हिंदी साहित्य की आदिकालीन कविता का भाषिक विवेचन
अप्रभंश भाषा काव्य - पृष्ठभूमि
आप यह तो पहले ही जान चुके हैं कि हिंदी साहित्य और उसके इतिहास का आरंभ दसवीं शती से माना जाता है और कुछ विद्वान - चंद्रधर शर्मा गुलेरी और राहुल सांकृत्यायन उसे सातवीं-आठवीं शती से मानते हैं। इसका कारण यह है कि वे अपभ्रंश साहित्य की गणना भी हिंदी साहित्य के अंतर्गत ही करना चाहते हैं और अपभ्रंश के कवि स्वयंभू तथा पुष्पदंत को हिंदी का आरंभिक कवि मानते हैं।
अपभ्रंश भाषा भारतीय आर्य भाषा के विकास का परिणाम है जिसे हम निम्मांकित रूप में देख सकते हैं-
- छन्दस (वैदिक) संस्कृत
- प्राचीन भारतीय आर्यभाषा (1500 ई. पू0 500 ई. पू0)
- पालि प्राकृत अपभ्रंश
- मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा (500 ई. पू0-1000 ई.)
- आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएं (विभिन्न भारतीय भाषाएं )
वैदिक-संस्कृत जैसी प्राचीन भारतीय आर्यभाषाओं से ही पालि, प्राकृत और अपभ्रंश जैसी मध्ययुगीन भारतीय भाषाओं का विकास हुआ। अपभ्रंश ही आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की की जननी कही जा सकती है। हिंदी भी उन्हीं में से एक है, जिसे अपभ्रंश की परिनिष्ठित साहित्य सर्जना का दाय मिला है। आपको यह जानकर आश्चर्य होना स्वाभाविक है कि आठवीं-नवीं शती में अपभ्रंश साहित्यिक और परिनिष्ठित भाषा के रूप में राष्ट्रकूट राजाओं (बंगाल के पाल और मान्यखेट के) की शक्ति एवं संरक्षण का लाभ अपभ्रंश साहित्य को मिला। सरहपा, कण्हपा आदि सिद्धों, पुष्पदंत और स्वयंभू आदि भी राष्ट्रकूटों के संरक्षण में अपनी साहित्य-सर्जना में निमग्न रहे। आगे चलकर सोलंकी, चालुक्य ने अपभ्रंश काव्य को प्रोत्साहित किया। अपभ्रंश को हिंदी साहित्य में सम्मिलित करने के विषय में विद्वान एकमत नहीं है। कुछ विद्वान अपभ्रंश की ही पुरानी हिंदी कहते हैं। आप गुलेरी और राहुल के मन से परिचित हो चुके हैं फिर भी विवाद के लिए अवकाश तो हैं। आचार्य शुक्ल उसे प्राकृताभा हिंदी कहते हैं तथा पं.चंद्रधर शर्मा गुलेरी उसे पुरानी हिंदी का नाम देते हैं।
1 अपभ्रंश काव्य-धारा का स्वरूप
अपभ्रंश भाषा विषय में
इतना आप इतना तो जान चुके हैं कि वह हिंदी के आदिकालीन काव्य की पूर्व पीठिका बनी
। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जिस साहित्य को धार्मिक और संप्रदायपरक साहित्य मानकर
आदिकाल के साहित्य के अन्तर्गत स्वीकार नहीं किया था, वही सिद्धों, नाथों और जैन संतों का
साहित्य अपनी साहित्यिक मान्यताओं में भी परिगणित हो रहा है और वह आदिकाल की काव्य
सामग्री के रूप में अपभ्रंश भाषा ही लिखा गया था। संक्षिप्त में इसका उल्लेख किया
जा सकता है
सिद्ध साहित्य रूप-
सिद्ध
साहित्य बौद्ध धर्म की परम्परा का लिखित साहित्य है और वह एक ऐसे धार्मिक आन्दोलन
के रूप में तांत्रिक क्रियाओं में आस्था तथा मंत्रों की सिद्धि के प्रयास से
सिद्धों द्वारा जनभाषा में लिखित वास्तव में बौद्ध धर्म के वज्रयान के प्रचार करने
हेतु रचा गया। यह सिद्ध साहित्य ‘दोहाकोश' और 'चर्यापद' के रूप में उपलब्ध है। इस
सिद्ध साहित्य को अर्धमागधी अपभ्रंश के निकट माना जाता है जो अपभ्रंश और हिंदी के
संधिकाल की भाषा कही जा सकती है ।
नाथ साहित्य रूप -
नाथ संप्रदाय को सिद्धों
की परंपरा का ही विकसित रूप माना जाता है। नाथ साहित्य प्रवर्तक गोरखनाथ माने जाते
