अनुवाद प्रक्रिया और प्रविधि
अनुवाद प्रक्रिया और प्रविधि सामान्य परिचय
अनुवाद किसी भी कार्य की तरह एक निश्चित विधि-विधान पूर्वक किया जाता है हालाकि हमारे देश में आज भी अनुवाद सिखाने की विधिवत कोई संतोषजनक व्यवस्था नहीं है । बस, कुछ अंश कविता / कहानी / नाटक / उपन्यास उठा कर कलम चलाने बैठ जाते हैं । इसी प्रकार 'मारग सोई जाकर मन भावा' की तरह सब अपने-अपने ढंग से एक-एक मार्ग खोल देते हैं। तभी इतनी अव्यवस्था फैली हुई है। दक्षिण के अनुवादों को उत्तर वाले कोई महत्व नहीं देते पूर्व के अनुवाद पश्चिम में नहीं जाते । पश्चिम के अनुवाद चर्चित होकर भी सीमा में बंधे रह जाते हैं। आपसी सांस्कृतिक अपरिचय जैसे का तैसा बना रह जाता है अनूदित पाठ एक और अनस्वीकार्य पाठ बन कर रह जाता है । सारा श्रम व्यर्थ हो जाता है । अत: अनुवाद कर्म हेतु दक्ष और समर्पित अनुवादक न मिलें, तो भी भाषा एवं संस्कृति से परिचित, व्याकरण के स्थूल नियमों से परिचित लोग तो हों ! मूल के वाच्यार्थ के साथ उसका व्याख्यार्थ और लक्ष्यार्थ नहीं आता है तो वह कैसा अनुवाद है ?
हमारे देश के सृजनशील व्यक्ति अनुवाद करते थे । वे औसत से कहीं अधिक मेधाशाली, ज्ञानवान और समर्पित हुआ करते थे । उनका अनुवाद आम अनुवाद नहीं कहलाता वे मौलिक कृतिकार के पद पर बड़े आदर से विराजमान हैं । यह स्थिति मध्यकालीन साहित्य के बहुत बड़े अंश पर सर्वत्र लागू होती है परंतु आज वह स्थिति नहीं । उन्हें अनुवाद के संबंध में मूलभूत प्रक्रिया (प्रोसेस) और प्रविधि की जानकारी होना जरूरी हो गया है । आज पश्चिम में लंबी और गहन प्रशिक्षण पद्धति बन चुकी हैं । अनुवाद करने नहीं, सिखाने और विश्लेषण के बड़े-बड़े संस्थान बन चुके हैं । विश्वविद्यालयों में 'अनुवाद विभाग' में पंद्रह-बीस प्रोफेसर नियमित रूप से नियुक्त हैं, काम कर रहे हैं । हमारे देश से मेनेजमेंट, विज्ञान, व्यवसाय, तकनीक सीखने तो हजारों छात्र वहाँ जाते हैं, लेकिन अनुवाद सीखने प्रायतः कोई नहीं जाता । जब कि हमारे यहाँ अनुवाद सीखने की प्रवृत्ति ही नहीं मिलती हर व्यक्ति अपने को अपनी भाषा का जानकार और अन्य भाषा की सामग्री अनुवाद करने में समर्थ समझता है । उसे कोई यह नहीं बता पाता कि अनुवाद में भाषा व्यवहार की सामान्य क्रिया नहीं है । कविता-कहानी लिखने की तरह ही यह भी सृजनात्मक प्रक्रिया है । यह सृजनशक्ति ही अनुवाद को सार्थक रूप प्रदान करती है । अतः आइए इस अध्याय में अनुवाद करने के विभिन्न सोपानों पर चर्चा करें । इस पर वैज्ञानिक ढंग से चिंतन-मनन, ,विश्लेषण - विवेचन पश्चिम में ज्यादा हुआ है । अतः पश्चिमी विद्वानों के विचारों को यहाँ ज्यादा महत्व दिया गया है ।
अनुवाद प्रक्रिया का अर्थ :
अनुवाद कार्य में दो भाषाओं का उपयोग होता है । एक समझते और हृदयंगम करते हैं । दूसरी में समझाते और हृदयंगम कराते हैं । इस सारे कार्य का नाम है 'अनुवाद प्रक्रिया' । इसमें दुहरी प्रणाली होती है । मूल भाषा की संरचना देखें - इसमें मुख्यतः ध्वनि, स्वर, अक्षर, शब्द, पदबंध और वाक्य होते हैं इनको व्यवस्थित करने की एक निश्चित नियमावली, व्यवस्था होती है । इसे उस भाषा का व्याकरण कहा जाता है । उसी तरह जिसमें अनुवाद करना होता हैं, उसकी भी अपनी इकाइयाँ होती हैं और फिर उनका आपसी घटकों को आमने -सामने लाकर प्रयोग करना पड़ता है । जैसे अंग्रेजी के वाक्यों में एसवीडी (कर्ता, क्रिया, कर्म) के रूप में या फिर कर्ता का विस्तार, क्रिया के विस्तार के रूप में कर्म का विस्तार और फिर वाक्य मिलता है ।
अनुवाद के समय दूसरी भाषा में यह वाक्य क्रम बदल कर प्रयोग करता है - कर्ता का विस्तार, कर्म का विस्तार, अंत में क्रिया का विस्तार करता है । यह अनुवाद की प्रक्रिया का आधार है । इसके विभिन्न चरणों पर सुविधा के रूप में चर्चा कर रहे हैं ।
अनुवाद के चरण :
यूजेन नाइडा ने अनुवाद के तीन चरण बताये हैं ।
1 ) विश्लेषण
2) अंतरण
3) पुनर्गठन
विश्लेषण
अ) भाषा के स्तर :
अनुवादक सर्वप्रथम मूल पाठ हाथ में लेता है । इस समय वह पाठ के शब्द - वाक्य पद के स्तर पर अर्थ ग्रहण करता है । जटिल और अनेकार्थी वाक्यों की पहचान कर लेता है । उसकी व्याकरणिक संरचना पर विचार कर लेता है । मूल का एक रूप वह पहचान लेता है यह कार्य भाषा के स्तर पर होता है । इसमें हमारी सहायता भाषा की बनावट करती हैं मूल पाठ का संदेश इसीमें निहित होता है । इनमें लाक्षणिक और व्यंजनात्मक अर्थ भी होते हैं शब्दों के स्तर पर उनके अनेकार्थी रूप पर ध्यान दिया है । इसी प्रकार शब्द के परस्पर साथ आने पर नया अर्थ आता है परंतु समस्त (समास गए) शब्द का कोशगत अर्थ कभी तो सुरक्षित मिल जाता है, कभी उस अभिव्यक्ति के संदर्भ में छुपा होता है । यह विशेष अर्थ की सूचना देता है इसी प्रकार मुहावरों के अर्थ केवल परसर्ग लगा कर बदल जाते हैं ।
