ओड़िशा में अनुवाद की परंपरा
ओड़िशा में अनुवाद की परंपरा
- आधुनिक राजनैतिक आड़िशा का चित्र 1 अप्रेल 1937 को सामने आया परंतु उडू, उत्कल, कलिंग, त्रिकलिंग ..... आदि नामों से यह भूमि आर्यावर्त में प्राक ऐतिहासिक युग से अभिन्न अंग रही है । आर्यावर्त का इतिहास, यहाँ की कला, संस्कृति, धर्म, परंपरा आदि कोई भी चीज इस भूमि के बिना अधूरी रही है। युग-युग में, विशेषकर पूर्व - ऐतिहासिक युग में यहाँ समृद्ध मानव संस्कृति के प्रमाण मिलते हैं । आगे चल कर एक समृद्ध संपन्न और उच्च स्तर की सभ्यता इस क्षेत्र में रही है यह बात - भी विविध प्रमाणों से स्पष्ट है । वैदिक युग में आकर इस भूमि ने भारतीय सभ्यता को ज्ञान का अंश दिया है । इसका प्रमाण वेदों की पिप्पलाद शाखा है । आज भी मयूरभंज जिले में इस शाखा के ब्राह्मण और इस धारा के ज्ञाता उपलब्ध हैं । भंडारकर इंस्टीच्यूट में जब वेदों का संपादन चल रहा था तब पिप्पलाद शाखा का संपादन कार्य भुवनेश्वर में हुआ था । तभी वेदों की अनुपलब्ध अनेक ऋचाएँ महानदी घाटी में उपलब्ध हुई । इस प्रकार उत्कल में ज्ञान, धर्म, आध्यात्म, कला, कौशल आदि का प्रचलन और विस्तार भारतीय सभ्यता के साथ-साथ चलता रहा है । इस यात्रा में अनेक पड़ाव आये हैं। आधे से अधिक हिस्सा तो आज भी पहाड़ों और जंगलों के कारण अगम्य अथवा दुर्गम्य बना हुआ है । सरकार हजार चेष्टाओं के बावजूद इस पर्वतीय एवं वनांचल में शिक्षा का समुचित प्रचार-प्रसार संभव नहीं हो सका । लोग उसी दस हजार वर्ष पुरानी शैली में जीवन यापन कर रहे हैं। फर्क इतना ही पड़ा है कि खान-पान में बदलाव आ गया है। उनकी बात यहाँ समीचीन होगी । बाकी पश्चिम का समतल भाग और पूर्व एवं दक्षिण के उपकूली क्षेत्र परिवर्तन के दौर से गुजरे हैं । यद्यपि पूर्वी घाट पर्वतमाला ने दक्षिण का रास्ता रोका उत्तर भारतीयों को यहाँ आने में महानदी, वैतरणी आदि नदियाँ खाई खोद कर खड़ी हो गई। फिर भी यह क्षेत्र एकांतिक अथवा अगम्य कटा हुआ इलाका कभी नहीं रहा । सारे भारत के साथ इसका संपर्क अटूट रहा है। पहाड़ों, नदियों, जंगलों ने दीवार या खाई खड़ी नहीं की । इनके कारण राजनैतिक सीमाएँ बनी । परंतु जनता का भारतीय जीवन से एकात्मक भाव हमेशा बना रहा है इतना ही नहीं इस क्षेत्र के लोगों का मनोबल सागर भी नहीं तोड़ सका । कलिंग वीरों की नौकाएँ रोम तक रेशम पहुँचाया करती थी । पूर्व में बाली, जावा, सुमात्रा, वोर्णियो, श्याम और थाइलैंड तक कलिंग वणिकों की नौकाएँ अबाध गति से यात्रा करती थी । सिंहल द्वीप तो बहुत करीब का व्यवसायिक ही नहीं, सांस्कृतिक और धार्मिक आदान-प्रदान का क्षेत्र बना रहा । उन दिनों बर्मा भारत का ही एक अंश था । इस प्रकार कलिंग वीरों का कार्य क्षेत्र दक्षिण के चोल, पाण्ड्य, राष्ट्रकूट और कई लोगों की तरह जल स्थल उभय में समान रूप से छाया हुआ था इससे हम अन्दाज कर सकते हैं कि यह सभ्यता एक समय में विश्व में कितनी महान बनी हुई थी । यही कारण है (संभवतः ) श्रीकृष्ण ने कलियुग में साक्षात श्रीजगन्नाथ रूप धारण कर लीला के लिए इसी क्षेत्र को चुना था और श्रीजगन्नाथ जी के आने के बाद इस का महत्व भौतिक से बढ़कर आध्यात्मिक, धार्मिक हर दृष्टि से अतुलनीय बन गया ।
- इसके बाद तो श्रीजगन्नाथ भूमि सभी संस्कृति और सभ्यताओं (भारत से बाहर, यूनानी, इरानी, आदि) के लिए आकर्षण का केंद्र बन गयी । भारतीय धर्मों में और उनकी शाखाओं में प्रसिद्ध जैन, बौद्ध, सिख सबके लिए यह अत्यंत पवित्र स्थल और उनकी क्रीड़ा भूमि बन गया । खंडगिरि, उदयगिरि की गुफाएँ, पुरी के मठ और मंदिर हजारों वर्ष से इन परंपराओं को वहन करते रहे हैं । यह क्षेत्र श्रीजगन्नाथ जी का साम्य और मैत्री का संदेश विश्व को युगों से देता आ रहा है । इसी कारण असंख्य यात्री युगों से यहाँ आते रहे हैं। पता नहीं किस युग की परंपरा में शंकराचार्य, रामानुज, निंबार्क, आदि संत यहाँ आकर श्रीजगन्नाथ जी का दर्शन करते रहे । इसकी परंपरा का विस्तार करते रहे हैं और अपनी दृष्टि यहाँ से लेकर विकसित करते रहे हैं। यह धारा गुरू नानक, कबीर, श्रीचैतन्य महाप्रभु, मीरा, तुलसी से होती हुई विद्यानिवास और अज्ञेय को ले आजतक अक्षुण्ण है रेल चलने के बाद आने-जाने वाले यात्रियों की संख्या बढ़ गई परंतु यहाँ का साहित्य यहीं पुनर्नवीकृत होता रहा ।
- भाषा कालांतर में अप्रचलित हो जाने के बाद उस ज्ञान-विज्ञान और कला, कौशल को तत्कालीन भाषा में रूपांतरित किया गया । इसमें उसी तरह की महक आती है जैसे वेद श्रुति युग से उतर कर लिप्यन्तरित होते हुए लिखित रूप में उद्बुद्ध हुई । यह सामग्री रूपांतरित हो हमारे सामने जब आई तो नाथ और सिद्धों का उज्वल रूप सारे उत्कल में छाया हुआ था। तब कुछ कम शिक्षित लोगों के हाथ में पड़कर उनमें कई जगह लौकिक और स्थानीय मौखिक (Oral culture) संस्कृति का समावेश हो गया इसमें तत्कालीन विकसित भाषा ही नहीं बहुत कुछ समकालीन परंपरा का अंश भी मिलकर एक मेक होता गया । यह परिवर्तन कुछ अर्थों में समृद्धि का सूचक था । तो कुछ दृष्टि से ह्रास का संवाहक ना इस काल में लिखी गुणाढ्य की कथाएँ पूर्व युग की परंपरा का नवीकरण ही कही जाएगी। उसी प्रकार नाथ और सिद्धों की वाणियों में भी ज्यादातर वही प्रचलित परंपरा का नवीकरण मिल जाता है । जैन कृतियों में जो परिवर्तन आया उसके प्रमाण संभवत: ओड़िशा में लुप्त हो गए । उसी तरह बौद्धों की जातक कथाएँ यहाँ के तत्कालीन साहित्य में भिन्न रूप लेकर जीवित रह सकी । जैसे पत्थर की बनी बुद्ध मूर्ति पर जगह-जगह सिंदूर का लेप देकर ग्राम देवता बना दिया गया । उसी प्रकार बौद्ध परंपरा के उदाहरण भरे पड़े हैं । इस साहित्य को अनुवाद धारा से जोड़ने में कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है । वे इसे मौलिक साहित्य मानते हैं । इसमें छन्द, अलंकार एवं काव्य शास्त्रीय अनेक मर्यादाओं को ध्यान में रखकर उन्हें उच्च स्तरीय साहित्य कहा जा सकता है । इस दृष्टि में कोई विवाद की गुंजाइश नहीं है । परंतु यह भी स्वीकार करना होगा कि इन नाथ, सिद्धों को पूर्वजों से जो कुछ मिला है, वह कम नहीं है । इनके रूप और आकार में ही नहीं, आत्मा में भी इनके पूर्वजों का दर्शन समाया हुआ है । इसी कारण यह साहित्य अनुवाद से मुक्त नहीं कहा जा सकता । इसकी अनुवाद के साथ स्थिति और गहराई अलग चर्चा का विषय है परंतु धारा यहीं नहीं रुकती.
