अनुवाद परिभाषा, क्षेत्र और सीमाएँ
अनुवाद परिभाषा, क्षेत्र और सीमाएँ (Translation Definition, Scope and Limitations)
- अनुवाद की चर्चा करते समय आपने साहित्य और भाषा के बारे में काफी अनुभव प्राप्त कर लिया है। अब उसका प्रायोगिक रूप सामने है हमारे सामने भाषा निर्माण भाषा गठन की एक मजबूत नींव बन चुकी है । साहित्य का एक पक्ष इसका विस्तार है । क्षेत्रीय ही नहीं, भावात्मक रूप में भी अपनी सीमा लांघने की इच्छा होती है । अपनी, अपने क्षेत्र की, अपने देश और अपने समय की संपदा (बौद्धिक) को भाषा गत दायरे से निकाल कर वृहत्तर क्षेत्र में उसे प्रदर्शित करना अनुवाद का मुख्य लक्ष्य है.
- प्राचीन भारत में गुरु शिष्य परंपरा में गुरु से सुनकर शिष्य ग्रहण करता था यह अनुवाद का प्रारंभिक रूप है.
- परंतु पश्चिम में ट्रांसलेट को परिवहन से जोड़ कर परिवहन का पर्याय बनाया अनुवाद याने ट्रांसलेट (परिवहन) करना । अर्थात भाषा में रचित सामग्री को लेकर अन्य भाषा क्षेत्र में पहुँचाना अनुवाद कहलाता था । इस व्यापक परिभाषा में अनुवाद का कार्य बहुत बड़ा हो जाता है ।
अनुवाद परिभाषा ( Translation Definiton in Hindi)
- भर्तृहरि ने अनुवाद का अर्थ 'दोहराना' या पुनर्कथन' लिया है । अर्थात् जो बात कही जा चुकी है उसे उसी भाषा में या दूसरी भाषा में व्यक्त करना या दुहरा देना, अनुवाद है । कुछ शब्दों के हेर फेर के साथ आज सारा पश्चिमी जगत भी इसी परिभाषा के आधार पर अनुवाद कार्य को स्वीकार कर रहा है ।
- भारत में वैदिक भाषा के बाद जो परिवर्तन आया, वह ज्ञान फिर एक बार लोगों तक पहुँचाने हेतु उसकी टीका, अर्थ, भाषा व्याख्या आदि कार्य किया गया । संसार में यह अनुवाद का सर्वप्रथम रूप और प्रयोग है ।
- वही हाल पश्चिम में बाइबल को लेकर हुआ मूल भाषा हिब्रू कालक्रम में अनुपयुक्त हो गई बाइबल को प्रचलित ग्रीक, फिर अंग्रेजी में उतारना पड़ा । आज तक यह अंतरण चल रहा है ।इसलिए नहीं कि यह काम अधूरा रहा या अप्रामाणिक था । वरन विद्वानों एवं बाइबिल के अध्येताओं ने सूक्ष्म से सूक्ष्मतर स्तर पर उतरकर उसको गहराई से प्रस्तुत किया । हिंदी में यह कार्य प्रमुखत: फादर कामिल बुल्के ने किया जो भारत में सर्वाधिक प्रचलित एवं आदरणीय माना जाता है । वैदिक एवं उपनिषदिक व्याख्या की लंबी परंपरा है । यास्क, शंकराचार्य आदि की लंबी परंपरा है.
आधुनिक अनुवाद शास्त्र के पश्चिमी आलोचकों में नाइडा खूब प्रचलित हैं
"Translating consists in to reducing one language the closest natural equivalent to the message of the source language first in meaning and secondly in style.
नाइडा ने अर्थ और शैली दोनों को ध्यान में रखने की बात कही है मूल भाषा को लक्ष्य भाषा में अर्थ और शैली दोनों दृष्टि से समतुल्य होना चाहिए । नाइडा अनुवाद की भावात्मक दृष्टि की उपेक्षा नहीं करते ।
उसी प्रकार कैटफोर्ड ने कहा
"Replacement of textual material in one language by equivalent textual material in another language."
यहाँ सिर्फ शब्दों का अंतर है लगभग एक ही बात दोनों कहते हैं .
