तुलसीदास की भक्ति - भावना | Tulsidas Bhakti Bhavna

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तुलसीदास की भक्ति - भावना

तुलसीदास की भक्ति - भावना | Tulsidas Bhakti Bhavna
 

तुलसीदास की भक्ति - भावना प्रस्तावना (Introduction) 

हिन्दी साहित्य में तुलसीदास को राम भक्ति काव्य का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है। इनके द्वारा रचे 12 ग्रंथों को प्रमाणिक माना जाता है, जिनमें शामिल हैं- रामचरितमानस, रामलला नहछू, जानकी मंगल, दोहावली, गीतावली, श्रीकृष्ण गीतावली, विनय पत्रिका आदि। इसमें तुलसीदास द्वारा रचित 'रामचरितमानस - विश्वभर में अत्यंत लोकप्रिय है। इसमें दास्यभाव की भक्ति दिखती है। इसमें मर्यादा का प्रमुख स्थान है। राम का चरित्र ही मर्यादा पुरुषोत्तम का स्वरूप है। रामकाव्य में सर्वत्र मर्यादा का पालन करने का प्रयास किया गया है। राम के अतिरिक्त हनुमान, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न आदि प्रमुख भ्रातृ मर्यादा में बंधे हैं। रामकाव्य का दृष्टिकोण अत्यंत व्यापक है। यद्यपि तुलसीदास जी रामभक्त थे, किन्तु उन्होंने शिव, पार्वती, गणेश आदि देवताओं की भी स्तुतियां की हैं। उनके राम ने रामेश्वरम् में शिवलिंग की स्थापना की, सीता ने भी गौरी पूजन किया। तुलसी ने राम के मुख से कहलवाया है

 

'शिवद्रोही मम दास कहावा, सो नर मोहि सपनेहु नहिं भावा ।'

 

धार्मिक समन्वय के अतिरिक्त ज्ञान, भक्ति और कर्म का दार्शनिक समन्वय भी तुलसीदास के रामकाव्य में उपलब्ध है।

 

तुलसीदास की भक्ति भावना 

गोस्वामी तुलसीदास भक्तिकाल की सगुण भक्ति धारा के अन्तर्गत आने वाली रामकाव्य धारा के प्रतिनिधि कवि हैं। उन्होंने अपने सभी काव्य-ग्रन्थों में राम के प्रति अनन्य भक्ति भाव व्यक्त किया है, इसलिए उन्हें राम का एकनिष्ठ एवं अनन्य भक्त कहा गया है। वे चातक को प्रेम और भक्ति का परम आदर्श मानते हुए कहते हैं ।

 

एक भरोसो एक बल एक आस बिस्वास 

एक राम घनस्याम हित चातक तुलसीदास ॥ 

.

 

अपने इष्टदेव राम के प्रति उनके मन में अनन्य प्रेम, भक्ति-भाव, श्रद्धा, विश्वास एवं भरोसा व्याप्त है। श्रद्धा और विश्वास ही तुलसी की भक्ति के मेरुदण्ड हैं। रामचरितमानस एवं विनय पत्रिका- दोनों ही काव्य-ग्रन्थों में तुलसी की भक्ति भावना अभिव्यक्त हुई है। तुलसी की भक्ति दास्य भाव की भक्ति है। वे अपने प्रभु राम के प्रति पूर्ण समर्पित थे और राम को अपना स्वामी तथा स्वयं को राम का सेवक मानते थे। रामचरितमानस में वे स्पष्ट घोषणा करते हैं कि 'सेवक-सेव्य' भाव के बिना कोई व्यक्ति इस संसार सागर से तर नहीं सकता:

 

सेवक-सेव्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि ।

 

विनय पत्रिका में तुलसी की भक्ति पद्धति की अधिक स्पष्टता से अभिव्यक्ति हुई है। वे स्पष्ट घोषणा करते हैं : 


ब्रह्म तू है जीव हौं तू ठाकुर हौं चेरो । 

तात-मात गुरु सखा तू सब विधि हितु मेरो ॥ 


तुलसी की भक्ति में 'दैन्य' की प्रधानता है । इस दैन्य के कारण वे अपने इष्टदेव राम को महान एवं सर्वगुण सम्पन्न तथा स्वयं को तुच्छ, छोटा, खोटा और पापी मानते हैं। 'आत्म निवेदन' की इस प्रवृत्ति के कारण वे कहते हैं : 

"राम सौं बड़ो है कौन मोसो कौन छोटो

राम सौं खरो है कौन मोसो कौन खोटो ?"

