अनुवाद पुनरीक्षण / विश्लेषण |Translation review / analysis

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अनुवाद पुनरीक्षण / विश्लेषण

अनुवाद पुनरीक्षण / विश्लेषण |Translation review / analysis



अनुवाद पुनरीक्षण / विश्लेषण :

 

अनुवादक अपने प्रवाह में तथा विभिन्न दबाव केअंतर्गत अनुवाद कार्य करता चलता है । उसका नियंत्रणदिशा संशोधन एवं हितैषी जो हैवह है पुनरीक्षक । अनुवादक यदि हृदय है तो पुनरीक्षक उसका विवेक बनता है । उसके चित्र की भ्रमित उड़ान कोहृदय के घोड़ों की अनियंत्रित दौड़ को पुनरीक्षक नियंत्रण करता है ।

 

वास्तव में देखा जाय तो पुनरीक्षक अनुवाद का संशोधनसंवर्धनपरिवर्धन करता है । बैंक में रुपये देने से पहले उन्हें दो बार गिन लेता है । कमी या त्रुटि रहे तो उसे सुधार लेता है यह 'तीसरी आँखका काम करता है । अनुवाद की दोनों आँख से कुछ छूट जाये तो अनुवादक की तीसरी आँख इसे पकड़ ले । यहाँ एकांउटेबिलिटी अनुवादक के साथ-साथ पुनरीक्षक पर भी आ जाती है

 

पहले कर्म पुरुष अनुवादक है और दूसरा उसे परिष्कार देने वाला कर्म पुरुष पुनरीक्षक होता है । यदि संभव हो तो तीसरा एक और कर्म पुरुष होता है : मूल्यांकक । वह मूल और अनुवाद का तुलनात्मक अध्ययन कर उचित-अनुचितग्राह्य अग्राह्य का निर्णय करता है । पुनरीक्षक निष्ठावानसमर्पित भाव और तटस्थ विचारयुक्त होना जरूरी है । मूल्यांकन की सबसे बड़ी आवश्यकता विषय और भाषा पर दक्षता है । जो सामने सामग्री हैसाधिकार उस पर निर्णय देने की क्षमता होनी चाहिए । यह कार्य करने हेतु उसका कद भी ऊंचा हो और काठी ठोस हो । वरना उसकी रचनात्मक आलोचना को अथवा परिवर्तन संबंधी दृष्टिकोण को अनुवादक स्वीकार ही नहीं करेगा । वह उपेक्षा करेगा या ठुकरा देगा अपने को अनुवादक कभी 'अकुशल कारीगरमान ही नहीं सकता । उसी तरह मूल्यांकन में भी यह भाव कतई न हो कि हर हाल में कहीं न कहीं त्रुटि निकाल कर अपने को विशेष प्रतिपादित करना है । अगर प्रस्तुत पाठ ग्राह्य है और अपनी दृष्टि से एक स्तर को छू रहा हैतो उससे छेड़छाड़ की जरूरत क्या है ?

 

एक पाठ के दो अनुवाद हो सकते हैं । अपर की दृष्टि को महत्व देना पड़ेगा । अपने को ही यह कह कर कि 'धरती का बीच यही हैचाहे जिधर माप लेंहमने तो ये खूंटा गाड़ दिया ।सर्वज्ञ का ढोल पीटने के लिए मूल्यांकन करने पर कठिनाई पैदा हो जाती है। मूल्यांकन को कस्टम अधिकारी कहा गया है जो अपनी आँख का इस्तेमाल एक्सरे मशीन की तरह करेगा कि विदेश से आये सामान को पारदर्शी जांच कर वारा-न्यारा कर दे ।

 

एक पाठ का अनुवाद करने के लिए अनुवादक कई तरह की पद्धतियाँ अपना सकता है । (जैसे 'हरि अनंत हरि कथा अनंताका उदाहरण दिया जाता है) इसमें किसी एक अनुवाद को अंतिम पाठ नहीं कहा जा सकता । श्रेष्ठता की कोई ऊंचाई नहीं हो सकती । एक अनुवाद को आधार बना मूल्यांकन दूसरा पाठ प्रस्तुत कर सकता है । 


त: पुनरीक्षण और पुनरीक्षक की सीमाएँ और शक्तियाँ स्पष्ट रहनी चाहिए ।

 