- एक कृति जयदेव की 'कृष्ण राधा' के प्रेम का अद्भुत रूपांतरण है यह कोई मौलिक अभिव्यंजना नहीं है बाद में गीतगोविन्द के अनेकानेक उत्तराधिकारी पैदा होते रहे हैं। इनमें अनुवाद की एक उत्कृष्ट शैली मिलती है। राजा-महाराजाओं, सामान्य कवियों, गीतकारों, लोकगीत गायकों आदि सबने इसे अपनाया है। यह ओड़िशा की अनुवाद धारा का अनुपम उदाहरण है ।
- गीतगोविन्द अपने समय में ही श्रीमंदिर से निकलकर राजस्थान के उदयपुर तक पहुँच गयी बाद में यह कृति गुजरात और बंगाल तक चारों तरफ पहुँच गयी । अनुवाद के क्षेत्र में भारतीय साहित्य का यह मील का पत्थर है । गीतगोविन्द के संगीतमय होने के कारण इसका बहुत अधिक महत्व हो जाता है । अनुवाद का एक नया आयाम यहाँ जुड़ गया। अब तक अनुवादक भाषा का ही कलाकार होता था लेकिन गीतगोविन्द के बाद अनुवाद के लिए संगीतकार होना उसका एक विशिष्ट गया । अब स्पष्ट हो गया अनुवादक प्रायोगिक कलाओं में अपनी पहचान बना ले तो वह समर्थ अनुवादक बन सकता है ।
- संगीत के अलावा पात्र और कथानक, इन सबका महत्व अपनी-अपनी जगह पर है । कवि ने उसका भरपूर लाभ उठाया । कवि केवल भक्ति ही नहीं, प्रेम, प्रकृति और कला इन सबको संगठित रूप में समेकित करता है । तब जाकर गीतगोविन्द का पद सामने आता है । लेखक ने इसके आधार पर अपनी सारी क्षमता को दाव पर लगा लिया वह कृत्ति विश्व विश्रुत हो तो फिर और भी मुश्किल हो जाती है गीतगोविन्द में कथा का तार बहुत सूक्ष्म है परंतु है अत्यंत दृढ़ । सच कहा जाए तो सारे युग में यह कविता छायी हुई थी । हर दरबार में अपने - अपने राष्ट्रकवि थे । और दुर्भाग्य से जयदेव ऐसे किसी राजदरबार के कवि नहीं थे । परंतु गीतगोविन्द का अनुवाद पद्य और गद्य उभय में कोने-कोने में अपने संस्कृति और वैभव के कारण ही नहीं, वरन् इसे पठनीयता के मानदंडों के कारण हुआ। सारे देश भी छू पाना अन्य के लिए मुश्किल है । इस युग में कुछ लोगों का मानना है कि हम एक नये युग में प्रवेश कर रहे हैं इन नयी मान्यताओं और नये मूल्यों के सामने परंपरागत मूल्यों को धराशायी होते देख रहे.
- इस भूखंड में स्वयं गीतगोविन्द अनुवाद का विषय बन गया है । इसके आधार पर संस्कृत में अनेक रचनाएँ मिली जो इसकी शैली में लिखी गई हैं । परंतु ज्यादातर में देश के विभिन्न भागों में इसकी टीकाएँ उपलब्ध हुई हैं । आगे चल कर विभिन्न ढंग से इसके दृश्य रस प्रस्तुत किये गये । यहाँ लोक शैली में (संस्कृत से हटकर) भी बहुत कुछ गीतगोविन्द के आधार पर रचा गया है । अब धीरे धीरे संस्कृत से हटकर प्राकृत और अपभ्रंश में प्रवेश करते हैं। इस युग में पूर्ववर्ती रचनाओं का फिर एक बार संस्कार होता है । परंतु इनमें नाटक, भाण, यात्रा... अदि प्रमुख हैं । इन सबमें विषय वस्तु उसी परंपरा से ली गई है । इसमें नया बहुत कम लिखा गया है । ओड़िया भाषा के निर्माण की यह प्रारंभिक अवस्था है । इसमें मुख्यतः छोटी-छोटी स्तुतिपरक, प्रशंसामूलक एवं विभोर होकर आर्दशात्मक रचनाएँ प्रमुख रही । इन्हें किसी पूर्व धारा का अनुवाद तो नहीं कह सकते, परंतु इनमें तत्कालीन स्थिति के अनुरूप पुनर्नवीकरण का प्रयास मिलता है । इनमें बौद्ध और जैन की धार्मिक आध्यात्मिक चेतना से प्रभावित रचनाएँ अधिक हैं । कविता का (विशेषकर तुकान्त कविता) का प्रभाव घटने के कारण छन्द के बंधन कविता पर ढीले होने लगे । अतः इस युग में गद्य और काव्य बहुत करीब आ गये । यहाँ अवधूत नारायण स्वामी की रचना को आज भी गद्य या पद्य कहने में असमंजस होता है। क्रमशः ओड़िया साहित्य का विकास होने लगता है । यद्यपि पुरी और ओड़िशा संस्कृत का गढ़ था परंतु धीरे धीरे ओड़िया साहित्य ने वह स्थान अधिकार कर लिया। चौदहवीं सदी में सारला दास ने आकर अनुवाद को नयी दिशा और दृष्टि प्रदान की । रामायाण, महाभारत भारतीय अनुवाद साहित्य को युग युग में नये अर्थ प्रदान करते रहे । 13वीं - 14वीं शताब्दी में एक बहुत बड़ा मोड़ आया । जन भाषाओं में इस विषय को लेकर काफी कुछ मंथन हुआ । महाभारत यहाँ पर वरीयता प्राप्त करती है । मूलत: संस्कृत का फ्रेम लेकर ओड़िया में कथा का रंग भर गया ।
- आज भी विद्वानों में इस बात को लेकर मतभेद है कि महाभारत (ओड़िया) के रचनाकार सारला दास एक व्यक्ति थे, अथवा लंबे समय में कई व्यक्तियों ने क्रमान्वय में इतनी बड़ी रचना की । जो हो, सारला महाभारत का भाषागत, रचनागत, शास्त्रीय अध्ययन करने पर इसमें उपलब्ध ढांचा बहुत समृद्धि की सूचना देता है । सच कहा जाए तो ओड़िया में संस्कृत पुराण में अनुवाद को दिग्दर्शन देने - वाला यह प्रथम महाकाव्य है ।
- भारतीय साहित्य में ऐसा अनुवाद कार्य छुटपुट रूप में कई जगह हुआ है । परंतु ओड़िया में इसने एक समृद्ध परंपरा का रूप धारण कर लिया । राजनीतिक परिस्थितियों के कारण ओड़िशा की समृद्धि रुक गई थी । पूरा क्षेत्र एक तरह से मुख्य धरती से कट गया था। बैल गाड़ियों से आवागमन तो चलता रहा, परंतु व्यापक प्रवाह के प्रमाण नहीं मिलते । अतः देश की सामान्य जनता श्रीजगन्नाथ जी के नाम से तो परिचित थी, परंतु संस्कृत से दूर होती गई इसमें बड़ा नुकसान यह हुआ कि हम नयी पीढ़ी में प्राचीन ज्ञान की धरोहर और अनुभव की संवेदना दोनों से प्रत्यक्ष संपर्क नहीं रख पाये । धीरे-धीरे भाषा भी ओड़िया के रूप में यहाँ संस्कृत से अपभ्रंस होते हुए उसकी उत्तराधिकारी बनी परंतु उस अनुभव के बिना यहाँ गहरा परिचय अधूरा था । अत: सबसे पहले पंचरात्र (रामायण, महाभारत, गीता, भागवत और ब्रह्मसूत्र) इनका प्रचलित भाषा में रूपांतरण बहुत जरूरी था । मूल संस्कृत से जनता का संपर्क ही नहीं था । केवल कुछ धार्मिक कर्म कांडों के प्रयोग तक सीमित हो गया था । अतः जनता का बौद्धिक स्तर भी आर्थिक मेरुदंड टूटने के कारण चरमरा गया। उस समय के रचनाकारों ने लोक तत्व को उसमें शामिल कर लोकाभिमुखी बनाया । एकबार फिर से इस नयी शैली ने जनता के हृदय में जगह बना ली ।
- इस परंपरा में श्रीजगन्नाथ दास का नाम सर्वाधिक महत्वपूर्ण रहा है श्रीमद्भागवत को इन्होंने नौ अक्षर के छन्द में ढाला। उनको जहाँ उचित लगा वहाँ पात्रों में थोड़ा फेर बदल किया । मूल कथानक का ढांचा उन्होंने अक्षुण्ण रखा । इस अनुवाद में नौ अक्षरों वाला छन्द इतना प्रसिद्ध हो गया कि आगे चलकर इसका नाम 'भागवत छन्द' पड़ गया । दास जी के सामने पाठक के रूप में बहुत बड़ा वह समुदाय था जो संस्कृत बोलना भी नहीं जानता था । दासजी ने अच्छे स्तर की ऐसी ओड़िया चुनी जो पूरे राज्य में आसानी से समझी जा सके । भागवत तो दर्शन की कसौटी है । लेकिन दासजी कहीं भी उसे चिरायते ( कड़वी ) की घूंट नहीं बनाते । जहाँ भी भागवत में दर्शन आता है, दासजी के लेखन में वह सहजबोध और सरल भावपूर्ण बन जाता है । अपनी मार्मिकता के कारण वह पाठक की अपनी निधि बन जाता है। उन्हीं की तरह रामायण के रचनाकार बलराम दास श्रीमंदिर में बैठकर चौदह अक्षर बाले छंद में जगमोहन रामायण का अनुवाद कर देते हैं। पूरी वाल्मीकि रामायण से यह कुछ अर्थ में भिन्न है कहीं वे प्रकृति के अति सूक्ष्म विस्तार का वर्णन करते हैं तो कहीं उनमें हलचल करती दुनिया खुद ब खुद उभर आती है यह अनुवाद इस अर्थ में भी विशेष है कि यहाँ उभय भाषा और अनुवादक सामान्य जनता से घुले-मिले लगते हैं ।