जैसे :
(किसी की) आँख लगना - नींद आना
(किसी से) आँख लगाना - प्रेम करना
(किसी पर) आँख लगना - ललचा जाना ।
इस प्रकार भाषिक अभिव्यक्ति के संकेतार्थ का कोशगत अर्थ के अलावा व्यंजना में है । इसे समझ कर सही संदेश प्राप्त किया जाता है । यहाँ वाक्य की अर्थ व्यवस्था और अर्थ क्षेत्र पर ध्यान रखना होता है ।
आ) विषयवस्तु के स्तर पर :
अनुवादक भाषा के माध्यम से उस विषय को ग्रहण करता है जो उसमें निहित है, और संकेतित है अथवा द्योतित है । अगर वह वैज्ञानिक या तकनीकी विषय है तो उसे समझने लायक ज्ञान जरूरी है। विशेषज्ञ चाहे न हो, उसे समझने लायक आधारभूत ज्ञान तो होना चाहिए
जैसे (Transfer) शब्द का
1) हस्तांतरण
2) स्थानान्तरण
दोनों संदर्भ देख कर अनुवाद करना होता है उसी प्रकार (Communication) शब्द का बहु अर्थी प्रयोग देखें
1) पत्राचार (कार्यालय में)
2) संचार (प्रेषण के अर्थ में )
3) संप्रेषण (साहित्य के अर्थ में )
इसकी सही विषयवस्तु ग्रहण करने हेतु अनुवादक को संदर्भ और परिस्थिति पर विचार करना होता है शब्द अपने आपमें बहुत सीमित अर्थ देता है। जब प्रयोग करते हैं तो उसका क्षेत्र, वह परिस्थिति, वे पात्र और वह वातावरण सबमें अपना अर्थ विस्तार कर लेता है । कोश तो एक दृष्टि देता है । व्यवहार तो असीम होता है । वहाँ उसकी पहुँच बहुत होती है । शब्द दूसरे शब्दों के साथ संबंध पद के माध्यम से नयी छाया में आ जाता है। एक अभिनव फील्ड प्रस्तुत कर देता है । उसे विभिन्न पगडंडियों में से एक चुननी होती है । जो उसे राजमार्ग से अनायास जा मिलती है । यह अंतर वाक्य संबंध भाषा की ताकत बनता है संस्कृति और परंपरा का वाहक होता है इसमें बहुज्ञता काम आती है । उसमें सही चुनाव कर अर्थ बिठाना अत्यंत महत्वपूर्ण होता है । यह भाषा की ताकत दिखाता है ।
वनवासी जीवन, ग्राम जीवन और शहरी जीवन में विषय एवं वस्तु की विविधता बढ़ती जाती है । मशीनीकरण से इसका स्तर और भी ऊँचा हो जाता है । इनके आपसी संयोग से अनुवाद का दारा खूब विस्तृत हो जाता है । अनुवादक की पहुँच वहाँ होनी चाहिए । उसी तरह 'रस' शब्द का साहित्य में जो अर्थ है, रसायन शास्त्र में भिन्न है । इसी प्रकार केमिकल से भिन्न अर्थ औषधिशास्त्र में आयुर्वेद के पंडित बताते हैं (जैसे बसंत कुसुमाकर रस) । अर्थात् विषय के अर्थ ग्रहण में उसके संदर्भ को ध्यान में रखना निहायत जरूरी है ।
इस शब्द की समझ से मूल भाषा और लक्ष्य भाषा का संबंध स्पष्ट होता है ।
इस प्रकार बाथगेट (Studies of Translation model 1980) ने अलग पुस्तक लिखने से पूर्व न्यूमार्क के साथ (Theory and craft of translation in 1978) लिख कर अनुवाद को आधुनिक भाव ग्रहण करने की दृष्टि से भाषा सिद्धांत रखा । शब्द प्रतिशब्द अर्थात् (Inter successive transla tion) की बात कही । ज्यादातर अनुवादक इस पद्धति को अपनाते हैं । शब्दों के अनुवाद लेते हुए आगे बढ़ते हैं । पर इसमें अनुवादक पूरी तरह पाठोत्तरण नहीं कर पाता । शब्दों की बजाय अनुवादक पूरे पाठ को अपने मानस में ग्रहण करता है । इससे वह पाठ के साथ मानसिक तौर पर जुड़ता है शब्दों से प्राप्त ज्ञान आगे बढ़ कर उस भाषा में निहित भाव, शैली, प्राण आदि के साथ समझ बनाता है । इस परिचय, आत्मीयता से एक तरह का समन्वय (बाथगेट के शब्दों में) स्थापित होता है ।
डॉ. भोलानाथ तिवारी ने हिंदी में इसे 'पाठ पठन' कहा है। पाठक मूल का पठन ( अध्ययन Study ) करता है । डा. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव और डा. कृष्ण कुमार गोस्वामी इस अध्ययन को एक और दिशा में आगे बढ़ाते हैं । भाषा को प्रतीक मान कर उनका प्रतीकों के स्तर पर विश्लेषण होता है यह प्रतीक ही संप्रेषण का आधार होता है। उसे समझ कर अनुवादक अपने को प्रस्तुत करता है समृद्ध करता है । वह विषय को अनुभव करता है । उसकी गहराई तक पहुँचता है । अनुवाद प्रक्रिया का यही प्रथम चरण होता है इस प्रस्तुति करण में अनुवादक मूल की भाषा, भाव, छंद, संकेत आदि विविध आधारों को ग्रहण करता है । अतः यह अत्यंत महत्वपूर्ण क्षेत्र है । अनुवादक द्विवागीश के रूप में यहाँ प्रथम वाक् याने मूल को धारण कर लेता