देखें जरउँ करउँ विष्णु कर द्रोह ||105 ( क ) ॥
सो.
गुर नित मोहि प्रबोध दुखित देखि आचरन मम।
मोहि उपजइ अति क्रोध दभिहि नीति कि भावई ||105 ( ख ) |
शब्दार्थ -
खल = दुष्ट
मल संकुल मति = दोष तथा विकारग्रस्त बुद्धि ।
हरिजन = भगवद्-भक्त ।
जरउँ : = ईर्ष्या करता था ।
प्रबोध = उपदेश देना ।
व्याख्या-
मुझमें दुष्टता, विकारग्रस्त बुद्धि, नीचता, मोह आदि अनेक अवगुण थे। अतः मैं भगवद् भक्तों तथा ब्राह्मणों को देखकर उनसे ईर्ष्या करता था। विष्णु का द्रोही था, वैष्णवों से वाद-विवाद करता था ।
गुरु मेरे इस अनैतिक आचरण को देखकर बहुत दुःखी होते थे तथा सन्मार्ग पर चलने का उपदेश देते थे। किंतु मुझ पर उनके वचनों का विपरीत प्रभाव पड़ता था। गुरु पर भी मुझे बहुत क्रोध आ जाता था, क्योंकि दंभी व्यक्ति को नीति अथवा नैतिक वचन कभी भी अच्छे नहीं लगते हैं।
एक बार हर मंदिर जपत रहेउँ सिव दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
दोहा
एक बार हर मंदिर जपत रहेउँ सिव नाम ।
गुर आयउ अभिमान तें उठि नहिं कीन्ह प्रनाम ॥106 ( क ) ॥
सो
दयाल नहिं कहेउ कछु उर न रोष लवलेस ।
अति अथ गुर अपमानता सहि नहिं सके महेस 1106 (ख)
व्याख्या -
एक दिन मैं शिव मंदिर में उनके नाम का जप कर रहा था, उसी समय मेरे गुरु आ गए। मैंने अभिमानवश उठकर उनको प्रणाम नहीं किया। गुरु अत्यंत दयालु थे, अतः उन्होंने कुछ भी नहीं कहा और उनके हृदय में रंचमात्र का भी क्रोध नहीं आया। किंतु गुरु का अपमान जघन्य पाप था। अतः शिव जी उसे सहन नहीं कर सके ।
हाहाकार कीन्ह गुर दारुन सुनि सिव दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
हाहाकार कीन्ह गुर दारुन सुनि सिव साप ।
कंपित मोहि बिलोकि अति उर उपजा परिताप ॥107 ( क ) ॥
करि दंडवत सप्रेम द्विज सिव सन्मुख कर जोरि
बिनय करत गदगद स्वर समुझि घोर गति मोरि ||107 ( ख ) ॥
व्याख्या -
शिव जी के भयंकर शाप को सुनकर गुरु शोक से चीत्कार कर उठे तथा मुझे काँपता हुआ देखकर उनके हृदय में असीम वेदना उत्पन्न हो गई। उन्होंने शिव जी को साष्टांग प्रणाम किया और उनके सम्मुख हाथ जोड़कर गदगद वाणी में विनती करने लगे, क्योंकि वह मेरी अधोगति सुनकर बहुत दुःखी हो गए थे।
सुनि विनती सर्वग्य सिव देखि विप्र दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
सुनि विनती सर्वग्य सिव देखि विप्र अनुरागु ।
पुनि मंदिर नभवानी भट्ट द्विजबर बर मागु 1108 (क ) |
जौं प्रसन्न प्रभु मो पर नाथ दीन पर नेहु
निज पद भगति देइ प्रभु पुनि दूसर बर देहू || 108 ( ख ) ॥
व्याख्या -
सर्वज्ञ शिव ने विप्र की विनती सुनकर और उसका प्रेम देखकर, मंदिर में पुनः आकाशवाणी की कि हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! वरदान माँगो तब विप्र ने कहा कि हे प्रभु! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और इस दीन पर स्नेह है। तो कृपा करके मुझे अपने चरणों में भक्ति प्रदान कीजिए, तत्पश्चात् दूसरा वरदान यह दीजिए।
तव माया बस जीव जड़ संतत फिरइ दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
तव माया बस जीव जड़ संतत फिरइ भुलान ।
तेहि पर क्रोध न करिअ प्रभु कृपासिंधु भगवान ||108 (ग)
संकर दीनदयाल अब एहि पर होहु कृपाल ।
साप अनुग्रह होइ जेहिं नाथ थोरेहीं काल 1108 (घ)
व्याख्या -
विप्र ने कहा कि हे प्रभु! यह जड़ जीव आपकी माया के वशीभूत होकर निरंतर भटकता रहता हैं। अतः हे दयानिधि भगवान्! इस शिष्य पर क्रोध न कीजिए। हे दीन दयाल शिव जी ! अब इस पर ऐसी दया कीजिए कि आपके शाप का अंत अल्प काल में ही हो जाए अर्थात् यह दस हजार वर्षों तक सर्प योनि में न पड़ा रहे।
सुनि सिव बचन हरषि गुर एवमस्तु इति दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
सुनि सिव बचन हरषि गुर एवमस्तु इति भाषि ।
मोहि प्रबोधि गयउ गृह संभु चरन उर राखि ॥109 ( क ) |
प्रेरित काल बिंधि गिरि जाइ भयउँ मैं ब्याल ।
पुनि प्रयास बिनु सो तनु तजेउँ गएँ कछु काल ॥109 (ख)||
व्याख्या -
शिव जी की उपर्युक्त वाणी सुनकर गुरु बहुत प्रसन्न हुए और कहा - 'एवमस्तु' अर्थात् ऐसा ही होगा। तत्पश्चात् मुझे उपदेश देकर, शिव के चरणों को हृदय में धारण करके गुरु अपने घर चले गए। काल की प्रेरणा से मैं विंध्याचल में जाकर सर्प हो गया। कुछ कालोपरांत मैंने बिना प्रयास के अर्थात् बिना कष्ट के ही उस शरीर को त्याग दिया।
जोइ तनु धरउँ तजउँ पुनि अनायास दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
जोइ तनु धरउँ तजउँ पुनि अनायास हरिजान ।
जिमि नूतन पट पहिरइ नर परिहरइ पुरान ॥ 109 ( ग ) ॥
सिवें राखी श्रुति नीति अरु में नहिं पावा क्लेस ।
एहि बिधि घरेऐं विविधि तनु ग्यान न गयउ खगेस 1109 (घ) |
व्याख्या -
काग कहते हैं कि हे हरि के वाहन अर्थात् गरुड़ जी इस प्रकार मैं जो शरीर धारण करता था, बिना जन्म-मरण के कष्ट के ही सरलतापूर्वक उसे त्याग देता था। मेरा शरीर परिवर्तन उसी प्रकार सहज ढंग से होता था, जिस प्रकार कोई व्यक्ति पुराने वस्त्र त्यागकर नए वस्त्र धारण कर लेता है ।