- इसमें बलराम दास ने नौ के बदले चौदह अक्षरों का प्रयोग किया । कथानक के क्षेत्र में भी उन्होंने काफी जोड़-घटाव किये । इतना ही नहीं समकालीन जीवन मूल्यों की बदलती छाया भी इस अनुवाद में स्पष्ट मिल जाएगी । बलराम दास ने पात्रों में जो कथा कही है तत्कालीन युद्ध, सामाजिक आचार-विचारों और जीवन में बदले बिखरे भावों को एकत्रित किया । यही कारण है कि ओड़िया में बलराम दास खूब पढ़े जाते हैं । परंतु यह पठन जगन्नाथ दास की तरह विस्तार लाभ नहीं करता । भागवत टुंगियों में भागवत के साथ दांडी रामायण को स्थान देने से कोई रोक न सका, परंतु वे वाचन जगन्नाथ दासी भागवत का ही ज्यादा करते रहे ।
- इसी प्रकार गीता के अनुवादों में व्यापक रुचि ली गई है। हर कवि ने अपने-अपने ढंग से गीता की रचना (अनुवाद) की है । उसका ब्रह्म ज्ञान, तत्व दर्शन और योग संबंधी दृष्टिकोण प्रत्येक में भिन्न भिन्न ढंग से वर्णित हुआ । श्रीमद्भगवत गीता की लोकप्रियता इन अनुवादों के कारण खूब बढ़ी । छोटा-सा ग्रंथ होने के कारण इसमें जोड़-तोड़ की सुविधा अनेक हैं । गीता को गीतों के रूप में ढाल दिया गया गीता को भजनों के रूप में रचा गया । गीता को वार्तालाप का (अर्जुन- कृष्ण संवाद) रूप देकर खूब लोकप्रिय ढंग से प्रस्तुत किया गया । उसके दर्शन को पीस पीस कर बारीक किया गया । कभी उसे पिंड - ब्रह्मांड के तत्व की ओर मोड़ा गया । कहीं पर उसमें सृष्टि तत्व (मनुष्य की जन्म प्रक्रिया) के रूप में गाया गया । विराट रूप को लेकर अगणित उद्भट कल्पनाएँ भी मिलती हैं । गीता के अनुवाद में अधिकांश मध्यकालीन कवियों ने अपनी-अपनी विशेषताओं को प्रकट किया । अर्थात् ये रूप वैविध्यपूर्ण बने ।
- गीता के अनुवादों में ब्रह्मसूत्र भी नहीं छूटे । इनका अनुवाद बहुत अधिक विक्षिप्त ढंग से हुआ है । ओड़िशा में निर्गुणिया संतों की धारा उस समय काफी प्रचलित थी । अर्थात् जनता घर-घर में निर्गुण ब्रह्म के गीत गुनगुनाने लगी । इन गीतों ने काफी लोकप्रियता हासिल की। योग साधना और ब्रह्म तत्व दोनों का मिला जुला रूप लोक भाषा में खूब सहज भाव से प्रचलित हुआ । इस युग में ब्रह्म वैवर्त पुराण, नृसिंह पुराण, विष्णु पुराण, , मार्कंड पुराण आदि का अनुवाद हुआ । यहाँ तक कि इन निर्गुणिया संतों में किसी ने वेदों के तत्व लेकर उन्हें भी गीता का रूप दिया । इनमें लेकिन संवाद रूप में गोरखनाथ का प्रवेश था। ऐसा एक ग्रंथ 'शिशु वेद' के नाम से बहुत प्रचलित था । इस छोटी-सी रचना ने ब्रह्म निरूपण को लेकर सहज ढंग से अनेक तत्वों को पुनः व्याख्यायित किया है यद्यपि अभी तक रचना की तिथि निर्धारित अन्तिम रूप से नहीं हो पाई । फिर भी कुछ लोग इसे गोरखनाथ कृत प्राचीन ग्रंथ का छाया रूप मानते हैं ।
- सब अनुवादों में पंचसखा युगीन कवि जसवंत दास की रचना काफी लोकप्रिय हुई हम पहले ही कह चुके हैं कि उस समय ओड़िशा में संस्कृत का प्रचलन काफी हद तक घट गया था । लोगों तक आम जनता को पहुँचने के लिए संस्कृत की उपयोगिता बहुत कम हो गई थी । बहुत बड़े-बड़े लोगों तक का संस्कृत भाषा से परिचय बहुत कम हो गया था । अर्थात् अच्युतानन्द, शिशु अनन्त और जसवन्त तीनों ने काव्य रचना के लिए बड़ी कृतियों के बजाय छोटी कृतियों को महत्व दिया । इनके सामने नाथ और सिद्धों की वाणियाँ प्रचलित रूप में आ चुकी थी । अतः इन संतों के भजन और जणाण बहुत बड़ी संख्या में नाथ और सिद्धों की वाणियों का सुन्दर रूपांतर है । यद्यपि वे जगह-जगह कृष्ण, बलराम, यशोदा, राधा, वृंदावन, यमुना का नाम लेते हैं और उसमें उनका वर्णन भी आता है परंतु इन कृतियों में (संध्या भाषा की तरह) विस्तृत योग साहित्य का टुकड़ों में परिप्रकाश दिखाई देता है बार-बार योग सूत्रों को इन्होंने खंगाला है यही धारा विभिन्न रूप में गीतों के जरिये ओड़िया जन मानस को रंजित करती रही है.
- सत्ता में क्रमशः परिवर्तन आया । गजपति महाराजाओं के काल में ओड़िया साहित्य को विकास का जो अवसर मिला, वह आगे अक्षुण्ण नहीं रहा मुगलों के आने के बाद उत्कल में केंद्रीय सत्ता छिन्न हो गई । चारों तरफ छोटे-छोटे रजवाड़े और जमींदार सिहासन पर बैठ गये । इनमें साहित्य प्रेम तो था । अतः कवि और कलाकारों को प्रश्रय दिया जाता था । परंतु इनकी दृष्टि में वह विराटता नहीं रही । इनका दर्शन भी अध्यात्म से हट कर दैहिक - भौतिक हो गया । सच कहा जाये तो हिन्दी के रीतिकाल वाली लगभग सारी विशेषताएँ इनमें उतर गई । कृष्ण के चरित्र से जुड़ी सारी लीलाओं ( वृंदावन लीला, या गोपी लीला या बाललीला, पौगंड लीला, मथुरा लीला, द्वारिका लीला ), इन विविध रंग और रसों वाली लीलाओं के लिए इन कवियों ने भागवत को मुख्य बनाया । इसके अलावा परवर्ती काल में जो प्रत्यक्ष शृंगार भाव आ गया उसको भी उन्होंने ग्रहण किया उन्हीं के अनुसार अथवा उन्हीं की छाया पर रीति कालीन पद्यावली का निर्माण होता है । उदाहरण के लिए जैसे साहित्य में राधा आगमन और उसका पूरा रीतिकाल पर प्रभाव सिद्ध है । हिन्दी में इसे हासकाल का साहित्य कहा गया है । परंतु ओड़िया में ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि केवल एक कृति 'वैदेहीश विलाश में रामायण का अनुवाद इतना अद्भुत बन पड़ा है कि काव्यात्मकता की दृष्टि से विश्व साहित्य में वह अतुलनीय है । उपेन्द्रभंज की इस कृति ने ओड़िया रीतिकाल को तुलसी दास की तरह बहुत बड़ी मर्यादा प्रदान की । भागवत का अनुवाद जितना सरल और सहज तथा बोध गम्य बना है, भंज का अनुवाद एक दम दूसरे छोर पर है । 'ब' अनुप्रास से रचित इस कृति की प्रत्येक पंक्ति विविध अर्थी है । कवि की भाषा और अलंकार, गुण, छन्द पर इतनी गहरी पकड़ है कि 'वैदेहीश विलास' स्वयं वाल्मीकि से भाषा के स्तर पर पूरी तरह मुक्त हो जाती है कथा का ढांचा भंज ने लगभग सुरक्षित रखा है परंतु छन्द, भावाभिव्यंजना • आदि की दृष्टि से अद्भुत अभिनवता के दर्शन होते हैं । यही कारण है कि 'वैदेहीश विलास' का काव्य - रूप में पुनर्लिखित रूप पूरे ओड़िया साहित्य में सबसे बड़ी चुनौती है उपेन्द्रभंज ने 'लावण्यवती', 'कोटि ब्रह्मांड सुन्दरी' आदि अन्य उपाख्यानात्मक काव्यों की रचना की है । इसके अलावा उन्होंने सैकड़ों मुक्तक रूप में जणाण और भजन भी लिखे । परंतु अनुवाद की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावशाली रामकथा ही बनी । इसकी सबसे बड़ी विशेषता उच्च मूल्यों को भी महत्व देना है । यह रीतिकाल की परंपरा के अनुकूल नहीं पड़ता । इसलिए पूरे रीतिकाल में उसको मर्यादा देने के लिए 'वैदेही विलास' का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । भंज भाषा के धनी हैं, संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान हैं, काव्यशास्त्र के मर्मज्ञ हैं । और लोक रुचि की भी उन्हें गहरी पहचान है । अतः रामकथा की परंपरा को अभिनव रूप देने के लिए उन्होंने श्रेष्ठतम शब्दों में पूरी तरह ओड़िया शास्त्रीय छन्दों में बांध कर इस विलास को प्रस्तुत किया । जैसे आजकल ओड़िया में रचे ग्रंथों के संस्कृत अनुवाद की परंपरा चल पड़ी । यह उस प्रकार का अनुवाद नहीं है । भंज ने तुलसीदास की तरह राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में प्रस्तुत करने की बजाय धनुर्धर के साथ-साथ लीलाबिहारी के रूप में राम को रूपायित किया है । गोपबंधु दास ने कहा था - "हे भंज ! तुम्हारे गीतों को खेत में हल चलाता कृषक भी तल्लीन होकर गाता है ।" इस उक्ति का तात्पर्य यह है कि ओड़िया में तत्सम शब्दावली अथवा संस्कृत-निष्ठ काव्य परंपरा कोई समस्या पैदा नहीं करते वरं उसकी रीति-बद्धता और कला सौष्ठव को निखार देती है । भंज की राम कथा का अनुवाद इसी कारण बलराम दास के बाद सर्वाधिक लोक प्रिय हुआ । चाहे उसके विभिन्न अर्थों को निकालने के लिए विभिन्न विद्वानों को टीका टिप्पणी का सहारा लेना पड़े परंतु सामान्य पाठक राम बोध के लिए कृति को पढ़ कर मुग्ध हो जाता है । तात्विक दृष्टि में भंज ने राम और राम कथा को परंपरा से हटकर कहीं नहीं रखा । उन्होंने ओड़िया समाज को एक मूल्यबोध से जोड़े रखने में सहायक बहुत बड़ी कृति दी है । यही कारण है कि कलात्मकता का खोखला आधिक्य दिखाने के कारण हिन्दी का एक कवि कठिन काव्य का 'प्रेत' कहलाता है परंतु उपेन्द्र भंज उससे भी अधिक दुरूह, दुर्बोध्य और संश्लिष्ट कृति के बावजूद पूरे ओड़िया साहित्य में 'कवि सम्राट' कहलाते हैं । इस प्रकार अनुवाद के क्षेत्र में भंज की उपलब्धि अत्यंत महत्वपूर्ण है, और दिगदर्शक भी । उन्होंने विषय चयन, भाषा चयन, स्तर चयन, कला चयन आदि विभिन्न दृष्टियों से विलास में विशिष्ट प्रयोग किया है । इसी कारण वह युग ही नहीं, पूरा साहित्य गौरवान्वित हुआ था । इसी वजह से भंज को अनुवाद के क्षेत्र में इतनी बड़ी सफलता मिलने के बावजूद हिन्दी अनुवाद में उनके विलास का गद्य अर्थ रूप देना ही संभव हुआ है । वह भी प्रत्येक पंक्ति का टीका और टिप्पणियों, फुट नोट के साथ अनुवाद के लिए इसके अलावा और कुछ रास्ता न बचा था। डॉ. सुरेश कुमार नन्द ने अपने संस्कृत ज्ञान के बल पर ओड़िया कृति का मर्म पहचाना था । पहली बार ओड़िशा में किसी कृति का अनुवाद अपने आप में उनके लिए शोध का विषय बन गया । भंज का हिन्दी रूप गद्य में उभर कर आया, पाठक उसके कथा, पात्रों के चरित्र, चित्रण, भावाभिव्यंजना आदि से परिचित हो जाता है । इन सबके बावजूद वह भंज की कविता का दर्शन कभी नहीं कर पायेगा । इस अनुवाद के जरिये भंज की काव्य प्रतिभा का अनुमान जरूर लगाया जा सकता है, लेकिन भंज काव्य का क्या रसास्वादन संभव है ? उनके छंद कुशल, अनुप्राश सौष्ठव की कल्पना भी नहीं हो सकती ।
- उपेन्द्र भंज का युग गहन कला और समृद्ध साहित्यिक गतिविधियों का युग था उन्होंने चित्र बन्ध काव्य, एक अनुप्रास में पूरा काव्य, बिना मात्रा के पूरी कविता, आद्य अक्षर अथवा अंतिम अक्षर हटाकर अर्थ परिवर्तन जैसे अनेक प्रयोग किये हैं । इनसे उनकी उच्चकोटि की काव्य चातुरी के प्रमाण मिलते हैं हालांकि प्राचीन संस्कृत साहित्य में इन उदाहरणों की कमी नहीं है । परंतु उपेन्द्र भंज ने ओड़िया में इस संबंध में अनेक अभिनव प्रस्तुतियाँ दी हैं इस प्रकार आज हम देखते हैं भंज ने अनुवादों में श्रेष्ठ कलात्मकता का प्रदर्शन किया है। परंतु उनकी काव्य कृत्तियों को हिन्दी रूप देना लगभग असंभव-सा लगता है । केवल 'वैदेहीश विलास' के अनुवाद में जो कठिनाइयाँ आई उनके आधार पर पिछले तीन दशक में किसी और अनुवादक ने वैसी दूसरी कृति को हाथ लगाने का साहस नहीं किया । इसमें सांस्कृतिक अथवा तत्कालीन सामाजिक ओड़िया साहित्य अपनी संस्कृतनिष्ठ परंपरा के लिए प्रसिद्ध है परंतु भंज ने इसको पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया । यहाँ भाव, भाषा में इतने लिपटे होते हैं कि शब्द बदलते ही सारा सौन्दर्य, सारा सिस्टम चूर-चूर हो जाता है। ऐसे में भाव भी किरच - किरच हो थोड़ा बहुत ही बच कर आ पाता है ।
- भंज के अलावा रीतिकाल में अनुवाद के लिए इस आदर्श को अपना कर अन्य कई कार्य संपन्न हुए हैं । व्यापक तौर पर रीतिकाल में भागवत वर्णित यशोदा की मातृ भावना, गोपियों का कृष्ण प्रेम, उद्धव का कृष्ण के साथ सख्य, कृष्ण की कुरुक्षेत्र में भूमिका आदि प्रसंग इन कवियों ने (कवि सूर्य बलदेव रथ, अभिमन्यु सामन्त सिंहार, देवदुर्लभ दास, अरक्षित, माधवि दासी आदि) कवियों की अधिकांश फुटकर रचनाओं में इस अनुवाद धारा के दर्शन हो जाते हैं इनमें खूब लोकप्रिय रचना, मथुरा मंगल, रुक्मणी हरण, हैं । इन रचनाओं में कवि आलंकारिक छटाओं का प्रदर्शन ज्यादा करता है । कहीं -कहीं (जैसे मथुरा मंगल)... में मार्मिकता चरम सीमा को छू जाती है किन्तु इन सारे प्रसंगों को मूल भागवत से लिया गया है । रचनाकारों ने कुछ अंश लोक प्रचलित भावनाओं से लेकर जोड़ा है। वैसे संगीत शास्त्र में इनका अवदान अत्यंत महत्वपूर्ण है । विषय वस्तु की दृष्टि से ये अनुवाद अपनी मर्यादा नहीं लांघते । हालांकि यह कथन विवादास्पद हो सकता है कि इन रीतिकालीन कवियों की प्रेम व्यंजना भागवत के अनुरूप नहीं है । इनकी घोर शृंगारिकता अपने युग की उपज है । इनमें दिया गया प्रेम वर्णन, विरह वर्णन, नखशिख वर्णन, ऋतु वर्णन आदि में उपलब्ध श्रृंगारिकता घोर देहज भाव वर्णन आदि रजवाड़ों के युग की भोग-विलास वादी मानसिकता की देन है । इसमें माइक्रोस्कोप लगाकर देखने पर भी कहीं आध्यात्मिकता के दर्शन नहीं होते । अतः इनकी इस संदर्भ में उपेक्षा करनी पड़ती है ।
- रीतिकाल का यह साहित्य मूल चेतना में अनुवाद की एक नई दिशा प्रस्तुत करता है । जगन्नाथ दास अनुवाद में जहाँ आध्यात्मिकता की चाषणी में पगा था । रीतिकाल वालों ने उन्हीं भागवत प्रसंगों को देह सुख एवं भोग विलास के रस में पखारा है। बाकी मूल कथानक में बहुत अधिक छेड़-छाड़ करने में उनके पास समय नहीं था । उनके सामने विशाल जन समुदाय नहीं था कोई राजा या जमींदार होता, अथवा उनका दरबार या राजसभा होती । अतः उनका ध्यान रचना के नाम पर, अनुवाद करते समय ध्यान उपरोक्त कुछ खास-खास मुद्दों पर ही रहता। यही कारण है कि इन कवियों का कैनवास विस्तृत नहीं होता । प्रेम, विरह, श्रृंगार, संयोग, सौंदर्य वर्णन आदि के बहुत थोड़े से चिर परिचित स्थलों में सीमित थे । यह कविता इसी दृष्टि से देखी गई और पढ़ी गई इनमें प्रत्येक कविता का सूत्र पाना बहुत आसान है भाषागत सौंदर्य उनकी सबसे बड़ी खासियत है । यह सच है कि इस समूह की कविता में सूफी प्रभाव लगभग नहीं के बराबर है । जब कि हिन्दी में स्थिति भिन्न हैं । उसी तरह रीतिकाल की कविता में भाव विदग्धता की ये जो कमी दिखाई देती है, उसकी जगह पर कवियों ने वाक् चातुर्य से कथन भंगिमा पूरी की है। जगह- जगह इन कवियों ने संस्कृत के परंपरागत अनेकार्थी शब्दों प्रयोग करते हुए एक आकर्षक काव्य संसार तैयार किया ।
- हिन्दी काव्य जगत में इस बीच अरबी फारसी प्रभाव से उर्दू विकसित हुई । परंतु ओड़िया में यह प्रभाव बहुत क्षीण था । जब भी मुसलमान आये और उन्होंने श्रीजगन्नाथ जी पर आक्रमण किया तो उनकी भाषा, उनका काव्य सौंदर्य, उनको कुछ भी अच्छा नहीं लगा । कबीर की तरह इन कवियों में या परवर्ती काल में कहीं कभी व्यंग्योक्ति, छलनामयी, छींटाकशी नहीं मिलती । उस समय के पूरे ओड़िया साहित्य में शायद कहीं श्रीजगन्नाथ को हाथी के पीछे घसीटकर मुसलमान की तरह राजमार्ग पर ले जाने का चित्र जरूर है लेकिन वहाँ मुसलमान या इसलाम पर कहीं कोई कटु टिप्पणी नहीं है । केवल यथास्थिति का अत्यंत करुण हृदय विदारक चित्र ही दिया गया है। खैर, इस विषय वस्तु का अनुवाद से दूर का भी लेना-देना नहीं है । परंतु अब कविता से हटकर गद्य युग आ रहा है इसकी पूर्व सूचना अवधूत की रचना में पहले दी है । कहीं-कहीं पुराणों की अनूदित कृतियाँ इस काल में भी उपलब्ध हुई है .
