आदिकाल : अर्थ एवं स्वरूप
आदिकाल : अर्थ एवं स्वरूप
अब तक के अध्ययन के पश्चात आप भली-भांति समझ चुके हैं कि
हिन्दी साहित्य के आदिकाल का अर्थ साहित्य का प्रारंभिक काल ही है जिसे विभिन्न
विद्वानों के मत-मतांतर के बाद आदिकाल के रूप में स्वीकार किया जा चुका है, यथा
1. जार्ज ग्रियर्सन -
2. मिश्रबंधु -
3. हजारी प्रसाद द्विवेदी-आदिकाल
4.
5. महावरी प्रसाद द्विवेदी बीज - वपन काल
6.
7.
8.
9. हरिश्चन्द्र वर्मा -प्रारंभिक काल
आज हिन्दी साहित्य का काल विभाजन सर्वमान्य हो चुका है। अतः
आप भी एक बार पुनः दुहरा लीजिए
(क) आदिकाल - (दसवीं-चौदवीं शती)
(ख) पूर्वमध्यकाल -(चौदहवीं सत्रहवीं शती)
(ग) उत्तर मध्य काल - (सत्रहवीं - उन्नीसवीं शती)
(घ) आधुनिक काल - (उन्नीसवीं वर्तमान काल तक)
हिन्दी साहित्य के आदिकाल को यदि आप स्मरण कर पायें तो
स्वयं यह अनुभव करेंगे कि उस समय राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अस्थिरता थी। आदिकाल की राजनीतिक
अस्थिरता का सीधा प्रतिफलन वीरगाथाएं ही थी, क्योंकि भारतीय राजा आपस में लड़ते रहते थे विदेशी आक्रमण
हो रहे थे या भारतीय राजाओं द्वारा अपने प्रतिपक्षी को पदावनत कराने के लिए भारत
से वाह्य शासकों को आमंत्रण भी दिए जाते थे। देखा जाए तो भारतीय राजाओं का अधिकांश
समय युद्ध क्षेत्र में ही बीतता था।
यही नहीं, आप यह भी पायेंगे कि बड़े भारतीय राज्यों को अपनी वरिष्ठता
सिद्ध करने तथा प्रतिस्पर्धात्मक रूप में अपनी प्रशंसा और प्रशस्ति के विस्तार
हेतु शायद यही एकमात्र उपाय रह गया था। उस आकांक्षा को उनके दरबारी कवियों ने भली
प्रकार पहचाना था और देशी राजा दरबार में अनेकानेक अवसरों पर अपने आश्रय प्राप्त
कवियों से विरुदावली ( प्रशस्ति गायन) सुनने का सुख पाते थे। युद्धारंभ में उन्हीं
आश्रय प्राप्त राजाओं की अपने प्राण देकर अपने आश्रयदाता के प्राणों की रक्षा के
लिए प्रेरणा भी देते थे । पृथ्वीराज रासो में संयम्राव द्वारा घायल पृथ्वीराज की
प्राणरक्षार्थ हेतु अपने घायल अंगों को काट-काटकर गिद्धों को खिलाने का उल्लेख चंद
बरदाई द्वारा स्वामिभक्ति के व्यापक प्रभाव का संकेत करता है।
दरबारी कवि अथवा कवियों द्वारा जहां अपने आश्रयदाता राजाओं की वीरता और शौर्य का अतिश्योक्ति पूर्ण वर्णन भी व्यापक प्रवृत्ति थी वही वीर रस के संचरण के समानांतर श्रृंगार रस का व्यापक काव्यशास्त्रीय निरूपण करने और उस स्थिति में अपने-अपने आश्रयदाता के श्रृंगार उत्प्रेरण का चित्रण ही उन कवियों का एकमात्र उद्देश्य था। लेकिन इनमें कई ऐसी गाथाएं भी है, जहां आश्रय प्राप्त दरबारी कवि केवल लेखनी का ही कमाल नहीं दिखाते थे, युद्ध क्षेत्र में वे तलवार का हस्त कौशल भी दिखाने में पीछे नहीं थे।
आपको यह भी जान लेना क्यों उचित होगा कि इस काल को वीर गाथा काल का नाम देना क्यों अनुपयुक्त था ? पिछली इकाई के अध्ययन में आप यह जान चुके हैं कि इस काल विशेष में वीसलदेवरास और विजयपालरासो जैसे काव्य भी उपलब्ध होते हैं जिनका विषय वीर गाथा परक नहीं है, अपितु प्रेमगाथा काव्य परक है, विजयपाल रासो अभी तक अपूर्ण है तथा वीसलदेवरा विरहकाव्य है। जिसे अब्दुल रहमान कृत सन्देश रासक की परम्परा की प्रतिनिधि कृति सकता है। पिछली इकाई में आप यह भी पढ़ चुके हैं कि आदिकाल की आधार सामग्री में जहाँ अपभ्रंश भाषा की रचनाएं भी सम्मिलित हैं, वही विद्यापति पदावली की भाषा मैथिली है और अमीर खुसरो की भाषा खड़ी बोली हिन्दी का प्रारंभिक रूप तो लिए ही है, उसके साथ उक्त कालखण्ड में ढोला मारु रा दूहा जैसा लोककाव्य भी रचा गया था। यद्यपि उसे आदिकाल की आधार सामग्री के रूप में अग्राहय मान लिया गया था। आप पिछली इकाई में यह भी भली प्रकार जान चुके हैं कि उल्लिखित अपभ्रंश की कतिपय महत्वपूर्ण काव्य रचनाओं को भी इस काल के नाम निर्धारण के निमित्त ग्रहण किया जाना एक महत्त्वपूर्ण कदम है। जिनमें अपभ्रंश भाषा में रचित जैन संतों द्वारा चरित काव्य जसहर चरिउ, करकंडु चरिउ, णायकुमार चरित (नागकुमार चरित), पउम चरिउ (पद्म चरित), पाहुडा दोहा आदि प्रमुख हैं। इसी प्रकार आचार्य शुक्ल द्वारा धार्मिक अथव रचनाएं कहकर नाथो-सिद्धों और बौद्ध सम्प्रदायों की कृतियाँ भी स्वीकार नहीं की थी । कालान्तर में साहित्येतिहासकारों ने इन रचनाओं को तत्कालीन समाज की चित्तवृत्तियों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति माना है।