1. पुनरीक्षक को सबसे महत्वपूर्ण भाव पर दृष्टि निबद्ध करनी होगी । भाव की रक्षा हुई या नहीं अनुवाद में कहीं अनुवादक भावों की दृष्टि से स्वयं हावी होकर मूल के भावों को डाइल्यूट कर अनावश्यक छेड़छाड़ तो नहीं कर रहा वह अपने अहं के वशीभूत होकर दी गई 'तोड़-फोड़क्षमता दुरुपयोग न करने पाये। अनुवादक को भावों का संपादन करने की छूट प्राय: नहीं होती है ।

 

2. जो भाव उह्य रखा हैअनुवाद में उसे भी शब्द कौशल से उह्य रखने का प्रयास करना चाहिए यह मूल की मंशा होती है और इसमें वह साहित्यिक कुशलता का परिचय देता है ओड़िया में यह बहुधा देखा जाता है कि वक्ता वाक्यों में अपना लिंग स्पष्ट नहीं करता - पुरुष है या स्त्री । हिन्दी अनुवाद में इसे रखना लगभग असंभव है । परंतु पुनरीक्षक उसे कुछ राह बता सकता है यहाँ पुनरीक्षक 'ठीकनहीं करता, 'सटीकबनाने का मार्ग तलाशता है ।

 

3. मूल्यांकक को भाषा के स्तर पर गहरी परख होनी चाहिए। क्योंकि टी एल (Target Lan guage) में अनुवादक प्रायः अपनी रौ में बहक जाता है । अथवा सबसे बड़ा खतरा मूल के भाषाई ढांचे का होता है । उसकी शब्दावलीपदबंधवाक्य संरचनाशैलीगत वैशिष्ट्य से पहला संपर्क आता है व्यक्तिगत रूप में रुचि के अनुरूप उनके प्रेम में पड़ बहुत सी चीजें वह ग्रहण कर लेता है अनुवाद में वे शब्दपदवाक्य बिना छने हुए (Unfiltered) आ जाते हैं। टीएल में उनकी उपस्थिति पर अनुवादक उन सचेत नहीं रह पाता । (क्योंकि मूल की उन वस्तुओं से उसे प्रेम जो है) अत: पुनरीक्षक और मूल्यांकक दोनों इन प्रत्येक स्तर पर अपनी बेबाक टिप्पणी देनी होती है। यह सारा कार्य व्याकरणिक स्तर पर भाषाई ढांचे (Lan guage structure) को दुरुस्त करना कहा जा सकता है । यह सूक्ष्मस्तर (Microlevel) पर किया कार्य है ।

 

4. मूल्यांकक में वृहद् दृष्टि (Macrolevel) की भी जरूरत पड़ती है । एसएल की संस्कृति यहाँ अक्षुण्ण है या नहीं । मूल के परंपरागत मूल्यों की कहीं अनदेखी तो नहीं हो रही पुनरीक्षण में यह सरसरी निगाह डालने पर भी स्पष्ट हो जाता है। इस रिश्ते नातेछोटे-बड़े का व्यवहारपर्व-त्यौहारकुछ कर्मकांड (जैसे जन्मविवाहमरण) कुछ मान्यताओं (जैसे ईश्वर संबंधीआत्मापृथ्वीआकाशपुनर्जन्मआत्मा एवं चंद्रमा के लिंगप्राणआँख के वचन आदि मान्यताओं) के प्रति दृष्टि साफ होनी चाहिए । मूल शब्द का वचन अनुवाद में कैसे रूपांतरित होअगर मूल शब्द स्वयं अनुवाद स्वीकार है इस तरह की कुछ सर्वमान्य बातों का ध्यान रखना पुनरीक्षक के दायरे में आता है ।

 