- अब कुछ हद तक बौद्ध प्रभाव और ज्यादातर वैष्णव और जगन्नाथ से अनुप्राणित भीमभोई की रचना में अनुवाद फिर एक बार उभरकर सामने आता है । भीम भोई ने स्तुति चिन्तामणि में दो सौ भजन लिखे । ज्यादातर गुरू बन्दना और जगन्नाथ के प्रति प्रेम भाव से भरे हैं। बाकी सारे भजन एक एक कर उपनिषदीय भाव धारा की छाया में रचे गये हैं । ये विवाद का विषय है कि भीम भोई जन्मांध थे, बाद में अन्धे हुए अथवा अन्धे नहीं थे या वे आलंकारिक रूप से अंधे थे इस संबंध में विद्वानों ने बहुत चर्चा की है । परंतु भीम उभय विनम्र एवं उग्र थे । इसलिए उन पर जगन्नाथ मंदिर पर आक्रमण करने तक का आरोप लगाया जाता है । किन्तु भीम का स्वभाव मूलतः विनयी था । यह विनय भावना छलना पूर्ण व्यंजित विनय नहीं थी कहते हैं भीम ने तो अक्षर ज्ञान भी प्राप्त नहीं किया था । तो फिर भक्ति की यह विराट वन्या कहाँ से आई ? इसमें भीम की विनय शीतलता ही ज्यादा काम करती है ।
- भीम के साहित्य में स्तुति चिन्तामणि के अलावा अनेक प्रकार के छोटे-छोटे दर्शन से भरपूर ग्रंथ मिलते हैं । इनमें ज्यादातर गोरख और अन्य निर्गुणिया संतों का रूप मिलता है । हठ योग की परंपरा का निर्वाह करते हैं । भीम की इन छोटी-छोटी रचनाओं में अनेक राग-रागिणियों का प्रयोग हुआ है । उन्होंने संस्कृत का कोई छन्द प्रयोग नहीं किया । परंतु भीम संस्कृत के ऋण से बच नहीं सके । गीता को अनेक प्रकार से पुनर्रचित किया है । इनमें प्रमुख है आदि अंत गीता, ब्रह्मनिरूपण गीता, अष्टक बिहारी गीता, आदि कई ग्रंथ उपनिषदों के ऋणी हैं यहीं पर उनमें बौद्ध धर्म के प्रति उदासीनता मिलती है । इस आधार पर भीम भोई की इन छोटी-छोटी रचनाओं में उपनिषद, भागवत और कृष्ण चरित संबंधी छाया स्पष्ट दिखाई देती है । भीम भोई की ये लघु रचनाएँ उनके अनुवाद कौशल का एक और नमूना हैं । इनमें भी कृष्ण, अर्जुन, गोरख संबंधी संवाद मिल जाते हैं । इनकी भाषा अब संस्कृत से पूरी तरह हटती हुई दिखाई देती है । आश्चर्य इस बात पर भी है कि न भीम अर्धशिक्षित थे, न शिक्षित थे और न शिक्षित होकर बहु पठित थे उनका कहना है, गुरु कृपा से ज्ञानोदय हुआ है । उसीसे वह सब कुछ लिख पाये हैं । महिमा धर्म के महान संत बाबा वैद्यनाथजी का कहना है कि भीम ही नहीं इस युग के सभी भीमानुयाई संतों का दृष्टिकोण शान्त एवं शिष्ट था । वे उपनिषदों को खूब गहराई से ग्रहण करते, अत: भीम साहित्य में उपनिषदीय भाव धारा का लोकापर्ण होता है । अर्थात् उसे लोक की दृष्टि से पुन: रोपण किया गया है, और इसमें कवि ने रोचकता तो भरी है परंतु काव्यात्मकता (जो गुण रीतिकाल में था) कम हो जाता है । भीम की भाषा जगह- जगह तर्क भाषा से बहुत करीब हो जाती है । वे मनुष्य की इस वर्तमान दु:स्थिति लिए भगवान को नहीं, बल्कि स्वयं मनुष्य को उत्तरदायी ठहराते हैं । कवि में इसलिए जगह-जगह भगवान पर, गुरु पर अनेक स्थलों पर प्रश्न उठाता है । मंदिर में ईश्वर का रूप उसके लिए एकदम निरर्थक है विधर्मियों द्वारा प्रचार का उन्होंने प्रतिशशेध किया । अनुवाद के जरिये
- भीम से कुछ पहले हरिदासजी पुरी में अपने भविष्य द्रष्टा रूप के कारण प्रसिद्ध हो चुके थे । उन्होंने मालिका (भविष्य वाणी) परंपरा में अनेक अनेक बातें लिखी हैं। इसीमें गीता शीर्षक देकर (हनुमन्त गीता, नीलमाधव गीता) कुछ रचनाएँ की हैं । इनमें नाम साम्य के अलावा गीता के साथ कोई संपर्क नहीं रखता । परंतु हरिदास जगन्नाथ भक्त होने के नाते अपनी कृतियों में जगन्नाथ की महिमा गाना कभी नहीं भूले । परवर्ती काल में भीम भोई ने महिमा स्वामी की बंदना में बहुत कुछ लिखा । उन्होंने श्रुति निरोध गीता, अष्ट विहारी गीता आदि अंत गीता, ब्रह्म निरूपण जैसे गीता नाम धारी अनेक ग्रंथ लिखे हैं । इनमें भीम भोई ने कहीं योग की धारा व्यक्त की है, कहीं महिमा परंपरा का वर्णन किया है, तो कहीं निर्गुण ब्रह्म की भाव धारा का प्रचार किया । अंधविश्वासों का घोर विरोध और ब्राह्मणवाद का तिरस्कार और भक्ति भावना का गूढ़ अर्थ निरुपण किया है । इसमें गीता के मूलतत्व का कहीं-कहीं समावेश दिखाई पड़ता है। इस आधार पर गीता के तत्व की छाया भले ही दिख जाए भीम भोई सूक्ष्मतः श्रीमद्भगवत गीता और उपनिषदों से प्रभावित थे और उनसे परिचित भी थे । लेकिन इन रचनाओं को उन मूल कृतियों से इतनी दूर पाते हैं इसलिए सीधे या परोक्ष अनुवाद कहने से भी मन घराता है । भीम भोई के विराट साहित्य में सब कुछ को मौलिक भी नहीं कह सकते परंतु इनमें सारला । दास या जगन्नाथ दास की तरह छाया अनुवाद नहीं मिलता । वे एक नये ढंग से ब्रह्म निरुपण, भक्ति तत्व की चिंता और जीवन तत्व पर प्रकाश डालते हैं यही कारण है कि आज गीता और भागवत पढ़ने वाले लोग भीमभोई रचित गीतावली को उसी आदर और श्रद्धा के साथ पढ़ते हैं यह युग एक संधिकाल का द्योतक है । इसमें निश्चित रूप से हर तरह से जीवन मूल्यों का ह्रास दिखाई देता है, ऐसे समय में उच्च मानवीय धारा का प्रवाह करने वाला यह कन्ध व्यक्तित्व एक विस्मय है । सच कहा जाए तो ओड़िया साहित्य में आधुनिकता की नींव प्रदान करने में भीम भोई का स्थान निर्विवाद है .. । यह बात अभी भी अनुसंधान का विषय है कि उनके ग्रंथों में अनुवाद का अंश कितना है किन्तु भीम भोई के बाद अंग्रेजों इस संबंध में क्रांति पैदा कर दी ।
ओड़िशा में आधुनिकता के तीन स्तंभ माने जाते हैं- ये हैं
1. फकीर मोहन सेनापति,
2. गंगाधर मेहर और
3. राधानाथ राय ।
- फकीर मोहन सेनापति ने स्पष्ट अनुभव किया था कि अब प्राचीन पारंपरिक संस्कृत साहित्य के अनुवाद के आधार पर नूतनता की आधारशिला नहीं रखी जा सकती । यद्यपि उन्होंने मुद्रण यंत्र और पत्रकारिता के क्षेत्र में नये कदम उठाये थे । नई चेतना का वहन करने वाले कथानक और उपन्यास तक | रचे थे । उन्होंने ईश्वरचंद्र विद्यासागर के जीवन चरित को ओड़िया में रखा । रामायण को ओड़िया में रखा, महाभारत को ओड़िया में अनुवाद किया । उनका गीता और उपनिषद का भी कुछ अनुवाद ओड़िया में उपलब्ध है । इससे उनके जीवन की धारा और दार्शनिक व्यक्तित्व का परिचय मिलता है । फकीर मोहन सेनापति ने इसके जरिये ओड़िया में अनुवाद की परंपरा को पुनर्जन्म दिया । उसी प्रकार राधानाथ राय उस समय के प्रसिद्ध अनुवादक थे । उन्होंने मेघदूत का प्रत्यक्ष अनुवाद प्रस्तुत किया ।