है मूल पाठ का वह अच्छा और सार्थक पाठक बनता है । अपनी पूरी समझ, ज्ञान, कौशल के साथ मूल का पाठ करता है । यही उसका एक तरह से प्रस्तुति पर्व है । अनुभव संपन्न और नौसिखिये अनुवाद का यहाँ बड़ा अंतर होता है । केवल भाषा ज्ञान से काम नहीं चलता । उसके मर्म तक पहुँचने की क्षमता भी होनी चाहिए । पाठ केवल शब्दों में ही नहीं रहता He must be able to read between the lines यह अनुवादक की पाठ ग्रहण की क्षमता का निदर्शन होता है सृजनशील साहित्य में भाषा का Deeper structure अनुवादक के लिए बड़ी चुनौती होती है । Surfase structure में वह पाठ के एक स्तर तक आसानी से पहुँच जाता है । पर सृजन गहन तक प्रवेश की क्षमता ही अनुवादक की असल परीक्षा घड़ी होती है । उसे 'काव्य भाषा' और 'सामान्य भाषा' के अंतर को समझते हुए पाठ की काव्य भाषा (साहित्यिक विशेष स्तर) तक पहुँच कर उसे ग्रहण करना होता है । अनुवाद प्रक्रिया का यह प्रथम पर्याय है । इसे सही ढंग से पार किये बिना भ्रमित होने की संभावना होती है ।
भाषान्तर / अंतरण :
इस सारे प्रस्तुतिकरण अथवा प्रस्तुति पर्व से अनुवादक नये क्षेत्र में छलांग लगाने को प्रस्तुत हो जाता है । (जैसे पृथ्वी से चन्द्रमा पर उतरने के लिए एस्ट्रोनॉट तैयार होता है, उस तरह नहीं) पुरी में श्रीजगन्नाथ गुंडिचा (अपनी मौसी के यहाँ जाने) यात्रा करने से पूर्व 108 घड़ों से स्नान करते हैं। उसी समय उन्हें जुकाम हो जाता है तो उनकी बीमारी या स्वास्थ्य के लिए एकांतवास कर शारीरिक स्वस्थता प्राप्त करते हैं बाह्य रूप में बड़दांड पर रथों का निर्माण होता है । पहंडी बिजे कर उन्हें रथों में ले जाकर डचा मंदिर में बनी अंतरबेदी पर बिठाया जाता है । वैसे इस अंतरबेदी पर विराजमान महाप्रभु के दर्शन का विशेष माहात्म्य है । अतः भक्त बड़ी संख्या में आतुरता से खड़े हैं। उनका सारा नित्यनैमित्ि कर्म चलता है । उधर रसोबड़ा सक्रिय हो उठा है । वैसे ही अभड़ा ( अन्न - व्यंजन आदि) की प्रस्तुति प्रक्रिया शुरू हो चुकी है । चारों ओर आनन्द ही आनन्द भरा है। यह अभड़ा तो श्रीमंदिर की विशेषता है ! पर आप मंडप में जब विराजमान हो चुके हैं, तो यहाँ भी वही व्यवस्था लागू हो चुकी है । दाल, भात, बेसर, खटा, महुर, भांति-भांति की सब्जियाँ, सब कुछ वैसा ही ठाठ ! बही आडंबर !
प्रातः बाल भोग से लेकर अर्ध रात्रि में पौढ़ तक में कोई कमी नहीं रहेगी वैसे ही वेश परिवर्तन और वेश धारण होगा । फिर नाना शृंगार होंगे । वस्त्राभूषणों की छटा विशेष ! दूर-दूर से आये भक्त दर्शन कर धन्य हो जाते हैं । पहले दिन से सात दिन तक तो नित्य नैमितिक दर्शन की परंपरा चलती है । बीच में एक दिन लक्ष्मी चुपचाप आकर मान में भर लौट चुकी हैं । महाबाहु तक सारी खबर पहुँच चुकी है । पता ही नहीं चला कि सात दिन बीत गए । आज आठवां दिन है । महावेदी पर सायंकाल आरती का विशेष आयोजन है । आड़प मंडप में अद्भुत साजसज्जा हुई है । कतार में भक्त दर्शन हेतु खड़े हैं ।
अतः द्वार खुलने में विलम्ब हो रहा है । सांध्यवेश में सजे महाप्रभु के सांध्य दर्शनों की बात अनोखी है । वास्तव में आड़प मंडप में आज सांध्य वेश और संध्या आरती दर्शन हेतु बहुत बड़ी संख्या में दर्शन उपस्थित हैं । भक्तों का उत्साह कोई सीमा नहीं मानता । आज महाप्रभु के अधरों पर बंकिम मुस्कान भुवनमोहिनी है । महाप्रभु राजराजेश्वर वेश धारण कर चुके हैं। भक्त भी भीड़ में उझक - उझक कर निहार रहे हैं । बच्चों को कंधों पर बिठा दर्शन करा रहे हैं। देर रात गए तक भारी भीड़ लगी रही है । कोई पास गांव से बैलगाड़ी पर बैठ कर आया है बूढ़ी माँ को लाया है- सांवरे ठाकुर के आड़प मंडप में दर्शन करा ले । अंतिम दिनों में सांध्य दर्शन का सौभाग्य कोई मामूली बात है । यह 'साहाण मेला' (जन साधारण के लिए दर्शन) है । भक्त और भगवान के बीच की सारी दूरी मिट चुकी है ! कोई व्यवधान इस घड़ी नहीं रह जाता । प्रत्यक्ष प्रभु के भक्त दर्शन करता है, वार्तालाप चलता है ! आखिर परिवार के सदस्य हैं । कोई व्यवधान इस घड़ी नहीं चलता । इससे न बतियायें तो फिर कब ऐसा अवसर मिलेगा सारे काम छोड़ कर पधारे हैं जगत के नाथ - जगन्नाथ - भक्त प्रवर- सांवरे सरकार ! उन्हें प्रेम से कहो, रूठ कर कहो । गुस्से में गाली गलौज कर कहो । सब एक समान है । प्रभु की लीला ऐसी ही है । यह आप मंडप की लीला, दरबार लीला इतनी अंतरंग है इसे जो देखे, जो जाने सो ही समझे । इसमें - विधि निषेध से ज्यादा बढ़ कर सन्मुख खड़े होना है । दोनों हाथ ऊपर कर पूर्ण समर्पण भाव भक्त व्यक्त कर दें । बस, इतने में सब विधि-विधान संपन्न हुये समझ लें यहाँ शास्त्र, वेद, पुराण, मंत्र, तंत्र कथा, भजन, जणाण सब पीछे छूट जाते हैं । ये सांवरे ठाकुर तो नयनों से ही कानों का काम लेते हैं । नयन में ही हृदय समाया है । इस विशाल नयनों (चकानयन, चकाडोला) में ही इनका सर्वांग एकीभूत है । अतः आँखें खोल चकानयन के दर्शन कर लो । जी भरता ही नहीं । बार-बार आँखें उन नेत्रों में बंध जाती हैं । बाष्पाकुल नेत्र कुछ नहीं देख पाते तो भक्त झुंझला जाता है । ये आँसू कहाँ छुपे थे ? ये भी दर्शन करने उतर आते हैं । भक्त बार-बार पोंछता है- हथेली उलटा कर पर आँसू विकल हो फिर उतर आते हैं • सांवरे संगी - इन के दरसन बिन कोई कैसे छुपा रहे !!! तन-मन, आत्मा सब धन्य हो रहे हैं । कैसी - अनूठी है यह सांध्य बेला । इस दर्शन में सब कुछ की प्राप्ति भरी है चतुर्वर्ग तो बहुत कम पड़ जाता है। I इन दर्शन में - आड़प मंडप के इस सांध्य दर्शन में भक्त एक परिपूर्णता प्राप्त कर लेता है ! मध्यरात्रि तक तांता लगा रहता है तब बड़ी मुश्किल से विराम दिया जाता है । भक्त, जो नहीं पहुँच पाये, दर्शन नहीं कर पाते, कतार में पीछे रह जाते, वे लौट रहे हैं । निराशा नहीं है । संभावना बनी है । कोई बात नहीं महाप्रभु के विश्राम का वक्त हो गया । कल प्रातः तो इस बेदी को त्याग बाहर आ रहे हैं । प्रातः रथारूढ़ होंगे ही । तब अबाध दर्शन करेंगे । रथ रज्जू को छू कर, खींच कर, रथ चालन के भागी बनेंगे ! जीवन धन्य हो जायेगा । कोई विमन भाव नहीं । यहाँ महाप्रभु की विद्यमानता में कोई क्यों हताश होगा ? सब आनन्द मन से लौट रहे हैं । आज वैसा दिन अविस्मरणीय है ।
सनमुख होहि जीव मोहि जबहिं ।
जनम कोटि अघ नासहिं तबहिं ॥
इस विग्रह की ओर उन्मुख होना ही बहुत है
प्रातः वही चहल-पहल शुरू | यह बाहुड़ा ( प्रत्यागमन) यात्रा का दिन । द्वार खुलते ही द्वारपाल पूजा, सूर्यपूजा, सूर्य होम आदि प्रातः कालीन पूजार्चन संपन्न कर लेते हैं । वेश परिवर्तन किया है ताकि यात्रा के लिए उन्हें सुसज्जित कर लें । तब भोग लगता है । फिर शुरू होती है पहंडी ! एक-एक कर उसी क्रम में विग्रहों को लाकर रथारूढ़ करते हैं जिस क्रम में श्रीमंदिर के सामने रथारूढ़ किया था अब गजपति महाराज छेरा पहरा ( रथों पर सोना की मूठ की झाडू लगाना) कर रथों को यात्रा हेतु प्रस्तुत कर देते हैं । वही तीनों रथों पर जाकर पूजा अर्चना की जाती है । काठ के घोड़े (प्रतीक स्वरूप) जोते जाते हैं । वही लंबी रस्सियाँ संयुक्त कर दी जाती हैं। महाप्रभु के दर्शनार्थ बड़दांड पर लोकारण्य हो जाता है । आज पहले वाला विलंब नहीं होता । घोस यात्रा वाले दिन से आज की यात्रा कुछ अंतर आ जाता है । श्रीमंदिर, रत्नसिंहासन और सर्वोपरि महालक्ष्मी का स्मरण हो आता है । कितने दिन हुए इन सब को छोड़े ! यहाँ की लीला में कुछ स्मरण ही न रहा !
बाहुड़ा यात्रा के दिन हर काम में एक अजब-सी फुर्ती दिख रही है। बड़दांड पर उपस्थित भक्तगण रस्सियों को लेकर चल पड़ते हैं । पूरा प्रयास होता है कि संध्या तक तीनों रथ सिंह द्वार तक पहुँच जायें इसी जल्दबाजी में रथों के पहिये कुछ इधर उधर हो जाते हैं। डाहुक रथ पर से पताका हिला संकेत कर रथ रोकता है। फिर दिशा सीधी की जाती है। वही वाद्यों का निनाद, महाप्रभु का जैकारा ...... . और तीनों रथ एक के पीछे एक कर दक्षिणाभिमुखी चल पड़ते हैं। एक के बाद एक, अगर सब यथारीति चला तो, सूर्यास्त से पूर्व तीनों रथ आ कर श्रीमंदिर के सामने खड़े हो जाते हैं अगर विलंब हो ही गया, तो फिर अगले दिन प्रातः तीनों को सिंहद्वार के सामने पहुँचना पड़ता है सब का अपना-अपना दायित्व आकर्षण है । कुल मिला कर दयितापति के तत्वावधान में इस विराट यात्रा को सुचारू रूप से संपन्न करना है।
इतनी लंबी यात्रा ! फिर ठाकुरों को रथों से अवतारण कर श्रीमंदिर में पहंडी की जल्दी नहीं रहती । भक्तों के निमित्त बड़ दांड पर सोनावेश होना जरूरी है । श्रीमंदिर में तो साल में चार बार स्वर्णबेश सज्जित होते हैं । परंतु वहाँ सब उनके दर्शन नहीं कर सकते । ये सब दइतापति करते हैं
आपने देखा श्रीमंदिर से स्वयं ठाकुरजी को अपने सिंहासन से अवतरण करा श्रीगुंडिचा मंदिर जाते हैं । श्रीमहाप्रभु में कोई परिवर्तन नहीं । उनके दर्शन, उनकी दैनंदिन विधि-विधान सब यथावत चलता है बस, वहाँ पूजा ब्राह्मण करते हैं, यहाँ अपने पर वह दायित्व दैयतापति पर न्यस्त रहता है
