अनुवाद पुनरीक्षण / विश्लेषण पुनरीक्षण के सोपान
अनुवाद पुनरीक्षण / विश्लेषण पुनरीक्षण के सोपान
i) पाठ-पठन :
पुनरीक्षण में सर्वप्रथम दोनों पाठों का पठन जरूरी है । यहाँ मूल और अनूदित पाठ का अनुवाद में आ रहा है या नहीं । कहीं कुछ अनजाने छूट तो नहीं रहा । तीसरे शब्द भ्रम में पड़ कर कहीं वह दूर तो नहीं जा रहा । इस प्रकार अनुवाद को एक प्रामाणिकता प्रदान की जाती है । उसी तरह मुहावरे या कहावतों के लिए जो रूप अपनाये जाते हैं उन पर ध्यान दिया जाता है । साधारणत: उनको ग्रहण करने में सतर्कता बरतनी पड़ती है । वरना पुनरीक्षक को अंगुली निर्देश कर संशेधित रूप बताना जरूरी होता है । उदाहरण स्वरूप 'घरडीह' उपन्यास के अंत में है कि उस देहरी पर संध्यादीप नहीं जला यहाँ अनुवादक ने देहरी की जगह पोखर की सीढ़ी कर दिया । पुनरीक्षण के दौरान उसे संशोधन करना पड़ा कि यह पोखरतट पर तुलसी चौंहरा पर दीप जलाने का प्रसंग नहीं है । घरवाली न रही तो घर में संध्यादीप कौन जलायेगा ? वह सांस्कृतिक प्रसंग यहाँ सन्निवेशित है जो अनुवादक अपनी धुन में भूल जाता है । इसे सुधारने का काम पुनरीक्षक आलस्य या उपेक्षा करता है तो कृति के प्रति न्याय नहीं करता । साधारणत: कुछ नवसिखिये भी अनुवाद में कदम रखते हैं । उनके प्रति ये पुनरीक्षण की सहानुभूति सजगता और मार्गदर्शन महत्व रखता है । ऐसी अशुद्धि दूर कर अनूदित पाठों के लिए सुधारना जरूरी है । नवअनुवादकों को भी प्रोत्साहन देना होता है । तब तो पुनरीक्षण अत्यंत आवश्यक है । प्रतिष्ठित अनुवादक भी अगर अपने समगोष्ठी से पुनरीक्षण करा ले तो इसे हेठी अपमान या हीनता की बात नहीं मानी जा सकती कृति के हित इसे आवश्यक माना जाता है ।
ii) विषयगत अंतर :
कभी-कभी अनुवादक संदर्भगत विचार किये बिना भिन्नार्थ शब्द का प्रयोग कर बैठता है । जैसे हमने पीछे 'रस' शब्द के कई अर्थ देखे । संदर्भ पर ध्यान दिये बिना विषय से हट कर दूसरा शब्द प्रयोग करे तो यह भटक जाता है। हम जानते हैं कि (Compound) शब्द का रसायन में जो अर्थ है, घर के लिए 'कंपाउंडवाल' में कंपाउण्ड का एकदम भिन्न अर्थ है उसी तरह जब हम 'स्कूल' शब्द का प्रयोग विद्यालय से हट कर चिंतनधारा (School of philosothy) में करते हैं तो अलग -अलग क्षेत्र हैं । उसी तरह (Will) शब्द का अर्थ क्रिया के संदर्भ में अतीत वाचक अर्थ में आता है । परंतु कोई अपनी वसीयत लिखता है तो वहाँ यह संदर्भ दूसरी जगह ले जाता है । उसी प्रकार (Stand) शब्द का क्रिया में अर्थ खड़े होना है मगर संज्ञा में प्रयोग करने पर वह 'खंभा' बन जाता है । यह शब्द के संदर्भ बिना विषय की सही सूचना देने में असमर्थ रहेगा प्रयोग में वह हमें गलत स्थान पर पहुँचा देगा । अतः पुनरीक्षण के समय इन सारी विविध स्थितियों पर ध्यान रखना जरूरी होता है । अगर पुनरीक्षक चूक जाता है तो फिर सुधार की और कोई स्थिति नहीं आती ।