इस प्रकार शिव जी ने वेद नीति की रक्षा की और मुझे भी जन्म-मरण संबंधी क्लेश का अनुभव नहीं हुआ। इसी प्रकार मैंने अनेक योनियों में शरीर धारण किया, किंतु शिव जी के अनुग्रह से मेरा ज्ञान बना रहा।
अलंकार- उदाहरण।
तुलनीय- द्वितीय पंक्ति-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यानि संयाति नवीन देही ॥
गुर के बचन सुरति करि राम चरन दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
गुर के बचन सुरति करि राम चरन मनु लाग
रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग ॥110 (क)॥
मेरु सिखर बट छायाँ मुनि लोमस आसीन ।
देखि चरन सिरु नायउँ बचन कहेउँ अति दीन ||110 ( ख )
व्याख्या-
मुझे गुरु के इन वचनों का स्मरण करके कि तुम्हारे हृदय में भी राम के चरणों में अविरल प्रीति होगी ('अविरल भगति राम पद होई' तथा 'राम भगति उपजिहि उर तोरे), मेरे मन में सगुण राम के चरण कमलों में प्रेम बढ़ता जा रहा था। मैं दशरथ सुत श्रीराम के पावन यश का गान करता हुआ विचरण कर रहा था और उनके प्रति निरंतर नित- नूतन प्रेम में वृद्धि हो रही थी । भ्रमण करते हुए मैं सुमेरु पर्वत पर पहुँच गया। उसके शिखर पर वट वृक्ष की छाया में लोमश ऋषि विराजमान थे । उनको देखकर मैंने उनके चरणों में प्रमाण किया और अत्यंत विनम्र वाणी में उनसे निवेदन किया।
विशेष-
लोमस (लोमश ऋषि) - ये ब्रह्मा जी के पुत्र हैं तथा चिरंजीवी हैं। एक ब्रह्मा के मरने पर ये अपना एक रोम (बाल) उखाड़कर फेंक देते हैं। इसीलिए इनका नाम लोमश (लोम अथवा रोम तोड़ने वाला) पड़ा।
सुनि मम बचन बिनीत मृदु मुनि दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
सुनि मम बचन बिनीत मृदु मुनि कृपाल खगराज
मोहि सादर पूँछत भए द्विज आयहु केहि काज ॥110 (क)|
तब मैं कहा कृपानिधि तुम्ह सर्बग्य सुजान
सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहु भगवान ||110 ( ख ) ॥
व्याख्या -
हे खगराज ! मेरे अत्यंत विनम्र और कोमल वचनों को सुनकर दयालु लोमश ऋषि ने मुझसे आदरपूर्वक पूछा कि हे विप्र ! तुम यहाँ किस प्रयोजन से आए हो? तब मैंने कहा कि हे दयानिधि ! आप सर्वज्ञ और सुजान हैं, अतः आप कृपा करके मुझे सगुण ब्रह्म की आराधना का उपदेश दीजिए।
बारंबार सकोप मुनि करइ निरूपन दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
बारंबार सकोप मुनि करइ निरूपन ग्यान ।
मैं अपनें मन बैठ तब करउँ बिबिधि अनुमान ॥111 ( क ) ॥
क्रोध कि द्वैतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान
मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान ||111 ( ख ) ॥
शब्दार्थ-
परिछिन्न = घिरा हुआ, सीमित
जड़ = अज्ञानोपहित ।
व्याख्या -
विप्र तथा लोमश मुनि में वाद-विवाद हो जाने पर, वह क्रोधपूर्वक बार-बार अपने ज्ञान का प्रदर्शन करने लगे और विप्र के मन में अन्य अनेक प्रकार के प्रश्न उठने लगे। वह विचार करने लगा कि द्वैतभाव के बिना क्रोध कैसे और किस पर आएगा, बिना अज्ञान के द्वैत-बुद्धि कैसे आ सकती है तथा माया से आवृत्त, सीमित तथा अज्ञानोपहित जीव ईश्वर के समान कैसे हो सकता है?
विशेष -
जब तक व्यक्ति दूसरे को अपने से पृथक् नहीं मानेगा, तब तक क्रोध किस पर करेगा? अज्ञान से द्वैत होता है और द्वैत से क्रोध । द्वैत नानात्व दृष्टि से होता है। नानात्व दृष्टि ही अज्ञान है। लोमश मुनि ने उसे उपदेश दिया था कि 'सो तैं ताहि तोहि नहि भेदा', अर्थात् तुम ईश्वर हो- तत्वमसि । तुम्हारे और ईश्वर में कोई भेद नहीं है- अयमात्मा ब्रह्म । तात्पर्य यह है कि जब सभी प्राणी ईश्वर ही हैं- 'देख ब्रह्म समान सब माहीं, तब कौन किस पर क्रोध करेगा? अतः लोमश के कथन में विरोधाभास है। विप्र यह भी सोचता है कि ईश्वर स्वतंत्र है, जीव माया के वश में और परतंत्र है। ईश्वर सर्वज्ञ है, जीव अल्पज्ञ है। अतः वह ईश्वर कैसे हो सकता है? इस प्रकार उसे ईश्वर - जीव के भेद स्मरण हो आए।
यहाँ ईश्वर, जीव और माया - तीनों की स्थिति पृथक्-पृथक् दिखाई गई है। इस प्रकार अद्वैतवाद का खंडन और विशिष्टाद्वैतवाद का प्रतिपादन किया गया है।
अलंकार -
प्रत्यक्षप्रमाण, वक्रोक्ति तथा विनोक्ति ।
तुरत भयउँ मैं काग तब पुनि मुनि पद दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
तुरत भयउँ मैं काग तब पुनि मुनि पद सिरु नाइ ।
सुमिरि राम रघुबंस मनि हरषित चलेउँ उड़ाई ||112 (क)॥
उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध ।
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ||112 ( ख ) ॥
व्याख्या -
मुनि के शाप से मैं तुरंत काग हो गया। शापवश वही शरीर काग का शरीर हो गया, शरीर को त्यागकर गर्भवास के उपरांत दूसरा शरीर धारण की आवश्यकता न पड़ी। काग होने पर मैंने लोमश ऋषि को पुनः प्रणाम किया। यह बिदाई का प्रणाम था। तत्पश्चात् रघुवंश शिरोमणि श्रीराम का स्मरण करते हुए प्रसन्न भाव से उड़ चला । पुनः प्रणाम करने में यह व्यंजना भी हो सकती हैं कि आप धन्य हैं। बनते थे अभेदवादी और व्यवहार किया भेदवादियों जैसा.