यह श्रीमंदिर से श्रीगुंडिचा की यात्रा ही मूल भाषा से लक्ष्य भाषा की यात्रा हैं । इसमें विषय वस्तु प्राणवत है । इसमें मूल विग्रह को दूसरे मंदिर में यथावत स्थापित करना है मगर ठाकुरजी बड़े हठीले होते हैं । सांवरे सरकार कभी सहज आज जाते हैं । कभी कहीं अड़ जाते हैं टस से मस नहीं होते अनुवादक जाता है कि मूल विषय को ब्रह्म की तरह कितने आदर, स्नेह -ममता के साथ लाना होता है । तब वहाँ पूजा-अर्चन का आनन्द .. उत्साह और उत्सव प्राप्त होता है । अनुवादक अनुवाद करते समय इसी प्रक्रिया से गुजरता है और फिर वही आनन्द - उत्साह और उत्सव प्राप्त करता है । यह यात्रा अनुवादक के लिए किसी पवित्र यात्रा (रथयात्रा) की तरह होती है । वह उसमें पूरी तरह आस्था - विश्वास और समर्पण साथ डूब जाता है । मूल लेखक के साथ-साथ पूरी यात्रा संपन्न करता है । इसी प्रकार हम भाषान्तरण के विराट क्षेत्र में उभय भाषा और संस्कृति की दृष्टि से जाते हैं । पहले भाषा में क्या करते हैं इस पर विचार कर लें ।
1) पूर्ण पुनर्विन्यास -
एक भाषा में कही गई बात उसके भाव को दूसरी भाषा में व्यक्त करने होते हैं । वही सूचना देनी होती है ।
ध्यान में रहे कि मूल की अभिव्यंजना और शैली को महत्व दिया जाय ( जैसे व्यंग्यात्मक है, उपदेशात्मक है, विनयात्मक अभिव्यक्ति है ) यहाँ पर 'मूल पाठ' की बात ध्यान में रहती है यह नये पाठक के लिए बोधगम्य हो और अधिक से अधिक संप्रेषणीय हो इसलिए कहीं कुछ छोड़ता है तो कुछ जोड़ता है प्रसिद्ध अनुवाद विशेषज्ञ जुलियाना हाउस इसे परोक्ष 'अनुवाद' की श्रेणी में रखती है । इसमें जो पाठ बनकर आता है वह अनुवाद जैसा लगेगा ही नहीं । मौलिक का आनन्द देता है । इस कार्य में तीन विकल्प होते हैं :
ए) मूल के शब्द जैसे के तैसे लिपि बदल कर रख दिये जाते हैं-
School -
Office- आफिस
Sir - सर
बी) शब्दों का विश्लेषण करके अनुवाद -
Cardiologist - हृदयरोग विशेषज्ञ
Post Mortem -शव व्यवच्छेद करना
सी) मूल के विशेष पद के लिए अनुवाद भाषा में उपयुक्त अर्थ के साथवाला शब्द चुनना -
Lion's share -प्रमुख भाग
Head on Collission -
(डी) मूल के लिए नया शब्द गढ़ लेना -
प्रचलित धारणा हेतु एकदम नया शब्द देना पड़ता है
बसंतरा घट (बैसाख के महीने में तुलसी के पौधे के ऊपर एक छोटी-सी हांडी में छेद कर झुला दिया जाता है जिससे धीरे धीरे तुलसी के पौधे में पानी गिरता रहे।) ऐसा कई क्षेत्रों में होता है । कहीं नहीं । तो इसका अनुवादक क्या करें ? इसलिए ऐसे शब्दों को ज्यों का त्यों रख दिया जाता है यह कह कर 'बासंती घट' रखा गया ।
Radio -आकाशवाणी
Television-
ई) मूल को सहज करने कुछ और शब्द या शब्दांश जोड़ देना
Functional -
बड़दांड - जगन्नाथ मंदिर के सामने 'विशाल पथ'
एफ) कभी - कभी मूल भाषा की रूढ़ अभिव्यक्ति का अनुवाद संभव न हो, किसी प्रकार संप्रेषणीय उक्ति प्रस्तुत संभव न हो तो उसे छोड़ दिया जाता है ।
इस प्रकार हम देखते हैं अनुवाद कर्म में सबसे जटिल काम इसी स्तर पर होता है । कुछ लोग कहते हैं यहाँ अनुवादक परकाया प्रवेश करता है । परंतु 'मूल की कृति को आत्मा में प्रवेश कराना' ज्यादा उचित होगा अनुवादक कहीं नहीं जाता, वह तो मूल को आत्मस्थ करता है और फिर उसका पुनरुत्पादन कर देता है । इस कार्य में अनुवादक अपने भाषा ज्ञान का सहारा लेता है । संरचना प्रस्तुति में बड़ा कौशल प्रदर्शन करता है। यह मानसिक रूप में काफी श्रम की मांग करता है अनुवाद की अधिकांश भाषानुगत, संस्कृतिगत, परंपरागत, प्रचलन गत समस्यायें इसी स्तर पर उसके पांवों में रुकावट बनती हैं । परंतु अनुवादक विभिन्न उपाय अवलंबन कर रास्ता निकाल उनसे साहस के साथ जूझता है । हर कृति अपने ढंग की अनूठी चुनौती लेकर आती है । अनुवादक का अनुभव उस वक्त सामना करने में साहस प्रदान करता है । इस नये क्षेत्र में वह अपने कौशल -बल से आगे बढ़ता है । नई अभिव्यक्ति में वह नई रचना प्रस्तुत करता है । यहाँ शब्दों का प्रयोग ही नहीं पूरी भाषा प्रयोग के स्तर पर उसे कार्य करना होता है । अनुवादक पूरे भाषा क्षेत्र में पैंतरा मार कर नये के लिए प्रस्तुत होता है ।
"बस, इसे लेकर उसकी गिरस्ती, सारा कूड़ा-करकट । मगर यह कूड़ा उसे भला लगता है छान तले नाक-कान रौंधता घनाघना धूआँ उसे भला लगता है । क्योंकि सब उसका है, इसलिए ।
यह बहुत छोटा सा अंश महांती के महान उपन्यास 'परजा' के प्रारंभ में है ।