न्यूमार्क टेक्सट की बजाय संदेश की चर्चा करता है । एक भाषा का संदेश दूसरी भाषा में प्रस्तुत करते हैं
अर्थात् तीनों विद्वानों ने कहा -
अनुवाद में स्रोत भाषा ( Source
language) की सामग्री को लक्ष्य भाषा (Target language) में प्रस्तुत
करना है
अब यहाँ देखते हैं कि मूल पाठ में भाषा और विषय दोनों हैं । भाषा में उसकी शैली, शब्दों का स्तर आदि आते हैं । सामग्री में विषय वस्तु और भाव, सौन्दर्य, कलात्मक विशेषता आदि होते हैं ।
अनुवादक भाषा के
सारे वैभव को देखता है और विषय की व्यापकता हृदयंगम करता है । इसे लेकर लक्ष्य
भाषा में एक नये पाठ में उस मूल सामग्री को तैयार करता है । सजाता -संवारता है ।
यही अनुवाद कार्य है । भाषा के भाव के अलावा वह विषय को संप्रेषित करने पर पूरा
ध्यान केंद्रित करता है एक भाषा से दूसरी भाषा में समझाना यह अनुवाद का मूल लक्ष्य
हैं । चाहे साहित्यिक हो अथवा कर्यालयीन अथवा वैज्ञानिक अनुवाद, सर्वत्र विषय ही
प्रमुख होता है.
दूसरे शब्दों में कहते हैं -
अनुवादक अपने प्रयास में शब्दावरण भेद कर उस पाठ के सूक्ष्म भाव तक पहुँच कर अपनी भाषा में व्यक्त करता है । वह मूल के भाषागत आवरण का मोह छोड़ कर लक्ष्य एक आवरण प्रस्तुत करता है । यहीं पर लक्ष्य में उसकी मौलिकता प्रकट होती है । उसमें सृजनात्मकता दिखती है । अब मूल छोड़ दे, अनूदित कृति की ओर गौर करें - टुकड़े-टुकड़े, शब्द, वाक्य, मुहावरे आदि जोड़कर बनाई गई कोई वस्तु नहीं, एक स्वयं संपूर्ण साहित्यिक कृति दिख रही है । स्वाभाविक एवं सहज सृजन लग रहा है । यही अनुवाद है ।'
अनुवाद की सीमाएँ (Limitation of Translation)
क)
आज तो 'अनुवाद क्षेत्र का विस्तार सीमातीत हो गया है। कला-विज्ञान ही नहीं चिंतन और जीवन का हर बिन्दु अपने क्षेत्र से निकल बाहर आने को आतुर है । वैश्वीकरण ने इस इच्छा को और भी गति प्रदान की है विश्व अगर छोटा गाँव बन गया तो पास-पड़ोस में आना-जाना बहुत सहज भाव है । अतः इसकी व्यापकता में विस्तार आया है ।
उसी प्रकार आज वैज्ञानिक तकनीकी प्रगति के कारण उसके हाथ में अनेक औजार भी आ गये। हैं । केवल शब्द ही नहीं, भावों की गहन पहुँच तक आसान हो गई । एक आयाम मशीनी अनुवाद ने दिया है इससे अनुवाद का क्षेत्र बढ़ा है । अनेक सीमाएँ टूटी हैं । साधन मिलने पर अनपहुँच क्षेत्रों और स्थानों तक अनुवाद पहुँच रहा है.