iii) शैली :
हमने पहले भी देखा कि विषय के अनुसार शैली होती है । भाषा की स्थिति वैसे ही बदलती जाती है । भाषा का यह चमकीलापन अनुवादक को अपने कार्य में दिखाना उचित है । पुनरीक्षण पाठ में शैलीगत रूप उभर आता है । यह उसका मुख्य लक्षण है । गौर करना होगा कि अत्यंत गंभीर विषय का अनुवाद तदनुरूप गंभीर शैली में करना होता है । उदाहरणार्थ अंग्रेजी का निमंत्रण पत्र है अब हिंदी में विवाह का निमंत्रण पत्र उसी के अनुवाद से नहीं बन सकता । क्योंकि अंग्रेजी शैली में वह औपचारिकता में है। हिंदी में वह एक मांगलिक कार्य, धर्मकार्य शामिल होकर शुभाशीष देने जैसा कार्य है । अतः भाषाई विनम्रता, भाषा में धार्मिक दृष्टि से प्रचलित शब्दों का व्यहार, कुछ मंगल चिन्ह - स्वस्तिक, ॐ, श्रीगणेशाय नमः, प्रजापतये नमः मंत्र (जैसे गणेश अथवा विष्णु संबंधी मंत्र, वेदमंत्र आदि का यथास्थान उपयोग करना पड़ता है ।) इस प्रकार हिंदी की सांस्कृतिक परंपरा, चलन आदि के अनुरूप परिवर्तन परिवर्द्धन जरूरी है । वहाँ सरलीकरण कर देने पर एकदम अग्राह्य हो जाता है ।
उसी तरह कार्यालयीन भाषा या व्यावसायिक भाषा में बहुत अधिक विनम्रता या दिखवा रखते हैं तो वह एकदम अव्यावहारिक बन जाती है । वहाँ देखना है कि भाषा हिंदी है परंतु उसका रूप तत्सम प्रधान है, समास शैली में है या देशज शब्दों के उपयोग से सरलीकृत है वहाँ पर अनुवादक ने तकनीकी शब्दों की उपेक्षा तो नहीं कर दी हैं । अब तो भारत सरकार के लिए सुप्रीमकोर्ट का आदेश है - राजभाषा हिंदी में अनुवाद अथवा अन्य प्रयोग के समय तकनीकी एवं वैज्ञानिक शब्दावली आयोग द्वारा निर्मित शब्दावली का प्रयोग ही मानक होगा । भिन्न-भिन्न राज्यों द्वारा अपने ढंग से निर्मित पर्यायवाची वाली शब्दावली नहीं होनी चाहिए । यहाँ शैली के नाम पर विविध रूप अब स्वीकार्य नहीं होंगे। ऐसे में पुनरीक्षक को उनसे परिचित होना होगा । यथास्थिति उनका संशोधन करना पड़ता है प्रामाणिकता लाने के लिए यह नितांत जरूरी होता है ।
बहुधा अनुवादक स्वयं अपने कार्य का पुनरीक्षण कर लेता है । इसमें उसका अपना अहं (Ego ) सुरक्षित रहता है परंतु पाठ के हित में अन्य कुशल अनुवादक से पुनरीक्षण कराना एक बेहतर विकल्प है । इसमें 'एक से भला दो' वाली कहावत सार्थक होती है । डाक्टरी भाषा में इसे कहते हैं - 'सेकेंड ओपीनियन लेना' । कुछ चीजें मूल के ध्यान में नहीं आ पाती । अतः दूसरा पाठ करा लेना बेहतर होता है । इसमें अहं का प्रश्न नहीं रहता । अनायास, अनजाने रह गई त्रुटि का संशोधन हो जाता है ।
सच कहा गया है कि अनुवाद की जांच हो जाती है । सुधार हो जाता है और कुछ हद तक संपादन भी होता है अत: पुनरीक्षण का पर्याय अनुवाद करने के बाद जरूरी होता है ।