- राधानाथ में परोक्ष अनुवाद की भरमार है । 'चंद्रभागा', नन्दिकेश्वरी', 'उषा', 'पार्वती' आदि काव्यों में यूरोपीय प्रेम काव्य की छाया स्पष्ट दिखाई देती है । इनमें प्रेम की शैली, त्याग और बलिदान का परिचय, जीवन का लक्ष्य आदि अनेक बातों में यूरोपीय पात्र बोलते नजर आते हैं । इस बात लेकर ओड़िया के आलोचकों ने उन्हें कभी नहीं बख्शा । लेकिन राधानाथ राय का पश्चिम से आक्रांत साहित्य भी काफी गौरवपूर्ण रहा है । यही कारण है कि उसके सारे दोष ढक जाते हैं परंतु अच्छे अनुवाद के लिए दृष्टि जब घूमती है तो तत्कालीन रायबहादुर राधानाथ को कैसे आँखों से ओझल करें ? उन्हीं दिनों गंगाधर मेहेर ने मुकुटधर पांडे, गयाधर स्नेही और कामताप्रसाद गुरु आदि के संपर्क में 'रामचरित मानस' का अनुवाद किया था, एवं कुछ अंश विनय पत्रिका के और कुछ अंश छायावादी कवियों की छिटपुट रचनाओं के अनुवाद किये थे इस प्रकार अब पौराणिक अनुवादों की परंपरा से हटकर साहित्य में अनुवाद के क्षेत्र में भी एक नये युग का सूत्रपात होता है ।
- इस युग के प्रारंभ में आधुनिकता का प्रवेश तो चारों ओर हो जाता है । पर साहित्य में आधुनिकता के कोई लक्षण दिखाई नहीं देते । यहाँ तक कि पहली दूसरी की पाठ्य पुस्तकें ओड़िया में नहीं थी । इसका फायदा उठाकर सुकान्त भटाचार्य ने कहा ओड़िया एक भाषा नहीं है । सारे ओड़िशा में आग-सी लग गई । यह ओड़िया स्वाभिमान के लिए बहुत बड़ी चुनौती थी । फकीर मोहन सेनापति, मधुसूदन राओ, गंगाधर मेहेर आदि ने हर कमजोर दिशा पर काम करना शुरू किया रीतिकाल तक जो समृद्ध था, आधुनिकता के मान दंड पर खड़ा होने में उसे देर नहीं लगी । किसी स्तर की पाठ्य पुस्तकों का कोई अभाव नहीं रहा । विश्व साहित्य का एक से बढ़ कर एक स्तंभ ओड़िया भाषा में उपलब्ध होने लगा चारों ओर लहर फैल गई इस स्वाभिमान में सत्यवादी ग्रुप ने तो क्रांति ही मचा दी । उधर रेवेंसा कॉलेज में पढ़ी शान्त भाव से नई पीढ़ी पटना, कोलकाता जाकर अपने को नये युग के अनुरूप प्रस्तुत कर रही थी । नवजागरण के ये अग्रदूत हर दृष्टि में सुसंस्कृत होकर आगे बढ़ रहे थे । भारतीय भाषाओं का सर्वेक्षण जब हुआ, ओड़िया किसी से पीछे नहीं थी । यह सच है कि छोटे-छोटे रजवाड़ों के अधीन रहकर इस जाति की सारी शक्ति बिखरी हुई थी यही कारण है मधुसूदन दास एक अलग राज्य के लिए पागल थे तो उधर गोपबन्धु दास आजादी के पीछे दीवाने थे । इसी स्वाभिमान वश उत्कल सम्मिलनी अपने अधिवेशनों में एक ओड़िया भाषी राज्य की मांग पर बराबर जोर देती रही गांधीजी के अनुयायी पंडित गोपबन्धु दास 'मणिष गढ़ा कारखाने' में बैठकर उन्नत मानव जाति के बीज वपन कर रहे थे । हालांकि उनका वन विद्यालय का प्रयोग स्थूलतः असफल रहा । उसी तरह एक संगठित उत्कल राज्य का सपना भी मधुबाबू के लिए अधूरा रह गया । परंतु उत्कल में शिक्षा जगत में क्रांति जरूर आई । देश में भाषा एवं सांस्कृतिक दृष्टि से राज्य गठन का पहला श्रेय ओड़िशा को 1937 में मिला और उसके बाद कुछ वर्ष की अस्वाभाविक शांति के बाद ओड़िशा ने भारतीय मानचित्र में अपना महत्व पूर्ण स्थान बना लिया ।
- दरअसल इस नयी परिवर्तन धारा में अंग्रेजों की भूमिका कम नहीं थी । उनका उद्देश्य कुछ भिन्न था। 1803 से 2003 की दो शताब्दियों के बीच ईसाई धर्म प्रचार के कार्य में, शैली में और लक्ष्य में कोई परिवर्तन नहीं आया । ईसाई मिसनरियों का यह खयाल था कि ओड़िशा के लोग भोले, सीधे साधे ही नहीं, बहुत कुछ सरल, सीधे और पारंपरिक दृष्टि में भाग्यवादी भी हैं । उनको ईसा मसीह की शरण में लाने के लिए आर्थिक सुविधाएँ, कुछ पठनीय सुविधाएँ एवं ओड़िया में मधुर प्रवचनों की जरूरत है । यह कार्यक्रम कटक, ब्रह्मपुर, बालेश्वर जैसे शहरों में चला। बाद में दूर कोरापुट, सोनपुर, फुलवाणी, सुन्दरगढ़ जैसे पर्वतीय एवं वनवासी क्षेत्रों में भी पूरे जोर से चला । इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका बाइबल के अनुवाद की रही । कटक के मिसन रोड और बालेश्वर के मिसन चर्च इस अनुवाद के मुख्य केंद्र बने । ये अनुवाद भाषा की दृष्टि से भले ही कमजोर रहे हों, ईसा मसीह की करुण वाणी वहन करने में पूरी तरह समर्थ हैं । 'देव वाणी' कह कर इस ग्रंथ को मिसन प्रेस में खूब छपवाया और इसका चारों ओर निःशुल्क वितरण किया गया । यही कारण है कि बोंडा जैसे प्राचीनतम आदिवासी क्षेत्र में भी ईसा की वाणी का प्रचार हो सका । परंतु भीमभोई ने अनुवाद के दुरुपयोग को रोका ।
- अंग्रेजों के आने के बाद 19वीं सदी में सबसे पहले पादरियों ने बाइबल का आंशिक अनुवाद प्रकाशित किया । लेकिन पूरी बाइबल 1810 ई. में अनूदित हुई । केरी (Kery) साहब ने ज्ञानी पंडितों के साथ मिलकर यह अनुवाद करवाया था । इसके अलावा यहाँ पाठ्य पुस्तकों के रूप में चलाने के लिए कई अंग्रेजी पुस्तकों का ओड़िया रूपांतर निकला ।
- A guttery,W.C.Ley,S. philiphes Reverend, Stubbin आदि पादरियों ने इस प्रकार के अनुवाद बड़ी मात्रा में किये इनमें प्रमुख हैं विवाह का नियम पत्र, स्वर्गीय यात्री का वृतांत, चारू पुरातन, शैतान की कल्पना, धर्मयुद्ध आदि पुस्तकें इसी प्रकार के अनुवाद हैं । दर असल देश भर में धर्म प्रचार के लिए ईसाइयों ने विभिन्न भारतीय भाषाओं में बाइबेल के अनुवाद का काम खूब जोरों से चलाया था । इस अनुवाद में साहित्यिक मानदंडों की कोई बात नहीं की जा सकती । लेकिन यह बात सच है कि अंग्रेजी से ओड़िया में गद्य अनुवाद की धारा उन्होंने ही प्रवर्तित की थी । दूसरे प्राचीन स्कूली परंपरा से हटकर आधुनिक ज्ञान के लिए उनमें अंग्रेजी पाठ्यपुस्तकों के अनुवाद की परंपरा शुरू की इसी नींव पर अन्य साहित्य भी अनुवाद की धारा में आकर डूब जाते हैं। पर तब तक यहाँ मुद्रण की परंपरा शुरू नहीं हुई थी । प्रेस का दरवाजा खुल जाने के बाद छपाई का काम तेजी से होने लगा । इस प्रकार अनुवाद साहित्य का क्षेत्र व्यापक हो गया । अब अंग्रेजी और अन्य यूरोपीय भाषाओं के साथ साहित्य में आदान प्रदान का मार्ग खुल गया । आधुनिक ओड़िया में फकीरमोहन सेनापति ने अनुवाद को काफी महत्व दिया साहित्यिक जीवन में महाभारत, भागवत, हरिवंश, छान्दोग्योनिषद आदि के वे श्रेष्ठ अनुवादक थे । बौद्धावतार काव्य में बुद्ध का जीवन समाया हुआ है । उसी तरह मेघदूत और तुलसी स्तवक राधानाथ के उल्लेखनीय अवदान हैं । यह मानना पड़ेगा कि राधानाथ ने आगे चलकर यूरोपीय कथानक, नाट्य, उपन्यास आदि के आधार पर अनेक रचनाएँ ओड़िया साहित्य को दी । जगमोहन लाला ने ओड़िशा विजय का अनुवाद किया । उनके उपन्यासों में अनूदित रूप खूब आकर्षक लगता था । उन्होंने टमस पारनेल के गाथा काव्य का अनुवाद किया और उसे पाठ्य पुस्तक बनाया गया जब नया पाठ्यक्रम लागू हुआ तब उसके लिए नई पुस्तकों की खोज हुई । इसमें बंगला से अनूदित पुस्तकें ज्यादा थी, अंग्रेजी से अनूदित कम थी । राधेश्याम कर ने फारसी से भी कुछ ग्रंथ अनूदित किये थे । मस्कोबी का अनुवाद भी उर्दू से हुआ । इस प्रकार विभिन्न स्तरों पर पाठ्यपुस्तकों की कमी को अनुवाद के जरिए कुछ हद तक कम किया जा सकता ।