मनुष्य दूर तक और गहराई से सोचने लगा है । अत: अनुवाद के संबंध में भी बहुत सचेतन हो गया । सतही समानार्थी अनुवाद को वह स्वीकार नहीं करता गहरे उसके भाव, विचार, लक्ष्य स्तर पर भी अनुवाद उसे संतुष्ट करे तब वह स्वीकार्य होता है ।
इस प्रकार हम जब
अनुवाद की सीमा पर चर्चा करते हैं। एक ओर विस्तार दिख रहा है । दूसरी ओर संकोच हो
रहा है । क्षेत्र में इसे विराट विश्व मिल रहा है। उसके स्तर को देखें तो सीमा
संकोच होता जा रहा है । इन दोनों का कहीं मेल नहीं दो अलग-अलग क्षेत्र हैं फिर भी
दोनों के साथ होने पर भी सीमा निर्धारित संभव है
ए) भाषाई सीमा :
अनुवाद कार्य में स्थूल रूप में सर्वाधिक संबंध भाषा से है । अतः उसकी ज्यादातर सीमायें भाषा ही निर्धारित करती है । मुख्यतः भाषा दो तरह की (अनुवाद के संदर्भ में) होती हैं । निकटवर्ती उत्पत्ति, विषयवस्तु को लेकर, भौगोलिक दृष्टि से वह अगर आसपास के क्षेत्र की है तो उसकी सीमा भिन्न होगी । परंतु भिन्न देश, विभन्न काल, भिन्न जाति-धर्म से संबद्ध है तो सीमा भिन्न हो जायेगी ।
उदाहरण के लिए हिदी - ओड़िया अनुवाद की वो सीमाएँ नहीं होंगी जो हिंदी - जर्मन या ओड़िया जापानी अनुवाद की होंगी । उसी प्रकार कालगत अंतर भी अनुवाद की सीमाएँ निर्धारण करती है । समकालीन भाषा और दो-चार सौ वर्ष पुरानी भाषा से अनुवाद में जो सीमा आती हैं वह बाइबल के अनुवाद 'में देखी जा सकती है ।
भाषा में
प्रयुक्त शब्द (जैसे बेटा, पुत्र, लड़का ) ही नहीं
उसके वाक्य भी सीमा तय करते हैं । कहीं विभिन्न भावोद्दीप्त वाक्य, कहीं खंडित
वाक्य, , तो कहीं लंबे
वाक्य अनुवाद की सीमा तय करते हैं । कहीं वाक्य में कर्ता अंत में आता है, कहीं पर
नकारात्मक शब्द भी अंत में (जैसे वह गया नहीं) आये अनुवादक को सीमा में रहना पड़ता
है । उसी प्रकार शब्दों के कोशगत अर्थ की जगह भावनातिरेक में विशेष अर्थ हों तो वे
अलग ही सीमा प्रस्तुत करते हैं । इनमें स्नेह, व्यंग्य, हास्य, क्रोध, प्रेम आदि विविध
भावों के अधीन शब्दों के अपने अर्थ बदल जाते हैं सृजनात्मक भाषा में बहुधा कोश से
आगे विशेष अर्थ होते हैं अतः सीमा को ध्यान में रख अनुवाद करना पड़ता है
बी) सामाजिक सांस्कृतिक सीमा :
जब अनुवाद की
दोनों भाषाओं के सामाजिक सांस्कृतिक आधार जितने दूर होंगे अनुवाद की सीमायें भी
उतनी बढ़ती जायेंगी । भारतीय भाषाओं के आपसी अनुवाद में सांस्कृतिक निकटता रहने के
कारण अनुवाद सहज ही कर पाते हैं। यूरोपीय क्षेत्र में ले जायें तो वहाँ के
आचार-विचार, चाल-चलन बहुत
भिन्न होते हैं वहाँ की भाषा में प्रस्तुत करना बड़ी सीमा पैदा कर देता है भारत
में भी बांग्ला परंपरा और गुजराती सामाजिक व्यवस्था में भिन्नता मिलती है पंजाब और
केरल - कर्नाटक के पर्व त्यौहारों में भिन्नता होती है । अत: अनुवाद की सीमा
स्पष्ट हो जाती है ।