5. संप्रेषणीयता पर पुनरीक्षक या मूल्यांकक की कड़ी नजर रहती है। आखिर पाठक तो अनुवाद ही पढ़ेगा मूल तक जाने का अवसर उसके पास शायद ही कभी आये । अत: टीएल की भाषा में जो सामग्री प्रस्तुत है वह अब टीएल की हैएसएल (source Language) की छत्रछाया न रहे । ऐसे में टीएल का पाठ संप्रेषणीय होना बहुत जरूरी है । पाठक तकजितना अधिक संप्रेषणीय होगाअनुवाद उतना ही सफल माना जाता है । इस दृष्टि से अनुवाद के प्रयासों को 'सान चढ़ाने' (To polish) को भी पुनरीक्षक या मूल्यांकक कर सकता है । यहाँ पुनरीक्षक के अपने खजाने में क्या हैइसे ध्यान में रखा जाये । संदेश और मूल की दृष्टि (Message and stance) दोनों को अनुवादक टीएल में लाता है पुनरीक्षक का काम यहाँ सर्वाधिक महत्व रखता है कि यह संदेश और यह दृष्टि टीएल के पाठक तक पहुँच जाये । इसमें आयी रुकावटों का पता लगा कर वह उन्हें जोड़-तोड़ कर समतल बना देता है अगर सांस्कृतिक अंतरंगता के उद्देश्य से अनुवाद किया गया है तब तो इसकी आवश्यकता और भी बढ़ जाती है ।

 

6. उपरोक्त दृष्टि से यह बात उभर कर आती है कि क्या हर पाठ का अनुवाद किया जाना चाहिए आज भी दयानंद सरस्वती के महान ग्रंथ के दो अध्यायों को किसी अनुवाद में नहीं जोड़ा जाता । सरकार द्वारा निषिद्ध सामग्री का तो वैसे भी अनुवाद कानूनन अपराध है । उसकी चर्चा नहीं कर रहे । कुछ लोगों की सोच ऐसी भी है - मैंने जो लिखा वह अपने पाठक के लिए है । अनुवाद कर हिन्दी

 

पाठक तक पहुँचे यह दूसरे स्तर की अथवा गौण स्तर की बात है । यह बात उनकी अपनी दृष्टि से ठीक है । परंतु साहित्य का संदेश और विषय वृहत्तर क्षेत्र में पहुँच कर अपनी पहचान दे । वास्तव में साहित्य अपने स्वार्थ के लिए नहींपर (चाहे वे अपने संबंधी हों या दूर देश के) समाज के लिए होता है । यह युगों से आदर्श माना गया है । अतः अनुवाद की आवश्यकता पर यहाँ विचार की जरूरत नहीं । परंतु एक बात स्पष्ट है - एक पाठ अपने क्षेत्रअपने समुदाय को संबोधित होता है । अब उसमें कई तरह के अनुभवउक्तियाँहास्यव्यंगकटुतावश आ जाती हैंपरिस्थिति जन्य कुछ कठोर प्रतिक्रियाएँ उस पाठ में मिल जाती हैं सांस्कृतिक संबंध दृढ़ कराते समय इनकी क्या उपयोगिता रह जाती है दूसरेहिन्दी पाठकों को उन प्रतिक्रियाओं को परोसने से क्या वह उद्देश्य साधित हो सकेगा यहाँ उदाहरणार्थ - मरहठिया ढंगमारवाड़ी या मानुषकिसी बंगाली का वक्तव्य 'ओड़िया एक भाषा नाय', किसी तेलुगू = की ओड़िया के प्रति व्यंग्यात्मक मुहावरायुक्त उक्तिछत्तीसगढ़ी के सरल व्यवहार पर विद्रूपभाव आरोप युक्त उक्ति.... ऐसे अनेक अवसर मिलते हैं । अनुवादक बहुधा निस्पृह रह अनुवाद करता जाता हैपुनरीक्षक या मूल्यांकन यहाँ पर संकेत कर सकता है। कुछ कटु उक्तियाँ अब अपना संदर्भ खो चुकी हैंकुछ में सामाजिक कटुता बढ़ने की संभावना रहती हैअनुवाद के माध्यम से उनका विस्तार न करना विज्ञता का परिचायक होगासांस्कृतिक संबद्धता में भी सहायक होगा । इस पर यहाँ कोई बंधा - बंधाया नियम अथवा मान्यता उपलब्ध नहीं है । यह मूल्यांकक के स्वविवेक की सबसे ज्यादा मांग करता है । सांस्कृतिक दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जिस पर मूल्यांककों या पुनरीक्षकों ने प्रायः ध्यान नहीं दिया है । पूरी अनुवाद प्रक्रिया पर यह किसी विशेष अंकुश की बात नहीं है । यहाँ कुछ उक्तियाँ अथवा प्रोक्तियाँ हैं संसार में कोई साहित्यकार घृणाद्वेषछींटाकसी अथवा दरार पैदा करना नहीं चाहता । मूल लेखन के समय में वे वचन या उक्ति सार्थक रही होंमहत्व रखती रही होंतो भी अब अनुवाद के समय उन्हें महत्व न देने पर मूल कृति की कोई हानि किसी दृष्टि से नहीं होती है । अतः अनुवाद का मूल लक्ष्य पाने के लिए अनुवादकपुनरीक्षक / मूल्यांकक (जहाँ जरूरत हो) को कुछ छूट देने पर विचार किया जाना चाहिये । संक्षेप में कह सकते हैं कि पुनरीक्षक पहले स्वयं में निम्न बातें देख लें : -