 

तुलसी की भक्ति पद्धति में 'नवधा भक्ति' का पूर्ण स्वरूप दृष्टिगोचर होता है। नवधा भक्ति के अन्तर्गत श्रवण, कीर्तन, पाद सेवन, अर्चना, बन्दना, दास्य, नाम स्मरण और आत्म निवेदन आते हैं। तुलसी ने राम नाम की महिमा का प्रतिपादन स्थान-स्थान पर किया है। वे कहते हैं:

 

राम जपु राम जपु राम जपु बावरे 

घोर भव नीर निधि नाम निज नाव रे ॥ 


वे शक्तिशाली हैं, अत्यन्त शीलवान हैं और करोड़ों कामदेव से भी अधिक सौन्दर्य सम्पन्न हैं। इस प्रकार तुलसी के राम शक्ति, शील एवं सौन्दर्य के भण्डार हैं। वे सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं तथा ईश्वर (परमात्मा) रूप में अनादि, अविकारी, अजन्मा, परब्रह्म हैं।

 

तुलसी की भक्ति पद्धति में विनय की सातों भूमिकाएं दैन्य, मानमर्षता, भयदर्शना, भर्त्सना, आश्वासन, मनोराज्य एवं विचारणा का समावेश है।

 

दैन्य नामक प्रथम भूमिका में भक्त अपने को तुच्छ एवं प्रभु को महान मानते हुए प्रभु से प्रार्थना करता है कि वह अपने भक्त को शरण में ले ले। जब भक्त अभिमान शून्य होकर अपने इष्ट देव के समीप जाने का निश्चय करता है। तो उसे मानमर्षता कहा जाता है। जीव को भय दिखाकर प्रभु की शरण में जाने के लिए प्रेरित करना भयदर्शना है । यथाः

 

राम कहतु चलु राम कहत चलु राम कहत चलु भाई रे ।

 नांहि तौ भव बंगार में परिहै छूटन अति कठिनाई रे ॥

 

मन को डांट-डपटकर सही मार्ग पर लाने का प्रयास जब भक्त करता है तो उसे भर्त्सना' कहा जाता है। यथा

 

ऐसी मूढ़ता या मन की । 

परिहरि राम भगति सुर सरिता आस करत ओसकन की ।

 

हे प्रभु मेरे मन की यह ऐसी मूर्खता है कि क्या बताऊं? यह मूर्ख राम भक्ति रूपी गंगा नदी से अपनी प्यास न बुझाकर ओस चाटता फिर रहा है। सांसारिक विषय भोग रूपी ओस कणों से कहीं प्यास बुझती है ?

 

प्रभु के गुणों पर विश्वास करते हुए भक्त तुलसीदास अपने मन को जहां आश्वस्त करते दिखाई पड़ते हैं वहां आश्वासन नामक भूमिका है और जहां मन की कामनाओं की अभिव्यक्ति है वहां मनोराज्य नामक भूमिका दिखाई पड़ती है। यथाः

 

कबहुंकि हौं यह रहनि रहौंगो ? 

श्री रघुनाथ कृपालु कृपा तें संत स्वभाव गहौंगो। 

जया लाभ संतोष सदा काहू सौं कहु न चहौंगो ।

 

संसार के माया जाल की जटिलता दिखाकर संसार से विरक्त होकर जब कोई भक्त भक्ति भावना में लीन दिखाया जाता है, तब वहां विचारण नामक अन्तिम भूमिका होती है। विनय पत्रिका के निम्न पद में इसी भूमिका को देखा जा सकता है। यथाः

 