तमिल में कंबन की रामायण का हिंदी अनुवाद और हिन्दी की रामचरित मानस का तमिल में अनुवाद ऐसे दो उदाहरण ले सकते हैं । अथवा बलराम दास (ओड़िया) रचित दांडी रामायण का हिंदी में अनुवाद की बात कर सकते हैं। ओड़िशा में जो पहनावा है, जो खान-पान है, विवाह के समय की लौकिक - शास्त्रीय विधि-विधान हैं. . ऐसी अनेक बातें ले सकते हैं। उत्तर भारत (हिंदी भाषाई क्षेत्र) में कुछ रीति-रिवाज मिलते हैं, कुछ नहीं । कई रीति-रिवाज भी एक जैसी हैं, पर्व-त्यौहार भी एक जैसे हैं हिन्दूओं के भगवान एक हैं तो रीति-रिवाज भी एक ही होंगे। पर उनके अलग-अलग नाम दे दिये हैं जैसे उत्तर भारत में 'तीज' है तो यहाँ ओड़िशा में 'रज' पर्व है दोनों ही वर्षा ऋतु के आरंभ में कंवारियों के आनंदोल्लास के पर्व हैं इनका अनुवाद बड़ी सतर्कता की मांग करता है यहाँ कुछ वस्तुओं का उल्लेख भर कर देने से वह अनूदित नहीं हो जाता । वस्तु, क्रिया, भाव आदि के नाम वहाँ की परंपरा में घुले मिले हैं परंतु उनको हिंदी में लिखने से पाठक तक वह संप्रेषण नहीं हो पाता यह अनुवाद की सीमा है ।
कुछ संबोधन
स्नेहाधिक्य अथवा क्रोध वश भिन्न अर्थ में प्रयुक्त होते हैं (जैसे माँ, बाप, दादा, नाना आदि) पर
अनुवाद में इनका मूल आशय लेकर तदनुरूप अनुवाद अपनी विशेष सीमा प्रस्तुत करता है
इसी प्रकार 'श्रद्धा' शब्द ओड़िया में
जिस भाव को, मूल्य को लेकर
प्रयुक्त होता है, हिंदी में लगभग
वह भाव और पुरुष नहीं रखता । ओड़िशा में बड़ों की छोटों के प्रति स्नेह, अनुकंपा, सहानूभूति, अंतरंगता, भक्ति आदि को
अभिव्यक्त करते समय 'श्रद्धा' शब्द का प्रयोग
करते हैं । परंतु हिंदी में 'श्रद्धा' की विशेष
व्याख्या आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसी शीषर्क निबंध में की है परंतु वहाँ ऐसी
कोई बड़े-छोटे की भावना, स्नेहमय, भाव धारा को
सूचित करता है । यह सांस्कृतिक चलन की सूक्ष्म स्थिति होती है इसे ध्यान में रखकर
प्रयोग करना होता है ।
अनुवाद में
संस्कृति का एक विशेष तत्व दूसरी में न मिलना आम बात है । तब अनुवादक प्रतिस्थापन
करता है । यह बात तभी संभव है जब सांस्कृतिक रूप से दोनों निकट हैं यहाँ पर पूर्ण
समता तो संभव नहीं । आंशिक समानता को लेकर Second
Best की तरह अनुवाद कार्य संपन्न करता है इस भाषा संबंधी रुकावट के कारण वे
अवधारणायें जैसी पहचानी जाती हैं । - मूल भाषा में, अनुवाद द में वह रूप नहीं मिलेगा । यह
अनूठापन आल्हाद, आश्चर्य प्रदान
करता है, परंतु मूल को
पूर्ण रूप में प्रस्तुत नहीं कर पाता । हालांकि दोनों की समानता के निश्चित मानदंड
स्पष्ट नहीं हैं इस प्रकार के अनुवादक और फिर पाठक द्वंद्व में पहुँच जाता है ।
अगर बहुत कठिन लगे तो अनुवादक इन अंशों छोड़ देता है यद्यपि यह सर्व निकृष्ट पथ है
पर अनन्योपाय हो वह इन्हें त्याग देता है । पाठक इनका आनन्द नहीं ले पाता । अपनी
सीमा में ऐसे अंश बंध कर रह जाते हैं । यहाँ सामान्य पाठक का ध्यान रखते हुए
सामान्य अनुवाद में ऐसे अंशें से जूझने की जरूरत नहीं होती । सांस्कृतिक आदान
प्रदान में यह प्रणाली अपनी सीमा के बावजूद, अत्यंत
महत्वपूर्ण होती है ।
यहाँ अनुवाद में
'टी एल' की शैली पर
विचार कर लेना उचित होगा । हिंदी रूपांतरण में हिंदी अनेक बोलियों का समूह है