 

1. एसएल एवं टीएल में पूरा अधिकार है । 

2. अनुवाद के पुरीक्षण लायक धीरजनिष्ठा होनी चाहिए । 

3. उसमें तटस्थभाव (निरपेक्ष रूप में निर्णय दे सकने की क्षमता) होना चाहिए । वरना अतिवादी पक्ष-विपक्ष ) दृष्टि से अनुवाद के प्रति अन्याय कर देगा । 

4. शैली की बात आने पर पुनरीक्षक देखे कि अनुवादक की जगह मूल की शैली को वाधा दे रहा है या नहीं । 

5. पुनरीक्षक संशोधन एवं संपादक बनने की क्षमता रखता है ताकि उसे निखारे और भाषादि की दृष्टि से परिष्कृत करे । 

6. मूल की साहित्यिक बारीकियों की रक्षा होनी चाहिएउह्य रखने वाली बातों का खुलासा न कर तदनुरूप से उन्हें उह्य रखने का प्रयास करें । 

7 शब्द चयनव्याकरणिक स्तरवाक्य सौष्ठववाक्यों की अन्वितिअवतरणों की  संरचनाभाषा का भावानुकूलनविचार प्रवाहनभाव-प्रवण स्थितियों के संदर्भ में पुनरीक्षक में जागरूकता होनी चाहिए । 

8. भाषा विश्लेषण की क्षमता हो ताकि अनुवाद में भाषागत वैशिष्ट्यों की रक्षा संभव हुई या नहींइस पर दृष्टि रख सके । उसमें अगर कहीं अभिधात्मक प्रयोग हैंव्यंग्यार्थक उक्तियाँ हैंउन पर बारीकी से निगाह रखे वरना भाषा को अगर अनुवादक सपाट बना देता हैसूक्ष्म भाषा को अनुवाद में इकहरी बना डालता है तो फिर पुनरीक्षकों के हस्तक्षेप लायक स्थिति हो जाती है । 

9. अनूदित सामग्री की छायाशब्द या मुहावरों पर पड़ रही है तो पुनरीक्षक रसास्वादन में आने वाली वह वाधा दूर करने लायक हो । 

10. अगर अनुवादक एक विशेष लक्ष्य से अनुवाद कर रहा है (जैसे राष्ट्रीय संहिताआपसी भाईचाराअपनी मूल की अस्मिता की राष्ट्रीय मानचित्र में पहचान ) तो वहाँ पुनरीक्षकों को आवश्यक बाधक उक्तियोंअनुग्रह निथारने में पीछे नहीं हटना चाहिए । अगर अनुवाद में ऐसा अंश आ भी गया हो तो पुनरीक्षक अपने विवेक का प्रयोग कर उनमें उपलब्ध चुभनआंचखरास पर विशेष ध्यान दे सकता है । इससे अनुवादक का लक्ष्य पूरा होना ही सुनिश्चित होगा ।

 

वास्तव में अनुवादक के हाथ में चाबुक नहींकुम्हार के हाथों की तरह चाक पर गीली माटी संवारने की स्थिति होनी चाहिये इसके लिए पुनरीक्षक और अनुवादक में आपसी रिश्ता संहतिपूर्ण हो । वह यों ही उलट-पुलट कर उसे अपनी सांस्कृतिक दृष्टि प्रदान कर देता है तो यह जातीय हानि होगी । उलटे अगर (अडंगे) डालने की प्रवृत्ति अपना ले तो भी उसी तरह जातीय क्षति करेगा । ओड़िया उपन्यासों में बहुतों को पुनरक्षीक की कलम से गुजरने का सौभाग्य नहीं मिला । कुछ ऐसे हैं जो पुनरीक्षक की टेबुल पर बरस - दो बरस पड़े रहे । जो हो इन अतिवादी स्थितियों से अनुवाद का अहित होता है । अतः ऐसी उदारता पुनरीक्षक में होनी चाहिए ।