संभवतः इस घटना को सुनकर पार्वती को आश्चर्य हुआ होगा। अतः शिव जी कहते हैं कि हे उमा ! जो एकनिष्ठ भाव से राम की भक्ति करते हैं तथा काम, अहंकार, क्रोध से रहित हैं, वे सभी प्राणियों में अपने प्रभु का अस्तित्व मानते हैं- 'सीयराम मय सब जग जानी।' अतः वे किससे विरोध करें? तात्पर्य यह है कि उनकी दृष्टि में किसी भी व्यक्ति का विरोध करना, राम का ही विरोध करना होगा।
तुलनीय -
ईशावास्योपनिषद् में भी कहा गया है
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति ।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥6॥
सदा राम प्रिय होहु तुम्ह सुभ गुन दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
सदा राम प्रिय होहु तुम्ह सुभ गुन भवन अमान ।
कामरूप इच्छामरन ग्यान बिराग निधान ||113 ( क ) ॥
जेहिं आश्रम तुम्ह बसब पुनि सुमिरत श्रीभगवंत ।
ब्यापिहि तँह न अबिद्या जोजन एक प्रजंत ॥113 ( ख ) ॥
शब्दार्थ -
अमान = अभिमान रहित ।
कामरूप = इच्छानुसार रूप परिवर्तन करने की क्षमता।
निधान = खजाना।
प्रजंत = पर्यंत, तक।
व्याख्या -
लोमश ने यह भी आशीर्वाद दिया कि तुम सदैव राम के प्रिय रहोगे। श्रीराम तुमसे प्रेम करते रहेंगे और तुम श्रीराम से प्रेम करते रहोगे। तुम समस्त गुणों से संपन्न तथा अभिमान रहित रहोगे। तुम इच्छानुसार अपना रूप-परिवर्तन कर सकोगे। मृत्यु तुम्हारे वश में रहेगी अर्थात् जब तुम्हारी इच्छा होगी तभी तुम्हारी मृत्यु होगी, प्रलय काल में भी तुम्हारा विनाश नहीं होगा। तुम ज्ञान और वैराग्य की निधि बनोगे। तुम श्रीभगवान का ध्यान करते हुए जिस आश्रम में निवास करोगे, उसके चतुर्दिक एक योजन (चार कोस अथवा 12 किलोमीटर) तक अविद्या माया प्रवेश नहीं हो सकेगा।
ताते यह तन मोहि प्रिय भयउ राम पद दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
ताते यह तन मोहि प्रिय भयउ राम पद नेह ।
निज प्रभु दरसन पायउँ गए सकल संदेह ||114 ( क ) ॥
भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप ।
मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप ||114 (ख)।
व्याख्या-
मुझे यह काग शरीर इसलिए प्रिय है, क्योंकि मुझे इसी शरीर से श्रीराम के चरणों में स्नेह पैदा हुआ, अपने प्रभु का दर्शन मिला तथा मेरे समस्त संदेह समाप्त हो गए।
भक्ति के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए वह कहता है कि मैंने हठपूर्वक भक्ति का पक्ष ग्रहण किया, जिससे लोमश ऋषि ने मुझे शाप दिया, किंतु अंततः मुझे ऐसे वरदान प्राप्त हुए, जो मुनियों को भी दुर्लभ हैं। यह भक्ति की ही महिमा है।
पुरुष त्यागि सक नारिहि जो बिरक्त दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
पुरुष त्यागि सक नारिहि जो बिरक्त मति धीर ।
न तु कामी बिषयाबस बिमुख जो पद रघुबीर ||115 ( क ) ||
सोउ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि ।
बिबस होइ हरिजान नारि बिघ्नु माया प्रगट ||115 ( ख ) |
व्याख्या -
जो वैराग्य संपन्न और धीर बुद्धि के पुरुष हैं, वही स्त्री का त्याग कर सकते हैं, किंतु जो भगवद् भक्त नहीं हैं तथा कामी और विषयी हैं, वे स्त्री का त्याग नहीं कर सकते। किंतु हे गरुड़ जी! जो वैराग्य संपन्न और धीर बुद्धि हैं, वे भी मृग के समान सुंदर नेत्रों वाली और चंद्रमुखी स्त्री को देखकर उसके प्रति आकृष्ट हो जाते हैं क्योंकि विश्व में माया स्त्री रूप में ही प्रकट है। स्त्री माया का ही रूप है और माया के वश में बड़े-बड़े ज्ञानी और विरागी भी हो जाते हैं, जैसे- नारद और विश्वामित्र ।
विशेष -
जो वैराग्य संपन्न हैं तथा जिनमें स्त्री-त्याग की शक्ति है, यदि वह भक्त नहीं हैं तो वे नारी को देखकर विकल हो जाते हैं। भक्तों पर नारी ( माया) का प्रभाव नहीं पड़ता है। स्त्रियाँ यद्यपि अबला कही जाती हैं, फिर भी वे अपने रूपाकर्षण से बड़े-बड़े मुनियों को भी अपने वश में कर लेती हैं, क्योंकि विश्व को रचने वाली माया स्त्री रूप में सर्वत्र प्रकट है। नारी माया का स्थूल रूप है।
अलंकार -
1. विभावना (क्योंकि स्त्री अबला होते हुए भी सबल पुरुषों को अपने वश में कर लेती हैं) ।
2. नारि बिष्नु माया प्रगट - निदर्शना ।
3. तीसरी पंक्ति- अर्थातरन्यास ।
यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ ।
जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह न होइ ॥ 116 ( क ) ॥
औरउ ग्यान भगति कर भेद सुनहु सुप्रबीन ।
जो सुनि होइ राम पद प्रीति सदा अबिछीन ||116 (ख)॥
व्याख्या -
श्री रघुनाथ का यह गुप्त चरित जल्दी किसी की समझ में नहीं आता। यदि कोई व्यक्ति श्रीराम के से उसे जान ले, तब उसे स्वप्न में भी मोह नहीं होता । ज्ञान और भक्ति के दो भेद ऊपर बताए गए हैं-1. पुरुष हैं और माया तथा भक्ति स्त्री हैं, 2. भक्ति श्री रघुनाथ को प्रिय है, माया नर्तकी है। इनके अतिरिक्त अनुग्रह ज्ञानादि ज्ञान और भक्ति में एक अंतर और है। हे चतुर गरुड़ जी ! उस अंतर को भी समझ लीजिए। उसके सुनने से श्रीराम के चरणों में अविरल, कभी न क्षीण होने वाली भक्ति सुलभ हो जाएगी।
जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ
बुद्धि सिरावै ग्यान घृत ममता मल जरि जाए ||117 (क)॥
शब्दार्थ -
लाइ = लगाकर
सिरावै = ठंडा करें।
व्याख्या -