हिन्दी की वाक्य रचना है । परंतु यह किसी रूप में खड़ी बोली नहीं कह सकते । क्या जरूरत पड़ी ऐसी एक गैरस्टाण्डर्ड हिंदी डालने की ? अनुवादक ने पहचाना है कि 'परजा' ओड़िशा के घोर पहाड़ जंगलों की निवासी जाति है । उनकी भाषा, परंपरा, जीवन शैली ओड़िया जाति की 'मानक' नहीं कही जा सकती । इसके हिंदी रूपांतरण में गोपीनाथ जी ने शैली को और स्तर को सम्मान देते हुए गिरस्ती (गृहस्थी), घना(गाढ़ा), जैसै शब्द रखा । 'भला लगता' ऐसे क्रिया प्रयोग उनकी निरीहता और सरलता दर्शाने वाले पद हैं । सब उसकी संज्ञा कर्म क्रिया परंपरा से हट कर है । आज स्वयं विश्लेषण करने पर लगता है गोपीनाथ महांती ने उन अक्षर तक न जानने वाले समुदाय, को ओड़िया भाषा में प्रस्तुत करने का पहला प्रयास, किस प्रकार नयी ओड़िया में रचा उसी को ध्यान में रख कर अनुवाद में इस 1943 ई. की हिंदी शैली में वह जीवन प्रस्तुत कर रहा है, मानो उसे बहुत कच्ची हिंदी आती है । यह हिंदी कच्ची नहीं, परंतु हिंदी बोलियों का एक मिलाजुला रूप है जो इसके आजादी के ठीक पहले व्यवहृत होता था । परंतु इसमें संप्रेषण के स्तर पर कोई दिक्कत आज भी नहीं आती । अतः ऐसे भाषा स्वरूप को सहर्ष स्वीकृति दी गई है । अनुवाद के इस स्तर पर भाषा प्रयोग दर्शाने के लिए यह उदाहरण दिया गया है । हालांकि ग्रंथ में इसे पुनर्गठित किया गया है । इसकी चर्चा अगले अंश में की जा रही है दोनों क्रियाओं का समेकित रूप इस फाइनल अनुवाद में देखा जा सकता है अब अगले चरण में यह विचार किया जा रहा है ।
साहित्य अकादेमी ने आगे चल कर पुरस्कृत साहित्य का अनुवाद करने की महती योजना बनाई । परंतु इसमें बहुत कुछ श्रेष्ठ साहित्य अनूदित होने से रह जाता है। इसी परंपरा में एक महान उपन्यास 'छ: माण आठ गुण्ठ' (फकीरमोहन सेनापति) आता है । सच कहा जाये तो इसकी रचना प्रेमचंद से भी काफी पहले हो चुकी थी । लेकिन भाषागत बंधन के कारण वह केवल ओड़िशा भर में रह गया । अतः साहित्य एकादेमी का ध्यान ऐसी रचनाओं की ओर शुरू में ही चला गया । उस वक्त अनुवादकों की बहुत बड़ी कमी थी । जो आज तक चली आई है । अत: चाहते हुए भी वह पूरी नहीं हो पाई । 'छः माण आठ गुण्ठ' किस परिस्थिति में युगजित नवपुरी को अनुवाद हेतु दी गई यह कहना बड़ा कठिन हो रहा है । यहाँ तक कि लोग नवलपुरी जी के जीवन के बारे में भी कुछ नहीं बता पा रहे हैं उनकी भाषा ज्ञान संबंधी पृष्ठभूमि जान पाना कठिन है । इतना तो स्पष्ट है कि वे मुक्तिबोध के काफी अर्से तक सहयोगी रहे । वे जब ओड़िशा आये तो अनसूया प्रसाद पाठक से घनिष्ठता बनी । उसी में ओड़िया अनुवाद का गहरा मित्र सहयोगी के रूप में उपलब्ध हो गया । इसके अलावा यह भी कठिन है कि नवलपुरीजी ने ओड़िया किन परिस्थितियों में, कहाँ और किस स्तर तक सीखी। इनके कार्य का पुनःनिरीक्षण भी हुआ या नहीं, यह कहना कठिन है । परंतु उपन्यास के नाम को बदल जिस हिन्दी मुहावरे में डाला, उससे इतना तो स्पष्ट है कि नवलपुरीजी की हिन्दी पर पकड़ बहुत अच्छी थी । यही कारण है कि आगे चलकर गोपीनाथ महांति के कालजयी उपन्यास 'अमृत संतान' के अनुवाद का प्रश्न आया तो अकादेमी ने उन्हें ही अनुबंधित किया । परंतु अब नवलपुरीजी ने उपन्यास का नाम नहीं बदला । लेकिन 'अमृत संतान' और 'छ: बीघा जमीन' दोनों में धरती पुत्रों की कहानी है । ये भारतीय साहित्य में ग्राम जीवन के दो महाकाव्य ही हैं। भले ही रचना विधान औपन्यासिक शैली में हैं, और नवलपुरी जी को ऐसी कविताओं की गहरी पकड़ थी । उन्होंने दोनों उपन्यासों में जीवन की गहराई तक हिन्दी का सही मुहावरा चुना । दुर्भाग्य से आलोचकों की नजर नहीं पड़ी । लम्बे अरसे तक दोनों छपकर गोदामों में पड़े रहे । नामवरजी, विद्यानिवास मिश्र जी जैसे हिन्दी के मूर्धन्य विद्वानों ने इनका नोटिस लिया । तब जाकर इन दोनों को भारतीय साहित्य में कुछ स्थान मिला । दोनों कृतियाँ सलीके से पुनः मुद्रित होकर प्रकाश में आयी ।
पुनर्गठन :
अब तक हमने ज्यादातर विश्लेषण पाठ के पठन का किया। फिर पाठ के विश्लेषण का आयोजन किया । तब जाकर उसे भाषा के क्षेत्र से निकाल लक्ष्य भाषा में कौशल पूर्वक अवतरण किया । यहाँ भाषा का रूप चुना गया | मुहावरों कहावतों की खोज की गई एवं नई भाषा का चो 'इस्त्री कर' अथवा सिर्फ 'धो-साफ' कर अंतरण किया गया । इसमें हो सकता है कहीं खुरदरापन आ जाये । लक्ष्य भाषा का स्वभाव न पकड़ा हो । यह 'अनफिल्टर्ड स्टेज' में वहाँ मूल की कई बातें आ जाती हैं, उन पर अनुवादक की नजर रहती है । तब उसे तीसरे चरण में कुछ काम की जरूरत पड़ती है । विद्वानों ने इसे अनुवाद की विभिन्न स्तरों पर पुनर्व्यवस्था माना है.