- सुन्दर ढंग से मुद्रित बाइबिल आ गई। कटक, संबलपुर, ब्रह्मपुर, जाजपुर, बालेश्वर, पारलाखेमुण्डी, खोर्दा आदि शहरी इलाकों के सभ्य लोगों में बाइबल पढ़ना आधुनिकता का प्रतीक बन गया । इन सब और सरकारी सेवा में लगे छोटे से बड़े तक सभी कर्मचारियों के पास ईसा का प्रेम, करुणा, बंधुत्व का संदेश किसी न किसी रूप में पहुँचने लगा । इससे सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि लोग ओड़िया भाषा के महत्व के प्रति सचेत हो सके । ओड़िया भी सभ्य लोगों के बीच अंग्रेजी के साथ-साथ आदरणीय बनने लगी । शुरू में तो अंग्रेजों ने ऐसा वातावरण दिया था कि 'अंग्रेजी देवों की भाषा है' और ओड़िया सामान्य से भी नीचे स्तर के लोगों की है। जो हो, अनुवाद ने फिर एक बार इस भाषा को नये रूप में दृष्टि दी बाइबिल के बाद शेक्सपीयर के नाटक और पात्र ओड़िया में अनूदित होकर आये । इससे ओड़िशा के अपने प्रेस को प्रोत्साहन मिला । ग्रीक और रोमन साहित्य के महान कवि अंग्रेजी के जरिये ओड़िशा में प्रवेश करने में सफल हुए । ओडिसी एवं इंलियड का अनुवाद ओड़िया पाठकों के लिए बहुत पहले से उपलब्ध हो गया था । पुनर्जागरण काल में जो कविता यूरोप में स्थापित हुई कुछ ही समय में उसका ओड़िया अनुवाद (कभी-कभी हिन्दी और कभी-कभी बंगला के जरिए ) ओड़िशा पहुँचा । लेकिन इन अनुवादों का प्रचार बहुत गहरे तो नहीं हो सका । यही कारण है ईसा मसीहा करुण और भ्रातृत्व भरे विद्वत्तापूर्ण प्रवचनों के बावजूद भीम भोई जैसे अनपढ़ और देहाती के सरल भजन लोक में खूब प्रचलित थे उधर मेहेर की रचनाओं ने भी इस आंधी का मुकाबिला किया यूरोप से आये धर्म, दर्शन, भाषा एवं व्यवहार सबने ओड़िशा पर छा जाने की चेष्ठा की इन स्थानीय भाषा और संस्कृति सचेतन मनुष्यों के प्रयासों ने बहुत बड़ी आधार भूमि प्रस्तुत कर ली । यहाँ तक राधानाथ राय के अनुवाद भी भारतीयता में भिन कर स्थानीय जैसे दिख रहे थे ।
- ओड़िशा में ऐंग्लोइण्डियन स्कूल स्थापित होने के साथ-साथ आवश्यक पुस्तकों के जरिए यूरोप का बहुत बड़ा साहित्य सीधे अनुवाद अथवा छायानुवाद के जरिए यहाँ स्थापित हो गया । फकीर मोहन सेनापति की तरह राधानाथ राय ने 'मेघदूत' का ओड़िया अनुवाद किया । इसके अलावा कुछ इटली कविताओं को भी ओड़िया में रखा । इसी प्रकार मधुसूदन राओ ने भी 'सीता वनवास', 'बाल रामायण' आदि अनेक रचनाओं का अनुवाद किया । स्वाधीनता संग्राम के पुरोधा पंचखाओं ने अनेक भाषाओं के ग्रंथ ओड़िया में रचे इनमें नीलकंठ दास का 'एनक आर्डन' और 'प्रिन्सेस' काफी परिचित हुआ । गोदावरीश मिश्र ने "Tale of two cities' के छायानुवाद पर एक रचना की थी जब कि "Up from sleepery” का पूरा अनुवाद है। आचार्य हरिहर दास ने गीता का ओड़िया गद्य में सुन्दर अनुवाद किया । आगे चलकर चन्द्रशेखर मिश्र ने सर वाल्टर स्कट का अनुवाद किया । सत्यवादी और उसके बाद के रचनाकारों ने विदेशी गद्य रचना ओड़िया अनुवाद में की । बहुत कुछ यूरोपीय साहित्य पर उनका ध्यान गया । बाद में अनुवाद को गति देने में सबुज गोष्ठि ने ज्यादा महत्व निभाया। आगे चलकर टि. एस. इलियट और वेस्ट लैंड और लंडन ब्रिज इज फालिंग जैसी कालजयी रचना आने से ओड़िया साहित्य में बहुत बड़ा परिवर्तन आता है । यही समय फ्रायड के मनोविज्ञान का है। रूस की अक्तूबर क्रांति ने दुनिया में हलचल मचा दी थी । यहाँ सिर्फ कम्युनिष्ट पार्टी का निर्माण नहीं हुआ, साहित्य ने भी अच्छा खासा स्थान बना लिया । टालस्टाय, गोरकी आदि रचनाकार ओड़िया में अपनी उपस्थिति दर्ज करा सके । अनुवादकों का ध्यान नई विचार धारा को सीधे तात्विक ग्रंथों के अनुवाद से लाना था, कविता और उपन्यास के जरिये यह काम और भी ज्यादा आसान था ।
- अनुवादकों के क्षेत्र में प्रहलाद प्रधान ने अभिधम्म समुच्चय और अभिधम्म कोश भाष्य दोनों का संपादन कर टिप्पणी सहित ओड़िया भाषा में एक बहुत बड़ा अभाव पूरा किया संभवत: संस्कृत का गौरवमय साहित्य चीनी और तिब्बती होते हुए भी यहाँ का एक मात्र उदाहरण है प्रहलाद प्रधान ने पाली की कृति धर्मपद को टिप्पणी सहित ओड़िया में प्रस्तुत किया । इस प्रकार ओड़िया साहित्य में वैसे तो दूर से अनुवाद की परंपरा नहीं थी । लेकिन प्रधान जी इसके अपवाद बन गये । भारतीय अनुवाद साहित्य में ये अनुवाद विशेष महत्व रखते हैं । धर्म और दर्शन से प्रेरणा लेने वाले बौद्धों के मानक ग्रंथों का अनुवाद बहुत बड़ी समस्या था । इनका विश्वास था यह सब भारतीय साहित्य होते हुए चीन गया है । इस यात्रा में यह दार्शनिक और वैज्ञानिक साहित्य के साथ-साथ अपना कायाकल्प कर लेता है । हमारे अनुवाद का क्षेत्र संस्कृत तक सीमित था पर प्रधान जी इसके अपवाद रहे । जो एक देहात में जन्मे और विश्व से लुप्त होने वाली सामग्री को बचाकर ले आए। बाद में ओड़िशा में उपलब्ध ताड़पोथियों और अन्य प्राचीन ग्रंथों का विवेचन विश्लेषण करने वालों में कमजोरी आ गई । यही कारण है अब नई से नई दिशा में बढ़ने के लिए कदमों में ताकत आ गई थी साहित्य को अनुवाद के माध्यम से अध्यात्मिक बनाने के प्रयास सफल हुए ।
- 1904 में 'शुकविलाश' नामक ग्रंथ में सत्तर कथाओं का अनुवाद प्रकाश में आया । हालांकि 1866 में बनमाली सिंह ने ईश्वरचंद्र विद्याधर रचित 'शंकुन्तला उपाख्यान' की रचना की और विच्छंदचरण पटनायक ने कादम्बरी का ओड़िया अनुवाद किया जो दुष्प्राप्य है । परंतु विक्रम देव बर्मा का' कादम्बरी कथा सार' आशा प्रेस (ब्रह्मपुर) से प्रकाशित हुआ । इस प्रकार आगे चल कर और भी ग्रंथ संस्कृत से आते रहे ।