मक्खन निकाल लेने पर उसे योगाग्नि प्रकट करके उसमें शुभ और अशुभ कर्मों (सात्विक तथा राजस - तामस कर्मों) का ईंधन लगाकर अग्नि को प्रज्वलित करें। इस प्रक्रिया से मक्खन से घृत निकल आएगा और ममत्व रूपी मल (छाँछ) जल जाएगा । शुभाशुभ दोनों प्रकार के कर्म जलाने के लिए कहा गया है, क्योंकि ये स्वर्ग-नरक आदि में घुमाते रहते हैं। इनके जलने पर ही मुक्ति हो सकती है। अतः इनको जला देना चाहिए। अष्टांग योग ही अग्नि को प्रकट करना है। उसमें दोनों प्रकार के कर्म रूप ईंधन को लगाने से अग्नि प्रज्वलित हो जाती है।
अलंकार - सांगरूपक ।
तब विग्यानरूपिनी बुद्धि बिसद घृत दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
तब विग्यानरूपिनी बुद्धि बिसद घृत पाइ -
चित्त दिआ भरि धरै दृढ़ समता दिअटि बनाइ ||117 ( ख ) ॥
शब्दार्थ-
विषद = शुद्ध ।
दिआ = दीपक ।
दिअटि = दीपाधार, जिस पर दीपक रखा जाता है।
व्याख्या -
घी दीपक में रखा जाता है, दीपक दीवट पर रखा जाता है, जिससे वह गिरे नहीं। तात्पर्य यह है कि विज्ञान रूपी बुद्धि अर्थात् विज्ञान का निरूपण करने वाला बुद्धि को शुद्ध घृत (ज्ञान) प्राप्त हो गया, उसे चित्त रूपी दीपक में भरकर समत्व-भाव रूपी दृढ़ दीपाधार पर दीपक को रख दें। समत्व का तात्पर्य यह है चित्त में वैषम्य - भाव न आने पाए। दीपक को सुरक्षित स्थान पर रख दिया। वह बाह्य समाधि हुई ।
विशेष -
जब शुद्ध आत्म तत्व की पहचान हो गई, ज्ञान-घृत मिल गया, तब विज्ञान का निरूपण करने वाली अर्थात् आत्मा-परमात्मा की वृत्ति एक में मिलाने वाली बुद्धि का काम आया, उस पर समता रूपी दीअट को आधार बनाकर चित्त रूपी दीपक में ज्ञान भरकर रख दिया। मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार वृत्ति एक में मिलाकर स्थिर होना ही समता रूपी दीपाधार है।
तीनि अवस्था तीनि गुन तेहि कपास दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
तीनि अवस्था तीनि गुन तेहि कपास तें काढ़ि
तूल तुरीय संवारि पुनि बाती करे सुगादि #117 (ग)
शब्दार्थ -
तीनि अवस्था = जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति।
तीन गुन= सत्, रज, तम
तूल = रुई।
तुरीय= तुरीयावस्था (यह शब्द + चतुर ईयटू के योग से बना है, 'च' और 'टू' का लोप हो गया; इस प्रकार तुरीय शेष रह गया)
सुगाड़ि = स्थूल और मोटी
व्याख्या -
दीपक हो गया, घृत हो गया। अब बत्ती चाहिए, जिससे दीपक को जलाया जा सके , बत्ती के लिए रुई चाहिए। रूई कपास में होती है, उससे निकालना होता है।
यहाँ तीन अवस्थाएँ कपास के फाल अथवा बोड़री पर के छिलके हैं और तीन गुण भीतर के बिनौले हैं। तुरीयावस्था रुई है। कपास में तीन फाल होते हैं, जिनके ऊपर छिलका होता है। तीनों फालों में विनीला होता है। जाग्रत सत्व प्रधान है, स्वप्न रजः प्रधान है और सुषुप्ति तम प्रधान है। तीनों गुणों और तीनों अवस्थाओं के निकल जाने पर यह ज्ञान होगा कि हम ब्रह्मस्वरूप चिन्मय अविनाशी हैं। तुरीयावस्था आत्म-स्वरूप की उपलब्धि की अवस्था है। यही रुई है। उसे भी सँवारकर अर्थात् तुरीयावस्था के संस्कारों को भली प्रकार से घनीभूत कर, यही बाती है, उसे दीपक में रख दे।
एहि बिधि लेसे दीप तेज रासि दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
एहि बिधि लेसे दीप तेज रासि बिग्यानमय ।
जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब 117
शब्दार्थ-
लेसै = जलावे, प्रज्वलित करे।
बिग्यानमय अपरोक्ष ज्ञान से युक्त
सलभ (सं. शलभ) = पतिंगे।
व्याख्या-
उपर्युक्त विधान से ज्ञान रूपी दीपक को प्रज्वलित कर दें यह ज्ञान दीप तेजोमय तथा अपरोक्ष ज्ञान-संपन्न होता है। इसके निकट पहुँचते ही मद, मात्सर्य आदि पतिंगे जल जाएँगे ।
विशेष-
इस ज्ञान - दीपक प्रसंग में ज्ञान की सात भूमियाँ बताई गई हैं। योगवाशिष्ठ में ज्ञान की सात भूमियों का उल्लेख इस प्रकार मिलता है-
ज्ञानभूमिः शुभेच्छाया प्रथमा समुदाहता।
विचारणा द्वितीया स्यात्तृतीया तनुमानसा ॥
सत्वापत्तिश्चतुर्थी स्यात्ततोऽसंसक्तिनामिका।
पदार्थाथः यिनी पष्ठी सप्तमी यंगा स्मृताः ॥
1. शुभेच्छा - परम तत्व की इच्छा, सत्य को पाने की कामना ।
2. विचारणा - गुरु द्वारा प्राप्त उपदेश का चिंतन-मनन ।
3. तनुमानसा मन का क्षीण होना।
4. सत्वापत्ति शुद्ध अंतःकरण, जिसमें सत्वगुण प्रधान हो जाए।
5. असंसक्ति विषयों से सारी आसक्ति का हट जाना।
6. परार्थाभाविनी - जो ज्ञानभूमि परब्रह्म के अतिरिक्त अन्य किसी की भावना नहीं करती।
7. तुर्यगा- यहाँ जीव तुरीयावस्था में पहुँच जाता है। उसे सब ब्रह्ममय प्रतीत होता है।
यही सात भूमियाँ ज्ञानदीपक प्रसंग में इस प्रकार बताई गई हैं-
1. सात्विक श्रद्धा..... अचारा - शुभेच्छा
2. तेइ तृन..... निजदासा- विचारणा ।
3. परमधर्ममय ...........जमावै तनुमानसा
4. मुदिता ........सुपुनीता सत्त्वापत्ति ।
5. जोग अगिनि .........जरिजाइ -असंसक्ति ।
6. तब विज्ञान रूपिनी बनाइ परार्थाभाविनी ।
7. एहि विधि.. .. सलभ सब-तुर्यगा
तब फिरि जीव विविधि विधि पावह दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
तब फिरि जीव विविधि विधि पावह संसृति क्लेस ।
हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस ||118 (क)
कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन बिबेक ।
होइ घुनाच्छर न्याय जी पुनि प्रत्यूह अनेक ॥118 (ख)
शब्दार्थ-
संसृति = जन्म, जरा, मरण आदि
दुस्तर = कठिन।
घुनाच्छर न्याय = लकड़ी में बैठे घुन के द्वारा लकड़ी काटते-काटते दैवयोग से अक्षर बन जाना। प्रत्यूह = बाधा।
व्याख्या -