केसव कहि न जाइ का कहिए। 

देखत तब रचना विचित्र अति समुझि मनहिं मन रहिये 

सून्य भीति पर चित्र रंग नहिं तनु बिनु लिखा चितेरे । 

धोये मिटै न मरे भीति दुख पाइय यहि तनु हेरे 

 

तुलसी ने विनय-पत्रिका में अपने दैन्य, विषाद, विवशता, पीड़ा का निरूपण करने के साथ-साथ प्रभु राम के सामर्थ्य, प्रभुत्व एवं महानता का वर्णन किया है। सगुणोपासक मोक्ष प्राप्त नहीं करते, वे तो प्रभु से भक्ति की भावना करते हैं। संसार में उन्हें और कुछ नहीं चाहिए एकमात्र भक्ति ही उनका प्राप्य है:

 

अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहौं निरबान । 

जनम-जनम रति राम पद यह वरदान न आन ॥

 

तुलसी ने भक्ति की प्राप्ति के लिए सत्संग को महत्त्व दिया है। वे कहते हैं:


 बिनु सतसंग विवेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ॥

 

बिना सत्संग विवेक नहीं होता और बिना विवेक जाग्रत हुए भक्ति नहीं होती। सत्संग राम की कृपा से ही सुलभ हो पाता है। ज्ञान और वैराग्य को तुलसी भक्ति का साधन मानते हैं। रामचरितमानस के 'ज्ञान भक्ति' प्रसंग में वे भक्ति की श्रेष्ठता प्रतिपादित करते हैं । तुलसी ने भक्ति मार्ग को ज्ञान मार्ग की तुलना में सरल एवं सहज बताया है। तुलसी की भक्ति भावना में उन एकादश आसक्तियों को भी स्थान मिला है जिनका उल्लेख 'नारद भक्ति सूत्र' में किया गया है। इन आसक्तियों के नाम हैं-रूपासक्ति, कान्तासक्ति, तन्मयतासक्ति, परम विरहासक्ति, शरणागत, वत्सलता, गुण महात्म्यासक्ति, पूजासक्ति, स्मरणासक्ति, दास्यासक्ति, सख्यासक्ति, आत्मनिवेदनासक्ति । इनमें से कुछ के उदाहरण इस प्रकार हैं- काव्यासक्ति-निरखिनिरखि रघुवीर छवि बाढ़े प्रीति न थोरि ।

 

रूपासक्ति-

कोटि मनोज लजावनिहारे । 

सुमुखि कहहु को आहि तुम्हारे ॥ 

तन्मयतासक्ति - 

रामहिं देखि एक अनुरागे 

चितवत चले जाहिं मग लागे ॥

 

शरणागत वत्सलता 

है है कहा विभीषन की गति रही सोक भरि छाती।

 

तुलसी की भक्ति पद्धति में शरणागत के छः प्रकार भी उपलब्ध होते हैं जिनके नाम हैं- अनुकूल का संकल्प, प्रतिकूल का त्याग, गौप्तृत्व वरण, रक्षा का विश्वास, कारुण्य और आत्म निक्षेप । 

विनय पत्रिका के निम्न पद में तुलसी ने यह संकल्प व्यक्त किया है कि मेरी अब तक की आयु तो व्यर्थ में बीत गई किन्तु शेष आयु का मैं सदुपयोग करूँगा, राम के चरणों में मन-मधुकर को बसाऊँगाः 

अब लौं नसानी अब न नसैहौं । 

राम कृपा भव निसा सिरानी जागे फिरि न डसैहौं ।

 

यहां 'अनुकूल के प्रति संकल्प' नामक शरणागति का प्रकार व्यंजित है। इसी प्रकार जो बातें प्रभु से दूर ले जाती हैं, उनके त्याग का संकल्प ही प्रतिकूल का परित्याग है। तुलसी जैसे भक्त को प्रभु की शक्ति एवं सामर्थ्य पर पूरा विश्वास रहता है। वे जानते हैं कि प्रभु हर हाल में उनकी रक्षा करेंगे। इसे रक्षा का विश्वास कहा जाता है, यथाः

 

कौन की आस करै तुलसी जो पै राखिहै राम तो मारिहै को रे?