(वैसे तो हर चार-पांच मील पर बोली में अंतर आ जाता है) - भोजपुरी, अवधी, मैथिली, राजस्थानी, पहाड़ी, छत्तीसगढ़ी, मलावी... अनेक
बोलियों का समाहार है । अनुवादक सही भाषा के चुनाव के समय इस विशाल विकल्प स्थिति
में उलझ जाता है । कोई मार्गदर्शी सिद्धान्त नहीं पाता ! ऐसे में भाषा के किस बोली
रूप को ग्रहण करे या फिर उर्दू आदि का सहारा ले, यह विराट विकल्पमय दृश्य उभय अनुवादक और पाठक
के लिए सीमा बना देता है
अनुवादक संरचना
में प्रदत्त सांकेतिक बिन्दु को पकड़े । यह संकेतात्मक शब्द कोश में ढूंढने से
नहीं मिलता वाक्य संरचना में यह संकेत छुपा होता है। संवेदनशील अनुवादक इसे सहज ही
पहचान पाता है । यह ध्वन्यात्मक रूप अनुवाद के समय अनुवादकीय विशिष्टता की पहचान
कर देता है । लेखक द्वारा प्रयुक्त भाषाशैली पकड़ कर उसमें प्रस्तुत करना विशेष
सीमा रखती है ।
अनुवाद कार्य
सांस्कृतिक कार्य है यह वैज्ञानिक तकनीकी के रूप में नाप-तौल कर करना संभव नहीं ।
एक जीवंत कृति को अन्य भाषा - संस्कृति क्षेत्र में जीवंत कृति के रूप में
प्रस्तुत करन पड़ता है । यह सबसे बड़ी चुनौती होती हैं । अनुवादक मूल के प्राणों
से परिचित हो और लक्ष्य में जीवन्यास दे, यह उसकी सबसे बड़ी
चुनौती है । ईंट-गारे का ढांचा मकान नहीं होता, घर (Home) बनाने के लिए
उसमें परिवार चाहिए। वैसे ही अनुवाद की प्राणवत्ता उसकी सीमा है, सौन्दर्य है, वैशिष्ट्य और
यथार्थ है.
3 अनुवाद का क्षेत्र :
अनुवाद का
क्षेत्र बहुत विस्तृत है यह क्रमशः विस्तृत होता जा रहा है इसकी शुरूआत धर्म
ग्रंथों के लोक भाषा में प्रस्तुत करने अनुवाद का प्रयोग हुआ था विश्व की सभी
भाषाओं में स्थिति थी क्रमशः इसका विस्तार होने लगा । साहित्य के अन्य रूपों का
लोक भाषा में अनुवाद के माध्यम से अंतरण किया जाने लगा । यह कार्य एक क्षेत्र, एक देश ही नहीं
सारे विश्व में प्रचलित होने लगा । इस प्रकार साहित्य देश की सीमा लांघ महादेशों
में फैल वैश्विक होने लगा । इस प्रकार विचार, भाव एवं चेतना
के विस्तार में अनुवाद का प्रयोग क्रमशः सीमायें तोड़ने लगे ।
वेद, उपनिषद, ब्राह्मण
ग्रंथों को आज हम अनुवाद के माध्यम से हृदयंगम कर रहे हैं । अन्यथा वैदिक व्याकरण
तो दूर, पाणिनी तक को
समझना इतना आसान नहीं है। बार-बार गीता, भागवत, महाभारत, रामायण के
अनुवाद होने लगे । इससे कथानक में कवि प्रतिभा जुड़ कर नव-नूतन अर्थ और नूतन भाव
विस्तार होने लगा । इस प्रकार हमारी परंपरा, हमारी संस्कृति, हमारे जीवन, हमारे प्राणों
में नूतन भाव भरती रही । आज भी यह धारा प्रचलित है । इन अमर ग्रंथों का अनुवाद
जारी है पश्चिम के एक 'बाइबल' के अनुवाद में
हजारों संस्थायें एवं हजारों लोग लगे हैं इस प्रकार अनुवाद का क्षेत्र आज विस्तार
पा कर बहुत बड़ा हो चुका है । 'ईसाइत' के इतने विविध
रूप मत, और भेद मिल रहे
हैं। पर मूल ईश्वर चेतना एक है । उसका आधार बाइबल अनुवाद के आधार पर विभिन्न
दृष्टिकोण है। कुरान मूल भाषा हर मुसलमान के लिए पवित्र है । परंतु उसका संदेश उसे