ज्ञान विमुख हो जाने पर जीव विषयी (बद्ध) ही रह जाता है। परिणामतः वह जन्म, जरा, मरण आदि संबंधी क्लेश भोगता रहता है। इस प्रकार हे पक्षिराज ! भगवान् की माया अत्यंत कठिन है, उससे पार पाना दुष्कर है, और ज्ञान-मार्ग कहने में, समझने में तथा साधना में बहुत कठिन है। तात्पर्य यह है कि जीव-ब्रह्म एक ही हैं, यह कहना कठिन है। यदि कोई समझाने का प्रयत्न करे तो उसे समझना और भी कठिन है। यदि किसी प्रकार से समझ में भी आ जाए तो उसकी साधना अत्यंत कठिन है। यदि किसी प्रकार घुणाक्षर न्याय से ज्ञान प्राप्ति हो भी जाए, तब भी उस मार्ग में अनेक विघ्न-बाधाएँ हैं। जैसे घुन द्वारा लकड़ी काटते-काटते दैवयोग से कोई अक्षर बन जाए तो इसका तात्पर्य यह नहीं कि घुन जान-बूझकर अक्षर बना रहा था। अक्षर का बनना संयोगमात्र है। उसी प्रकार यदि कदाचित् ज्ञान-मार्ग से सिद्धि प्राप्त हो भी जाए तो अनेक बाधाएँ हैं, क्योंकि माया अनेक प्रकार के उपद्रव करती रहती है, वह ऋद्धि-सिद्धि को प्रेरित करती है, बुद्धि को अनेक प्रकार के प्रलोभन देती है, आँचल की वायु से ज्ञान दीपक को बुझाने की चेष्टा करती है और अंततः इन्द्रियों के देवता विघ्न उपस्थित करते हैं। यही ज्ञान-मार्ग की बाधाएँ हैं।
तुलनीय
हरि माया अति दुस्तर न जाइ बिहगेस
यन्मायावशवर्त्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः ।
सेवक सेव्य भाव बिनु भव न तरिअ दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
सेवक सेव्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि ।
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि ॥ 119 ( क ) ||
जो चेतन कहँ जड़ करइ जड़हि करइ चैतन्य ।
अस समर्थ रघुनायकहि भजहिं जीव ते धन्य ॥119 (ख)||
व्याख्या -
सेवक- स्वामी के भाव के बिना संसार-सागर से पार पाना संभव नहीं है। हे उरगारि ! इस सिद्धांत को ध्यान में रखकर श्रीराम के चरण कमलों की उपासना कीजिए ।
श्रीराम में इतनी शक्ति है कि वह चेतन को जड़ और जड़ को चेतन करने की क्षमता रखते हैं। ऐसे समर्थ श्रीराम की जो उपासना करते हैं, वे धन्य हैं।
विशेष-
1. सेवक सेव्य भाव-भक्ति के चार भाव माने गए हैं- दास्य, सख्य, माधुर्य और वात्सल्य तुलसीदास दास्य भाव के उपासक थे। इसी की पुष्टि इस कथन द्वारा की गई है।
2. जो चेतन करूँ जड़ करह-चेतन जीव है-चेतन अमल सहज सुखरासी, किंतु माया के वशीभूत होने पर वह जड़वत् आचरण करने लगता है और माया जड़ है- 'जड़-चेतनहि ग्रंथि परि गई' में 'जड़' शब्द माया के लिए ही आया है। वह चेतन जीव को बाँध लेती है। दूसरा उदाहरण हैं-नारद चेतन हैं, किंतु वह इतने जड़ हो गए कि अपने स्वामी ईश्वर पर ही क्रोध कर बैठे, और उनको शाप दे दिया। ध्रुव पाँच वर्ष के अज्ञानी (जड़) बालक थे। वह प्रभु की स्तुति करना चाहते थे, किंतु उनको ज्ञान ही नहीं था । भगवान् विष्णु ने अपने शंख से उनके गाल का स्पर्श कर लिया अतः वह सर्वशास्त्रों के ज्ञाता हो गए।
ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं ।
कथा सुधा मथि काहिं भगति मधुरता जाहिं ॥1120 ( क ) |
बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि ।
जय पाइज से हरि भगति देखु खगेस विचारि ||120 (ख)
शब्दार्थ-
ब्रह्म = यहाँ वेद से तात्पर्य है ।
पयोनिधि = क्षीरसागर
मंदर = मंदराचल ।
बिरति = वैराग्य
चर्म = ढाल
असि = तलवार ।
व्याख्या
वेद-पुराणादि क्षीरसागर हैं, ज्ञान मंदराचल है, संत देवता हैं जिस प्रकार समुद्र मंथन के द्वारा देवताओं ने उससे अमृत निकाला था, जिसे पीकर वे अमर हो गए और राक्षसों से युद्ध किया, उसी प्रकार संत जन वेद-पुराणादि से कथा रूपी अमृत निकालते हैं, जिसकी भक्ति ही मधुरता है। तात्पर्य यह है कि राम कथा वेदों का सार है। वैराग्य रूपी ढाल और ज्ञान रूपी तलवार के द्वारा मद, लोभ, मोह आदि शत्रुओं का वध करके जो विजय प्राप्त होती है, वही हरि की भक्ति है।
विशेष-
1. यहाँ मोह-विवेक बुद्ध की व्यंजना है। एक ओर मोह राजा है, कामादि उसके सहायक हैं, दूसरी ओर विवेक राजा है, वैराग्यादि उसके सहायक हैं। दोनों पक्षों में अनादि काल से युद्ध हो रहा है। इसी द्वन्द्व में ज्ञानेन्द्रियाँ-कर्मेन्द्रियाँ, प्राण आदि प्रजा पीड़ित रहती हैं। जब कथामृत-पान से विवेक का पक्ष दृढ़ होता है, तब मोहादि मार डाले जाते हैं। विवेक रूपी राजा की विजय होती है। उसका अकंटक राज्य स्थापित होता है।
2. इसी तथ्य की व्यंजना 'विनयपत्रिका' में सांगरूपक के द्वारा की गई है। मोह रावण है, उसका भाई कुंभकर्ण अहंकार है तथा मेघनाद काम है। लोभ अतिकाय, मत्सर महोदर, क्रोध देवान्तक, द्वेष दुर्मुख, दंभ खर, कपट अकंपन तथा दर्प, मद आदि अन्य राक्षस हैं। विभीषण जीव है, जो इन दुष्टों के मध्य चिंताग्रस्त निवास करता है। श्रीराम ने इसीलिए दशरथ-कौशल्या के यहाँ जन्म लिया यहाँ विवेक दशरथ हैं, शुभ भक्ति ही कौशल्या हैं तथा ज्ञान सुग्रीव है। इनकी सहायता से मोह पक्ष का विनाश हुआ
मोह दसमौलि, तद्भ्रात अहंकार, पाकारिजित काम विस्रामहारी।
लोभ अतिकाय, मत्सर महोदय दुष्ट, क्रोधपापिष्ठ विबुधांतकारी ॥
द्वेष दुर्मुख, दंभ खर, अकंपन कपट दर्प मनुजाद, मद-सूलपानी।
अमितवल परमदुर्जय, निसावर निकर सहित पवर्ग गो-जातुधानी ॥
X
ग्यान- अवधेस - गृह, गोनिनी भक्ति सुभ, तत्र अवतार भूभार- हर्त्ता ।
भक्त-संकष्ट अवलोकि पितु वाक्य-कृत गमन किय गहन वैदेहि-भर्त्ता ॥
अलंकार - सांगरूपक ।
तुलनीय -
संचित विराग विवेक नरेसू। बिपिन सोहावन पावन देसू ॥
भट जम नियम सैल रजधानी। सांति सुमति सुचि सुंदरि रानी ॥
एक व्याधि बस न मरहिं ए असाधि बहु दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