 

इस विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि तुलसी अप्रतिम भक्त हैं। उनकी भक्ति दास्य भाव की है जिसमें दैन्य की प्रधानता है उन्हें प्रभु राम की शक्ति एवं सामर्थ्य पर पूरा विश्वास है। वे राम के प्रति अटल श्रद्धा एवं परम विश्वास से युक्त हैं। वे संसार को त्यागकर प्रभु की शरण में जाने के लिए मन को बार-बार समझाते हैं । तुलसी की भक्ति पद्धति में राम के प्रति अनन्यता दिखाई पड़ती है । चातक को वे प्रेम और भक्ति का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण मानते हैं। उन्हें मुक्ति की आकांक्षा नहीं है । वे प्रभु से अद्वैत भाव के आकांक्षी नहीं हैं क्योंकि भक्ति के लिए द्वैत की आवश्यकता रहती है। वे सच्चे अर्थों में राम के परम भक्त कहे जा सकते हैं।

 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने तुलसी की भक्ति पद्धति पर अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है-

गोस्वामी जी की भक्ति पद्धति की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी सर्वांगपूर्णता। जीवन के किसी पक्ष को सर्वथा छोड़कर वह नहीं चलती है। सब पक्षों के साथ उसका सामंजस्य है। न उसका कर्म या धर्म से विरोध है, न ज्ञान से। धर्म तो उसका नित्य लक्षण है। तुलसी की भक्ति को धर्म और ज्ञान दोनों की रसानुभूति कह सकते हैं।"

 

सगुण भक्ति करने वाले लोग ईश्वर को भीतर और बाहर सर्वत्र मानकर उसकी छटा व्यक्त जगत के बीच देखते हैं। प्रेम के वशीभूत होकर भगवान कहीं से भी प्रकट हो सकते हैं, ऐसी उनकी मान्यता है। इसी से गोस्वामी जी कहते हैं:

 

पैज  परे प्रहलाद को प्रगटे प्रभु पाहन तें न हिए तें ।

 

तुलसी की भक्ति साधना गुह्य नहीं है और न वह केवल उच्च वर्ण तक सीमित हैं। ऊंच-नीच, छोटे-बड़े सब उस प्रभु की भक्ति के अधिकारी हैं क्योंकि वह 'ईश्वर' केवल प्रेम को पहचानता है :

 

रामहिं केवल प्रेम पियारा। जानि लेहु सो जाननि हारा ॥

 

भक्ति के लिए मन, वचन एवं कर्म की शुद्धता, सत्यता एवं निश्छलता चाहिए। तुलसी भक्ति मार्ग को ऐसा सीधा-सादा स्वाभाविक मार्ग बताते हैं जो सबके के लिए समान रूप से खुला है। इस पर न किसी का एकाधिकार है और न यह किसी के लिए प्रतिबन्धित है। भक्ति की चरम सीमा पर पहुंचने पर भी तुलसी ने भक्ति के लोक-पक्ष का त्याग नहीं किया था। आचार्य शुक्ल के अनुसार - "लोक संग्रह का भाव उनकी भक्ति का एक अंग था ।.. ... यही कारण है कि इनकी भक्ति रस भरी वाणी जैसी मंगलकारिणी मानी गई वैसी और किसी की नहीं ।"

 

तुलसीदास जी ने ज्ञान - भक्ति का विशद निरूपण रामचरितमानस में किया है। उत्तरकाण्ड में वे ज्ञानमार्ग को कृपाण की धार' के समान कठिन तथा भक्तिमार्ग को सहज, सरल एवं सुगम बताते हैं यद्यपि ईश्वर को दोनों मार्गों से पाया जा सकता है किन्तु भक्तिमार्ग अपनी सरलता एवं सुगमता के साथ अधिक लोकप्रिय है। तुलसी ने अपनी भक्ति पद्धति में इसी भक्तिमार्ग का प्रतिपादन किया है। उनकी भक्ति में एक ओर तो शास्त्रोक्त विधियों का पूर्ण समावेश है तो दूसरी ओर वह जनसाधारण में भी अपनी सरलता के कारण लोकप्रिय हुई है।

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