अपनी भाषा में अनुवाद करने से ही समझ आता है। कुरान की आयतों का अर्थ उसके जीवन का
अंश तभी बनता है जब वह उसे समझ कर उसके अनुसार आचरण करता है । यहीं अनुवाद का
क्षेत्र आ जाता है ।
ज्ञान-विज्ञान
के क्षेत्र में अनुवाद का एक भिन्न क्षेत्र है । यहाँ कला-संस्कृति की सूचना और
विज्ञान का विस्तार होता है । एक भाषा में उपलब्ध ज्ञान-विज्ञान को अनुवाद से ही
विस्तार मिल रहा है विश्व के किसी कोने में उद्भावना हो, अनुवाद से हर
क्षेत्र में वह शीघ्र फैल जाती है । एक भाषा इतना बड़ा बोझ वहन नहीं कर सकती, वह चाहे
अंग्रेजी हो या चीनी । इसका माध्यम रेडियो, टीवी, सिनेमा, इंटरनेट, मोबाइल और अन्य
इलेक्ट्रानिक मीडिया हो सकता है सब में अनुवाद किसी न किसी रूप में अनिवार्य
आवश्यकता बन चुका है इसी प्रकार ज्ञान-विज्ञान एवं अन्य सूचना प्रसार के माध्यम
पत्र-पत्रिकायें भी अनुवाद बिना पंगु बन जाती हैं । द्रुतगति से अनुवाद कर सूचना या
संवाद विश्व में विभिन्न माध्यमों से प्रसारित, प्रचारित और
विज्ञापित हो जाता है । अर्थात् विज्ञान का क्षेत्र भी अनुवाद के लिए अपरिहार्य बन
गया है । सूचना प्रदाता क्षेत्र से सूचना या संवाद या विज्ञापन लेकर अनुवाद के
माध्यम से विश्व के विविध क्षेत्रों तक पहुँचा देता है । दिनों का काम चंद
सेकेंडों में हो रहा है । हजारों का काम कुछ हाथों से हो जाता है ।
अंतर्प्रान्तीय
स्तर पर अनुवाद युगों से हो रहा है अंतः राष्ट्रीय अनुवाद बहुत पुराना नहीं है अब
विधानसभा, पार्लमेंट, यू एन आदि
विभिन्न बैठकों में अनुवाद के बिना काम नहीं चल सकता । अब आवाज उठ रही है सवा सौ
करोड़ भारतीयों का स्वर यूएन में हिंदी में सुना जायगा । अर्थात् भारतीय प्रतिनिधि
के हिंदी स्वर को यू एन में लेकर अन्य स्रोत स्वीकृत भाषाओं में अनुवाद के माध्यम
से वैश्विक बनाया जा सकेगा । संभावना उज्वल हो रही है । कुछ क्षेत्र हिंदी के
महत्व के बारे में द्विमत रखें । परंतु अनुवाद की उपयोगिता से इनकार नहीं कर सकते
। अतः उससे अपना उद्देश्य सिद्ध करते हैं ।
इसी प्रकार
व्यापार, शिक्षा, ट्रेवल, मेनेजमेंट, आईटी, राजनीति . आदि
जीवन के क्षेत्रों में अनुवाद अपरिहार्य हो चुका है । अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की
नींव अनुवाद पर टिकती है । विश्व को ग्लोबल बनाने में अनुवाद की भूमिका सबसे अधिक
है। विविधताओं को लांघने और समता के दर्शन कराने या विस्तार करने में अनुवाद का
महत्व बहुत अधिक रहा है। विश्व में संचार माध्यमों की गति दिन पर दिन बढ़ती जा रही
है। परिवहन के साधन सस्ते, विश्वसनीय और
द्रुत हो रहे हैं । इस प्रकार आपसी समझ -बूझ, परिचय, स्नेह - प्रेम, पारस्परिक
सौहार्द्र की दुनिया में वृद्धि के लिए अनुवाद का विशाल क्षेत्र है । पहले विवाह
कर लड़की ससुराल जाती तो एडजस्ट होने में समय लगता, अब नहीं। पर पढ़ने, रिसर्च करने, विशेषज्ञता
प्राप्त करने के लिए नये इलाके में जाकर अनुवाद के माध्यम से भाषा एवं परंपरा जान
कर तेजी से अपने लक्ष्य तक पहुँच जाता है । आज यह जरूरत हर तरफ महसूस हो रही है ।