एक व्याधि बस न मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि ।
पीड़हिं संतत जीव कहूँ सो किमि लहै समाधि ॥ 121 (क)॥
नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान ।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान ||121 (ख)॥
शब्दार्थ -
असाधि = असाध्य, जिनका उपचार न हो।
संतत = निरंतर
समाधि = अष्टांग योग की अंतिम अवस्था, मन का एकाग्र होकर प्रभु में लगना
भेषज = दवा।
व्याख्या -
रोग तीन प्रकार के माने गए हैं सुसाध्य, कष्टसाध्य और असाध्य । ऊपर जिन मानसिक रोगों (मोह, काम, क्रोध, लोभ विषय मनोरथ, ममता, ईर्ष्या, हर्ष-विषाद, जलन, मन की कुटिलता, दुष्टता, अहंकार, दंभ, कपट, पाषंड, तृष्णा, त्रिविध एषणा, मत्सर, अविवेक) को गिनाया गया है, वे सभी असाध्य रोग हैं। इनमें से किसी एक रोग का वशीभूत व्यक्ति भी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, जबकि यहाँ तो अनेक असाध्य रोग हैं जो जीव को निरंतर यातना देते रहते हैं। अतः वह समाधि दशा (मन का एकाग्र होकर प्रभु में लगना) को कैसे प्राप्त हो सकता है? और जब तक मन एकाग्र होकर प्रभु में नहीं लगता, तब तक सुख कैसे प्राप्त हो सकता है?
उपर्युक्त मानसिक रोगों के उपचार हेतु नियम, धर्म, सदाचार, तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान आदि करोड़ों औषधियाँ हैं । वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास, दर्शन आदि में इन औषधियों के विवरण भरे पड़े हैं, फिर भी हे हरि के वाहन गरुड़ जी! रोग समाप्त नहीं हो रहे हैं।
अलंकार -
अंतिम पंक्ति विशेषोक्ति (कारण के होते हुए भी कार्य का न होना) ।
बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल ।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल ||122|| (क)॥
शब्दार्थ-
बारि = जल।
सिकता = बालू ।
अपेल = अटल ।
व्याख्या-
जल मथने से घी भले ही निकल आवे और बालू से तेल भले ही निकल आवे (जो असंभव है), किंतु भगवद्-भक्ति के बिना मुक्ति संभव नहीं है। यह सिद्धांत अटल है ।
विशेष-
यहाँ तक नौ असंभव दृष्टांत दिए गए हैं। नौ संख्या की सीमा है ।
अलंकार-
1. भुशुण्डि ने अपने अनुभव से प्रमाण दिया है, अतः यहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण अलंकार हुआ।
2. असंभव बातें स्वयं सिद्ध हैं, अतः प्रौढोक्ति अलंकार हुआ।
मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
दोहा -
मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन ।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन ॥ 122 ( ख ) ॥
श्लोक -
विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते ॥122 (क ) ॥
शब्दार्थ -
मसकहि = मच्छड़ को
बिरंचि = ब्रह्मा ।
अजहि = ब्रह्मा को
विनिश्चितं = निश्चय किया हुआ ।
बदामि = कहता हूँ ।
वचांसि = वचन
दुस्तरं = कठिनाई से पार जाने योग्य ।
व्याख्या -
काग कहता है कि प्रभु में इतना सामर्थ्य हैं कि वह मच्छर को ब्रह्मा बना दें और ब्रह्मा को मच्छर से भी छोटा बना दें। मच्छर सभी जीवों में सबसे छोटा है और सृष्टि रचयिता ब्रह्मा सबसे बड़े हैं। तात्पर्य यह है कि प्रभु असंभव को भी संभव कर सकते हैं। वह 'कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थः' हैं। ऐसा विचार कर समस्त संदेहों को त्यागकर चतुर जन श्रीराम की उपासना करते हैं।
मैं आपसे निश्चयपूर्वक कहता हूँ। मेरी वाणी अन्यथा नहीं हो सकती, अर्थात् मेरा कथन अक्षरशः सत्य है। जो व्यक्ति भगवान् की उपासना करते हैं, वे अति दुस्तर भवसागर को पार कर लेते हैं, अर्थात् मुक्त हो जाते हैं।
आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन ।
निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन ॥123 ( क ) ॥
नाथ जधामति भाषेउँ राखेउँ नहिं कछु गोड़ ।
चरित सिंधु रघुनायक वाह कि पावइ कोई ||125 (ख)।
व्याख्या -
यद्यपि मैं जाति, धर्म, ज्ञानादि से सर्वथा रहित था, फिर भी आज मेरा जीवन धन्य हो गया, सार्थक हो गया। मैं चिरंजीवी बन गया और मेरा अहर्निश श्रीरामोपासना में व्यतीत होता है। हे नाथ! मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार श्रीरामचरित कहा, कुछ भी गोपन नहीं रखा तथापि उसका सम्यक् वर्णन नहीं कर सका, क्योंकि प्रभु का चरित समुद्र के समान अथाह और गंभीर है। कोई भी व्यक्ति उसकी थाह नहीं पा सकता।
जासु नाम भव भेषज हरन घोर दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल ।
सो कृपाल मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल 1124 (क)
सुनि भुसुंडि के बचन सुभ देखि राम पद नेह ।
बोलेउ प्रेम सहित गिरा गरुड़ गित संदेह ||124 ( ख )
शब्दार्थ
भेषज = औषध ।
त्रय सूल = दैहिक, दैविक, भौतिक ताप ।
व्याख्या -
जिनका नाम सांसारिक रोगों की औषधि तथा दैहिक, दैविक, भौतिक घोर तापों का हरण करने वाला हैं, ऐसे दयालु प्रभु मुझ पर तथा आप पर सदैव प्रसन्न रहें । भुशुण्डि के ऐसे शुभ वचनों को सुनकर तथा श्रीराम के चरणों में उसकी अगाध प्रीति देखकर गरुड़, जिसके संदेह का निवारण हो चुका था, प्रेममयी वाणी में बोला
व्याख्या -
गरुड़ ने कहा कि हे भुशुण्डि जी! आपकी राम भक्तिमय वाणी सुनकर मैं सफल मनोरथ हो गया तथा श्रीराम के चरणों में नूतन प्रेम का अभ्युदय हो गया तथा अविद्या माया से उत्पन्न अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश- ये चारों क्लेश समाप्त हो गए।
मोह जलधि बोहित तुम्ह भए दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