हैं। इस संप्रदाय के रचनाकारों ने सिद्ध साहित्य को अपभ्रंश जैसी भाषा में ही अधिक
पल्लवित किया था लेकिन उसे सिद्ध साधना से अलग और शैव मत सिद्धान्तों के स्तर पर
स्वीकार किया गया है और शिव को आदिनाथ कहा जाता है। इनके मार्ग में संयम तथा सदाचार
पर बल दिया गया है। नाथ संप्रदाय ने निवृत्ति मार्ग पर बल दिया है और गुरू को
मार्गदर्शक माना है। शिष्य विरागी होकर प्राण-साधना से कुंडलिनी जागृत कर मन को
अन्तर्मुखी बनाकर भीतर ही परमानंद प्राप्त करता है। नाथ पंथियों का काव्य सिद्ध
साहित्य की ही भांति सिद्धान्त प्रति पादनार्थ उपलब्ध होता है। इसमें प्रतीकात्मक
रूप में सूर्य और चंद के योग (मिलन) को हठयोग कहा जाता है। योगियों तत्कालीन
प्रचलित अपभ्रंश में ही अपनी रचनाएं प्रस्तुत की है, यथा-
जाणि अजाणि लेय बात तूं ले पिछाणि ।
चेले हो इआं लाभ होदूगा
गुरू होईआं हाणि ।।
जैन साहित्य -
आदिकाल के काव्य खण्ड में
आचार्य शुक्ल द्वारा अपनी गणना में अमान्य किया गया तीसरा धर्म साहित्य जैन-संतों
द्वारा लिखित था लेकिन समग्र साहित्य और धर्माविषयक सिद्धान्तों रूप में नहीं लिखा
गया। सामान्य जनता तक धर्म प्रचारर्थ साहित्य कथापरक और चरित्र व्याख्या के रूप
में भी उपलब्ध है। जैन मुनियों ने अपने धर्म का प्रचार लोकभाषा ( अपभ्रंश) में
किया था। इस प्रकार की रचनाएं रास, फागु, चरिउ जैसी विविध काव्यरूपों में प्राप्त होती हैं। स्वयंभू
रचित पउम चरिउ और अरिष्टनेमि चरित और पुष्पदंत रचित णायकुमार चरित और
त्रिसाटिव्महापुराण है यानी तेईस तीर्थकारों का महापुराण इन कोटियों की रचनाये
हैं। जैन काव्यों में इस प्रकार का लेखन जन या लोकभाषा यानी अपभ्रंश में किया गया
था।
2 अपभ्रंश और हिंदी साहित्य का अंत: सम्बन्ध
हिंदी के प्रारंभिक काल
का साहित्य विविधोन्मुखी और समृद्ध है। आप अपभ्रंश काव्य के विषय में इस इकाई में
बहुत कुछ जान चुके हैं कि जिन विषयों को कवि ने अपनी कविता का माध्यम बनाया है, उनमें पौराणिक कथाएं
(रामकाव्य, कृष्ण काव्य, तीर्थंकरों का
चरित्राख्यान), धार्मिक रूढियों और
बाह्याडम्बरों का विरोध ऐतिहासिक या लोकनायक का चरित्र (चरित्र) काव्य), शौर्य और श्रृंगार प्रमुख
है। इस परंपरा को हिंदी काव्य परंपरा ने और आगे बढ़ाया। हिंदी में वीरगाथात्मक
काव्य लिखे गए। जिनमें अपभ्रंश के चरित्रकाव्यों की झलक मिलती है। इसी प्रकार
सिद्धनाथ कवियों की वाणी संतकाव्य की पूर्व पीठिका ज्ञात होती है। हिंदी के काव्य
वीसलदेव रासो और ढोला मारू रा दूहा, संदेश रासक की परंपरा में ही आते हैं। आप यह भी जान चुके
हैं कि अपभ्रंश जहाँ हिदीं की जननी है, वही साहित्य सर्जना परक विविध विधाओं की प्रेरक भी है। जहाँ
अपभ्रंश का परिनिष्ठित साहित्यिक स्वरूप विविध रचनाओं के स्तर पर हिंदी का
मार्गदर्शक है, वहीं उसकी प्रकारन्तर से
साहित्य बनती लोककथा ने भी हिंदी साहित्य-सर्जना के लिए कवियों को नई भूमि प्रदान
की है।
अब आपके समक्ष यह रखना भी अधिक उपयुक्त होगा कि हिंदी भाषा का उद्गम लोकभाषा अपभ्रंश से ही हुआ है, जिसे विद्यापति तो देसिल बयना का नाम दे चुके थे कई विद्वानों ने भौगोलिक आधार पर भी अपभ्रंश के कई भेद किए है जैसे मागधी, अर्ध मागधी कालान्तर में शौरसेनी जिसके भी पूर्वी एवं पश्चिमी भेद किए गए हैं। फिर महाराष्ट्री, पैशाची, ब्राचड़ भी है। हिंदी का विकास शौरसेनी अपभ्रंश से माना जाता है। अब आप भली प्रकार समझ गए हैं कि अपभ्रंश और हिंदी के अंत: संबंध बहुत गहरे हैं।