यहाँ पहले 'व्याकरणिक पुनर्व्यवस्था देख लें' ओड़िया में (Negative) अथवा नकरात्मक शब्द अंत में आता है । जैसे-
'से गला नाहिं'
मुंए काम करि पारिबि नाहीं
मना करिबिनाहि ।
ऐते दिन केहि बंचिब नाहीं
से एते राशि मंजुर करबारे सक्षम नुहें ।
ऊपर के वाक्यों में पांच भिन्न-भिन्न प्रकार की नकारात्मक स्थितियाँ है । हिंदी व्याकरण व्यवस्था में इन्हें क्रिया से पूर्व रखना होगा । अनुवाद के बाद यह पुनर्गठन अत्यावश्यक है । अत: हिंदी रूप है :
वह नहीं गया ।
मैं यह काम नहीं कर सकूंगा ।
इनकार नहीं करूंगा ।
इतने दिन कोई नहीं जीता
वह इतनी राशि मंजूर नहीं कर सकता ।
वाक्य के पुनर्गठन की प्रक्रिया में लंबे और जटिल वाक्य को संक्षिप्त करना तो बहुत जरूरी होता है । अंग्रेजी में चार-पांच पंक्ति का वाक्य लिखना आम बात है । उसका हिंदी करते समय अंत से उठाकर शुरू में लाना पड़ता है और पूरी तरह पुनर्गठन करते हुए उसके एकाधिक वाक्य प्रस्तुत पड़ते हैं ओड़िया के माटी मटाल' उपन्यास का पहला वाक्य ही बीस लाइन का पूरा पेराग्राफ एक वाक्य है उसके आठ पैराग्राफ और लगभग चालीस वाक्य विभिन्न आकार के बनाने पड़े हैं इनमें गोपीनाथी महाकाव्यात्मक शैली तो नहीं रह सकी । वरन छोटे-छोटे वाक्यों में उस लय को पुनर्गठित कर उसे पुनः एक नई तान-भाव के साथ दिया गया है । परंतु न्यूनतम, , संशोधन और परिवर्तन से भी अनुवाद संभव है । यहाँ ‘ये पक्षी जिसका व्याकरण' में संकलित सारलादास की जगन्नाथ वंदना एक अंश उद्धृत कर रहे हैं -
जय नीलाचल नाथ अगति तारण ।
जय रमापति प्रभु मान उद्धारण ।
हे कमला कर मुख पांडव रक्षक
सो मुख दर्शन से पाप न रहे अंतिम ।
बड़े देवल में विराजते बज्रस्नेही
उड़ा रहे हैं पताका पतितपावनी ।
मैं पतित मेरी विनती सुनने में अक्षम,
हूँ प्रभु अजामिल से भी अधम ।
जिसे तार दिया कटाक्ष मात्र में प्रभु ( ये पक्षी जिसका व्याकरण, पृ. 19)
वैसे ही दृष्टि करें मुझ पर हे प्रभु ॥ यह अंश लेखक और प्रभु के बीच सीधा संवाद है । इसमें भाषा का वह आंतरिक अनगढ़, अधूरापन और अकाव्य रूप मिल रहा है । सारलादास की पंक्तियाँ गायक के लिए बहुत कुछ संभावनाएँ छोड़ देती हैं हिंदी में इतनी न हो तो भी गायक के लिए कुछ स्कोप बचा रहता है इसे शब्द गिनकर पूरा नहीं कर सकते अत: अनुवाद में उसे अधूरा पर बेमेल लगता है । वह गायक के लिए बचा है । वह अपने सुर-तान, गायकी से पाटता है । तब सारलादास को हिंदी में काव्यरूप में पढ़ा जा सकता है इस संकलन में लगभग चालीस भजन, जणाण, आरती, निवेदन आदि कविताएँ हैं । इनका रचनाकाल पांच सदियों तक व्याप्त है अतः इनके अनुवाद में छंद, यतिपात, भावाभिव्यंजना और शब्द संयोजन आदि अनेक बातें अनुवाद में रूकावट डालती हैं। ऐसे में सब छंद, अलंकार भाषा प्रभाव बदला है उनका निवेदन अक्षुण्ण रहे इस पर विशेष ध्यान रहा । भाषा से बढ़ कर भावशबलता का रूपांतरण कर रहे हैं । भाषा का अनुवाद कर नहीं सकते । भाव तो भाषा रूपी वाहन पर सवार हो कर चलता है । यहाँ हिंदी पर आरोहण कर उसका पुनर्गठन करते हुए इतना सफर तय किया गया है। ये कविताएँ अपने अपने युग का आत्मनिवेदन हैं । महाप्रभु के आगे विभिन्न भाव लेकर निवेदन कर रही हैं अतः हिंदी की धारा में अनूठा अटपटा या अनहोना रूप नहीं है । बहुत सहज भाव से कुछ आगे पीछे कर प्रस्तुत कर रहे हैं । अनुवाद का पुनर्गठन भाग इन कविताओं को हिंदी के लिए पठनीय बना रहा है । कोशिश रही है। कि मूल का अर्थ और अभिप्राय दोनों सीधे, प्रत्यक्ष और सहज भाव से व्यंजित हो रहे हैं मूल भाषा में भजन, जणाण, प्रार्थना .... वही अर्थ ग्रहण हो रहा है। पंक्तियों का अनुवाद यह निवेदन - आवेदन में समर्थ है । समतुल्य के विकल्पों की जरूरत ज्यादा नहीं पड़ती । पाठक इन्हें बुद्धि से नहीं, हृदय से ग्रहण करता है । सीधे हृदय का संपर्क करती हैं ।
परंतु दूसरी ओर फकीर मोहन सेनापति की भाषा एकदम भिन्न है वे कथानकों में हास्य-व्यंग्य पैदा करने के लिए तीक्ष्ण गुण वाले टेढ़े शब्द प्रयोग करते हैं । अतः अनूठा प्रयोग किये गए हैं । अनुवादक उनके आशय को ले कर हिंदी पुनर्गठन कर कैसे प्रस्तुत करता है, एक छोटा-सा उदाहरण दे रहे हैं -
“प्याज खा लेने के प्रायश्चित्त के रूप में श्याम ने तो ब्राह्मण भोजन कराया, पर मंगराज के घर की और चंपा को हाट भेज कर जो प्याज मंगाती हैं, उसका क्या होता है ? बातों के चक्कर में पड़कर हम यह मान गए कि चंपा प्याज मोल ले आती है । पर इतने से क्या होता है ? मोल तो लिया पर खाने का कौन-सा प्रमाण है ?" पलांड गुंजन चैव' को खाना ही तो मना किया है। मनु ने कि और कुछ ? मोल लेने से ही कोई पतित हो जाता है इसका विधान कहाँ है शास्त्र में ? भद्र घरों की महिलाओं के दोषादोष की आलोचना करने वाले निंदकों की बातों का उत्तर देने को हम रत्ती भर भी तैयार नहीं हैं ।" (छै बीघा जमीन - फकीर मोहन सेनापति अनुवादक युगजीत नवलपुरी सन् 1959) - -