मोह जलधि बोहित तुम्ह भए। मो कहें नाथ विविध सुख दए
मो पहिं होइ न प्रति उपकारा। बंदउँ तव पद बारहिं बारा ॥
व्याख्या-
मैं मोह रूपी समुद्र में डूब रहा था। आपने जहाज रूप होकर मेरा उद्धार कर दिया। मेरा मोह समाप्त कर दिया तथा मुझे ज्ञान, वैराग्य, विज्ञान तथा मुनि दुर्लभ गुण प्रदान किए। यही गुण सुख के आधार हैं। मैं आपका प्रत्युपकार करने में असमर्थ हूँ। तात्पर्य यह है कि आपने मुझे जो अमूल्य भक्ति - चिंतामणि प्रदान की है, उसके बदले में आपको देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है। मैं आपका ऋणी हूँ। अतः मैं आपके चरणों की पुनः पुनः वंदना करता हूँ।
अलंकार - मोह जलधि-रूपक
पूरन काम राम अनुरागी शब्दार्थ व्याख्या विशेष
पूरन काम राम अनुरागी । तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी ॥
संत विटप सरिता गिरि धरनी पर हित हेतु सबन्ह के करनी ॥
व्याख्या-
अब मेरी सभी कामनाएँ पूर्ण हो गई हैं, किसी प्रकार की कामना शेष नहीं है तथा मैं श्रीराम के चरणों का प्रेमी हो गया हूँ। वस्तुतः संत, वृक्ष, नदियाँ, पर्वत और पृथ्वी इन सभी के कार्य परोपकार के लिए ही होते हैं। संत स्वभाव से परोपकारी होते हैं, वृक्षों के फल दूसरे लोग ही खाते हैं, नदियों का जल सर्वजन सुलभ है, पर्वतों से ही नदियाँ निकलती हैं, अनेक प्रकार की औषधियाँ प्राप्त होती हैं तथा पृथ्वी का नाम ही क्षमा है।
संत हृदय नवनीत समाना शब्दार्थ व्याख्या विशेष
संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना ॥
निज परिताप द्रवह नवनीता पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता
शब्दार्थ-
नवनीत = मक्खन
परिताप = गर्मी।
द्रवइ = पिघलता है।
व्याख्या-
प्रायः कवियों ने संतों की तुलना मक्खन से की है, किंतु यह उपमा ठीक नहीं है। मक्खन अपने ताप से पिघलता है उसे दूसरों के सुख-दुःख से कुछ भी लेना-देना नहीं, किंतु संत दूसरों के दुःख को देखकर द्रवित हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि संत पराए कष्ट का निवारण करने के लिए तत्पर रहते हैं। अलंकार - व्यतिरेक (लक्षण-उपमान से उपमेय में उत्कर्ष का दिखाया जाना ) ।
तुलनीय-
सज्जनस्य हृदयं नवनीतं यद्वान्ति कवयस्तदलीकम् ।
अन्यदेहविलसत्परितापात्सज्जनो द्रवति नो नवनीतम् ॥ (सुभाषित)
जीवन जन्म सुफल मम भयऊ शब्दार्थ व्याख्या विशेष
जीवन जन्म सुफल मम भयऊ। तव प्रसाद संसय सब गयऊ ॥
जानेहु सदा मोहि निज किंकर । पुनि पुनि उमा कहइ बिहंगबर ॥
व्याख्या-
शिव जी पार्वती से कहते हैं कि गरुड़ ने काग से कहा कि मेरा जीवन और जन्म सार्थक हो गया। आपके अनुग्रह से मेरा संदेह पूर्णरूप से समाप्त हो गया। मुझे सदैव अपना दास समझते रहिएगा। इसके पूर्व उसने कहा था कि आपने जो मेरा उपकार किया है, उसके बदले में देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है। मैं आपका चिरऋणी हूँ। उसी की पुष्टि के लिए वह कहता है कि मैं सदा-सदा के लिए आपका दास बन गया। इस प्रकार के वचन वह बार-बार कहता है।
तासु चरन सिरु नाइ करि प्रेम सहित दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
तासु चरन सिरु नाइ करि प्रेम सहित मतिधीर ।
गयउ गरुड़ बैकुंठ तब हृदयँ राखि रघुबीर ॥ 125 (क)॥
गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन ।
बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान ॥ 125 ( ख ) ॥
व्याख्या -
इस प्रकार संतुष्ट होकर स्थिरबुद्धि गरुड़ प्रेमपूर्वक काग भुशुण्डि के चरणों में प्रणाम करके और श्रीराम को अपने हृदय में धारण करके बैकुंठ लोक को चला गया। शिव जी कहते हैं कि हे पार्वती ! संत के समागम के समान संसार में कुछ भी लाभदायक नहीं है, किंतु सत्संग बिना भगवद्-कृपा के सुलभ नहीं होता । वेद और पुराणों का भी यही कथन है ।
मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं शब्दार्थ व्याख्या विशेष
मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं बिनहिं प्रयास ।
जे यह कथा निरंतर सुनहिं मानि बिस्वास ||126॥
व्याख्या -
जो व्यक्ति इस राम कथा को निरंतर और विश्वासपूर्वक सुनते हैं, वे बिना प्रयास के ही वह ईश्वर भक्ति प्राप्त कर लेते हैं, जो मुनियों को भी दुर्लभ हैं।
सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत ।
श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत ॥27॥
व्याख्या -
शिव जी कहते हैं कि हे पार्वती ! वह कुल धन्य हैं, जगत-पूज्य है और परम पवित्र है, जिसमें श्रीराम का भक्त और विनम्र व्यक्ति जन्म लेता है।
राम चरन रति जो चह दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बा
भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान ॥29॥
व्याख्या -
यदि कोई व्यक्ति श्रीराम के चरणों में प्रेम की कामना रखता है अथवा मोक्ष प्राप्त करना चाहता है, उसे यह कथा प्रेम और श्रद्धापूर्वक कान रूपी दोने (पात्र) के द्वारा पान करना चाहिए। जिस प्रकार पात्र से जल मुख द्वारा पेट में जाता है, उसी प्रकार श्रवण रूपी पात्र के द्वारा कथा रूपी अमृत हृदय में जाता है।
मैं कृतकृत्य भइउँ अब तव प्रसाद दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
मैं कृतकृत्य भइउँ अब तव प्रसाद बिस्वेस ।
उपजी राम भगति दृढ़ बीते सकल कलेस ॥ 129॥
व्याख्या -
पार्वती ने कहा कि हे जगत के स्वामी । आपके अनुग्रह से मैं कृतकृत्य ( धन्य) हो गई हूँ, मेरे हृदय में दृढ़ राम-भक्ति का अभ्युदय हो गया है और मेरे समस्त क्लेश समाप्त हो गए हैं।