 

यह लेखकीय स्वीकृति भी उन सब के लिए जरूरी होती है । वैसे कथा प्रवाह बाधित न हो यह लेखक जरूर चाहेगा । मूल जैसे रचनाकार कोई होता है। कालांतर में अनुवादक दूसरा कोई होता है । फिर वह उसका पुनर्गठन कर कर लेता है । पर अंतिम चरण पुनरीक्षण कोई तीसरा करे तो ज्यादा अच्छा होता है । कई तो स्वयं मूल लेखक अनुवाद का पुनरीक्षण करता है । जहाँ तक कुछ छूटजाने का प्रश्न हैवह आसानी से पकड़ता है जहाँ अर्थान्तर हो जाता है वहाँ भी मूल पकड़ लेता है परंतु अनुवाद की भाषा पर टिप्पणी करते समय मूल उतना अधिक महत्वपूर्ण नहीं रहेगा । अनूदित कृति की भाषा मूल लेखक की भाषा कभी नहीं होती । अतः वह दक्षता लगभग नहीं मिलती । अनावश्यक हस्तक्षेप से अनुवाद का स्तर बदलने की संभावना रहती है । फिर भी अनुवाद में मूल का सहयोग किसी भी स्तर पर होसकारात्मक ही होता है । इसमें संदेह नहीं किया जा सकता पुनरीक्षण में भी मूल लेखक का लक्ष्य अनुवाद के स्तर को सुधारना ही होता है । परंतु कई बार अधिक स्नेह वश बंदरिया बच्चे को पेट से चिपा कर रखभागती दौड़ती है । ठीक है पर स्नेहवश पेट में भींच दे तो बंदरिया का दम घुट सकता है । यह अपने आप में एक आशंका बनी रहती है । अत: पुनरीक्षण हेतु किसी तीसरे निष्पक्ष व्यक्ति के पास भेजा जाता है बड़े-बड़े सरकारी गैरसरकारी संस्थान इस पर विशेष ध्यान देते हैं । बिना पुनरीक्षण करवायेवे उस से सकारात्मक टिप्पणी बिना बिलकुल नहीं छाप सकते । परंतु ऐसे सरकारी पुनरीक्षक प्रायः हलके स्तर पर इस काम को लेते हैं । अनुवाद में गहरे नहीं उतरते । फलतः यह काम अधूरा रह जाता है । यहाँ पश्चिमी चिंतकों का दृष्टिकोण भी उल्लेखनीय है । डरेडानायडा न्यूमार्कफोर्ड आदि इसको आवश्यक नहीं मानते वे समझते हैं कि पुनर्गठन के स्तर पर ही संशोधन पूरा जाता है जब कि भारतीय चिंतक इससे सहमत नहीं होते । वे पुनरीक्षण को आवश्यक मानते हैं । 

 

पुनरीक्षण का सबसे बड़ा गुण डाक्टर की तरह कृति से तो लगाव आंतरिकता से रखेगा । परंतु कृतिकार से निरपेक्ष होगा वह बेबाकी से उसको देखेगा । भाषाव्याकरणछंदअलंकारतुका लयध्वनि समता -समानता आदि के स्तर पर देखभाल करेगा । यहाँ पर उसकी दृष्टि आलोचक की तरह क्षीर विवेकवाली होगी । जो त्रुटि हैउसे देखकर स्पष्ट संकेत करता है परंतु भाग्यवश वह निर्मम अथवा भिन्नमतावलंबी हुआ तो पुनरीक्षण के बहाने वह क्षति कर सकता है । अत: सही व्यक्ति से पुनरीक्षण होना चाहिए । उसे कृति से लगाव होकृतिकार से नहीं । तभी न्याय कर सकेगा । अनुवाद के गुण-दोषों का विश्लेषण कर सही संकेत मिल सकेंगे । तब जाकर उसका पुनर्लेखन संभव होगा वह एक नई रचना स्वयं संपूर्ण होकर मूल की वाहिका बन सकेगी। 

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