भाषा का हिंदी में एकदम शुद्ध रूप है । परंतु फकीर मोहन की व्यंग्यात्मकता को भी नवलपुरी ने सुन्दर ढंग से बरकरार रखा इस अंश के अंतिम वाक्य में व्यंजित हो रहा है । इसका एक और स्पष्ट उदाहरण यहाँ देना समीचीन लग रहा है । अगले अंशों में व्यंग्य को किस प्रकार भाषा पुनर्गठित अंतर में तीखे भाव भर रहे हैं. -
"दोपहर को मंगराज चालान हुए। हाथों में हथकड़ी थी । चौकीदार और बरकंदाज घेरे चल रहे थे बीच में मंगराज सिर पर अंगोछा डाले मुँह नीचा किये चल रहे थे गांव के लोग यात्रा में निकली काली के जुलूस की तरह देख रहे थे । आगे आगे दारोगा था, पीछे-पीछे मुंशी । मंगराज की इस दुर्दशा को देखकर गांव का कोई आदमी व्याकुल हुआ था कि नहीं, यह ठीक-ठीक बताने में हम नितांत असमर्थ हैं ।” (छै बीघा जमीन फकीर मोहन सेनापति अनु. युगजीत नवलपुरी) -
यह अंश मंगराज के पतन का प्रारंभ सूचित कर रहा है । सेनापति का दृष्टिकोण यहाँ पर नवलपुरी ने हिंदी सिंटेक्स के लिहाज से पुनर्गठित कर सारा व्यंग्य, आक्रोश, संवेदना, सहानुभूति सबको सुरक्षित रखा है । यह महत्व की बात है । अनुवादक का यह गुण विशेष बता देता है । वरना महान कृति के साथ न्याय नहीं हो पाता । महान कृति में संरचना के स्तर पर भी ये बातें अंत: बाह्य होती हैं । उन सबको अनुवादक चुनौती की तरह लेकर सुरक्षित रखता है । नयी संरचना में स्थापित कर देता है । तभी वह अनुवाद में भी महानता के गुण प्रस्तुत कर सकती है । अन्यथा अनुवाद सतही हो कर कृति उपेक्षणीय बन जाती है ।
अब तक व्याकरणिक पुनर्गठन करते रहे यहाँ भाषा के रूप, आकार, सौन्दर्य, वैशिष्ट्य आदि को लेकर चर्चा एवं उदाहरण देते रहे । थोड़ा-सा उस कृति के अंतरतम में भी झांकें । यह पक्ष भाषा से हट कर भाव, विषयवस्तु अथवा अंतरात्मा से जुड़ा है । हिंदी -ओड़िया में इसे बहुत दूर का नहीं मानते । ओड़िया- गुजराती में दूरी ज्यादा है । उसी तरह हिंदी अंग्रेजी से भी हिंदी - हिब्रू या हिंदी - फ्रेंच में है । यहाँ संस्कृति पक्ष का अंतर संशय पैदा करता है । 'बंगाल में बच्चे खेलते हैं, मछली पकड़ने की गंध में उछलते हैं' अब इसे गुजराती में क्या कहें ? वहाँ के पाठक को मछली की गंध से उबकाई होने लगती है । पुनर्गठन की छूट देंगे तो वहाँ लड्डू बनने और उसकी महक की बात में उछलने का प्रसंग पुनर्गठ करेगा यह उसके अंत:करण में, अंतरात्मा में रह कर पुनर्गठित करता है । सब इस दृष्टि से सहमत नहीं शब्दांश अनुवाद में मछली का मछली चलेगा ।
परंतु 'मां रे ए पटकु आ' यहाँ ओड़िया में बेटी को स्नेहवश 'मां' कहा। आगे बेटे को 'बापा' भाई को 'नना' आदि संबोधन करते हैं यह संबोधन शैली हिंदी अनुवाद में सतर्कता के साथ ली जाती है । इसका कोश के साथ संबंध नहीं । शैली और आंतरिक अभिव्यक्ति मुख्य है । अत: हिंदी अनुवादक इन सब संबोधनों को सही परिप्रेक्ष्य में रख कर पुनर्गठित करता है.
'तुम' शब्द का प्रयोग उभय 'तुम' और 'आप' के लिए कर सकते हैं । परंतु हिंदी में आदर के लिए 'आप' होगा, कभी 'तुम' नहीं हो सकता । वैसे ही 'श्रद्धा' शब्द अनुजों के लिए प्रयुक्त होगा हिंदी अनुवाद में ऐसा अंतर नहीं होता । 'श्रद्धा' बड़े -छोटे सब के लिए प्रयुक्त होती है यहाँ पर उचित एवं संगत देखकर पुनर्गठन करने में ही अनुवादक की सचेतनता स्पष्ट होती है । वरना सारा प्रयत्न बेढंगा और बेतरतीब हो जायेगा अनुवादक का उद्देश्य कभी सफल नहीं हो सकेगा ।
इसी घटक में यह करना समीचीन है कि अनूदित अंश को सजाना संवारना होता है । उसे सहज और नैसर्गिक रूप प्रदान किया जाता है । अनुवादक को अब मूल का क्षेत्र छोड़ कर अनूदित भाषा-भाव के जगत में स्थापित करना है । यहीं पर आगा-पीछा सजाना -संवारना, जोड़ना, तोड़ना, सुलझाना पड़ता है । यहाँ पर कला पक्ष विशेष होता है । अनुवादक का कला कारीगरी का वैशिष्ट्य उभर कर कृति को विशेष स्थान प्रदान करता है । यहाँ के नियम बहुत कुछ अनुवादक अपने न नियमानुसार ही निर्धारित करता है । दूसरे शब्दों में अनुवादक का सृजनशील रचनाकार का दर्जा ही प्रक्रिया में मिल पाता है । यहीं जो छूट लेकर काम करता है न केवल उसकी रुचि वरन उसकी क्षमता सौन्दर्यप्रियता एवं भावविभोरता का भी स्तर खुल जाता है । अनुवादक को स्पष्टतः अपना पक्ष खोलना पड़ता है । सारे अवगुंठन उखड़ जाते हैं। सच कहें तो अनुवादक इस स्तर पर पारदर्शिता के जरिये मौलिक रचनाकार के नजदीक हो जाता है ।