विशेष -
कलेस (क्लेश) - अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, और अभिनिवेशये पाँच क्लेश माने गए हैं 'अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः' (योगसूत्र ) ये क्लेश दूर हो गए।
मो सम दीन हित तुम्ह समान रघुबीर शब्दार्थ व्याख्या विशेष
मो सम दीन हित तुम्ह समान रघुबीर
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर ||130 ( क ) ||
व्याख्या -
श्रीराम के अनुपम गुणों का उल्लेख करने के पश्चात् अब गोस्वामी जी आर्त भाव से अपने प्रभु से निवेदन करते हैं कि हे रघुवंश शिरोमणि! मेरे समान संसार में दूसरा कोई व्यक्ति दीन (साधन हीन) नहीं है और न कोई अन्य आपके समान दीनों का हितैषी है। यह विचार करके हे रघुकुल की मणि श्रीराम जी ! आप मुझे भवसंकट ( आवागमन के चक्र) से मुक्त कीजिए। मैं भयभीत होकर आपकी शरण में आया हूँ।
तुलनीय
तुम सम दीनबंधु, न दीन कोउ मोसम, सुनहु नृपति रघुराई ।
मोसम कुटिल-मौलिमन नहिं जग, तुमसम हरि न हरन कुटिलाई ॥
हौं मन बचन करम पातक- रत, तुम कृपालु पतितन-गतिदाई ।
अनाथ प्रभु! तुम अनाथ-हित, चित यहि सुरति कबहुँ नहिं जाई ॥
हौं आरत, आरति - नासक तुम, कीरति निगम पुराननि गाई ।
हौं सभीत, तुम हरन सकल भय, करन कवन कृपा बिसराई ॥
तुम सुखधाम राम राम-भंजन, हौं अति दुखित त्रिविध भ्रम पाई ।
यह जिय जानि दासतुलसी कहँ, राखहु सरन समुझि प्रभुताई ॥
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि दोहा शब्दार्थ व्याख्या विशेष
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम ।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ||130 ( ख ) ॥
व्याख्या -
जिस प्रकार कामी पुरुष को स्त्री प्रिय होती है और लोभी व्यक्ति को धन से प्रेम होता है, उसी प्रकार हे रघुनाथ! आपमें मेरी निरंतर अनुरक्ति बनी रहे। कामी पुरुष अपनी प्रेमिका पर सर्वस्व, प्राण तक न्यौछावर करने के लिए तत्पर रहता है, उसके कारण माता-पिता, भाई आदि से भी संबंध तोड़ लेता है, भूख-प्यास भी भूल जाता है; मेरा श्रीराम पर उसी प्रकार का प्रेम बना रहे।
स्त्री का जब तक यौवन रहता है, तभी तक उसके प्रति आसक्ति रहती है; उसके वृद्ध हो जाने पर कामी पुरुष का प्रेम घट जाता है। राम के प्रति प्रेम नैरंतर्य बना रहे, इसके लिए वह दूसरा उदाहरण देते हैं-जैसे लोभी व्यक्ति धन के प्रति आसक्त रहता है, धन के प्रति उसकी आसक्ति किसी भी अवस्था में कम नहीं होती, इसी प्रकार याबद् जीवन राम के प्रति प्रेम बना रहे।
अलंकार - उदाहरण
यत्पूर्व प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना शब्दार्थ व्याख्या विशेष
यत्पूर्व प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं,
श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम् ॥
मत्वा तद्रघुनाथनामनिरतं स्वान्तस्तमः शान्तये ।
भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम् ॥1॥
शब्दार्थ-
दुर्गमं = दुरूह, कठिन
पदाब्ज = चरण-कमल
अनिशं = निरंतर
निरतम् = तत्पर
तमः = अंधकार, यहाँ तात्पर्य है- अज्ञान ।
व्याख्या -
जिस दुरूह रामायण को सर्वप्रथम सर्वसमर्थ श्रेष्ठ कवि श्रीशिव जी ने श्रीराम के चरण कमलों में निरंतर भक्ति प्राप्त होने के लिए रचा था, तुलसीदास ने भी उसी नाम के द्वारा कृतार्थ होकर, उसी राम नाम के विभव को विस्तार करने वाले चरित को अपने अंतः करण के अंधकार (अज्ञान) का विनाश करने के लिए भाषाबद्ध किया ।
विशेष-
यहाँ रामचरितमानस का उपसंहार है। अतः यहाँ तुलसीदास उसका प्रयोजन स्पष्ट करते हैं। मानस के बालकाण्ड में उनका संकल्प था कि जो राम कथा नानापुराण, निगमागम तथा रामायण में वर्णित है, उसे 'स्वान्तः सुखाय' वह भाषा में लिखेंगे। अंत में उसी की पुनरावृत्ति करते हैं कि जो राम चरित पूर्व में सुकवि श्री शम्भु द्वारा रचित हुआ, उसी को अपने हृदय के अंधकार को दूर करने के निमित्त मैंने भाषाबद्ध किया है।
यह सर्वविदित है कि रामचरित के प्रथम सृष्टा शिव जी हैं- 'रचि महेस निज मानस राखा, पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा।' यह ग्रंथ 'शिवरामायण' अथवा 'अध्यात्मरामायण' के नाम से विख्यात है। रामचरितमानस पर इसी का सर्वाधिक प्रभाव है। इसी की रचना से गोस्वामी जी को परम विश्राम, स्वांतः सुख की प्राप्ति हुई ।
पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं शब्दार्थ व्याख्या विशेष
पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रद
मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये
ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः ||2||
व्याख्या-
रामचरितमानस की फलश्रुति बनाते हुए गोस्वामी जी इसका समापन करते हैं। वह कहते हैं कि यह रामचरितमानस पुण्य प्रदान करने वाला, पापनाशक, कल्याण करने वाला, विज्ञान तथा भक्ति देने वाला, माया और मोहजन्य सभी पापों का विनाशक, श्रेष्ठ निर्मल प्रेम-जल से परिपूर्ण और मंगलकारी है । जो लोग भक्तिपूर्वक इस रामचरित रूपी सरोवर में स्नान करते हैं, वे संसार रूपी प्रखर सूर्य की रश्मियों में नहीं जलते हैं ।
विशेष -
मानस के प्रत्येक काण्ड के अंत में फलश्रुति दे दी गई है, जैसे
1. बालकाण्ड-
2. अयोध्याकाण्ड - प्रेम-वैराग्य संपादन,
2. अरण्यकाण्ड - विमल - वैराग्य संपादन,
4. किष्किंधाकाण्ड - विशुद्ध संतोष संपादन,
5. सुंदरकाण्ड ज्ञान-संपादन,
6. लंकाकाण्ड-
7. उत्तरकाण्ड -अविरल भक्ति-संपादन ।