- 16वीं सदी से इसलामी शिक्षा और शासन का प्रवेश यहाँ होने के बाद फार्सी, अरबी, उर्दू आदि ग्रंथ ओड़िया में आने का रास्ता खुल गया । इनमें लैला मजनू, सिरी-फरहाद, हातिमताई, चार दरवेश, गुले बकावली आदि ग्रंथ भारतीय भाषाओं में आये और वहाँ से ओड़िया में अनूदित होकर प्रकाशित हुए । 20वीं सदी के उत्तरार्ध में कुछ इसलामी साहित्य ज्यादा जोर पकड़ने लगे । इनमें काजी की कहानी, गुलसनोबार, विद्या सुन्दरी, आदि कथानकों को ओड़िया में रूप दिया गया । आगे चलकर बहुत कुछ इस्लामी साहित्य विशेषकर रोमांटिक एवं चमत्कारिक वीरता पूर्ण कार्यों वाले कथानकों का रूपांतर खूब हुआ । इस बीच 1857 में 'फूल मुनी और करुणार विवरण' (संभवत: बंगला की प्रथम औपन्यासिक कृति) का अनुवाद ओड़िया में प्रकाशित हुआ । इसके बाद धर्म प्रचार के लिए विभिन्न भारतीय भाषाओं में धड़ल्ले से अनुवाद होने लगे अंग्रेजी भाषा और संस्कृति का प्रचार होने के साथ साथ इस राज्य में उनकी कथा कहानियाँ अनूदित होकर आने लगी । भक्त कवि मधुसूदन राओ ने 'प्रणयर अद्भुत परिणाम' (1873) और राधानाथ राय ने 'इटालिय युवा' (1874) के अनुवाद किये । दोनों में प्रेम त्रिभुज की कहानी है और इसमें संघर्ष, द्वंद, युद्ध सब आ जाते हैं । हालांकि दोनों का करुण और वियोगान्त, हत्या, रक्तपात और वीभत्स स्थिति में समापन होता है । इन प्रारंभिक कृतियों के बाद रुचि बढ़ी और यूरोपीय भाषाओं की श्रेष्ठ कृतियों का आगमन अनुवाद के जरिए द्रुगगति में होता रहा ।
- 1925 में मराठी 'कमल कुमारी' उपन्यास का अनुवाद रामचंद्र आचार्य ने किया था । लेकिन ला मिजराबले ( विक्टर ह्यूगो ) का उपन्यास 'प्रयुस प्रवाह' के नाम से 1935 में ओड़िया में आया । गोदावरीश मिश्र ने 'ए टेल ऑफ टू सिटिज' की तरह '1817' उपन्यास लिखा । आनथोनी हुप से प्रेरणा लेकर श्रीधर महापात्र ने गोलापुर श्रोत नाम का उपन्यास लिखा । इस समय के सभी उपन्यास छाया उपन्यास की श्रेणी में आ सकते हैं । कहीं संक्षिप्तिकरण है तो कहीं उनका अनुकरण है । स्वाधीनोत्तर काल में हमने देखा कुछ भारतीय श्रेष्ठ कृतियाँ अनूदित होकर ओड़िया में आई इनमें जय सोमनाथ (के.म. मुन्शी की गुजराती कृति) और पंडित नीलमणि मिश्र ने मृगनयनी ( वृंदावनलाल ) का अनुवाद किया । हजारी प्रसाद द्विवेदी का 'वाणभट्ट की आत्मकथा' को उपेन्द्र दास ने ओड़िया में अनुवाद किया था । .अंग्रेजी के प्रिजनर ऑफ जेंडा का ओड़िया में कृष्ण मोहन ने अनुवाद किया । इस समय बंगला में उपन्यास रचना जोरों पर थी । उनका विषय भी स्थानीय, या भाषा में घुटा कथानक नहीं था । अतः उनका ओड़िया अनुवाद करना आसान था । इसमें रवीन्द्र, बंकिम बाबू और शरत बाबू के अनेक उपन्यास अनूदित होकर ओड़िया में आये। इनमें रामसिंह, देवी चौधराइन, दुर्गेशनन्दिनी, कपाल कुंडला, इनका अनुवाद खूब लोकप्रिय हुआ । इसके अलावा आगे चल कर तो जानकी बल्लभ पटनायक जी ने पूरी बंकिम ग्रंथावली को ही ओड़िया अनुवाद में प्रस्तुत कर दिया । जहाँनारा की आत्मकथा एक प्रसिद्ध परसियन उपन्यास है । गणेश्वर मिश्र ने इसका ओड़िया अनुवाद किया है ।
- इस प्रकार आजादी के साथ-साथ अंग्रेजी, फारसी, इटाली आदि विदेशी कहानियाँ ओड़िया में आ गई । इसके अलावा एक नई धारा थी - भारतीय कथानकों का ओड़िया में रूपांतरण । इसमें तेलुगू, मराठी, पंजाबी, गुजराती और तमिल की कई कृतियाँ आई । कुछ क्षेत्र में तो ऐसे हुआ कि बंगला अनुवाद ही छपने लगे लोगों ने अनुवादकों का नाम ही मिटा दिया । इसमें एक तो अनुवाद सरल भाषा में थे दूसरे इन अनुवादों की विषयवस्तु क्षेत्रीय न होकर सर्वभारतीय थी । तीसरे ओड़िया में अभी भी लेखन उतनी गति नहीं पकड़ पाया था । अतः इतने बड़े पाठक वर्ग की भूख मिटाने के लिए अनूदित कृतियों ने बड़े वैकूम में स्थान बना लिया । आगे चलकर इस स्थिति ने ओड़िया पाठकों की रुचि को भी दबोच लिया । पाठक ओड़िया से अधिक बंगला कृति का अनुवाद पढ़ने लगे । यह किसी तरह से स्पृहणीय स्थिति नहीं थी ।
- यह मूल कृतियों के लिए बड़ी रुकावट बनने लगी। उनके प्रकाशन, उनके प्रचार-प्रसार और उनकी लोकप्रियता सब तुलना की कसौटी पर कसी जाने लगी । हर अनूदित कृति को खरीदते समय पाठक ओड़िया उपन्यास के साथ तुलना कर देखते थे । बंगला में कहानी कहने की कला सारे देश में अनूठी है । यही कारण है कि बंकिम, शरतचंद्र को ओड़िया का अपना कथाकार बनने में देर नहीं लगी लोगों को याद ही नहीं रहता कि यह भिन्न धरती की भिन्न भाषा की कहानियाँ हैं । सच कहा जाये तो इस स्पर्धा में ओड़िया में अनूदित कहानी और उपन्यास बाजी मार लेते हैं ।
- इस धारा में एक स्मरणीय बात परोक्ष अनुवाद की है ओड़िया में वैदिक संस्कृत, प्राकृत, पाली, अपभ्रंश अथवा तेलुगू, तमिल, कन्नड़, मराठी आदि भाषाओं के जानकार बहुत कम हैं यह पहले ही देखा एक भाषा अप्रचलित होकर दूसरी भाषा समाज में आ जाने पर पूर्ववर्ती साहित्य की धरोहर को अनुवाद के जरिए नूतन भाषा में बार-बार अवतरित किया जाता रहा है । इस प्रकार भाषा बदलने पर भी भावों और तथ्य तथा सूचनाओं की संपदा युग-युग में उपलब्ध होती रही है यह प्रक्रिया तो सर्वभारतीय स्तर पर चलती रही है । परंतु यहाँ एक दूसरी बात की ओर संकेत किया जा रहा है । वह है समकालीन युग में अपने से इतर क्षेत्र की भाषा की साहित्यिक निधि को किस प्रकार उपलब्ध कराया जाए । दुर्भाग्य से ऐसी कोई सामान्य भाषा, संस्कृत के बाद, सारे देश में उपलब्ध नहीं हुई अथवा विकसित नहीं हुई, जो इस आदान-प्रदान को सुलभ बना सके । सबके अपने-अपने आग्रह अथवा दुराग्रह रहते हैं । इस कारण किसी एक भाषा को सामान्य दर्जा देने में बार-बार रुकावट आती रही है । यहाँ तक कि सर्वाधिक क्षेत्र और सर्वाधिक जनता द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी को इस रूप में विकसित करने की बात आई तो भी लोग संविधान जलाने को उठ खड़े हुए, झंडा फाड़ने से बाज नहीं आये, फिर भी कुछ लोगों ने मन बना ही लिया । इसमें दो तरह के लोग थे । एक वे लोग जो अंग्रेजी के माध्यम से सर्वभारतीय स्तर पर अपने साहित्य को सुलभ कराना चाहते थे दूसरे वे लोग थे जो हिन्दी को समग्र भारतीय संस्कृति और साहित्य का भंडार मानकर उसे समृद्ध करने में जुट गए । अब भारत की किसी भी साहित्य की कृति से जो भी श्रेष्ठ कृति चाहिए वह इन दोनों भाषाओं में खोलकर चुनी जा सकती और उसे अनुवाद कर अपनी इच्छा पूरी की जा सकती हैं । इसी प्रक्रिया को परोक्ष अनुवाद कहा जाता है । क्षेत्र में ज्यादा से ज्यादा अपनी सीमाओं के आस-पास की भाषाओं को जानने वाले मिल सकते हैं । लेकिन दूर प्रदेश की भाषा जानने वाले और उस पर काम करने वाले लोगों का सर्वत्र अभाव है । जैसे केरल में कन्नड़ से तेलुगू अनुवादक अथवा पंजाब में तमिल अनुवादक पाना लगभग असंभव सा है । ज्यादातर काम पंजाब वालों का हिन्दी भाषी कर लेते हैं अथवा तमिल साहित्य का कन्नड़ में अनुवाद संभव हो सकता है उसी तरह बंगला का ओड़िया में या ओड़िया का बंगला में तुलनात्मक दृष्टि से अन्य भाषाओं की अपेक्षा अधिक आदान-प्रदान मिल जाता है ।