एक व्यक्ति दस भाषायें नहीं सीख सकता । पर उनमें लिखी अपनी जरूरी पुस्तकें अनुवाद
के माध्यम से प्राप्त कर सकता है । सिनेमा रातों रात अनूदित होकर विश्व भर में
प्रसारित हो जाता है ।
आज विश्व में
मशीन को लाकर अनुवाद का क्षेत्र और विस्तृत किया जा रहा है । व्याकरणिक जटिलताओं, भाषागत यूनिक
फिचर के कारण एक क्षेत्र का ज्ञान अथवा अनुभव दूसरे क्षेत्र में जाने में रुकावट आ
रही है । परंतु धीरे-धीरे सब बिन्दु तलाश कर इन अड़चनों को दूर किया जा रहा है ।
ज्ञान जैसा सरल विषय भाषाई लीकों में उलझ कर रोका नहीं जा सकता सारे विश्व के लिए
अनुवादनीय सामग्री प्रस्तुतिकरण चल रहा है । इससे वैश्वीकरण सिर्फ बाजारीकरण का
क्षेत्र भर नहीं रहेगा । इसमें संस्कृति, कला, साहित्य, परंपरा, इतिहास, भूगोल, राजनीति... सारे
क्षेत्रों को वैश्विक धरातल पर लिया जा सकेगा इसमें गति मशीन भर देगी । मशीनी
अनुवाद में भी व्यापक सफलता मिल सकेगी । हम आज कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक के अनुवाद
को बड़ी सफलता मान बैठते हैं । जीवन के अगणित अन्य क्षेत्र अनुवाद के चरागाह हैं
वहाँ की सामग्री अपने-अपने क्षेत्र से निकल विश्व दरबार में पहुँचने लगेगी तब
अनुभव होगा कि हम सब मनुष्य हैं । मानवता - विश्व बंधुत्व और सर्वोपरि भारत का हजारों
वर्ष का संकल्प 'कृण्वेहो
विश्वमार्यम्' अथवा 'जगत उद्धार हेउ' (ओड़िया कवि भीम
भोई) साकार हो सकेगा ।
अनुवाद सारांश :
इस प्रकार इस इकाई में हमने 'अनुवाद' की संकल्पना पर विचार किया । 'अनुवाद' का विभिन्न युगों में विभिन्न अर्थों में प्रयोग हुआ है । नये युग के विद्वानों, विशेष कर पाश्चात्य मनीषियों ने इस पर क्या चिंतन किया, इस पर विवेचन किया ।
अनुवाद से बहुत आशायें की जाती है । परंतु हम भूल जाते हैं कि यह कोई 'सर्वोषधि' नहीं है । इसकी अपनी सीमायें हैं । सांस्कृतिक, राजनैतिक, साहित्यिक आदि विभिन्न क्षेत्रों में अंतरण या समतुल्य भाव - विचार सूचना को प्रस्तुत करना संभव नहीं होता । अतः उस पर बहुत अधिक निर्भर करने में सतर्क रहना होगा । जैसे हमेशा अनुवाद निर्भर जाति क्रमश: पंगु होने लगती है, मौलिक रचना, सृजन और दृष्टि शक्ति दुर्बल होने लगती है । इन बातों पर परोक्ष रूप में प्रकाश डालना जरूरी है । ज्ञान विज्ञान को अनुवाद कर भंडार भरना एक दृष्टि से ठीक है, परंतु उसी पर निर्भर करने से मौलिकता पर (ओरिजिन) पर प्रभाव पड़ने की संभावना से इनकार नहीं कर सकते ।
अनुवाद का क्षेत्र हमारी आशाओं और अपेक्षाओं से भी अधिक विस्तृत है । जीवन के विराट फलक को स्पष्ट करने और रंग भरने में अनुवाद की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है । वैश्वीकरण को केवल बाजारीकरण नहीं, वास्तव में मानवीय एकीकरण के क्षेत्र में अनुवाद की भूमिका पर प्रकाश डाला गया है ज्ञान-विज्ञान - कला संस्कृति के सभी क्षेत्रों में अनुवाद की जरूरत हो रही है । भारत का वैश्वीकरण का अपना दृष्टिकोण इसीके माध्यम से सफल होगा, इस पर भी विचार किया गया है ।